व्यावसायिक सम्प्रेषण की कार्य विधियाँ, समूह चर्चा, साक्षात्कार, संगोष्ठी

    एक व्यवसायी में सम्प्रेषण की  कुशलता में निपुण होना आवश्यक है। यद्यपि व्यावसायिक जीवन में मानसिक के अतिरिक्त शारीरिक श्रम की आवश्यकता होती है और व्यावसायिक सफलता इस बात पर निर्भर होती है कि आप अपने ज्ञान, विचारों व अनुभवों को अन्य लोगों तक समूह चर्चा, साक्षात्कार, संगोष्ठियों, अधिवेशनों व अपने व्याख्यानों, भाषण इत्यादि सम्प्रेषण के माध्यमों से किस सीमा तक प्रभावित करते हैं।

    दूसरे शब्दों में,अगर देखा जाए एक व्यवसायी अपने व्यवसाय में निरन्तर उन्नति उक्त (समूह चर्चा, साक्षात्कार, संगोष्ठियों, अधिवेशनों, व्याख्यानों तथा भाषणों इत्यादि) मौखिक व्यावसायिक सम्प्रेषण के अभ्यासों द्वारा प्राप्त कर सकता है। इन अभ्यासों की आवश्यकता आम तौर पर निजी व सार्वजनिक क्षेत्रों के दफ्तरों में आवश्यक होती है।।

    समूह चर्चा से अभिप्राय

    प्रत्येक व्यावसायिक संगठन में विभिन्न कार्यों के लिए जिम्मेदार और विश्वसनीय व्यक्तियों की एक श्रृंखला होती. है। विभिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न विभागों को देखते हैं। प्रत्येक व्यावसायिक संगठन को आन्तरिक या बाह्य विभागों की कुछ समस्याओं में सहभागिता लेनी होती है।

     इन स्थितियों का सामना करने के लिए समूह चर्चा एक आवश्यक यन्त्र की तरह कार्य करती है। समूह चर्चा में प्रायः किसी भी व्यावसायिक समस्या को समझने के लिए उस पर विचार-विमर्श किया जाता है, जिससे उस समस्या को सर्वोत्तम तरीके से हल किया जा सके।

    वास्तव में, समूह चर्चा मौखिक सम्प्रेषण का ही रूप है जो एक व्यावसायिक संगठन की समस्याओं पर चर्चा कर निष्कर्ष प्राप्त करने में सहायक होता है अर्थात् समूह चर्चा में एक समस्या या नीतियों पर मौखिक चर्चा करके निष्कर्ष प्राप्त किया जाता है।

    अन्य शब्दों में, समूह चर्चा से अभिप्राय किसी संगठन से सम्बन्धित समस्याओं, नीतियों अथवा संगठन की कार्य-पद्धति के मूल्यांकन या अन्य उद्देश्यों के लिए संयुक्त सहभागिता से है। समूह चर्चा में विभिन्न व्यावसायिक विषयों पर विचार-विमर्श करके किसी भी व्यावसायिक समस्या के समाधान हेतु विभिन्न उपायों में से सर्वश्रेष्ठ उपाय को चयन किया जाता है।

    एक व्यावसायिक संगठन में निम्नलिखित चार प्रकार के समूह हो सकते हैं-

    (i) औपचारिक समूह, (ii) अनौपचारिक समूह, (iii) प्राथमिक समूह, (iv) द्वितीयक समूह |

    समूह चर्चा के उद्देश्य 

     समूह चर्चा के प्रमुख उद्देश्यों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

    1. समस्या को हल करना

    समूह चर्चा के द्वारा विभिन्न रचनात्मक विचारों व सुझावों के माध्यम से संगठन की समस्या का निवारण किया जाता है।

    2. निर्णय लेने में सहायता करना

    निर्णय प्रक्रिया में विशिष्ट प्रकार के व्यक्ति सम्मिलित होते है। अतः समूह चर्चा में इन विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा निर्णय दिये जाते हैं। इस प्रकार का समूह चर्चाएँ स्पष्ट व रचनात्मक होती हैं।

    3. विचारों की प्रतिक्रियाओं को जानना

    समूह चर्चा का यह लक्ष्य है कि विचारों/आदर्शों को प्रस्तुति व इस सम्बन्ध में प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करना जिससे प्रतिभागी प्रश्नों को पूछने व चर्चा के लिए प्रोत्साहित होते हैं।

    समूह चर्चा की तैयारी

    समूह चर्चा के आयोजन के लिए निम्न तैयारी करनी होती है। 

    1. आवश्यक व्यवस्थाएँ (Essential Arrangements)

    (i) दिनांक, स्थान, समय एवं समयावधि।

     (ii) समूह चर्चा में कौन-कौन सम्मिलित होंगे ?

    (iii) समूह चर्चा की अध्यक्षता कौन करेगा ?

    (iv) व्याख्यान बोलने के लिए कौन आमन्त्रित करेगा ? 

    2. लिखित कार्य (Written Work)

    (i) विषय सूत्री/मुख्य बिन्दु/कार्यसूची

    (ii) पूर्व चर्चा के बिन्दु (यदि हों तो)।

     (iii) तैयारी पूर्ण रपट का अध्ययन।

    (iv) लिखित रपट या चर्चा के लिए आवश्यक चित्र ।

    3. उद्देश्य (Objectives)

    (i) आपका लक्ष्य क्या है?

    (ii) आप किस प्रकार की चर्चा आयोजित कर रहे

     (iii) क्या आपको प्रचार की आवश्यकता है?

    (iv) क्या आपको किसी विषय पर विशेषज्ञ की सलाह की आवश्यकता है?

    (v) क्या आप चर्चा के कारण से परिचित हैं?

    4. सहयोग (Co-operation)

    (i) क्या आप दृश्यिक उपकरणों के प्रयोग की आवश्यकता महसूस करते हैं ?

    (ii) क्या कोई लिखित रपट की आवश्यकता है?

    (iii) विषय पर वहाँ कितना सामान्य ज्ञान उपलब्ध है?

     (iv) यदि आप प्रस्तुति करते हैं तो क्या आप आवश्यक बिन्दुओं को पढ़ेंगे और उनका अनुपालन करेंगे?

    समूह चर्चा के समय व्यवहार (आचरण) के स्वरूप 

    समूह चर्चा के समय आचरण या व्यवहार के अग्र स्वरूप होते हैं-

    1. कृत्यक आचरण (Task Behaviour), 

    2. अनुरक्षण आचरण (Maintenance Behaviour),

    3. आत्म-निर्देशित आचरण (मुख्य कार्य बिन्दु) (Self-directed Behaviour)।

    1. कृत्यक आचरण (Task Behaviour) 

    कृत्यक आचरण चर्चा को उद्देश्य की प्राप्ति, निर्धारित समयावधि में उच्च गुणवत्ता के विचारों की प्राप्ति के लिए उन्मुख होता है। इसमें उपलब्ध सूचनाओं का विश्लेषण, ज्ञात स्रोतों का निर्धारण, समस्याओं को परिभाषित करना, प्रस्तावों का निर्माण, सफलता की कसौटियों की स्थापना, हल को परिभाषित करना, अच्छे हल के लिए स्वीकृति, प्रस्तुति, योजना, मूल्यांकन व संक्षिप्तीकरण सम्मिलित होता है।

    2. अनुरक्षण आचरण (Maintenance Behaviour)

    अनुरक्षण आचरण में सहभागी इस चर्चा में कैसा महसूस कर रहे हैं, इस बात को जाना जाता है। इसमें बैठक को कैसे प्रबन्धित करना है, कौन, किसको प्रभावित करता है, कौन किससे क्यों बात करता है, कौन हिस्सा ले रहा है, कौन और क्यों एक-दूसरे के प्रस्ताव का समर्थन, सुरक्षा, प्रोत्साहन, तनाव को कम करना व प्रतिपुष्टि (Feedback) देना सम्मिलित होता है।

    3. आत्म-निर्देशित आचरण (Self-directed Behaviour)

    आत्म-निर्देशित आचरण में व्यक्ति चर्चा के दौरान किस प्रकार से अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास करता है इसका अध्ययन समाहित होता है, जैसे, वार/प्रतिवार, सुरक्षात्मक व्यवहार, एक-दूसरे के प्रस्तावों पर असहमति, प्रतियोगिता की पहचान या स्वीकृति, सहभागिता की अस्वीकृति इत्यादि समाहित होते हैं।

    एक सफल समूह चर्चा की अनिवार्य शर्तें

    एक समूह चर्चा तभी रचनात्मक व उद्देश्यपूर्ण होगी जबकि निम्नलिखित बातों पर विशेष ध्यान दिया जायेगा—

    1. विचारों का आदान-प्रदान (Exchange of Ideas ) 

    एक समूह चर्चा विभिन्न रुचि व कुशलता वाले व्यक्तियों के विचारों/ आदर्शों के संयोजन द्वारा होनी चाहिए। तभी समूह में उपस्थित सदस्यों को भी समस्या को हल करने के लिए आवश्यक जानकारी प्राप्त हो सकेगी।

    2. उद्देश्यों या लक्ष्यों की प्राप्ति (Achievement of Objectives)

    समूह चर्चा में सम्मिलित व्यक्तियों को चर्चा के उद्देश्य / लक्ष्य के प्रति जागरूक रहकर उसके अनुकूल क्रियाशील रहना चाहिए। 

    3. सहयोगात्मक वातावरण (Co-operative Environment ) 

    समूह चर्चा में ऐसा सहयोगात्मक वातावरण निर्मित होना चाहिए कि प्रत्येक विचार आदर्श को अनुकूल व रचनात्मक आलोचनाओं के साथ सुना जाये व प्रोत्साहित किया जाये।

    4. सकारात्मक दृष्टिकोण (Positive Attitude)

    सामूहिक विचार-विमर्श केवल तभी सफल हो सकता है, जब विचार-विमर्श के सम्बन्ध में सभी सदस्यों की सोच सकारात्मक हो।

    समूह चर्चा के लाभ 

    1. एक समूह चर्चा से अधिक तर्कसंगत निष्कर्ष प्राप्त होते हैं, क्योंकि इसमें कई बुद्धिजीवियों के अथाह ज्ञान व अनुप्रयोग एक अकेले व्यक्ति या बुद्धि की तुलना में कहीं अधिक होता है। 

    2. एक समूह चर्चा सदैव उपायों की ओर अग्रसर होती है। एक व्यक्तिगत उपाय की अपेक्षाकृत संयुक्त उपाय कहीं अधिक विश्वसनीय व उत्कृष्ट होते हैं।

    3. समूह चर्चा श्रम की विशिष्टता को जन्म देती है, क्योंकि इसमें एक अच्छे उद्देश्य की पूर्ति के लिए विभिन्न विषयों में पारंगत व्यक्ति अपने अनुभवों, विचारों, आदशों के जरिये सहयोग देते हैं। अतः समूह चर्चा में सहभागिता का दृष्टिकोण निष्कर्षो की उपादेयता/विश्वसनीयता को बढ़ाने के साथ-साथ निर्णय क्षमता को बढ़ाती है।

    4. समूह चर्चा ज्ञान में वृद्धि के साथ-साथ प्रतिभागियों को समझने में सहायक होता है।

    समूह चर्चा के दोष या सीमाएँ

    समूह चर्चा की निम्न सीमाएँ हैं-

    1. समूह चर्चा के आयोजन व इसके जरिए निष्कर्ष प्राप्ति में अधिक समय लगता है।

     2. समूह चर्चा में जिन प्रतिभागियों के विचारों के प्रति सहमति नहीं हो तो उनमें बैर-भाव का जन्म होता है।

    3. आपातकालीन स्थिति में समूह चर्चा का आयोजन असम्भव होता है। क्योंकि उस समय संस्था की शीघ्र निर्णय लेने की आवश्यकता होती है।

     उपर्युक्त विवेचनाओं के आधार पर हम यह निष्कर्ष दे सकते हैं कि एक व्यावसायिक संगठन के आकार थ उसको गतिविधियों में वृद्धि के लिए समूह चर्चा की अहम् भूमिका होती है।

    अधिवेशन/ सम्मेलन

    अधिवेशन से आशय (Meaning of Conferences ) 

    'Conference' शब्द 'Confer' से बना है जिसका अभिप्राय 'विचारों की तुलना' व 'एक-दूसरे से सलाह' से है अर्थात् किसी एक विशिष्ट 'रुचिकर' विषय पर सूचनाओं का आदान-प्रदान अधिवेशन कहलाता है। अधिकाधिक संगठन चाहे वे निजी, सरकारी या अशासकीय, अथवा बहुराष्ट्रीय हों या शैक्षणिक या वैज्ञानिक हों, वे मुख्यतः वार्षिक अथवा समय-समय पर अधिवेशनों का आयोजन नवीन सूचनाओं को प्राप्त करने के लिए करते हैं।

    अधिवेशन के अन्तर्गत एक विशेष विषय पर विचार-विमर्श, विचारों के आदान-प्रदान, सलाह मशवरा लेने के लिए व्यक्तियों को एक स्थान पर एकत्रित किया जाता है, यद्यपि समितियों का कार्य भी अपनी बैठकों में एक विशेष विषय पर चर्चा करना होता है, परन्तु अधिवेशन में प्राप्त निष्कर्षों पर अनुपालन के लिए अधिक जोर दिया जाता है।

    आज के व्यावसायीकरण व अत्यधिक विस्तृत होते ज्ञान के कारण अधिवेशनों का अत्यधिक महत्व है। विभिन्न संगठनों में विक्रय प्रतिनिधि को, कर्मचारियों को उनकी समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में अधिवेशन किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त अधिवेशनों का उद्देश्य संगठन के नवाचारों के लिए प्रशिक्षण के माध्यम से उत्साह पैदा करना व उनकी कठिनाइयों को समझना होता है। इसके लिए विभिन्न संगठनों व विश्वविद्यालयों के विषय विशेषज्ञों को एक विशिष्ट विषय पर नये अनुसन्धान व विचारों से अवगत होने के लिए आमन्त्रित किया जाता है। 

    अधिवेशनों से लाभ (Advantages of Conferences)

    अधिवेशनों से निम्नलिखित लाभ हैं-

    1. इसमें सहभागियों को सम्बन्धित विषय के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त होता है।

    2. इससे विभिन्न विषय क्षेत्रों में पारंगत विषय विशेषज्ञों के माध्यम से व अन्य व्यक्तियों जो इसमें प्रतिभागी होते हैं, से सूचनाओं का प्रसार/विस्तार होता है।

     3. प्रतिभागियों को सोचने व विचार-विमर्श के लिए प्रोत्साहन प्राप्त होता है और उनके रचनात्मक विचारों को अन्य तक पहुँचाया जाता है।

     4. प्रतिभागियों के मध्य स्वस्थ सम्बन्धों की स्थापना के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

     5. प्राप्त निष्कर्षो की और सरकार का ध्यान आकर्षित कराया जाता है और विषय से सम्बद्ध समस्याओं के निराकरण के लिए सुझावों के अनुपालन के लिए जोर दिया जाता है।

    अधिवेशनों की सीमाएँ (Limitations of Conferences)

    अधिवेशनों को निम्नलिखित कमियों या सीमाएँ है-

     1. इसका आयोजन अत्यन्त खर्चीला होता है।

    2. सामान्यतः अधिवेशनों में कुछ विशेषज्ञों का ही  प्रभाव रहता है।

    3. यह देखा गया है कि अधिवेशनों में हिस्सा लेने वाले ज्ञानार्जन के लिए नहीं अपितु  उस स्थान के ऐतिहासिक स्थलों या आस-पास के पर्यावरण/दृश्य को देखने के लिए सम्मिलित होते हैं।

    4. अधिवेशनों में सामान्यतः यह देखा गया है कि केवल सामान्य बातों पर (जो लगभग सभी प्रतिभागियों को ज्ञात होती हैं) चर्चा या विचार-विमर्श होता है और विशिष्ट मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया जाता जोि अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है।

    अधिवेशनों को प्रभावशाली बनाने के तरीके (Essentials of Effective Conference)

    अधिवेशनों को निम्न तरीकों से प्रभावशाली बनाया जा सकता है-

    1. केवल गम्भीर व ज्ञानी प्रतिभागियों को हो आमन्त्रित किया जाये।

     2. अधिवेशन प्रारम्भ होने से पूर्व प्रतिभागियों के लेखों या शोध-पत्रों को आमन्त्रित कर उन्हें प्रकाशित स्वरूप में प्रतिभागियों को वितरित किया जाये।

     3. प्रत्येक सत्र में ज्ञानी व बुद्धिमान व्यक्ति को ही अध्यक्षता या मुख्य अतिथि विषय विशेषज्ञता के लिए आमन्त्रित किया जाये।

    4. उचित बैठक व्यवस्था व अन्य, जैसे, विश्राम, अल्प आहार, जलपान सम्बन्धी व्यवस्थाएँ पहले से ही कर लेनी चाहिए।

     5. अध्यक्षता कर रहे व्यक्ति को वक्ता को उचित समयावधि, प्रोत्साहन के लिए अनुकूल, स्वस्थ एवं सहानुभूति आचरण रखना चाहिए, साथ ही साथ सत्र को उचित समयावधि में उचित तरीके से समाप्त करना चाहिए।

    कृत्रिम या नकली साक्षात्कार 

    कृत्रिम साक्षात्कार से अभिप्राय साक्षात्कार सम्बन्धी वास्तविक स्थितियों को पैदा करने से है अर्थात् वास्तविक साक्षात्कार की नकल उतारना ही कृत्रिम साक्षात्कार कहलाता है। कृत्रिम साक्षात्कार, वास्तविक साक्षात्कार का एक प्रतिदर्श या नमूना मात्र है। इसके द्वारा इस बात की जानकारी प्राप्त होती है कि वास्तविक साक्षात्कार कैसे किया जाता है। अन्य शब्दों में, एक वास्तविक साक्षात्कार को समझने जानने के लिए आयोजित साक्षात्कार नकली या कृत्रिम साक्षात्कार कहलाता है।

    शर्ते (Conditions)

    एक कृत्रिम साक्षात्कार को आयोजित करने की निम्नलिखित शर्तें हैं-

    1. उचित स्थान का निर्णय लेना नकली साक्षात्कार का प्रथम चरण है अर्थात् ऐसे स्थान की खोज जो आरामदायक, अलग-थलग व बाधा या रुकावट पैदा करने वाली न हो। साक्षात्कार देने वालों के लिए एक प्रतीक्षालय जहाँ अध्ययन के लिए पत्र/पत्रिकाएँ हों, ताकि वे अपनी प्रतीक्षा अवधि आसानी से व्यतीत कर सकें।

    2. उचित स्थान के चयन हो जाने के पश्चात् साक्षात्कार की तैयारी एक महत्वपूर्ण चरण है। इसके लिए निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य हैं-

    * साक्षात्कार की व्यवस्था का समय कब करना है ?

    * साक्षात्कार का नोटिस कब लगाया जाये ?

    * साक्षात्कार की समयावधि क्या होगी ?

    * साक्षात्कार कौन लेगा ?.

    * साक्षात्कार में कौन-से प्रश्न पूछ जायें ?

    * पूछे गये प्रश्नों के उत्तर को भविष्य के लिए किस प्रकार सुरक्षित रखा जाये ?

    * साक्षात्कार लेने के उपरान्त साक्षात्कार की तुलना कैसे की जाये ?

    3. साक्षात्कार को लेने वालों की सूची पूर्व में ही तैयार कर उन्हें नियत तिथि व स्थान की जानकारी के साथ-साथ साक्षात्कार में पूछे जाने वाले प्रश्नों की एक सामान्य जानकारी लेना सुविधाजनक होगा।

    कृत्रिम साक्षात्कार का आयोजन 

    एक संगठन या व्यवसाय में किसी कार्य/नौकरी/पद के लिए उम्मीदवार का चयन करने सम्बन्धी एक कृत्रिम साक्षात्कार का आयोजन चयन समिति में निम्नानुसार किया जा सकता है-

    माना कि साक्षात्कार लेने वाला संजय तिवारी विषय विशेषज्ञ है और डॉ. आशीष मिश्रा साक्षात्कार देने वाले उम्मीदवार हैं।

    कृत्रिम साक्षात्कार के विभिन्न चरण

    प्रथम चरण (First Step) 

    कृत्रिम साक्षात्कार प्रारम्भ होने के पूर्व साक्षात्कार देने वाले व्यक्ति अर्थात् डॉ. आशीष मिश्रा को एक प्रपत्र भरने के लिए कहा जायेगा जिसमें उन्हें अपनी शिक्षा, अनुभव, अभिरुचियाँ व अन्य सम्बन्धित जानकारी देनी होगी। इसे नौकरी हेतु साक्षात्कार पार्शिका (Job Interview Profile) कहा जाता है। 

    यद्यपि डॉ. आशीष मिश्रा सहायक प्राध्यापक वाणिज्य पद हेतु उम्मीदवार हैं, अत: इसका ' नौकरी हेतु साक्षात्कार पार्शिका' (Job Interview Profile) में आवेदित पद आवेदक का नाम, शैक्षणिक योग्यताएँ. अनुभव, स्थान/ पता, व्यक्तिगत जानकारी, अभिरुचियाँ व सम्भावित तनख्वाह (Salary) इत्यादि जानकारियाँ जो न्यूनतम व वांछनीय होती है, उसका उल्लेख होता है।

    द्वितीय चरण (Second Step)

    कृत्रिम साक्षात्कार के द्वितीय चरण में साक्षात्कार देने वाला अर्थात् डॉ. आशीष मिश्रा साक्षात्कार हेतु निर्धारित कमरे में प्रवेश करते हैं। साक्षात्कार हेतु अनुकूल वातावरण के निर्माण के लिए प्रथम कुछ मिनिटों में डॉ. आशीष मिश्रा से सामान्य विषयों पर चर्चा की जाती है।

     ऐसा करने पर साक्षात्कार देने वाले व लेने वाले के बीच साक्षात्कार के लिए उचित/अनुकूल वातावरण निर्मित होकर प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित हो जाता है। साक्षात्कार लेने वाले प्रो. संजय तिवारी आयोजित साक्षात्कार का उद्देश्य, संरचना का विवरण डॉ. आशीष मिश्रा को देते हैं, साथ ही साथ साक्षात्कार की समयावधि से भी अवगत कराते हैं। तत्पश्चात् प्रो. संजय तिवारी प्रश्न पूछना प्रारम्भ करते हैं। सामान्यत: पूछे जाने वाले प्रश्नों की निम्न श्रेणियाँ हो सकती है-

    * व्याख्यात्मक प्रश्न (Open Questions)

    * वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Closed Questions)

    * परीक्षक प्रश्न (Probing Questions)

    * समस्या समाधान विरूपक प्रश्न (Solution related Questions) 

     * सम्बन्ध स्थापित करने वाले प्रश्न (Link Questions)

    उदाहरण- पो. संजय तिवारी (विषय विशेषज्ञ) – क्या आपने हमारे विज्ञापन का अध्ययन किया ? 

     डॉ. आशीष मिश्रा जी हाँ, श्रीमान् 

     प्रो. संजय तिवारी (विषय विशेषज्ञ) –अध्ययन/अध्यापन सम्बन्धी आपके कैरियर में आपका अन्तिम लक्ष्य क्या है ?

     डॉ. आशीष मिश्रा श्रीमान् जी में एक आदर्श व प्रसिद्ध प्राध्यापक बनना चाहता हूँ।

    प्रो. संजय तिवारी (विषय विशेषज्ञ) – मैं समझ रहा हूँ कि आपका लक्ष्य एक आदर्श व प्रसिद्ध प्राध्यापक - बनना है, परन्तु इस पद को प्राप्त करने के लिए आपका विशेष योगदान क्या होगा ? (हाँ/न परख वाला प्रश्न)

    डॉ. आशीष मिश्रा- मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं अपने कर्तव्य का निवर्हन अत्यन्त लगन/ निष्ठात्र ईमानदारीपूर्वक करूँगा एवं विद्यार्थियों को विषय सम्बन्धी नितु नये परिवर्तनों से अवगत कराऊँगा।

     प्रो. संजय तिवारी (विषय विशेषज्ञ) - यदि कोई विद्यार्थी आपकी कक्षा में विलम्ब से आता है तो आप उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे? ( स्थिति सम्बन्धी प्रश्न )

    डॉ. आशीष मिश्रा- मैं सर्वप्रथम विद्यार्थी के विलम्ब से आने के कारण की खोज करूँगा व उसे कक्षा में समय पर आने हेतु प्रेरित करूंगा।

    प्रो. संजय तिवारी (विषय विशेषज्ञ) – आपके उत्तर से स्पष्ट है कि आप एक प्राध्यापक के साथ एक अच्छे प्रेरक का कार्य भी कर रहे हैं। यह अनुभव हमारे शिक्षण संस्था के अध्ययन/अध्यापन सम्बन्धी व्यवस्था में किस प्रकार सहायक सिद्ध होगा ?

     डॉ. आशीष मिश्रा - अध्ययन या अध्यापन सम्बन्धी पूर्व अनुभवों ने मुझे विद्यार्थियों के आचरण से अच्छी तरह अवगत कराया है अत: मैं विद्यार्थियों को अपने अनुभव के आधार पर उनमें अध्ययन के प्रति रुचि जाग्रत कर आपके शिक्षण संस्थान के परीक्षा परिणाम व छात्र अनुशासन को उत्कृष्टता पर ले जाने का प्रयास करूँगा ।

    तृतीय चरण (Third Step)

     कृत्रिम साक्षात्कार का तृतीय चरण साक्षात्कार लेने वाले की रुचि व व्यवहार से सम्बन्धित है। साक्षात्कार लेने वालों को साक्षात्कार के लिए अनुकूल माहौल के निर्माण के लिए उम्मीदवार में आपकी रुचि व स्वयं के चेहरे पर मुस्कान व उत्तर के प्रति सहमति व्यक्त करने के लिए सिर का हिलाना इत्यादि गतिविधियाँ सम्पन्न करता है, ताकि साक्षात्कार देने वाला निराश न हो व सम्वाद जारी रहे।

     चतुर्थ चरण (Fourth Step)

     साक्षात्कार के अन्त में विषय विशेषज्ञ सम्पूर्ण साक्षात्कार का सारांश निम्नलिखित शब्दों में देते हैं-

    "क्या मेरा यह अनुभव सही है कि आप हमारे विद्यार्थियों के लिए एक आदर्श अध्यापक साबित होंगे।"

    डॉ. आशीष मिश्रा - श्रीमान् जी, आपका अनुमान सही है। 

    अन्तिम चरण (Last Step) 

    कृत्रिम साक्षात्कार का अन्तिम चरण इसका समापन है।

    प्रो. संजय तिवारी (विशेष विशेषज्ञ) अच्छा, डॉ. आशीष मिश्रा जी, धन्यवाद। हम अपने निर्णय से आपको अविलम्ब सूचित करेंगे।

    डॉ. आशीष मिश्रा- आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, श्रीमान् जी।

    संगोष्ठी या सेमिनार 

    संगोष्ठी को “छोटे समूह में चर्चा के रूप में जिसके अन्तर्गत किसी विशिष्ट विषय/सम्बन्धित शोध या अनुसन्धान या उन्नत अध्ययन को मौखिक अथवा लिखित रपट के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है" परिभाषित किया जाता है। 

    संगोष्ठी का मुख्य उद्देश्य ज्ञान का वितरण एवं समान ज्ञानी सदस्यों के मध्य अपने-अपने विचारों के प्रस्तुतीकरण से है। सामान्यतः वक्ता एक विशिष्ट विषय पर अपने ज्ञान को विस्तारित व अपने विचार प्रस्तुत करता है। अन्य सहभागी सदस्य भी वक्ता के वक्तव्य पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त वाद-प्रतिवाद भी करते हैं।

    संगोष्ठी एक विशिष्ट विषय पर विभिन्न विषय विशेषज्ञों के अनुभव व विचारों को व्यक्त व स्पष्ट करने में किया जाता है। संगोष्ठी मौखिक सम्प्रेषण की एक प्रभावशील प्रक्रिया या विधि है। इसका एक मुख्य पहलू सहायक होती है। इसमें शोध-पत्रों, संक्षेपियों, सुझावों को एक प्रकाशित रपट के स्वरूप में वृहद रूप से वितरित विचारों/अनुभवों का उचित आदान-प्रदान होता है।

    संगोष्ठी के लक्षण (Characteristics of Seminar)

    संगोष्ठी के निम्नलिखित लक्षण होते हैं - 

    1. संगोष्ठी का अभिप्राय एक छोटे समूह में विषय विशेषज्ञों के मध्य चर्चा से होता है।

    2. संगोष्ठी में चर्चा का विषय अत्यन्त ही उच्च शैक्षिक मूल्य वाला होता है।

    3. चर्चा व वाद-प्रतिवाद के स्वरूप में विषय विशेषज्ञों का एकत्रित होना सार्थक निष्कर्षों व सुझावों के रूप में परिलक्षित होता है।

    4. यह एक मौखिक रूप में व्यावसायिक सम्प्रेषण है।

    संगोष्ठी के आयोजन की पद्धति (Method of Conduction Seminar)  

    एक संगोष्ठी लगातार दो अथवा तीन दिनों तक विभिन्न सत्रों में विभाजित कर आयोजित की जा सकती है। प्रत्येक सत्र विषय के एक वृहद् पहलू से सम्बन्धित होता है, जिसमें सम्बन्धित शोध-पत्र प्रस्तुत किये जाते हैं। प्रत्येक पत्र अपने-अपने विषय में दक्ष विशेषज्ञों की अध्यक्षता में संचालित होता है।

     वह विभिन्न प्रतिभागियों को अपने शोध पत्र प्रस्तुत करने के लिए आमन्त्रित करता है। शोध पत्र प्रस्तुति के उपरान्त उक्त सम्बन्ध में अन्य सम्मिलित प्रतिभागियों से प्रश्न व विचार आमन्त्रित करता है, अतः इसी तारतम्य में संगोष्ठी प्रारम्भ हो जाती है। सम्पूर्ण चर्चा पर उसका नियन्त्रण होता है।

    यदि आप किसी संगोष्ठी में अपना शोध-पत्र प्रस्तुत कर रहे हों तो आप अपने शोध पत्र के मुख्य बिन्दुओं पर विचार कर एक क्रम में समय-सीमा के अन्दर उन्हें प्रस्तुत करें। साथ ही साथ स्वर की एकरूपता व थकान को उपेक्षा करें।

    आप चाहते हैं तो औवरहेड प्रोजेक्टर के माध्यम से अपने शोध पत्र के मुख्य बिन्दुओं को स्पष्ट कर सकते हैं। रेखाचित्रों की जहाँ आवश्यकता हो, का उपयोग कर सकते हैं। चाहें तो अन्य ऑडियो-वीडियो सामग्री का प्रयोग भी किया जा सकता है।

    संगोष्ठी के आरम्भ में प्रथमतः वक्ता श्रोताओं को सत्र में चर्चा के विषयों से परिचित कराता है। वह विशिष्ट सत्र के विषय पर अपने सम्पूर्ण साहित्य से परिचित कराता है, साथ ही साथ उक्त विषय पर किये गये शोध/अनुसन्धान से अवगत कराता है।

    उदाहरणस्वरूप, यदि हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड द्वारा एक संगोष्ठी का आयोजन विषय 'Customer Relationship Management' पर किया जाता है तो प्रथमतः वक्ता Mr. U.S. Vaidhya द्वारा श्रोताओं को उक्त विषय के अर्थ से परिचित कराते हैं, तत्पश्चात् उसके महत्व को उद्योग के सन्दर्भ में स्पष्ट करते है, तत्पश्चात् भारतीय कम्पनियों को उक्त विषय की आवश्यकता अपने उत्पाद के सन्दर्भ में क्यों है ? इस सन्दर्भ में उसकी महत्ता स्पष्ट करते हैं। 

    विभिन्न सत्रों से प्राप्त निष्कर्षो को बिन्दुसार संगोष्ठी के समापन सत्र में स्पष्ट किया जाता है। बड़े ही संक्षिप्त रूप में विभिन्न कहावतों व कथनों का प्रयोग करते हुए अपने वक्तव्य को प्रभावशाली ढंग से समाप्त किया जाता है।


    Post a Comment

    Previous Post Next Post