बेरोजगारी के दुष्परिणाम
बेरोजगारी के प्रमुख दुष्परिणाम निम्नलिखित है-
सांस्कृतिक दोष
सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी बेरोजगारी की समस्या विकराल है, जब मनुष्य की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं होते, तो उसका मानसिक एवं सांस्कृतिक विकास नहीं हो पाता। विश्व के केवल उन्हीं क्षेत्रों में सांस्कृतिक विकास हुआ है एवं हो रहा है, जहाँ के निवासी पूरी तरह से रोजगार में संलग्न हैं।
आर्थिक दोष
आर्थिक दृष्टि से बेरोजगारी एक बड़ा अभिशाप है। बेरोजगारी से आशय कार्य न मिलने से है। जो व्यक्ति अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की सन्तुष्टि नहीं कर सकता, उसका जीवन स्तर स्वाभाविक रूप से गिर जाता है। जीवन स्तर गिरने से उसके स्वास्थ्य तथा कार्यक्षमता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।
राजनैतिक दोष
राजनैतिक दृष्टि से भी बेरोजगारी की समस्या उतनी ही भयंकर है, जितनी कि आर्थिक अथवा सामाजिक दृष्टिकोण से जो राष्ट्र आर्थिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से सुदृढ़ नहीं होगा, वह राजनैतिक दृष्टिकोण से भी दृढ़ नहीं कहा जा सकता। आर्थिक दशा शिथिल होने से राष्ट्र में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित नहीं की जा सकती, फलतः राष्ट्र के शासन में स्थिरता नहीं आ सकती एवं मन में संघर्ष की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। राजनैतिक दशा तभी श्रेष्ठ कही जा सकती है, जब वहाँ की आर्थिक दशा भी सुदृढ़ हो एवं आर्थिक दशा की सुदृढ़ता के लिए पूर्ण रोजगार की दिशाएँ विद्यमान हों।
सामाजिक दोष
यह कहावत प्रचलित है कि "खाली मस्तिष्क शैतान की कार्यशाला बन जाता है।" परिणामस्वरूप बेरोजगार व्यक्ति धैर्य खोकर समाज में अनेक प्रकार के खराब कार्य करने लगता है; जैसे-मदिरापान, चोरी, डकैती आदि बेरोजगारी से आवश्यक शक्तियों का इतना ह्रास होता है कि जिसका माप मुद्रा में नहीं किया जा सकता। कार्य की खोज वास्तविक कार्य से अधिक थकाने वाली होती है। इसके अतिरिक्त बेरोजगारी से उत्पन्न निम्न जीवन-स्तर के कारण अपर्याप्त भोजन से माता तथा बालकों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और वे राष्ट्र के सामाजिक विकास में समुचित योगदान नहीं दे पाते।
नैतिक दोष
नैतिक दृष्टि से बेरोजगारी की समस्या अत्यन्त चिन्ताजनक है। रोजगाररत व्यक्ति ही अपने नैतिक स्तर को ऊँचा रख सकता है। बेरोजगार व्यक्ति अनैतिक कार्यों को भी बिना संकोच के कर सकता है। यदि हम समाज से वेश्यावृत्ति, शराबखोरी, घूसखोरी, जुआ आदि कुप्रवृत्तियों को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार देने के उपाय ढूँढ़ने होंगे।
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बेरोजगारी को नियन्त्रित करने के सुझाव
भारत में बेरोजगारी के अनेक कारण है। इसके साथ ही यह अनेक रूपों में विद्यमान है; जैसे- पूर्ण- बेरोजगारी, अल्प-बेरोजगारी, अदृश्य बेरोजगारी आदि। फलतः इस समस्या की कोई एक रामबाण औषधि नहीं है। फिर भी इस समस्या के निवारण के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-
श्रम-गहन तकनीकी को अपनाना
भारत में श्रम का आधिक्य एवं पूँजी की कमी है। अतः यह आवश्यक है कि महत्वपूर्ण उद्योगों, जैसे- रक्षा, रासायनिक, शक्ति उत्पादन, उर्वरक, पेट्रोकेमिकल्स, निर्यात आधारित उद्योग आदि को छोड़कर शेष सभी में श्रम-गहन तकनीकी का उपयोग किया जाना चाहिए किन्तु अन्य क्षेत्रों में श्रम-गहन तकनीकी को अपनाने हेतु ठोस नीति या रीति बनायी जानी चाहिए।
छोटे उद्योगों को प्रोत्साहन
प्रायः यह कहा जाता है कि भारत में उद्यमिता की कमी है और इसी कारण देश में पर्याप्त मात्रा में उद्योगों का विकास नहीं हुआ। अतः यह आवश्यक है कि स्व-रोजगार की विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत अति लघु तथा लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जाये। इसके लिए उन्हें उदारता से वित्त, तकनीकी प्रशिक्षण, कच्चा माल, बुनियादी संरचनात्मक सुविधाएँ, विक्रय में सहयोग आदि प्रदान किया जाये।
उत्पादन के ढाँचे में परिवर्तन
अनेक वस्तुओं का उत्पादन जहाँ मशीनों की सहायता से अच्छा होता है, वहीं अनेक वस्तुएँ ऐसी भी हैं, जिन्हें श्रमिकों की सहायता से ही उत्पादित किया जाता है; जैसे-सिले हुए वस्त्र, कृषि उत्पादन आदि। अतः उत्पादन के ढाँचे में परिवर्तन करके भी रोजगार के अवसरों में वृद्धि की जा सकती है।
विकेन्द्रीकरण
विकास की प्रक्रिया में उद्योगों का केन्द्रीकरण कुछ स्थान विशेष पर ही होता है, जिससे क्षेत्रीय असन्तुलन पैदा होता है, इसके साथ ही पिछड़े क्षेत्रों की कार्यशील जनसंख्या लाभप्रद रोजगार की खोज में इन औद्योगिक केन्द्रों में जाकर बसने लगती है। इससे नगरीकरण की समस्याएँ, जैसे- गन्दी बस्तियाँ, प्रदूषण, आवास, परिवहन, जल संकट आदि उत्पन्न होती हैं। अतः यह आवश्यक है कि स्थानीय संसाधनों के आधार पर उद्योग-धन्धों का विकेन्द्रीकरण किया जाये। इससे रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि होगी।
विद्यमान क्षमता का उपयोग
भारत में अनेक उद्योग- धन्धे ऐसे हैं, जो कि इनकी विद्यमान क्षमता का आधा उपयोग कर रहे हैं। इसके कई कारण हैं; जैसे- विद्युत की कमी, जल संकट, कच्चे माल का अभाव, यातायात के साधनों का पिछड़ापन आदि। यदि इन कठिनाइयों को दूर कर दिया जाता है तो उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि होगी।
बचत एवं विनियोग की ऊँची दर
बचत - विनियोग एवं रोजगार का प्रत्यक्ष सम्बन्ध है अर्थात् बचत-विनियोग में वृद्धि होने से सामान्यतः रोजगार के अवसरों में वृद्धि होती हैं।
जनशक्ति नियोजन की आवश्यकता
तीव्र आर्थिक विकास एवं सामाजिक कल्याण के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षित एवं कुशल जनशक्ति के नियोजन तथा उपभोग पर समुचित ध्यान दिया जाये। यदि शिक्षित एवं कुशल जनशक्ति की पूर्ति अर्थव्यवस्था में उत्पन्न माँग के अनुसार होती रहती है तो जनशक्ति एवं समाज दोनों को लाभ पहुँचता है।
राजकोषीय नीति
सरकार की कर नीति, सार्वजनिक ऋण नीति को भी युक्तियुक्त बनाकर विनियोग एवं रोजगार में वृद्धि की जा सकती है। उदार कर नीति उद्योगों के प्रसार के लिए आवश्यक है। प्रयास ऐसा होना चाहिए कि करों से विनियोग एवं बचत में वृद्धि हो, उत्पादन में प्रेरणा मिले एवं निर्यात व्यापार का विस्तार हो। छोटे उद्योगों एवं श्रम गहन तकनीकी को अपनाने वाले उद्योगों को करों में राहत प्रदान करके प्रोत्साहित किया जा सकता है।
जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण
भारत में बेरोजगारी का मूल कारण तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या है। सन् 1981 के जनगणना प्रतिवेदन प्रस्तुत करते समय भारत के जनगणना कमिश्नर ने कड़े शब्दों में यह चेतावनी दी थी कि देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के अनुपात में हमारे निर्धारित उत्पादन लक्ष्य बहुत ही पर्याप्त हैं। निःसन्देह यदि हम इस वृद्धि पर अंकुश नहीं लगाते तो हमारी किसी भी आर्थिक योजना द्वारा जीवन स्तर में उन्नति नहीं हो सकती। भारत में श्रमशक्ति में प्रतिवर्ष 60 लाख व्यक्तियों की तीव्र गति से वृद्धि हो रही है। इस वृद्धि को रोकने के लिए जनसंख्या की वृद्धि पर नियन्त्रण लगाना आवश्यक है।
गहन कृषि विकास
भारत में अदृश्य एवं अल्प-बेरोजगारी को दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि कृषि का तेजी से विकास किया जाये। अभी तक दो-तिहाई कृषि भूमि पर वर्ष-भर में केवल एक फसल पैदा की जाती है, जिससे कृषकों एवं भूमिहीन श्रमिकों को वर्ष भर में केवल 6 माह का ही रोजगार प्राप्त होता है। गहन कृषि विकास से जहाँ कृषि में लगे हुए लोगों को वर्षभर रोजगार प्राप्त होगा, वहीं उत्पादन, निर्यात व्यापार एवं आय में वृद्धि होने से अनेक क्षेत्रों में रोजगार के नये अवसर पैदा होंगे।
मौद्रिक नीति
राजकोषीय नीति के साथ-साथ मौद्रिक नीति को भी रोजगारमूलक बनाया जाना चाहिए। श्रम-प्रधान उद्योगों को कम ब्याज दर पर ऋण एवं अन्य सहायता प्रदान की जानी चाहिए। इसके साथ ही सार्वजनिक व्यय के द्वारा उपरिव्यय सुविधाओं में विस्तार करके औद्योगिक विकास का वातावरण निर्मित किया जाना चाहिए।
अन्य सुझाव
इसके अन्य सुझावों में प्रमुख सुझाव निम्नांकित हैं-
(1) शिक्षित बेरोजगारी को दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा प्रणाली विकास के अनुरूप हो अर्थात् औद्योगिक माँग के अनुसार शिक्षित एवं कुशल जनशक्ति की पूर्ति की जाये।
(2) श्रम की माँग तथा पूर्ति को सन्तुलित करने के लिए यह आवश्यक है कि श्रम की गतिशीलता में वृद्धि की जाये।
(3) जिन क्षेत्रों में बेरोजगारी की जटिल समस्या विद्यमान है, वहाँ पर रोजगार की विशिष्ट योजनाएँ प्रारम्भ की जानी चाहिए।