मुद्रास्फीति के प्रभाव और मुद्रास्फीति को रोकने के उपाय || effects of inflation and measures to control inflation

मुद्रास्फीति के प्रभाव 

मुद्रास्फीति का किसी भी देश की अर्थव्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। मुद्रा-स्फीति से न केवल आर्थिक ढाँचा ही प्रभावित होता है वरन् सामाजिक, राजनैतिक एवं नैतिक मूल्य भी प्रभावित होते हैं।अतः मुद्रास्फीति के प्रभावों को दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- 

आर्थिक प्रभाव 

मुद्रास्फीति से जहाँ उत्पादक एवं व्यापारी वर्ग को लाभ होता है, वहीं उपभोक्ता एवं निश्चित आय वर्ग को हानि उठानी पड़ती है। प्रमुख आर्थिक प्रभाव अग्रलिखित हैं-

उत्पादक एवं व्यापारी वर्ग पर प्रभाव 

इस वर्ग के अन्तर्गत उद्योगपति, साहसी, थोक एवं फुटकर व्यापारी, खनिज कर्मी एवं कृषक आदि आते हैं। सामान्यत: स्फीति से इस वर्ग को लाभ होता है। इसके निम्नलिखित कारण है-

माँग में वृद्धि (Increase in Demand ): मुद्रा स्फीति के समय वस्तुओं की माँग में वृद्धि होती हैं अर्थात् निर्मित माल की शीघ्र बिक्री सम्भव होती है। इससे उत्पादक के निर्मित माल के स्टॉक को रखने, ब्याज चुकाने एवं विज्ञापन आदि से सम्बन्धित खर्चे कम हो जाते हैं। फलतः इनका लाभ बढ़ जाता है।

रोजगार में वृद्धि (Increase in Employment): मुद्रा-स्फीति के समय नये-नये उद्योग तथा व्यवसाय स्थापित होने से सभी काम चाहने वाले व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त हो जाता है। उत्पादन के अन्य साधन भी उत्पादन में लग जाते हैं।

बैंकिंग-विकास (Development of Banking): मुद्रा-स्फीति के समय बैंक जमाओं में वृद्धि के साथ-साथ साख का विस्तार होता है। अतः बैंकिंग का तेजी से विकास होता है।

आय में वृद्धि (Increase in Income): उत्पादन एवं रोजगार के अवसरों में वृद्धि से जन- साधारण की आय में वृद्धि होती है और इसके परिणामस्वरूप उनका जीवन स्तर ऊँचा उठता है। 

आर्थिक गतिशीलता (Economic Dynamism): मुद्रा स्फीति में नये-नये उद्योग-धन्धे स्थापित होते हैं और इसके परिणामस्वरूप उत्पत्ति के सभी साधनों का तुलनात्मक अच्छा उपयोग होने लगता है। इससे सम्पूर्ण आर्थिक ढाँचे में गतिशीलता आती है। 

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विनियोक्ता वर्ग पर प्रभाव 

विनियोक्ता वर्ग से आशय उस वर्ग से है जो उद्योग एवं व्यवसाय में पूँजी लगाकर आय प्राप्त करता है। विनियोक्ता वर्ग मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-

निश्चित आय वाले विनियोक्ता वर्ग पर प्रभाव (Effect on Investors of Fixed Income): इस कार्य में वे विनियोक्ता आते हैं, जिन्हें निश्चित आय प्राप्त होती है अर्थात् व्यवसाय की हानि या लाभ से इनका सम्बन्ध नहीं होता है। मुद्रा-स्फीति के समय इस वर्ग की मौदिक आय तो स्थिर रहती है किन्तु वास्तविक आय घट जाती है। निश्चित आय वाले वर्ग में मुख्यतः ऋण-पत्रों में पूँजी निवेश करने वाले या ब्याज पर पूँजी लगाने वाले लोग आते हैं। मुद्रा-स्फीति के समय इस वर्ग को हानि उठानी पड़ती है।

अनिश्चित आय वाले विनियोक्ता वर्ग पर प्रभाव (Effects on Investors of Uncertain Income): अनिश्चित आय वाले वर्ग का लाभ उद्योग की स्थिति के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है। मुद्रा-स्फीति के समय जब उद्योगों में उत्पादन बढ़ता है और उद्योगों की आय में वृद्धि होती है, तब इस वर्ग को बहुत लाभ होता है।

कृषकों पर प्रभाव 

मुद्रास्फीति के समय अन्य वस्तुओं के साथ-साथ कृषिगत वस्तुओं के मूल्य भी बढ़ते हैं। इससे कृषकों को लाभ होता है। इसके साथ ही कृषकों को उत्पादन में वृद्धि करने की प्रेरणा भी मिलती है किन्तु स्फीति काल में व्यापारियों एवं उद्योगपतियों की तुलना में कृषकों को कम लाभ मिलता है। इसके साथ ही बड़े कृषकों को तुलनात्मक अधिक लाभ मिलता है।

उपभोक्ता वर्ग पर प्रभाव 

स्फीतिकाल में सर्वाधिक कष्ट उपभोक्ता वर्ग को होता है। स्फीतिकाल में वस्तुओं एवं सेवाओं के रूप में वृद्धि होती है और उपभोक्ताओं को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पूर्व की तुलना में अधिक मुद्रा का त्याग करना पड़ता है, जबकि आय में उस अनुपात में वृद्धि नहीं हो पाती है। यही कारण है कि उपभोक्ताओं में मुद्रा-स्फीति से असन्तोष की भावना पैदा होती है।

बैंकिंग एवं बीमा कम्पनियों पर प्रभाव

मुद्रा-स्फीति के दौरान बैंकों तथा बीमा कम्पनियों को उद्योग एवं व्यवसाय के साथ-साथ अधिक काम मिलता है। इस प्रकार उनका विस्तार होता है और नई शाखाओं की स्थापना की जाती है।

श्रमिक वर्ग पर प्रभाव 

श्रमिक वर्ग को जहाँ मूल्य वृद्धि के कारण हानि होती है और उनकी वास्तविक मजदूरी कम हो जाती है, वहीं रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त होने से उन्हें लाभ भी होता है। सामान्यतः स्फीति के प्रारम्भिक काल में इस वर्ग को लाभ होता है क्योंकि मूल्य वृद्धि के साथ-साथ रोजगार में वृद्धि होने के कारण परिवार के सदस्यों को काम मिलता है। अतः उनकी आय में वृद्धि होती है किन्तु कुछ समय बाद उन्हें हानि होने लगती है क्योंकि मूल्य वृद्धि के अनुपात में मजदूरी नहीं बढ़ती। 

गैर-आर्थिक प्रभाव 

मुद्रा-स्फीति के गैर-आर्थिक प्रभाव निम्नलिखित हैं-

आर्थिक विषमताएँ 

स्फीति काल में धनी व्यक्ति अधिक धनी एवं निर्धन व्यक्ति अधिक निर्धन हो जाता है अर्थात् आर्थिक विषमताएँ बढ़ती है। इससे सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचा प्रभावित होता है।

राजनीतिक प्रभाव

मुद्रा-स्फीति के राजनैतिक प्रभाव भी होते हैं। प्रायः स्फीतिक काल में जन-असन्तोष बढ़ता है तथा उपभोक्ता एवं श्रमिक आन्दोलन होते हैं। सरकारी कर्मचारियों एवं वेतनभोगी वर्ग द्वारा हड़तालें एवं अन्य आन्दोलन किये जाते हैं। इससे स्थिति जटिल हो जाती है। स्फीति के कारण राजनीतिक सत्ताएँ भी बदल जाती है। 

करारोपण में वृद्धि 

मुद्रास्फीति के समय सरकार अतिरिक्त मुद्रा को चलन से कम करने या जनसाधारण की अतिरिक्त क्रय शक्ति को वापस लेने के उद्देश्य से करों में वृद्धि करती है। इससे सीमित आय वालों को अतिरिक्त भार सहन करना पड़ता है।

नैतिक प्रभाव

स्फीति काल में अधिक लाभ कमाने के प्रयास में व्यापारी वर्ग चोरबाजारी, मुनाफाखोरी एवं मिलावट जैसे- अनैतिक कार्य करने लगते हैं। सरकारी कर्मचारी एवं अधिकारी भी घूसखोरी करने लगते हैं। इससे सट्टेबाजों को भी प्रोत्साहन मिलता है। इस प्रकार मुद्रा-स्फीति काल में नैतिक पतन तेजी से होता है। 

वस्तु संग्रह

मुद्रा की क्रय शक्ति में कमी आने से जनसाधारण मुद्रा के स्थान पर वस्तुओं का संग्रह करने लगते हैं। इससे वस्तुओं के मूल्यों में और अधिक वृद्धि होने लगती है तथा सोना-चाँदी एवं मकान आदि में निवेश अच्छा माना जाता है। इससे समाज में जहाँ जमाखोरी की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है, वहीं बचतों का उत्पादक कार्यों में निवेश घटने लगता है।

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है- कि मुद्रा-स्फीति काल में उपभोक्ताओं, मजदूरों, ऋणदाताओं एवं छोटे निवेशकों को हानि होती है। इसके विपरीत, बड़े उद्योगपतियों, व्यापारियों, बड़े कृषकों एवं निवेशकर्ताओं को लाभ होता है। संक्षेप में, आर्थिक दृष्टि से स्फीति अन्यायपूर्ण होती है जो देश में असमानताओं को बढ़ावा देती है।

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मुद्रा-स्फीति को रोकने के उपाय 

स्फीति काल के प्रारम्भ में जहाँ व्यावसायिक क्षेत्रों में आशावादिता के कारण अधिकाधिक निवेशकों को प्रेरणा मिलती है, वहाँ एक सीमा के बाद अति निवेश एवं अति उत्पादन की स्थिति निर्मित हो जाती है। इससे आय, उत्पादन एवं रोजगार के स्तर में गिरावट आने लगती है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि सरकार को समय पर ही इसे प्रभावपूर्ण तरीकों से नियन्त्रित करना चाहिए। मुद्रा-स्फीति को नियन्त्रित करने वाले उपायों को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है-

मौदिक उपाय 

मौद्रिक उपायों से अभिप्राय उन तरीकों से है, जिनके द्वारा केन्द्रीय बैंक देश में मुद्रा एवं साख के विस्तार को नियन्त्रित करती है। प्रमुख मौद्रिक उपायों के प्रकार निम्नलिखित हैं-

बैंक दर में वृद्धि (Increase in Bank Rate): बैंक दर या पुनः कटौती दर से तात्पर्य उस दर से है, जिस दर पर केन्द्रीय बैंक प्रथम श्रेणी के बिलों की कटौती करती है तथा व्यापारिक बैंकों को ऋण देती है। मुद्रा स्फीति के समय केन्द्रीय बैंक ब्याज दर में वृद्धि करती है, जिसके कारण व्यापारी और उद्योगपति बैंकों से ऋण लेना पसन्द नहीं करते अर्थात् उन्हें महंगे ऋण प्राप्त होते हैं। इसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में साख मुद्रा नियन्त्रित होती है जिससे मुद्रा-स्फीति का दबाव कम होता है या मुद्रा स्फीति पर नियन्त्रण होता है।

उपभोक्ता ऋणों पर रोक (Control on Consumer Loans): मुद्रा-स्फीति को रोकने के लिए केन्द्रीय बैंक उपभोक्ता ऋणों पर रोक लगा देते हैं, जिससे कि उपभोक्ताओं का व्यय नियन्त्रित हो जाता है। दूसरे शब्दों में, जब व्यापारिक बैंक उपभोक्ता वस्तुओं, जैसे टी.बी., रेडियो, कार एवं मकान आदि के लिए ऋण देना बन्द कर देती है, तब बाजार में इन वस्तुओं की माँग कम हो जाती है और इसके परिणामस्वरूप इनके मूल्य गिरने लगते हैं।

नकद कोष अनुपात में वृद्धि (Increase in Cash Reserve Ratio): प्रत्येक बैंक की कुल जमाराशि का एक निश्चित भाग केन्द्रीय बैंक के पास जमा रखना पड़ता है। स्फीति काल में इस निधि में वृद्धि करने से बैंकों में नकद कोष कम हो जाते हैं जिससे उनकी साख निर्माण क्षमता कम हो जाती है और स्फीति नियन्त्रित होती है। 

खुले बाजार की क्रियाएँ (Open Market Operations): खुले बाजार की क्रियाओं से तात्पर्य केन्द्रीय बैंक द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों के क्रय-विक्रय से है। स्फीति काल में केन्द्रीय बैंक इन प्रतिभूतियों का विक्रय करती है और वित्तीय संस्थाएँ एवं व्यक्ति इन्हें क्रय करते हैं। इसके परिणामस्वरूप चलन में मुद्रा की मात्रा कम हो जाती है और व्यापारिक बैंकों के नकद कोषों में कमी के कारण उनकी साख निर्माण की क्षमता में कमी आ जाती है। इससे मुद्रास्फीति को नियन्त्रित करने में सहायता मिलती है।

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राजकोषीय उपाय 

राजकोषीय उपायों से तात्पर्य उन उपायों से है, जो सरकार के बजट या सार्वजनिक आय, व्यय एवं ऋणों से सम्बन्धित होते हैं। मुद्रा-स्फीति को नियन्त्रित करने वाले प्रमुख राजकोषीय उपाय निम्नलिखित हैं-

सन्तुलित बजट (Balanced Budget): मुद्रास्फीति काल में सरकार को घाटे की नीति को त्याग कर सन्तुलित बजट की नीति को अपनाना चाहिए। इससे मुद्रा को नियन्त्रित करने में महत्वपूर्ण सहायता मिलती है। करारोपण के द्वारा सरकार को अपनी आय को बढ़ाना चाहिए।

सार्वजनिक ऋण (Public Debt): सार्वजनिक ऋणों का अर्थ सरकार द्वारा जनता से ऋण लेना है। जब सरकार जनता से ऋण लेती है तब जनता तथा व्यापारिक बैंक आदि की अतिरिक्त क्रय शक्ति हस्तान्तरित होकर सरकार के पास पहुँच जाती है। इससे वस्तुओं तथा सेवाओं की कमी हो जाती है और परिणामस्वरूप उनके मूल्य गिरने लगते हैं। सार्वजनिक ऋण ऐच्छिक तथा अनिवार्य दोनों प्रकार के होते हैं।

कराधान (Taxation): मुद्रा-स्फीति को नियन्त्रित करने में कराधान भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। स्फीति काल में सामान्य जनता के पास व्यय के लिए पर्याप्त मात्रा में क्रय शक्ति तो होती है किन्तु बाजार में वस्तुओं का अभाव होता है। ऐसी स्थिति में यदि करारोपण किया जाता है तो जनता के पास क्रय शक्ति को घटाया जा सकता है। इसके लिए वर्तमान करों को दरों में वृद्धि, नवीन करों का लगाना तथा करों के ढाँचे में परिवर्तन करना आवश्यक होता है। इसके लिए प्रत्यक्ष करारोपण अधिक महत्वपूर्ण होता है।

सार्वजनिक व्यय पर नियन्त्रण (Control on Public Expenditure ): मुद्रास्फीति का एक मुख्य कारण सार्वजनिक तथा निजी व्ययों में तीव्र वृद्धि होना भी है। व्यय में वृद्धि के कारण अर्थव्यवस्था में प्रभावपूर्ण माँग बहुत अधिक बढ़ जाती है और परिणामस्वरूप वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्यों में वृद्धि होती है। अतः यह आवश्यक है कि सरकार के सार्वजनिक एवं निजी व्यय को प्रभावपूर्ण तरीकों को रोकना चाहिए। इसके अन्तर्गत प्रयास ऐसा होना चाहिए कि अनुत्पादक व्यय बहुत कम हो।

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अन्य उपाय

अन्य उपायों के अन्तर्गत निम्नलिखित उपाय आते हैं-

मुद्रा का अधिमूल्यन (Over-valuation of Currency): मुद्रा-स्फीति के समय विदेशी मुद्राओं के रूप में घरेलू मुद्रा का अधिमूल्यन भी किया जाना चाहिए। इससे जहाँ विदेशों से आयात प्रोत्साहित होते हैं वहीं निर्यात निरुत्साहित होते हैं। फलतः स्वदेशी बाजार में वस्तुओं एवं सेवाओं की उपलब्धि में वृद्धि होती है। 

विनियोग के स्वरूप में परिवर्तन (Change in Investment Pattern): स्फीति काल में विनियोग की मात्रा तथा आय दोनों में वृद्धि होती है किन्तु उत्पादन की तुलना में मौद्रिक आय में तेजी से वृद्धि होने पर मुद्रा-स्फीति तेजी से बहती है। अतः विनियोग के आकार तथा स्वरूप में इस प्रकार से परिवर्तन किया जाना चाहिए कि आय की तुलना में उत्पादन तेजी से बढ़े।

आय पर नियन्त्रण (Control in Income ): समाज के विभिन्न वर्गों की आय को नियन्त्रित करके भी मुद्रा-स्फीति को कम किया जाता है। आय पर नियन्त्रण अनेक प्रकार से लगाये जा सकते हैं; जैसे- मजदूरी, स्थिरीकरण,बोनस कम धन, लाभांश के भुगतान पर रोक आदि। इससे उद्योगपतियों, व्यापारियों तथा श्रमिकों को अतिरिक्त क्रय शक्ति प्राप्त नहीं होती है और मुद्रा-स्फीति को नियन्त्रित करने में सहायता भी मिलती है। 

उत्पादन में वृद्धि (Increase in Production): मुद्रा-स्फीति का एक प्रमुख कारण यह भी है कि आय की तुलना में उपभोक्ता वस्तुओं का कम होना। अतः स्फीति को नियन्त्रित करने के लिए यह आवश्यक है कि उत्पादन में तेजी से वृद्धि की जाये। इस हेतु सरकार को ऐसे उद्योगों को प्रोत्साहित करना चाहिए जिनमें कम पूँजीगत विनियोजक से अधिकतम उत्पादन सम्भव हो। इसके लिए कृषिगत उत्पादन पर आधारित उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से सम्बन्धित उपाय (Measures Related to International Trade): मुद्रा-स्फीति को रोकने के लिए आयातों में वृद्धि के साथ-साथ निर्यातों को नियन्त्रित किया जाता है, जिससे कि देश में वस्तुओं की पूर्ति को माँग के अनुरूप किया जा सके। भुगतान शेष के घाटे की पूर्ति के लिए उन्हीं वस्तुओं का निर्यात किया जाता है, जिनकी देश में अधिकता हो। इससे देश में वस्तुओं की उपलब्धता में वृद्धि होती है और परिणामस्वरूप मूल्यों में वृद्धि रुक जाती है।

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