भारत में शिक्षित बेरोजगारी और रोजगारी नीति

 भारत में शिक्षित बेरोजगारी

भारत में शिक्षित बेरोजगारी में क्रमशः वृद्धि हो रही है। अब न केवल कला एवं वाणिज्य संकाय के युवा बेरोजगार हैं वरन् तकनीकी क्षेत्र के स्नातक कम्प्यूटर में प्रशिक्षित युवा भी बेरोजगारी से पीड़ित हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि शिक्षित बेरोजगारी से आशय उस बेरोजगारी से है, जिसमें रोजगार चाहने वाला व्यक्ति शिक्षित है किन्तु उसे रोजगार प्राप्त नहीं हो रहा है।

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में शिक्षा का चहुँमुखी विस्तार हुआ है। विद्यालयों के साथ-साथ देश में सामान्य महाविद्यालयों, तकनीकी एवं चिकित्सा महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। इन सबके परिणामस्वरूप शिक्षित व्यक्तियों की संख्या में तेजी से विस्तार हुआ है। भारत में अभी भी लॉर्ड मैकाले द्वारा प्रारम्भ की गयी शिक्षा व्यवस्था विद्यमान है, जो देश में नौकरी चाहने वालों की संख्या में विस्तार कर रही है। शिक्षा प्रणाली में सैद्धान्तिक विषयों पर विशेष ध्यान दिया जाता है, जबकि व्यावहारिक ज्ञान उपेक्षित है। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा व्यवस्था रोजगारमूलक नहीं है, जिससे बेरोजगारी में तेजी से वृद्धि हो रही है।

देश में पिछले 64 वर्षों में औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र का विकास बहुत ही धीमी गति से हुआ है, जिसके कारण रोजगार के बहुत सीमित अवसरों में वृद्धि हुई है और जिसके परिणामस्वरूप बेरोजगारी में वृद्धि हुई है। शिक्षित बेरोजगारी में वृद्धि का एक प्रमुख कारण देश में तकनीकी प्रशिक्षण संस्थाओं की अपर्याप्त संख्या का होना है। देश में औद्योगिक क्षेत्र में विकास के अनुसार युवाओं को प्रशिक्षण प्राप्त नहीं होता है, जिससे उन्हें उपयुक्त रोजगार के अवसर प्राप्त नहीं होते हैं। इसके अतिरिक्त भारत में शिक्षित युवा वर्ग जोखिम उठाकर स्वरोजगार में रुचि नहीं लेता वरन् सरकारी एवं गैर-सरकारी कार्यालय में नौकरी प्राप्त करने में लगा रहता है। इसके परिणामस्वरूप ही शिक्षित बेरोजगारी में क्रमशः वृद्धि हो रही है।

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रोजगारी नीति

प्रारम्भ की तीन पंचवर्षीय योजनाओं में रोजगार वृद्धि के लिये सरकार ने कोई प्रत्यक्ष कदम नहीं उठाये। द्वितीय अथवा तृतीय योजनाओं में अनेक पूँजी प्रधान उद्योगों का विकास किया गया। परिणामस्वरूप तृतीय योजना के अन्त में बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप धारण करना आरम्भ कर दिया। 

चतुर्थ व विशेष रूप से पंचम् एवं छठी योजना में अनेक उपायों की व्यवस्था की गयी है और इस समस्या पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया। 

सातवीं योजना में रोजगार उत्पन्न करने के लिये कृषि क्षेत्र के महत्व को स्वीकारा गया परन्तु यह क्षेत्र सम्पूर्ण बेरोजगारी को दूर नहीं कर सका। अतः ग्रामीण विकास विशेष रूप से निर्माणी कार्यों के रूप में ग्रामीण पूँजी निर्माण की बात कही गयी।

आठवीं योजना व नौवीं योजना में रोजगार सृजन एक मुख्य उद्देश्य था और यह स्वीकार किया गया कि रोजगार के लिये उत्पादन उन क्षेत्रों में बढ़ाना चाहिये जिनकी रोजगार सृजन की क्षमता काफी है। 

नौवीं योजना में अर्थपूर्ण रोजगार के पर्याप्त अवसरों को पैदा करने तथा गरीबी उन्मूलन के लिये कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों के विकास को प्राथमिकता दी गई।

दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007) में विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार वृद्धि की काफी उत्साहवर्द्धक सम्भावनाएँ व्यक्त की गई। इससे विदित होता है कि वर्ष 2007 तक देश में कृषि और सम्बन्धित क्षेत्र में कुल रोजगार सृजन का 51.09 प्रतिशत भाग उपलब्ध हुआ जिसके अन्तर्गत कुल 20.05 करोड़ लोगों को रोजगार मिला। विनिर्माण क्षेत्र हमारा दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र होगा जिसमें दसवीं योजना के अन्तर्गत 5.37 करोड़ लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ। अन्य सभी क्षेत्रों को मिलाकर इस प्रकार वर्ष 2007 तक कुल 39.23 करोड़ लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ।

ग्यारहवीं योजना (2007-12 ) इस योजना का एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि इस योजना में उच्च गुणवत्ता वाले रोजगार के सृजन का लक्ष्य रखा गया। यह योजना इस सिद्धान्त पर आधारित थी कि न केवल आप तथा जीवन स्तर बढ़ाने के लिये बल्कि रोजगार के अतिरिक्त अवसरों के सृजन के लिये भी उच्च आर्थिक विकास की दर आवश्यक है। ग्यारहवाँ योजना के अनुसार, हमें न केवल उन लोगों को गैर-कृषि कार्य के अवसर मुहैया कराने की आवश्यकता है जो कृषि कार्य छोड़ देते हैं किन्तु हमें संगठित क्षेत्र में गुणवत्तापूर्ण रोजगारों का सृजन करने की भी आवश्यकता है।

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