बदलती सामाजिक परिस्थितियों ने ज्ञान का विस्फोट तथा विज्ञान का प्रसार किया और इसका एक भयावह पक्ष यह उभर रहा है कि शिक्षा व्यक्ति केन्द्रित होती जा रही है। इसका परिणाम एक सुखद समाज के निर्माण में अवरोध उत्पन्न हो रहा है। सूचना क्रान्ति ने शिक्षा का बाजारीकरण कर दिया है। परिणामतः शिक्षक, विद्यार्थी तथा पाठ्यक्रम की शाश्वत अवधारणायें दुकानदार, खरीदार तथा माल के रूप में बदल रही हैं। जिन देशों से यह अवधारणा आयात हो रही है वे स्वयं हमारी अवधारणाओं को अपना रहे हैं। वे मानव जीवन के सुन्दर, शाश्वत पक्ष के साथ वरण करने को लालायित है।
इस विकट समस्या का समाधान शिक्षाशास्त्र के पास है। शिक्षाशास्त्र की शिक्षा मनोविज्ञान शाखा ने सूचना क्रान्ति की दौड़ में सन्तुलन बनाये रखने में विशेष योग दिया है।
शिक्षा, मानव के गुणों को विकसित करने की प्रक्रिया है। इसके द्वारा मानव की अन्तर्निहित योग्यताओं को विकसित करके समाज सम्मत बनाया जाता है। कुछेक प्रश्न उठते हैं-क्या बालक को जो कुछ वह है उसी रूप में विकसित किया जाना चाहिये ? या उसे हजारों वर्षों की सांस्कृतिक- सामाजिक विरासत के मानदण्डों के अनुसार विकसित कर स्वस्थ समाज की रचना में योग देना चाहिये। इसका सीधा-सा उत्तर है-व्यक्ति तथा समाज दोनों सापेक्ष है। एक-दूसरे के पूरक है और एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। अतः व्यक्ति की शिक्षा इस प्रकार की हो कि वह अपने गुणों का उपयोग अपने विकास तथा समाजोत्थान के लिये करे करने की यह प्रक्रिया, शिक्षण आधारित है।
स्वशिक्षण (Auto- training) का आधार आवश्यकता तथा अनुकरण है। सामान्य शिक्षण का आधार शिक्षक है। वह कतिपय कौशलों, तकनीक तथा प्रविधि के द्वारा सरलता से बालक में वांछित व्यवहार परिवर्तन करता है। शिक्षक मनोविज्ञान के प्रयोग से जो नहीं है उसे है में बदलता है। अस्तित्व प्रदान करता है जिसे अस्तित्व प्रदान करता है, वह बालक है। जिससे परिवर्तन होता है. वह अनुभव है। बालक, शिक्षक तथा अनुभव की यह त्रिवेणी शिक्षा की प्रक्रिया की रचना करती है। शिक्षक, बालक की जन्मजात विशेषताओं, रुचियों प्रवृत्तियों में वातावरण निर्माण, अनुभव तथा कौशल से परिवर्तन करता है। उसकी प्रकृति, मानसिक स्तर, रुचि, बौद्धिक योग्यता, व्यक्तित्व, निष्पत्ति आदि में विकास करता है।
शिक्षा की यह समस्त प्रक्रिया, मनोविज्ञान आधारित है। इसमें एक का व्यवहार दूसरे को प्रभावित करता है। दूसरा प्रभावित होकर पहले के जैसा व्यवहार करता है या उसके मानकों को प्राप्त करता है। इसलिये शिक्षा के साथ मनोविज्ञान जुड़ता है और शिक्षा मनोविज्ञान नामक विद्या का जन्म होता है। यह विद्या, शिक्षक की प्रक्रिया में क्रान्ति उत्पन्न करती है। मनुष्य को उसका लक्ष्य प्राप्त कराती है।
शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षा तथा शिक्षण विषय के अन्तर्गत अध्ययन कराया जाने वाला व्यावहारिक विज्ञान है। शिक्षा अनादि काल से चली आ रही मानव व्यवहार को परिमार्जित करने वाली प्रक्रिया रही है। शिक्षा ने मनुष्य को सामाजिक मान्यताओं के अनुसार विकसित करने में विशेष योग दिया है। शिक्षा, चूँकि मानव व्यवहार के परिमार्जन का सशक्त अंग है, अतः मनोविज्ञान से इसका सीधा सम्बन्ध रहा है।
शिक्षा-मनोविज्ञान को समझने के लिये हमें पहले शिक्षा (Education) तथा मनोविज्ञान (Psychology) शब्दों को समझना होगा।
शिक्षा का आधुनिक अर्थ
'शिक्षा' शब्द को लेकर आज भी एकमतता नही है। स्कूल में पठन-पाठन को शिक्षा का वास्तविक रूप माना जाता है। वास्तव में ऐसा नहीं है। महात्मा गाँधी ने शिक्षा को सर्वांगीण विकास (शरीर, आत्मा तथा मस्तिष्क के विकास) की प्रक्रिया माना है। प्राचीन काल में भारतीय मनीषियों ने 'सा विद्या या विमुक्तये' कहकर शिक्षा का लक्ष्य निर्धारित किया था। इसका महत्व इतना अधिक था कि इसे मनुष्य का तीसरा नेत्र कहा गया- 'ज्ञानं मनुजस्य तृतीय नेत्रं।
शिक्षा शब्द संस्कृत की 'शिक्ष' धातु से बना है और इसका अर्थ है सीखना सीखने की प्रक्रिया शिक्षक, छात्र तथा पाठ्यक्रम द्वारा सम्पादित होती है। अंग्रेजी भाषा का शब्द एजूकेशन लैटिन भाषा के 'एडुकेयर' (Educare) एवं 'एडुसीयर' (Educere) से बना है जिसका अर्थ है 'नेतृत्व देना बाहर लाना' ।
आधुनिक समय में 'शिक्षा' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। उसके एक मुख्य अर्थ का उल्लेख करते हुए, डगलस व हॉलैण्ड ने लिखा है-“शिक्षा शब्द का प्रयोग उन सब परिवर्तनों को व्यक्त करने के लिये किया जाता है, जो एक व्यक्ति में उसके जीवन काल में होते हैं।"
व्यक्ति अपने जन्म के समय असहाय होता है और दूसरों की सहायता से अपनी आवश्यकताओं को पूरा करता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, वैसे-वैसे वह उनको पूरा करना और अपने वातावरण से अनुकूलन करना सीखता है। इन कार्यों में शिक्षा उसे विशेष योग देती है। शिक्षा न केवल उसे अपने वातावरण से अनुकूलन करने में सहायता देती है, वरन् उसके व्यवहार में ऐसे वांछनीय परिवर्तन भी करती है कि वह अपना और अपने समाज का कल्याण करने में सफल होता है। शिक्षा इन कार्यों को सम्पन्न करके ही सच्ची शिक्षा कहलाने की अधिकारिणी हो सकती है। सम्भवतः इसी विचार से प्रेरित होकर डा. राधाकृष्णन ने लिखा है- "शिक्षा को मनुष्य और समाज का निर्माण करना चाहिए। इस कार्य को किए बिना शिक्षा अनुर्वर और अपूर्ण है।"
शिक्षा की आधुनिक परिभाषाएँ
प्राचीन काल से शिक्षा की परिभाषा तथा व्याख्या विद्वज्जनों ने अपने-अपने ढंग से की है। आधुनिक युग में शिक्षा का कार्य केवल ज्ञान देना मात्र नहीं है। प्राचीन काल की परिभाषाओं में प्लेटो (Plato) ने शिक्षा को शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक विकास की प्रक्रिया माना है। आधुनिक युग में विकसित नवचिन्तन ने शिक्षा की परिभाषायें इस प्रकार दी है।
1. फ्रेंडसन- "आधुनिक शिक्षा का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज, दोनों के कल्याण से है। "
2. डमविल- "अपने व्यापक अर्थ में शिक्षा में ये सब प्रभाव सम्मिलित रहते हैं, जो व्यक्ति पर उसके जन्म से लेकर मृत्यु तक पड़ते हैं। "
3. यूलिच- "शिक्षा व्यक्तियों की, व्यक्तियों के द्वारा और व्यक्तियों के लिए की जाने वाली प्रक्रिया है। यह सामाजिक प्रक्रिया है और इसको समाज के सम्पूर्ण स्वरूप और कार्यों से पृथक नहीं किया जा सकता है।"
4. जॉन ड्यूवी- "शिक्षा व्यक्ति की उन सभी योग्यताओं का विकास है जिनके द्वारा वह अपने वातावरण पर नियंत्रण करने की क्षमता प्राप्त करता है तथा अपनी सम्भावनाओं को पूर्ण करता है।"
5.महात्मा गाँधी- "शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक एवं मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क एवं आत्मा के सर्वोत्तम अंश की अभिव्यक्ति है।"
मनोविज्ञान का जन्म
रायबर्न (Ryburn) का मत है कि मनोविज्ञान ने अरस्तू के समय में दर्शनशास्त्र के अंग के रूप में अपना जीवन आरम्भ किया। उस समय से लेकर सैकड़ों वर्षों तक उनका विवेचन इसी शास्त्र के अंग के रूप में किया गया। पर जैसा कि रायबर्न (Ryburn) ने लिखा है-"आधुनिक काल में एक परिवर्तन हुआ है। मनोवैज्ञानिकों ने धीरे-धीरे अपने विज्ञान को दर्शनशास्त्र से पृथक कर लिया है।"
मनोविज्ञान के अर्थ में क्रमशः परिवर्तन
मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र से किस प्रकार पृथक हुआ और उसके अर्थ में किस प्रकार परिवर्तन हुआ. इसका वर्णन निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा रहा है-
1. आत्मा का विज्ञान (Science of Soul)
गैरिट (Garrett) के अनुसार- 'साइकोलॉजी' (Psychology) शब्द की उत्पत्ति, यूनानी भाषा के दो शब्दों से हुई है-साइकी (Psyche), जिसका अर्थ है-आत्मा (Soul) और लोगस ( Logos) जिसका अर्थ है-अध्ययन (Study)। इस प्रकार प्राचीन काल में साइकोलॉजी' (Psychology) या मनोविज्ञान का अर्थ था- Study of the Soul', अर्थात् आत्मा का अध्ययन या आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना। इसीलिए इसको उस काल में आत्मा का विज्ञान माना जाता था।
अनेक यूनानी दार्शनिकों ने मनोविज्ञान को आत्मा का विज्ञान माना। इन दार्शनिकों में उल्लेखनीय है- प्लेटो (Plato). अरिस्टोटल (Aristotle) और डेकार्ट (Descartes)। आत्मा क्या है एवं उसका रंग,रूप और आकार कैसा है ? आत्मा की व्याख्या, उसके अस्तित्व एवं प्रमाणिकता का उत्तर न दे पाने के कारण 16वीं शताब्दी में मनोविज्ञान का यह अर्थ अस्वीकार कर दिया गया।
2. मस्तिष्क का विज्ञान (Science of Mind)
मध्य युग के दार्शनिकों ने मनोविज्ञान को 'मन या मस्तिष्क का विज्ञान' बताया। दूसरे शब्दों में, उन्होंने विशेष रूप से इटली के दार्शनिक पोम्पोनाजी (Pomponazzi) ने मनोविज्ञान को मस्तिष्क का अध्ययन करने वाला विज्ञान कहा इसका मुख्य कारण यह था कि आत्मा के मानसिक और आध्यात्मिक पहलू अध्ययन के पृथक विषय हो गये थे पर कोई भी दार्शनिक मस्तिष्क की प्रकृति और स्वरूप को निश्चित नहीं कर सका। इसका परिणाम बताते हुए बी. एन. झा (B. N. Jha) ने लिखा है- मस्तिष्क के स्वरूप के अनिश्चित रह जाने के कारण मनोविज्ञान ने मस्तिष्क के विज्ञान के रूप में किसी प्रकार की प्रगति नहीं की।" आधुनिक मनोविज्ञान मन के स्वरूप तथा प्रकृति का निर्धारण न कर सका। मन शब्द के विषय में भी अनेक मतभेद है, अतः यह परिभाषा भी अस्वीकार की गई।
3. चेतना का विज्ञान (Science of Consciousness)
16वीं शताब्दी में वाइव्स, विलियम जेम्स, विलयम वुण्ट, जेम्स सल्ली (Vives, William Jarnes, William Wundt, James Sully) आदि विद्वानों ने मनोविज्ञान को 'चेतना का विज्ञान' बताया। उन्होंने कहा कि मनोविज्ञान, मनुष्य की चेतन क्रियाओं का अध्ययन करता है। पर वे 'चेतना' शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में एकमत न हो सके। दूसरे, 'चेतन मन' के न अलावा अचेतन मन' और 'अर्द्ध-चेतन मन' भी होते हैं, जो मनुष्य की क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। परिणामतः मनोविज्ञान का यह अर्थ सीमित होने के कारण सर्वमान्य न हो सका।
विलियम जेम्स मनोविज्ञान के चेतना के स्वरूप को स्वीकार करता है तथा उसने कहा है- मनोविज्ञान की सर्वोत्तम परिभाषा यह है कि वह चेतना की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन एवं व्याख्या करता है।
4. व्यवहार का विज्ञान (Science of Behaviour)
20वीं शताब्दी के आरम्भ में मनोविज्ञान के अनेक अर्थ बताए गए, जिनमें सबसे अधिक मान्यता इस अर्थ को दी गई, मनोविज्ञान, व्यवहार का विज्ञान है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि इस शताब्दी में मनोविज्ञान को व्यवहार का निश्चित विज्ञान माना जाता है। इस सम्बन्ध में कुछ प्रमुख लेखकों के विचारों को निम्नांकित पंक्तियों में दर्शाया जा रहा है-
1. वाटसन- मनोविज्ञान, व्यवहार का निश्चित विज्ञान है।"
2.वुडवर्थ- "मनोविज्ञान, वातावरण के सम्बन्ध में व्यक्ति की क्रियाओं का वैज्ञानिक अध्ययन है।"
3. स्किनर- "मनोविज्ञान, जीवन की सभी प्रकार की परिस्थितियों में प्राणी की प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है। प्रक्रियाओं अथवा व्यवहार का तात्पर्य है- प्राणी की सब प्रकार की गतिविधियों, समायोजनाएँ, क्रियाएँ एवं अभिव्यक्तियाँ।"
वाटसन ने मनोविज्ञान को व्यवहार का विज्ञान कहा। उसने मनोविज्ञान को वस्तुपरक (Objective) बनाने के लिए उत्तेजक (Stimulus), प्राणी (Organism) तथा अनुक्रिया (Response) पर बल दिया।
मनोविज्ञान यदि हम उक्त लेखकों के विचारों का विश्लेषण करें, तो हमें निश्चित विज्ञान के रूप में के सम्बन्ध में अग्रलिखित तथ्य प्राप्त होते है-
1. मनोविज्ञान एक विधायक विज्ञान (Positive Science) है।
2. मनोविज्ञान, भौतिक (Physical) एवं सामाजिक (Social)- दोनों प्रकार के वातावरण का अध्ययन करता है।
3. मनोविज्ञान न केवल व्यक्ति के व्यवहार का, अपितु पशु-व्यवहार का भी अध्ययन करता है।
4. मनोविज्ञान, वातावरण का अध्ययन करता है, जो व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियों को प्रभावित करता है और वह अपनी कर्मेन्द्रियों द्वारा वातावरण के प्रति प्रतिक्रिया (Response) करता है।
5. मनोविज्ञान व्यक्ति के मन (Mind) तथा शरीर (Body) से युक्त प्राणी मानते हुए. उसका अध्ययन करता है। दूसरे शब्दों में मनोविज्ञान, व्यक्ति को मनःशारीरिक प्राणी (Psycho-physical animal) मानता है।
6. मनोविज्ञान, सब प्रकार की ज्ञानात्मक क्रियाओं (Cognitive Activities) जैसे- स्मरण, कल्पना, संवेदना आदि; संवेगात्मक क्रियाओं (Emotional Activities), जैसे-रोना हँसना, क्रुद्ध होना आदि और क्रियात्मक क्रियाओं (Motor Activities), जैसे-बोलना, चलना फिरना आदि का अध्ययन करता है।
उल्लिखित तथ्यों के आधार पर हम वुडवर्थ के शब्दों में इस निष्कर्ष पर पहुँचते है -"सबसे पहले मनोविज्ञान ने अपनी आत्मा का त्याग किया। फिर उसने अपने मन या मस्तिष्क का त्याग किया। उसके बाद उसने चेतना का त्याग किया। अब वह व्यवहार की विधि को स्वीकार करता है।"
मनोविज्ञान की परिभाषाएँ
मनोविज्ञान की विकास की लम्बी यात्रा के दौरान मनोवैज्ञानिकों एवं मनीषियों ने चिन्तन-मनन किया तथा मनोविज्ञान के स्वरूप को निर्धारित किया। अनेक मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान की परिभाषाओं की रचना की। कुछ परिभाषायें इस प्रकार है-
1. बोरिंग, लैंगफेल्ड व वेल्ड - "मनोविज्ञान मानव-प्रकृति का अध्ययन है।"
2. गैरिसन व अन्य - "मनोविज्ञान का सम्बन्ध प्रत्यक्ष मानव-व्यवहार से है।"
3. स्किनर - "मनोविज्ञान, व्यवहार और अनुभव का विज्ञान है।"
4. मन- "आधुनिक मनोविज्ञान का सम्बन्ध, व्यवहार की वैज्ञानिक खोज से है।"
5. पिल्सबरी - "मनोविज्ञान की सबसे सन्तोषजनक परिभाषा, मानव व्यवहार के विज्ञान के रूप में की जा सकती है।"
6. क्रो व क्रो- "मनोविज्ञान मानव-व्यवहार और मानव-सम्बन्धों का अध्ययन है।"
7. वुडवर्थ- “मनोविज्ञान, वातावरण के सम्बन्ध में व्यक्तियों की क्रियाओं का वैज्ञानिक अध्ययन है ।"
8. जेम्स- "मनोविज्ञान की सर्वोत्तम परिभाषा चेतना के वर्णन और व्याख्या के रूप में की जा सकती है।"
इन परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि मनोविज्ञान विधायक (Positive) तथा आदर्श नियामक (Normative) विज्ञान की श्रेणी में रखा जाता है। यह व्यक्ति की मानसिक तथा शारीरिक क्रिया का अध्ययन है। मानसिक क्रिया अनुभूतिजन्य है और शारीरिक क्रिया व्यवहारजन्य । इनका समन्वित अध्ययन मानव के व्यवहार के अध्ययन को सही दिशा प्रदान करता है।