वंशानुक्रम व वातावरण का अर्थ, परिभाषा, प्रक्रिया, महत्व

मानव का विकास अनेक कारकों द्वारा होता है। इन कारकों में दो कारक प्रमुख हैं- जैविक एवं सामाजिक । जैविक विकास का दायित्व माता-पिता पर होता है और सामाजिक विकास का वातावरण पर । माता-पिता जिस शिशु को जन्म देते हैं. उसका शारीरिक विकास गर्भ काल से ही आरंभ हो जाता है और जन्म के पश्चात् उसके मृत्युपर्यन्त  तक चलता रहता है, सामाजिक विकास जन्म के पश्चात् मिले वातावरण के द्वारा होता है।

    तथा जन्म से सम्बन्धित विकास को वंशक्रम और  समाज से सम्बन्धित विकास को वातावरण कहते हैं. इसे प्रकृति (Nature) तथा पोषण (Nurture) भी कहा गया है। वुडवर्थ का कथन है : कि एक पौधे का वंशक्रम उसके बीज में निहित है और उसके पोषण का दायित्व उसके वातावरण पर है। ये वंशक्रम तथा वातावरण का अध्ययन प्राणी से विकास तथा वातावरण की अन्तः क्रिया (Interaction) का परिणाम है। 

    मनोविज्ञान में यह प्रश्न सदा चर्चित रहा है कि बालक के विकास में वंशक्रम का योगदान अधिक है या वातावरण का इस प्रश्न पर सदैव मतभेद रहे है। इसी प्रश्न पर हम यहाँ चर्चा करने जा रहे हैं।

    वंशानुक्रम का अर्थ 

    साधारणतया लोगों का विश्वास है कि जैसे माता-पिता होते है, वैसी ही उनकी सन्तान होती है । इसका अभिप्राय यह है कि बालक रंग, रूप, आकृति, विद्वता आदि में माता-पिता से मिलता-जुलता है। दूसरे शब्दों में, उसे अपने माता-पिता के शारीरिक और मानसिक गुण प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थ, यदि माता-पिता विद्वान् है, तो बालक भी विद्वान होता है। पर यह भी देखा जाता है कि विद्वान् माता-पिता का बालक मूर्ख और मूर्ख माता-पिता का बालक विद्वान भी होता है। इसका कारण यह है कि बालक को न केवल अपने माता-पिता से वरन् उनसे पहले के पूर्वजों से भी अनेक शारीरिक और मानसिक गुण प्राप्त होते हैं। इसी को हम वंशानुक्रम, वंश-परम्परा, पैतृकता, आनुवंशिकता आदि नामों से पुकारते हैं।

    हम वंशानुक्रम के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ दे रहे हैं, यथा- 

    वंशानुक्रम की परिभाषा 

    बी. एन. झा के अनुसार - “ वंशानुक्रम, व्यक्ति की जन्मजात विशेषताओं का पूर्ण योग है।" 

    वुडवर्थ के अनुसार - "वंशानुक्रम में ये सभी बातें आ जाती हैं, जो जीवन का आरम्भ करते समय, जन्म के समय नहीं वरन् गर्भाधान के समय, जन्म से लगभग नौ माह पूर्व, व्यक्ति में उपस्थित थीं।" 

    डगलस एवं हॉलैण्ड के अनुसार - "एक व्यक्ति से वंशानुक्रम में वे सब शारीरिक बनावटें शारीरिक विशेषताएँ, क्रियाएँ या क्षमताएँ सम्मिलित रहती हैं, जिनको वह अपने माता-पिता, अन्य पूर्वजों या प्रजाति से प्राप्त करता है।"

    रूथ बेंडिक्ट के अनुसार - "वंशानुक्रम माता-पिता से सन्तान को प्राप्त करने वाले गुणों का नाम है।" 

    जेम्स ड्रेवर के अनुसार - "माता-पिता की शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं का सन्तानों में हस्तांतरण होना वंशानुक्रम है।"

    पी० जिस्बर्ट के अनुसार - "प्रकृति में प्रत्येक पीढ़ी का कार्य माता-पिता द्वारा संतानों में कुछ जैवकीय अथवा  मनोवैज्ञानिक विशेषताओं का हस्तांतरण करना है। इस प्रकार हस्तांतरित विशेषताओं की मिली-जुली गठरी को वंशानुक्रम के नाम से पुकारा जाता है।"

    एच० ए० पीटरसन के अनुसार  - "व्यक्ति को अपने माता-पिता से पूर्वजों की जो विशेषतायें प्राप्त है उसे वंशक्रम कहते हैं।"

    जे० ए० थाम्पसन - "वंशानुक्रम, क्रमबद्ध पीढ़ियों के बीच उत्पत्ति सम्बन्धी, सम्बन्ध के लिये  सुविधाजनक शब्द है।"

    अतः इन परिभाषाओं पर विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि वंशक्रम की धारणा का स्वरूप अमूर्त है इसकी अनुभूति व्यवहार तथा व्यक्ति की अन्य शारीरिक, मानसिक विशेषताओं द्वारा ही होती है।

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    वंशानुक्रम की प्रक्रिया

    मानव शरीर, कोषों (Cells) का योग होता है शरीर का आरम्भ केवल एक कोष से होता है, जिसे "संयुक्त कोष (Zygote) कहते हैं। यह कोष 2, 4, 8, 16, 32 और इसी क्रम में संख्या में आगे बढ़ता चला जाता है। 

    'संयुक्त कोष' दो उत्पादक कोषों (Germ Cells) का योग होता है। इनमें से एक कोष पिता का होता है, जिसे 'पितृकोष' (Sperm) और दूसरा माता का होता है. जिसे 'मातृकोष' (Ovum) कहते हैं,  'उत्पादक कोष' भी 'संयुक्त कोष के समान संख्या में बढ़ते हैं। 

    पुरुष और स्त्री के प्रत्येक कोष में 23-23 गुणसूत्र (Chromosomes) होते हैं। इस प्रकार, संयुक्त  कोष में ‘गुणसूत्रों' के 23 जोड़े होते हैं। 'गुणसूत्रों के सम्बन्ध में मन  ने लिखा है- "हमारी सब असंख्य परम्परागत विशेषताएँ इन 46 गुणसूत्रों में निहित रहती हैं। ये विशेषताएँ गुणसूत्र में विद्यमान पित्र्यैकों (Genes) में होती हैं।" 

    प्रत्येक 'गुणसूत्र में 40 से 100 तक 'पित्र्यैक' होते हैं। प्रत्येक 'पित्र्यैका एक गुण या विशेषता को निर्धारित करता है। इसीलिए इन पित्र्यैकों को 'वंशानुक्रम निर्धारक (Heredity Determiners) कहते हैं। यही पित्र्यैक शारीरिक और मानसिक गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को पहुँचाते हैं। सोरेनसन (Sorerson)  का मत है- कि "पित्र्यैक, बच्चों की प्रमुख विशेषताओं और गुणों को निर्धारित करते हैं। पित्र्यैकों के सम्मिलन के परिणाम को ही हम वंशानुक्रम कहते हैं।"

    नोबल पुरस्कार विजेता डा. हरगोविन्द खुराना (Hargobind Khurana) ने अपने अनुसंधान के आधार पर घोषणा की है कि निकट भविष्य में एक प्रकार के पित्र्यैक (Gene) को दूसरे प्रकार के पित्र्यैक से स्थानापत्र करना, औषधि-शास्त्र के क्षेत्र के अत्यन्त सामान्य कार्य हो जायगा। उनका विश्वास है कि इस कार्य के द्वारा भावी सन्तान की मधुमेह के समान दुःसाध्य रोगों से रक्षा की जा सकेगी। किन्तु अभी तक इस बात की खोज नहीं हो पाई है कि इस कार्य के द्वारा युद्धप्रिय व्यक्तियों को शान्तिप्रिय बनाया जा  सकेगा या नहीं।

    वंशानुक्रम के नियम (सिद्धान्त)

    वंशक्रम (Heredity) मनोवैज्ञानिकों तथा जीववैज्ञानिकों (Biologists) के लिए अत्यन्त रोचक तथा रहस्यमय विषय है। वंशक्रम जिन नियमों तथा सिद्धान्तों पर आधारित है. यह विषय भी अध्ययन के नये आयाम प्रस्तुत करता है। वंशक्रम के ये नियम सर्वाधिक प्रचलित हैं- 

    1. बीजकोष की निरन्तरता का नियम 

    2. समानता का नियम 

    3. विभिन्नता का नियम 

    4. प्रत्यागमन का नियम 

    5. अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम

    6. मैडल का नियम।

    1. बीजकोष की निरन्तरता का नियम 

    इस नियम के अनुसार, बालक को जन्म देने वाला बीजकोष कभी नष्ट नहीं होता। इस नियम के प्रतिपादक वीजमैन (Weismann) का कथन है-"बीजकोष का कार्य केवल उत्पादक कोषों (Germ Cells) का निर्माण करना है, जो बीजकोष बालक को अपने माता-पिता से मिलता है, उसे वह अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित कर देता है। इस प्रकार, बीजकोष पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।"

    वीजमैन के 'बीजकोष की निरन्तरता' के नियम को स्वीकार नहीं किया जाता है। इसकी आलोचना करते हुए बी. एन. झा (B. N. Jha)  ने लिखा है-" इस सिद्धान्त के अनुसार माता-पिता, बालक के जन्मदाता न होकर केवल बीजकोष के संरक्षक हैं, जिसे वे अपनी सन्तान को देते हैं। बीजकोष एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को इस प्रकार हस्तान्तरित किया जाता है, कि जैसे मानो एक बैंक से निकालकर दूसरे में रख दिया जाता हो। बीजमैन का सिद्धान्त न तो वंशानुक्रम की सम्पूर्ण प्रक्रिया की व्याख्या करता है और न सन्तोषजनक ही है।" 

    अतः यह मत वंशक्रम की सम्पूर्ण प्रक्रिया की व्याख्या न कर पाने के कारण अमान्य है । 

    2. समानता का नियम 

    इस नियम के अनुसार, जैसे माता-पिता होते हैं. वैसी ही उनकी सन्तान होती है (Like tends of beget like)। इस नियम के अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए सोरेनसन ने लिखा है- "बुद्धिमान माता-पिता के बच्चे बुद्धिमान, साधारण माता-पिता के बच्चे साधारण और मन्द-बुद्धि माता-पिता के बच्चे मन्द-बुद्धि होते हैं। इसी प्रकार, शारीरिक रचना की दृष्टि से भी बच्चे माता-पिता के समान ही होते हैं।

    अतः यह नियम भी अपूर्ण निकला है क्योंकि प्रायः देखा जाता है कि काले माता-पिता की संतान गोरी, मंद बुद्धि  माता-पिता की संतान बुद्धिमान होती है। इस नियम के अनुसार माता-पिता की विशेषतायें बालक के मूल रूप में आनी चाहिए।

    3. विभिन्नता का नियम 

    इस नियम के अनुसार, बालक अपने माता-पिता से बिल्कुल समान न होकर उनसे कुछ भिन्न होते है। इसी प्रकार, एक ही माता-पिता के बालक एक-दूसरे के समान होते हुए भी बुद्धि, रंग और स्वभाव में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। कभी-कभी उनमें पर्याप्त और मानसिक विभिन्नता पाई जाती है। इसका कारण बताते हुए सोरेनसन ने लिखा है- "इस विभिन्नता के कारण माता-पिता के उत्पादक कोषों की विशेषतायें हैं। उत्पादक कोषों में अनेक पित्र्यैक होते हैं, जो विभिन्न प्रकार से संयुक्त होकर एक-दूसरे से भिन्न बच्चों का निर्माण करते है।"

    भिन्नता का नियम प्रतिपादित करने वालों में डार्विन (Darwin) तथा लेमार्क (Lemark) ने प्रयोगों तथा विचारों द्वारा यह मत प्रकट किया है कि उपयोग न करने वाले अवयव तथा विशेषताओं का लोप आगामी पीढ़ियों में हो जाता है। नवोत्पत्ति (Mutation) तथा प्राकृतिक चयन  द्वारा वंशक्रमीय विशेषताओं का उन्नयन होता है।

    4. प्रत्यागमन का नियम

    इस नियम के अनुसार, बालक में अपने माता-पिता के विपरीत गुण पाये जाते हैं। इस नियम का अर्थ स्पष्ट करते हुए सोरेनसन ने लिखा है- "बहुत प्रतिभाशाली माता-पिता के बच्चों में कम प्रतिभा होने की प्रवृत्ति और बहुत  निम्नकोटि के माता-पिता के बच्चों में कम निम्नकोटि होने की प्रवृत्ति ही प्रत्यागमन है।" प्रकृति का नियम यह है कि वह विशिष्ट गुणों के बजाय सामान्य गुणों का अधिक वितरण करके एक जाति के प्राणियों को एक ही स्तर पर रखने का प्रयास करती है। इस नियम के अनुसार, बालक माता-पिता के विशिष्ट गुणों का त्याग करके सामान्य गुणों को ग्रहण करते हैं। यही कारण है कि कुछ महान व्यक्तियों के पुत्र साधारणतः उनके समान महान् नहीं हाते हैं, उदाहरणार्थ- बाबर, अकबर और मा. गाँधी के पुत्र उनसे बहुत अधिक निम्न कोटि के थे। इसके दो मुख्य कारण हैं- 

    (1) माता-पिता के पित्र्यैक में से एक कम और एक अधिक शक्तिशाली होता है। 

    (2) माता-पिता में उनके पूर्वजों में से किसी का पित्र्यैक अधिक शक्तिशाली होता है।

    5. अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम

    इस नियम के अनुसार, माता-पिता द्वारा अपने जीवन काल में अर्जित किये जाने वाले गुण उनकी सन्तान को प्राप्त होते हैं। इस नियम को अस्वीकार करते हुए विकासवादी लेमार्क (Lemarck) ने लिखा है- "व्यक्तियों के  द्वारा अपने जीवन में जो कुछ भी अर्जित किया जाता है, वह उनके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले व्यक्तियों को संक्रमित किया जाता है।" इसका उदाहरण देते हुए लेमार्क ने कहा है कि जिराफ की गर्दन पहले बहुत कुछ घोड़े के समान थी. पर कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण वह लम्बी और कालान्तर में उसकी लम्बी गर्दन का गुण अगली पीढ़ी में संक्रमित होने लगा। लेमार्क के इस की पुष्टि मैक्डूगल (McDougall) और पावलव (Pavlov) ने चूहों पर एवं हैरीसन (Harrison) ने पतगों पर परीक्षण करके की है।

    आज के युग में विकासवाद या अर्जित गुणों के संक्रमण का सिद्धान्त स्वीकार नहीं किया जाता है  इस सम्बन्ध में वुडवर्थ ने लिखा है- "वंशानुक्रम की प्रक्रिया के अपने आधुनिक ज्ञान से संपन्न होने पर यह बात प्रायः असंभव जान पड़ती है कि अर्जित गुणों को संक्रमित किया जा सके। यदि आप कोई भाषा बोलना सीख लें, तो क्या आप पित्र्यैकों द्वारा इस ज्ञान को अपने बच्चे को संक्रमित कर सकते हैं ? इस प्रकार के किसी प्रमाण की पुष्टि नहीं हुई हैं। क्षय या सूजाक ऐसा रोग, जो बहुधा परिवारों में पाया जाता है, संक्रमित नहीं होता है। बालक को यह रोग परिवार के पर्यावरण में छूत से होता है।"

    6. मैंडल का नियम 

    इस नियम के अनुसार, वर्णसंकर प्राणी या वस्तुएँ अपने 'मौलिक या सामान्य रूप की ओर अग्रसर होती है। इस नियम को जेकोस्लोवेकिया के मैडल (Mendel) नामक पादरी ने प्रतिपादित किया था। उसने अपने गिरजे के बगीचे में बड़ी और छोटी मटरें बराबर संख्या में मिलाकर बोयीं  उगने वाली मटरों में सब वर्णसंकर जाति की थीं। मैडल ने इस वर्णसंकर मटरों को फिर बोया और इस प्रकार उसने उगने वाली मटरों को कई बार बोया। अन्त में, उसे ऐसी मटरें मिली, जो वर्णसंकर होने के बजाय शुद्ध थी।

    मटरों के समान मैंडल ने चूहों पर भी प्रयोग किया। उसने सफेद और काले चूहों को साथ-साथ के रखा। इनसे जो चूहे उत्पन्न हुए, वे काले थे। फिर उसने इन वर्णसंकर काले चूहों को एक साथ रखा। इनसे उत्पन्न होने वाले चूहे, काले और सफेद दोनों रंगों के थे।

    अपने प्रयासों के आधार पर मंडल ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि वर्णसंकर प्राणी या वस्तुएँ अपने मौलिक या सामान्य रूप की ओर अग्रसर होती है। यही सिद्धान्त "मैडलवाद (Mendelism) के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी व्याख्या करते हुए बी. एन. झा ने लिखा है- “जब वर्णसंकर अपने स्वयं के पितृ या मातृ-उत्पादक कोषों  का निर्माण करते हैं, तब वे प्रमुख गुणों से युक्त माता-पिता के समान शुद्ध प्रकारों को जन्म देते हैं।"

    वंशानुक्रम व वातावरण

    ग्रेगर जॉन मेंडल (Gregar John Mendal) ने जो प्रयोग किये, इन प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षो से वंशक्रम तथा वातावरण के प्रभावों के अध्ययन में अत्यधिक योग दिया है। चाहे छोटी-बड़ी मटर मिलाकर बोने का प्रयोग हो अथवा काले-सफेद चूहों को एक साथ रखकर उनके संतति व्यापार का प्रयोग हो, कुछ निष्कर्ष ऐसे निकाले जिससे वंशक्रम की शुद्धता का पता चलता है। उसने यह प्रत्यागमन (Regression) के सिद्धान्त का निरूपण किया। उसका यह सिद्धान्त इस प्रकार है-अधिक जागृत या प्रबल गुण, सुप्त गुण को निष्क्रिय कर देता है। सुप्तावस्था में रहने वाले व्यक्त गुण जब प्रकट होकर मुख्य गुण का रूप धारण कर लेते है तो यह स्थिति प्रत्यागमन का रूप धारण कर लेती है। उदाहरणार्थ- काले माता-पिता के यहाँ गोरे बालक का जन्म लेना।

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    बालक पर वंशानुक्रम का प्रभाव

    पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने वंशानुक्रम के महत्व के सम्बन्ध में अनेक अध्ययन और परीक्षण किए इनके आधार पर उन्होंने सिद्ध किया है कि बालक के व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलू पर वंशानुक्रम का असर पड़ता है। हम यहाँ कुछ मुख्य मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इस प्रभाव का वर्णन कर रहे हैं जो निम्नलिखित हैं- 

    * मूल शक्तियों पर प्रभाव

    थार्नडाइक (Thorndike) का मत है- कि "बालक की मूल शक्ति प्रधान कारण उसका वंशानुक्रम है।"

    * शारीरिक लक्षणों पर प्रभाव

    कार्ल पीयरसन  का मत है- कि "यदि माता- की लम्बाई कम या अधिक होती है तो उनके बच्चे की भी लम्बाई कम या अधिक होती है।" 

    * प्रजाति की श्रेष्ठता पर प्रभाव

    क्लिनबर्ग  का मत है-  कि "बुद्धि की श्रेष्ठता का कारण प्रजाति है। यही कारण है कि अमरीका की श्वेत प्रजाति, नीग्रो प्रजाति से श्रेष्ठ है।"

    * व्यावसायिक योग्यता पर प्रभाव

    कैटल (Cattell) का मत है- कि व्यावसायिक योग्यता का मुख्य कारण वंशानुक्रम है। वह इस निष्कर्ष पर अमरीका के 885 वैज्ञानिकों के परिवारों का अध्ययन करने के परिणामस्वरूप पहुँचा। उसने बताया कि इन परिवारों में से 2/5 व्यवसायी वर्ग के, 1/2 उत्पादक-वर्ग और केवल 1/4 कृषि वर्ग के थे।

    * सामाजिक स्थिति पर प्रभाव

    विनशिप (Winship) का मत है-  कि गुणवान और प्रतिष्ठित  माता-पिता की संतान प्रतिष्ठा प्राप्त करती है। वह इस निष्कर्ष पर रिचर्ड एडवर्ड (Richard Edward) के परिवार का अध्ययन करने के बाद पहुँचा। रिचर्ड स्वयं गुणवान और प्रतिष्ठित मनुष्य था एवं उसने एलिजाबेथ (Elizabeth) नामक जिस स्त्री से विवाह किया था, वह भी उसी के समान थी। इन दोनों  के वंशजों ने विधान सभा के सदस्यों, महाविद्यालयों के अध्यक्षों आदि के प्रतिष्ठित पद प्राप्त हुए।और  उनका वंशज अमरीका का उपराष्ट्रपति बना ।

    * चरित्र पर प्रभाव

    डगडेल (Dugdale) का मत है-  कि चरित्रहीन माता-पिता की सन्तान चरित्रहीन होती है। उसने यह बात सन् 1877 ई. में ज्यूक (Jukes) के वंशजों का अध्ययन करके सिद्ध की। 1720 में न्यूयार्क में जन्म लेने वाला ज्यूकस एक चरित्रहीन मनुष्य था और उसकी पत्नी भी उसके  समान चरित्रहीन थी। इन दोनों के वंशजों के सम्बन्ध में नन ने लिखा है- "पांच पीढ़ियों में लगभग 1,000 व्यक्तियों में से 300 बाल्यावस्था में मर गए. 310 ने 2,300 वर्ष दरिद्रगृहों में  व्यतीत किए, 440 रोग के कारण मर गए, 130 (जिनमें 7 हत्या करने वाले थे) दण्ड प्राप्त अपराधी थे और केवल 20 ने कोई व्यवसाय करना सीखा।"

    * महानता पर प्रभाव

    गाल्टन का मत है- कि व्यक्ति की महानता का कारण उसका  वंशानुक्रम है। यह वंशानुक्रम का ही परिणाम है कि व्यक्तियों के शारीरिक और मानसिक लक्षणों में विभिन्नता दिखाई देती है। व्यक्ति का कद वर्ण, वजन, स्वास्थ्य, बुद्धि, मानसिक शक्ति आदि उसके वंशानुक्रम पर आधारित रहते हैं। गाल्टन ने लिखा है- "महान् न्यायाधीशों, राजनीतिज्ञों,सैनिक, पदाधिकारियों, साहित्यकारों, वैज्ञानिकों और खिलाड़ियों के जीवन चरित्रों का अध्ययन करने ज्ञात होता है कि इनके परिवारों में इन्हीं क्षेत्रों में प्रशंसा प्राप्त अन्य व्यक्ति भी हुए है।"

    * वृद्धि पर प्रभाव

    गोडार्ड  का मत है- कि मन्द-बुद्धि माता-पिता की सन्तान  मन्द-बुद्धि और तीव्र-बुद्धि माता-पिता की संतान तीव्र-बुद्धि वाली होती है। उसने यह बात कालीकॉक (Kallikak) नामक एक सैनिक के वंशजों का अध्ययन करके सिद्ध की। कालीकॉक ने पहले। मन्द-बुद्धि स्त्री से और कुछ समय के बाद एक तीव्र बुद्धि की स्त्री से विवाह किया। पहली स्त्री के 480 वंशजों में से 143 मन्द-बुद्धि, 46 सामान्य, 36 अवैध सन्तान, 32 वेश्यायें, 24 शराबी, 8 वेश्यालय-स्वामी, 3. मृगी-रोग वाले और 3 अपराधी थे। दूसरी स्त्री के 496 वंशजों में से केवल 3 मन्द-बुद्धि और चरित्रहीन थे। शेष ने व्यवसायियों, डाक्टरों, शिक्षकों, वकीलों आदि के रूप में समाज में सम्मानित स्थान प्राप्त किए।

    वंशानुक्रम के समन्वित प्रभाव पर प्रकाश डालते हुए, कोलेसनिक (Kolesnik) ने लिखा है- "जिस सीमा तक व्यक्ति की शारीरिक रचना को उसके पित्र्यैक निश्चित करते हैं, उस सीमा तक उसके मस्तिष्क एवं स्नायु संस्थान की रचना, उसके अन्य लक्षण, उसकी खेल-कूद सम्बन्धी कुशलता और उसकी गणित सम्बन्धी योग्यता- ये सभी बातें उसके वंशानुक्रम पर निर्भर होती है, पर वे बातें उसके वातावरण पर कहीं अधिक निर्भर होती हैं।"

    मनोवैज्ञानिक प्रयोगों ने यह सिद्ध कर दिया है कि व्यक्ति के शारीरिक तथा मानसिक विकास पर वंशक्रम का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव पित्र्यैक (Genes) के कारण व्यक्ति के शारीरिक लक्षणों पर प्रकट होता है। आन्तरिक प्रेरक तत्त्व उसके स्वभाव को निर्धारित करते हैं। डगडेल के अध्ययन ने सिद्ध कर दिया है कि चरित्रहीन माता-पिता की संतान चरित्रहीन होती है, स्वस्थ बौद्धिक तथा मानसिक स्थिति भी वंशक्रम की देन है।

    वातावरण का अर्थ

    'वातावरण' के लिए भी 'पर्यावरण' शब्द का ही प्रयोग किया जाता है। 'पर्यावरण' दो शब्दों के योग  से मिलकर बना है- 'परि' + 'आवरण'। 'परि' का अर्थ है- चारों ओर' एवं 'आवरण' का अर्थ है-'ढकने वाला'। इस प्रकार 'पर्यावरण' या 'वातावरण' वह वस्तु है, जो चारों ओर से ढके या घेरे हुए है। अतः हम कह सकते हैं कि व्यक्ति के चारों ओर जो कुछ है, वह उसका वातावरण है। इसमें वे सब तत्व  सम्मिलित किए जा सकते हैं, जो व्यक्ति के जीवन और व्यवहार को प्रभावित करते हैं।

    हम वातावरण' के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषायें दे रहे हैं जो इस प्रकार से हैं- 

    वातावरण की परिभाषा 

    बोरिंग, लैगफील्ड व वेल्ड के अनुसार - "पित्र्यैकों के अलावा व्यक्ति को प्रभावित करने वाली वस्तु वातावरण है।"

    वुडवर्थ के अनुसार - "वातावरण में वे सब बाह्य तत्व आ जाते हैं जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरम्भ करने के समय से प्रभावित किया है।"

    डगलस व हॉलैण्ड के अनुसार - "वातावरण शब्द का प्रयोग उन सब बाह्य शक्तियों, प्रभावों और दशाओं का सामूहिक रूप से वर्णन करने के लिए किया जाता है, जो जीवित प्राणियों के जीवन, स्वभाव, व्यवहार, बुद्धि विकास और परिपक्वता पर प्रभाव डालते हैं।"

    रॉस के अनुसार - "वातावरण वह बाहरी शक्ति है जो हमें प्रभावित करती है। "

    जिस्बर्ट के अनुसार - "वातावरण वह हर वस्तु है जो किसी अन्य वस्तु को घेरे हुए है और उस पर सीधे अपना प्रभाव डालती है।"

    एनास्टसी  के अनुसार - "बातावरण वह हर वस्तु है जो व्यक्ति के पित्र्त्रयैकों के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को  प्रभावित करता है।"

     मैकआइवर एवं पेज के अनुसार - "स्वयं प्राणी, उसके जीवन का ढाँचा, बीते हुए जीवन एवं अतीत पर्यावरण  का फल है। पर्यावरण, जीवन के प्रारम्भ से यहाँ तक कि उत्पादक कोषों में भी निहित है।"

    इन परिभाषाओं का सार इस प्रकार है- 

    1. वातावरण व्यक्ति को प्रभावित करने वाला तत्त्व है।

    2. इसमें बाह्य तत्व आते हैं।

    3. वातावरण किसी एक तत्त्व का नहीं अपितु एक समूह तत्व का नाम है। 

    4. यह वह हर वस्तु है जो व्यक्ति को प्रभावित करती है। इस दृष्टि से वातावरण व्यक्ति को उसके विकास में वांछित प्रदान कर सहायता करता है।

    बालक पर वातावरण का प्रभाव

    पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने वातावरण के महत्व के सम्बन्ध में अनेक अध्ययन और परीक्षण किए है। इनके आधार पर उन्होंने सिद्ध किया है कि बालक के व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलू पर भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण का व्यापक प्रभाव पडता है। भारतीय मनोवैज्ञानिकों के एक अध्ययन के अनुसार 1971 की आई. ए. एस. (I.A.S.) की परीक्षा उत्तीर्ण होने वाले छात्रों में से आधे से अधिक के अभिभावकों की मासिक आय 10 हजार रुपये या इससे अधिक थी और 44% ने पब्लिक स्कूलों में शिक्षा प्राप्त की थी। हम यहाँ कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इस प्रभाव का वर्णन कर रहे है-

    1. शारीरिक अन्तर पर प्रभाव

    फ्रेंज बोन्स का मत है : कि विभिन्न प्रजातियों के शारीरिक अन्तर का कारण वंशानुक्रम न होकर वातावरण भी  है। उसने अनेक उदाहरण देकर सिद्ध किया है। कि जो जापानी और यहूदी, अमरीका में अनेक पीढ़ियों से निवास कर रहे हैं. उनकी लम्बाई भौगोलिक वातावरण के कारण बढ़ गयी है।

    2. मानसिक विकास पर प्रभाव

    गोर्डन का मत है : कि उचित सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण न मिलने पर मानसिक विकास की गति धीमी हो जाती है। उसने यह बात नदियों के किनारे रहने वाले बच्चों का अध्ययन करके सिद्ध की। इन बच्चों का वातावरण गन्दा और समाज के अच्छे प्रभावों से दूर था।

    3. प्रजाति की श्रेष्ठता पर प्रभाव 

    क्लार्क ( Clark) का मत है : कि कुछ प्रजातियों की बौद्धिक श्रेष्ठता का कारण वंशानुक्रम न होकर वातावरण है। उसने यह बात अमरीका के कुछ गोरे और नीग्रो लोगों की बुद्धि परीक्षा लेकर सिद्ध की। उसके समान अनेक अन्य विद्वानों का मत है कि नीग्रो प्रजाति की बुद्धि का स्तर इसलिए निम्न है, क्योंकि उनको अमरीका की श्वेत प्रजाति के समान शैक्षिक, सांस्कृतिक और सामाजिक वातावरण उपलब्ध नहीं है।

    4. बुद्धि पर प्रभाव

    कॅडोल का मत है : कि बुद्धि के विकास में वंशानुक्रम की अपेक्षा वातावरण का प्रभाव कहीं अधिक पड़ता है। उसने यह बात 552 विद्वानों का अध्ययन करके सिद्ध की। ये विद्वान लन्दन की 'रॉयल सोसायटी', पेरिस की 'विज्ञान अकादमी', और बर्लिन की 'रॉयल अकादमी' के सदस्य थे। इन सदस्यों को प्राप्त होने वाले वातावरण के सम्बन्ध में कैन्डोल ने लिखा है- "अधिकांश सदस्य धनी और अवकाश प्राप्त वर्गों के थे। उनको शिक्षा की सुविधाएँ थीं और उनको शिक्षित जनता एवं उदार सरकार से प्रोत्साहन मिला। "

    स्टीफन्स का मत है : कि जिन बालकों को निम्न वातावरण से हटाकर उत्तम वातावरण में रखा जाता है, उन सबकी बुद्धि-लब्धि (1. Q.) में वृद्धि हो जाती है। वातावरण परिवर्तन के समय बालक की आयु जितनी कम होती है, उसमें प्रायः उतना ही अधिक विशेष परिवर्तन होता है।

    5. व्यक्तित्व पर प्रभाव

    कूले (Colley) का मत है : कि व्यक्तित्व के निर्माण में वंशानुक्रम की अपेक्षा वातावरण का अधिक प्रभाव पड़ता है। उसने सिद्ध किया है कि कोई भी व्यक्ति उपयुक्त वातावरण में रहकर अपने व्यक्तित्व का निर्माण करके महान बन सकता है। उसने यूरोप के 71 साहित्यकारों के उदाहरण देकर बताया है कि बनयान (Banyan) और बर्न्स (Burns) का जन्म निर्धन परिवारों में हुआ था, फिर भी वे अपने व्यक्तित्व का निर्माण करके महान बन सके। इसका कारण केवल यह था कि उनके माता-पिता ने उनको उत्तम वातावरण में रखा।

    6. अनाथ बच्चों पर प्रभाव

    समाज कल्याण केन्द्रों में अनाथ और परावलम्बी बच्चे आते हैं। ये साधारणतः निम्न परिवारों के होते हैं, पर केन्द्रों में उनका अच्छी विधि से पालन किया जाता है, उनको इच्छे वातावरण में रखा जाता है और उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाता है। इस प्रकार के वातावरण में पाले जाने वाले बच्चों के सम्बन्ध में वुडवर्थ ने लिखा है- "ये समग्र रूप में अपने माता-पिता से अच्छे ही सिद्ध होते हैं।"

    7. जुड़वाँ बच्चों पर प्रभाव 

    जुड़वाँ बच्चों के शारीरिक लक्षणों, मानसिक शक्तियों और शैक्षिक योग्यताओं में अत्यधिक समानता होती है। न्यूमैन, फ्रीमैन  और होलजिंगर ने 20 जोड़े जुड़वाँ बच्चों को अलग-अलग वातावरण में रखकर उनका अध्ययन किया। उन्होंने एक जोड़े के एक बच्चे को गाँव के फार्म पर और दूसरे को नगर में रखा। बड़े होने पर दोनों बच्चों में पर्याप्त अन्तर पाया गया। फार्म का बच्चा अशिष्ट, चिन्ताग्रस्त और कम बुद्धिमान था। उसके विपरीत, नगर का बच्चा शिष्ट, चिन्तामुक्त और अधिक बुद्धिमान था।

    स्टीफैन्स का विचार है- "इस प्रकार के अध्ययनों से हम यह निर्णय कर सकते हैं कि पर्यावरण का बुद्धि पर साधारण प्रभाव होता है और उपलब्धि पर अधिक विशेष प्रभाव होता है।"

    8. बालक पर बहुमुखी प्रभाव

    वातावरण, बालक के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक आदि सभी अंगों पर प्रभाव डालता है। इसकी पुष्टि एवेरॉन के जंगली बालक के उदाहरण से की जा सकती है। इस बालक को जन्म के बाद ही भेड़िया उठा ले गया था और उसका पालन-पोषण जंगली पशुओं के बीच में हुआ था। कुछ शिकारियों ने उसे सन् 1799 ई. में पकड़ लिया। उस समय उसकी आयु 11 या 12 वर्ष की थी। उसकी आकृति पशुओं की सी थी ओर वह उनके समान हाथों-पैरों से चलता था। वह कच्चा माँस खाता था। उसमें मनुष्य के समान बोलने और विचार करने की शक्ति नहीं थी। उसको मनुष्य के समान सभ्य और शिक्षित बनाने के सब प्रयास विफल हुए।

    भारत में रामू नामक भेड़िया बालक एवं अमला तथा कमला नामक भेड़िया बालिकाओं के उदाहरण वातावरण का महत्त्व सिद्ध करते हैं। कास्पर हाउजर नामक राजकुमार को शैशवावस्था से राजनैतिक कारणों से समाज से पृथक रखा गया। वह केवल उन्हीं ध्वनियों को, जिन्हें उसने सुना होगा, उच्चरित कर सकता था।

    वातावरण के संचयी प्रभाव का उल्लेख करते हुए स्टीफन्स (Stephens) ने लिखा है- "एक बच्चा जितने अधिक समय उत्तम पर्यावरण में रहता है. वह उतना ही अधिक इस पर्यावरण की ओर प्रवृत्त होता है। यदि एक बच्चा चतुर माता-पिता के साथ अधिक समय तक रहता है, तो वह उतना ही अधिक चतुर होता है। इसी प्रकार जितने अधिक समय वह हानिकारक पर्यावरण में रहता है. प्रायः उतना ही वह राष्ट्रीय मान से गिर जाता है। पहली दृष्टि में इसमें पर्यावरण के प्रभाव का निः सन्देह प्रमाण प्राप्त होता है। परन्तु हमें इस बात को भी स्मरण रखना चाहिए कि पिता के साथ बच्चे की समानता, लम्बाई में और दाढ़ी के रंग में भी आयु के साथ बढ़ती जायगी, अर्थात् उक्त समानता की वृद्धि का कुछ अंश आनुवंशिकता की परिपक्वता के कारण हो सकता है।"

    वंशानुक्रम व वातावरण का सम्बन्ध

    वंशक्रम तथा वातावरण, एक-दूसरे से पृथक नहीं है। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक है। बीज तथा खेत जैसा इनका सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरे की सार्थकता नहीं है। स्वस्थ बीज तभी स्वस्थ पौधे का रूप धारण कर सकता है जबकि वातावरण स्वस्थ एवं सन्तुलित हो। अच्छी खाद, समय  पर पानी धरती की तैयारी, निराई-गुडाई आदि वातावरण की सृष्टि करती है। लैण्डिस ने इसीलिये कहा है- "वंशक्रम हमें विकसित होने की क्षमतायें प्रदान करता है। इन क्षमताओं के विकसित होने के अवसर हमें वातावरण से मिलते हैं, वंशक्रम हमें कार्यशील पूँजी देता है और परिस्थिति हमें इसको निवेश करने के अवसर प्रदान करती है।" 

    मैकआइवर एवं पेज: ने वंशक्रम एवं वातावरण, दोनों के महत्व को स्वीकार किया है। इन्होंने लिखा है- "जीवन की प्रत्येक घटना दोनों का परिणाम होती है। किसी भी निश्चित परिणाम के लिये एक उतनी ही आवश्यक है जितनी कि दूसरी कोई भी न तो हटाई जा सकती है और न ही कभी पृथक की जा सकती है।"

    वुडवर्थ तथा मारेक्विस ने कहा है-"व्यक्ति, वंशक्रम तथा वातावरण का योग नहीं, गुणनफल है।"

    विकास की किसी भी अवस्था में बालक या व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक विशेषताओं की व्याख्या करने के लिए साधारणतः वंशानुक्रम और वातावरण शब्दों का प्रयोग किया जाता है। बालके के निर्माण में वंशानुक्रम और वातावरण का किस सीमा तक प्रभाव पड़ता है यह विषय सदैव विवादास्पद था और अब भी है। प्राचीन समय में यह विश्वास किया जाता था कि वंशानुक्रम और वातावरण एक-दूसरे से पृथक थे और बालक या व्यक्ति के व्यक्तित्व और कार्यक्षमता को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करते थे। आधुनिक समय में इस धारणा में पर्याप्त परिवर्तन हो गया है। अब हमारे इस विश्वास में निरन्तर वृद्धि होती चली जा रही है कि व्यक्ति बालक, किशोर या प्रौढ़ के रूप में जो कुछ सोचता, करता  है या अनुभव करता है. वह वंशानुक्रम के कारको और वातावरण के प्रभावों के पारस्परिक सम्बन्धों का परिणाम होता है।

    हमारे विश्वास में निरन्तर वृद्धि के कारण है- वंशानुक्रम और वातावरण सम्बन्धी परीक्षण। इन परीक्षणों ने सिद्ध कर दिया है कि समान वंशानुक्रम और समान वातावरण होने पर भी बच्चों में विभिन्नता होती है। अतः बालक के विकास पर न केवल वंशानुक्रम का वरन् वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। इसकी पुष्टि करते हुए क्रो व क्रो (Crow and Crow) ने लिखा है-"व्यक्ति का निर्माण न केवल वंशानुक्रम और न केवल वातावरण से होता है। वास्तव में वह जैविक दाय और सामाजिक विरासत के एकीकरण की उपज है।"

    वंशानुक्रम व वातावरण का सापेक्षिक महत्व  

    बालक की शिक्षा और विकास में वंशानुक्रम और वातावरण के सापेक्षिक महत्व को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-

    1. वंशानुक्रम व वातावरण की अपृथकता

    शिक्षा की किसी भी योजना में वंशानुक्रम और वातावरण को एक-दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता है। जिस प्रकार आत्मा और शरीर का सम्बन्ध है, उसी प्रकार वंशानुक्रम और वातावरण का भी सम्बन्ध है। अतः बालक के सम्यक विकास के लिए वंशानुक्रम और वातावरण का संयोग अनिवार्य है। 

    मैकाइवर एवं पेज ने लिखा है- "जीवन की प्रत्येक घटना दोनों का परिणाम होती है। इनमें से एक, परिणाम के लिए उतना ही आवश्यक है, जितना कि दूसरा कोई न तो कभी हटाया जा सकता है और न कभी पृथक किया जा सकता है।"

    2. वंशानुक्रम व वातावरण का समान महत्व  

    हमें साधारणतया यह प्रश्न सुनने को मिलता है, बालक की शिक्षा और विकास में वंशानुक्रम अधिक महत्त्वपूर्ण है या वातावरण ? यह प्रश्न बेतुका है और इसका कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता है। यह प्रश्न पूछना यह पूछने के समान है कि मोटरकार के लिए इंजन अधिक महत्वपूर्ण  है या पैट्रोल। जिस प्रकार मोटरकार के लिए इंजन और पैट्रोल का समान महत्व  है उसी प्रकार बालक के विकास के लिए वंशानुक्रम और वातावरण का समान महत्व है।

     वुडवर्थ ने ठीक लिखा है – "यह पूछने का कोई मतलब नहीं निकलता है कि व्यक्ति के विकास के लिए वंशानुक्रम और वातावरण में से कौन अधिक महत्त्वपूर्ण है। दोनों में से प्रत्येक पूर्ण रूप से अनिवार्य है। "

    3. वंशानुक्रम व वातावरण की पारस्परिक निर्भरता

    वंशानुक्रम और वातावरण में पारस्परिक निर्भरता है। ये एक-दूसरे के पूरक सहायक और सहयोगी है। बालक को जो मूलप्रवृत्तियाँ वंशानुक्रम से प्राप्त होती है, उनका विकास वातावरण में होता है, उदाहरणार्थ, यदि बालक में बौद्धिक शक्ति नहीं है, तो उत्तम से उत्तम वातावरण भी उसका मानसिक विकास नहीं कर सकता है। इसी प्रकार बौद्धिक शक्ति वाला बालक प्रतिकूल वातावरण में अपना मानसिक विकास नहीं कर सकता है। वस्तुतः बालक के सम्पूर्ण व्यवहार की सृष्टि वंशानुक्रम और वातावरण की अन्तःक्रिया द्वारा होती है। 

    मोर्स एवं विंगो का मत है- "मानव-व्यवहार की प्रत्येक विशेषता वंशानुक्रम और वातावरण की अन्तःक्रिया का फल है।"

    4. वंशानुक्रम व वातावरण के प्रभावों में अन्तर करना असम्भव 

    यह बताना असम्भव है कि बालक की शिक्षा और विकास में वंशानुक्रम और वातावरण का कितना प्रभाव पड़ता है। वंशानुक्रम वे सभी बातें आ जाती हैं जो व्यक्ति के जन्म के समय नहीं, वरन् गर्भाधान के समय उपस्थित थीं। इसी प्रकार वातावरण में वे सब बाह्य तत्व आ जाते हैं, जो व्यक्ति को जन्म के समय से प्रभावित करते हैं। अतः जैसा कि-

    वुडवर्थ ने लिखा है - "व्यक्ति के जीवन और विकास पर प्रभाव डालने वाली प्रत्येक बात वंशानुक्रम और वातावरण के क्षेत्र में आ जाती है। पर ये बातें इतनी पेचीदा ढंग से संयुक्त रहती हैं कि बहुधा वंशानुक्रम और वातावरण के प्रभावों में अन्तर करना असम्भव हो जाता है।"

    5. बालक, वंशानुक्रम व वातावरण की उपज

    बालक का विकास इसलिए नहीं होता है कि उसे कुछ बातें वंशानुक्रम से और कुछ वातावरण से प्राप्त होती है। इसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वह अपने वंशानुक्रम और वातावरण में से किसकी अधिक उपज है। सत्य यह है कि वह वंशानुक्रम और वातावरण का योगफल न होकर गुणनफल है। 

    वुडवर्थ का कथन है- "वंशानुक्रम और वातावरण का सम्बन्ध जोड़ के समान न होकर गुणा के समान अधिक है। अतः व्यक्ति इन दोनों तत्वों  का गुणनफल है, योगफल नहीं।

    सारांश में, हम कह सकते हैं कि बालक के विकास के लिए वंशानुक्रम और वातावरण का समान महत्व  है। उसके निर्माण में दोनों का समान योग है। इनमें से एक की भी अनुपस्थिति में उसका सम्यक् विकास असम्भव है। गैरेट का कथन है-“इससे अधिक निश्चित बात और कोई नहीं है कि वंशानुक्रम और वातावरण एक-दूसरे को सहयोग देने वाले प्रभाव हैं और दोनों ही बालक की सफलता के लिए अनिवार्य है।" 

    शिक्षक के लिए वंशानुक्रम व वातावरण का महत्व 

    शिक्षक के लिए वंशानुक्रम और वातावरण का क्या महत्व  है और वह उनके ज्ञान से अपना और अपने छात्रों का किस प्रकार हित कर सकता है, इस पर हम अलग-अलग शीर्षकों के अन्तर्गत विचार कर रहे हैं जो इस प्रकार से हैं- 

    (अ) वंशानुक्रम का महत्व  

    1. वंशानुक्रम के कारण बालकों में शारीरिक विभिन्नता होती है। शिक्षक इस ज्ञान से सम्पन्न होकर उनके शारीरिक विकास में योग दे सकता है।

    2. वंशानुक्रम के कारण बालकों की जन्मजात क्षमताओं में अन्तर होता है। शिक्षक इस बात को ध्यान  में रखकर कम प्रगति करने वाले बालकों को अधिक प्रगति करने में योग दे सकता है। 

    3. बालकों और बालिकाओं में लिंगीय भेद वंशानुक्रम के कारण होता है, जिससे विभिन्न विषयों में उनकी योग्यता कम या अधिक होती है। शिक्षक इस ज्ञान से उनके लिए उपयुक्त विषयों के अध्ययन की व्यवस्था कर सकता है।

    4. वंशानुक्रम के कारण बालकों में अनेक प्रकार की विभिन्नताएँ होती है, जो उनके विकास के साथ-साथ अधिक ही स्पष्ट होती जाती है। शिक्षक, बालको की इन विभिन्नताओं का अध्ययन करके इनके अनुरूप शिक्षा का आयोजन कर सकता है।

    5. वंशानुक्रम के कारण बालकों की सीखने की योग्यता में अन्तर होता है। शिक्षक इस ज्ञान से अवगत होकर देर में सीखने वाले बालकों के प्रति सहनशील और जल्दी सीखने वाले बालकों को अधिक कार्य दे सकता है।

    6. बालकों को वंशानुक्रम के कुछ प्रवृत्तियां प्राप्त होती हैं, जो वांछनीय और अवांछनीय, दोनों प्रकार की होती है। शिक्षक इन प्रवृत्तियों का अध्ययन करके वांछनीय प्रवृत्तियों का विकास और अवांछनीय प्रवृत्तियों का दमन या मार्गान्तरीकरण कर सकता है।

    7. वुडवर्थ  के अनुसार-  "देहाती बालकों की अपेक्षा शहरी बालकों के मानसिक स्तर की श्रेष्ठता आंशिक रूप से वंशानुक्रम के कारण होती है। शिक्षक इस ज्ञान से युक्त होकर अपने शिक्षण को उनके मानसिक स्तरों के अनुरूप बना सकता है।"

    8. वंशानुक्रम का एक नियम बताता है कि योग्य माता-पिता के बच्चे अयोग्य और अयोग्य माता-पिता के बच्चे योग्य हो सकते हैं। इस नियम को भली-भाँति समझने वाला शिक्षक ही बालकों के प्रति उचित प्रकार का व्यवहार कर सकता है।

    (ब) वातावरण का महत्व  

    1. बालक अपने परिवार, पास-पडौस, मुहल्ले और खेल के मैदान में अपना पर्याप्त समय व्यतीत करता करता है। है और इससे प्रभावित होता है। शिक्षक इन स्थानों के वातावरण को ध्यान में रखकर ही बालक का उचित पथ-प्रदर्शन करता है ।

    2. सोरेन्सन के अनुसार- "शिक्षा का उत्तम वातावरण बालकों की बुद्धि और ज्ञान की वृद्धि में प्रशंसनीय योग देता है। इस बात की जानकारी रखने वाला शिक्षक अपने छात्रों के लिए उत्तम शैक्षिक वातावरण प्रदान करने की चेष्टा कर सकता है।" 

    3. रूथ बैडिक्ट के अनुसार- व्यक्ति जन्म से ही एक निश्चित सांस्कृतिक वातावरण में रहता है और उसके आदर्शों के अनुरूप ही आचरण करता है। इस तथ्य को जानने वाला शिक्षक, बालक को अपना सांस्कृतिक विकास करने में योग दे सकता है।

    4. अनुकूल वातावरण में जीवन का विकास होता है और व्यक्ति उत्कर्ष की ओर बढ़ता है। इस बात को समझने वाला शिक्षक अपने छात्रों की रुचियों, प्रवृत्तियों और क्षमताओं के अनुकूल वातावरण प्रदान करके उनको उत्कर्ष की ओर बढ़ने में सहायता दे सकता है।

    5. यूनेस्को (UNESCO) के कुछ विशेषज्ञों का कथन है कि वातावरण का बालकों की भावनाओं पर व्यापक प्रभाव पड़ता है और उससे उनके चरित्र का निर्माण भी होता है। इस कथन में विश्वास करके शिक्षक, बालकों के लिए ऐसे वातावरण का निर्माण कर सकता है, जिससे न केवल उनकी भावनाओं का संतुलित विकास हो, वरन् उनके चरित्र का भी निर्माण हो ।

    6. वातावरण, बालक के विकास की दशा निश्चित करता है। वातावरण ही निश्चित करता है कि बालक बड़ा होकर अच्छा या बुरा, चरित्रवान् या चरित्रहीन, संयमी या व्यभिचारी, व्यापारी या साहित्यकार, देशप्रेमी या देशद्रोही बनेगा। इस तथ्य पर मनन करने वाला शिक्षक अपने छात्रों के लिए ऐसे वातावरण का सृजन कर सकता है, जिससे उनका विकास उचित दिशा में हो। 

    7. प्रत्येक समाज का एक विशिष्ट वातावरण होता है। बालक को इसी समाज के वातावरण से अपना अनुकूलन करना पड़ता है। इस बात से भली-भाँति परिचित होने वाला शिक्षक, विद्यालय को लघु समाज का रूप प्रदान करके बालकों को अपने वृहत् समाज के वातावरण से अनुकूलन करने की शिक्षा दे सकता है।

    8. वातावरण के महत्व को समझने वाला शिक्षक, विद्यालय में बालकों के लिए ऐसा वातावरण उपस्थित कर सकता है, जिससे उनमें विचारों की उचित अभिव्यक्ति, शिष्ट सामाजिक व्यवहार, कर्तव्यों और अधिकारों का ज्ञान, स्वाभाविक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण आदि गुणों का अधिकतम विकास हो। 

    अतः उपर्युक्त विवेचन से  यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षक के लिए वंशानुक्रम और वातावरण- दोनों का ज्ञान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार के ज्ञान से सम्पन्न होकर ही वह अपने छात्रों का वांछित और सन्तुलित विकास कर सकता है। इसीलिए सारेन्सन का मत है- "शिक्षक के लिए मानव विकास पर वंशानुक्रम और वातावरण के सापेक्षिक प्रभाव और पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान विशेष महत्त्व रखता है।"

    वंशानुक्रम तथा वातावरण से इस विश्लेषण-संश्लेषण से यह स्पष्ट है कि वातावरण तथा वंशानुक्रम एक सिक्के के दो पहलु हैं। ये एक-दूसरे के लिये अनिवार्य है। मानव विकास के लिए इनको पृथक नहीं किया जा सकता।

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