मौखिक प्रस्तुतीकरण, अर्थ, उद्देश्य, सिद्धांत, तथा प्रभावित करने वाले कारक

    एक व्यवसायी में सम्प्रेषण कुशलता/ दक्षता का होना आवश्यक है। यद्यपि व्यावसायिक जीवन में मानसिक के अतिरिक्त शारीरिक श्रम की आवश्यकता होती है और व्यावसायिक सफलता इस बात पर निर्भर होती है कि आप अपने ज्ञान, विचारों व अनुभवों को अन्य लोगों तक समूह चर्चा, साक्षात्कार, संगोष्ठियों, अधिवेशनों व अपने व्याख्यानों, भाषणों इत्यादि सम्प्रेषण के माध्यमों से किस सीमा तक प्रभावित करते हैं। दूसरे शब्दों में, एक व्यवसायी अपने व्यवसाय में निरन्तर उन्नति उक्त मौखिक व्यावसायिक सम्प्रेषण के अभ्यासों द्वारा प्राप्त कर सकता है। इन अभ्यासों की आवश्यकता आम तौर पर निजी व सार्वजनिक क्षेत्रों के दफ्तरों में आवश्यक होती है।

    मौखिक प्रस्तुतीकरण का आशय  

    'मौखिक प्रस्तुतीकरण' से अभिप्राय श्रोताओं के एक छोटे समूह अर्थात् थोड़े-से श्रोताओं के लिए पहले से ही तैयार किये गये भाषण या व्याख्यान से है।' यह श्रोताओं एवं सम्बन्धित विषय के उद्देश्यों के अनुकूल होती है। इसका श्रोताओं के उपयुक्त होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि यह श्रोताओं की प्रकृति व परिस्थितियों से प्रभावित होती है, इसलिए प्रयुक्त सामग्री का प्रस्तुतीकरण प्रभावपूर्ण ढंग से लेना अत्यन्त अनिवार्य है।

    सरल शब्दों में, प्रेषक द्वारा प्राप्तकर्ता को अपने विचारों या सन्देशों को मौखिक रूप में देना हो मौखिक प्रस्तुतीकरण है। मौखिक प्रस्तुतीकरण में भाषा एवं उसका अर्थ स्पष्ट होना चाहिए, ताकि सुनने वाले उसका वहाँ अर्थ लगायें जो प्रस्तुतकर्ता कहना चाहता है। तकनीकी एवं कठिन शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। मौखिक प्रस्तुतीकरण को प्रभावपूर्ण, सूचनात्मक, मनोरंजक एवं प्रेरणादायक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि प्रस्तुतकर्ता को प्रस्तुती की रूपरेखा तैयार कर लेनी चाहिए जैसे शुरू में क्या बोलना है, बीच में क्या बोलना है तथा समापन किस प्रकार किया जायेगा।

    वर्तमान समय में व्यावसायिक, व्यक्तिगत, सामाजिक एवं राजनैतिक सभी क्षेत्रों में मौखिक प्रस्तुतीकरण का विशेष महत्व है क्योंकि हम प्रतिदिन ग्राहकों, साथियों, कर्मचारियों एवं जनता को विचारों या सन्देशों का सम्प्रेषण मौखिक रूप से ही करते हैं।

    मौखिक प्रस्तुतीकरण के उद्देश्य

    व्यावसायिक जगत् में मौखिक सम्प्रेषण का मुख्य उद्देश्य प्रोत्साहित करना, सूचित करना, सद्भावना सन्देश द्वारा छवि निर्माण करना एवं अस्तित्व बनाये रखना है। मौखिक प्रस्तुतीकरण के उद्देश्यों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

    1. किसी वस्तु / सेवा/प्रणाली का प्रदर्शन करना (Presenting New Goods / Services/System)

    2. एक मॉडल / आकृति / रणनीति का निर्माण करना (Construct Model/ Layout/Policy)। 

    3. सहभागियों/सहयोगियों / अन्य व्यक्तियों/श्रोताओं का मनोरंजन करना (Entertainment of Participants/Audience and others) 

    4. एक वस्तु / सेवा/अवधारणा / विचार का विक्रय करना (Selling Goods/Services/Concept/ Thoughts)।

    5. एक समूह/विभाग का प्रतिनिधित्व करना (Represent a Group/ Department)।

    6. किसी समस्या के समाधान या किसी नवीन अवधारणा के सम्बन्ध में सुझाव को प्रस्तुत करना (Suggestions about any Solution or Problems/New Concept)

    7. ग्राहकों एवं श्रोताओं को विभिन्न प्रकार की सूचनाएँ देकर सन्तुष्ट करना।

    8. व्यावसायिक संस्था को साख में निरन्तर वृद्धि करना।

    9. किसी संस्था में आलोचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक क्षमताओं का विकास करना।

    10. वस्तु से सम्बन्धित आवश्यक सूचनाएँ ग्राहकों एवं डीलरों को देना।

    मौखिक प्रस्तुतीकरण का सिद्धान्त

    मौखिक प्रस्तुतीकरण के प्रमुख सिद्धान्तों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है- 

    1. निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त 

    इस सिद्धान्त के अनुसार सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि मौखिक प्रस्तुतीकरण का उद्देश्य सूचना देना है या मनोरंजन करना है या प्रोत्साहित करना है अतः मौखिक प्रस्तुतीकरण को प्रभावशाली बनाने के लिए उद्देश्य का निश्चित होना अनिवार्य है। निश्चित उद्देश्य के अभाव में प्रस्तुतीकरण प्रभावहीन रहता है। एक मौखिक प्रस्तुतीकरण में निश्चित उदेश्य एक या इससे अधिक हो सकते हैं। इनमें से कुछ निम्न है-

    (i) प्रेरणा -  एक व्यक्ति को जब किसी कार्य को करने के लिए या समस्या के समाधान के लिए उत्साहित / प्रोत्साहित /प्रेरित किया जाता है, तब इस स्थिति में सबसे अधिक वार्तालाप क्रिया होती है। एक प्रस्तुतकर्ता अपने ज्ञान / विचार / अवधारणा के जरिये श्रोता की समझ में वृद्धि करता है। यह श्रोता किसी समस्या के समाधान के लिए भी सक्रिय होता है, यदि श्रीता का सम्पूर्ण प्रस्तुतीकरण में अधिक योगदान होने से प्रस्तुतकर्ता का योगदान न्यून हो जाता है। एक प्रस्तुतकर्ता को सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसके समक्ष नये अभिमत/विचार आदि आयेंगे।

    (ii) मनोरंजन - यदि प्रस्तुतीकरण में प्रस्तुतकर्ता श्रोता का मनोरंजन करता है तो उसे अधिक समय तक वार्तालाप करना होगा। यदि प्रस्तुतकर्ता को श्रोता का वार्तालाप में न्यूनतम योगदान होगा।

    (iii) विश्लेषण - यदि सम्पूर्ण प्रस्तुतीकरण में प्रस्तुतकर्ता का उद्देश्य मात्र सूचना देना/ विश्लेषण करना है, उस स्थिति में प्रस्तुतकर्ता व श्रोताओं के बीच वार्तालाप होता है, यद्यपि श्रोता एक प्रस्तुतीकरण में केवल प्रतिवेदन सुनने/टिप्पणी देने प्रश्न पूछने के लिए हो एकत्रित होते हैं।

    2. साख का निर्माण का सिद्धान्त 

    सम्पूर्ण प्रस्तुतीकरण प्रक्रिया में सन्देश को स्वीकृति प्रस्तुतकर्ता पर श्रोताओं के विश्वास पर निर्भर होती है, अतः आवश्यक है कि प्रस्तुतकर्ता अविलम्ब श्रोताओं के साथ अपनी साख को स्थापित करे। इसे हेतु आवश्यक है कि प्रस्तुतकर्ता श्रोताओं को अपनी पृष्ठभूमि व योग्यताओं तथा योगदान से श्रोताओं को अनिवार्य रूप से अवगत कराये।

    3. ध्यानाकर्षण का सिद्धान्त 

    सम्पूर्ण प्रस्तुतीकरण में श्रोता का ध्यानाकर्षण करना महत्वपूर्ण होता है। इस हेतु अद्य युक्तियाँ अपनानी चाहिए-

    (i) विषय श्रोताओं की आवश्यकतानुरूप-कोई भी व्यक्ति उन बातों में रुचि रखता है जो उसे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करती है। अतः आवश्यक है कि विषय का प्रत्येक बिन्दु श्रोताओं की आवश्यकतानुरूप हो।

    (ii) स्पष्ट भाषा - एक प्रस्तुतीकरण में प्रस्तुतकर्ता को स्पष्ट व रुचिकर भाषा का प्रयोग करना चाहिए; इसे मानवीय बनाना चाहिए; सटीक उदाहरण व छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग करना चाहिए।

    (iii) मुख्य विषय का अन्य सम्बन्धित विषय के बीच सम्बन्ध- प्रस्तुतकर्ता मुख्य विषय व श्रोता के पास उपलब्ध विषय सामग्री के बीच सम्बन्ध स्थापित कर विषय को अधिक सरल/सुबोध करके श्रोताओं के स्मरण में सहायता कर सकता है। श्रोताओं की विषय में रुचि है या नहीं, इस बात को ज्ञात करने के लिए अपने प्रस्तुतीकरण में समय-समय पर श्रोताओं के प्रश्नों व टिप्पणी के लिए। रुकना चाहिए। साथ ही साथ प्रस्तुतकर्ता को स्वयं की आवाज व दैहिक भाषा में भिन्नता विषयानुरूप लाकर श्रोता की रुचि को जाग्रत करना चाहिए।

    4. विश्वास का सिद्धान्त 

    एक प्रस्तुतीकरण प्रक्रिया में प्रस्तुतकर्ता व श्रोताओं में विश्वास का होना नितान्त आवश्यक है। यदि प्रस्तुतकर्ता को स्वयं पर विश्वास होगा, तभी श्रोता उस पर विश्वास करेंगे। जैसे-जैसे प्रस्तुतीकरण का समय गुजरता है, वैसे-वैसे प्रस्तुतकर्ता अपने श्रोताओं का विश्वास अर्जित करता जाता है। विश्वास को जाग्रत करने के लिए प्रस्तुतीकरण का पूर्वाभ्यास कर लेना चाहिए। यदि श्रोताओं का विश्लेषण कर लिया जाये तो प्रस्तुतकर्ता में विश्वास जाग्रत होता है।

    5. यथार्थता का सिद्धान्त 

    एक प्रस्तुतकर्ता को यथार्थपरक होना चाहिए क्योंकि श्रोता इस बात का आकलन पहले करता है। यथार्थता दृढ़ विश्वास के लिए महत्वपूर्ण होती है। यदि प्रस्तुतकर्ता अपने वक्तव्य को यथार्थता से नहीं लेगा तो श्रोता भी यथार्थपरक नहीं होंगे। 

    6. मित्रता का सिद्धान्त 

    अत्यधिक प्रभावपूर्ण प्रस्तुतीकरण के लिए प्रस्तुतकर्ता का अपने श्रोताओं से मित्रवत् दिये गये संवाद के प्रति रुचि दर्शाता है। इसके अतिरिक्त रुचि, उत्साह, मौलिकता द्वारा एक प्रभावपूर्ण प्रस्तुतकर्ता बना जा सकता है।

    7. प्रस्तुतीकरण की पूर्व प्रस्तुति का सिद्धान्त

    प्रस्तुतीकरण को प्रभावशील बनाने के लिए श्रोताओं को अपने वक्तव्य के समस्त चरणों व सम्बद्ध विषय से अवगत करा देना चाहिए। इससे प्रेषित सन्देश को श्रोता सहजता / आसानीपूर्वक ग्रहण करता है। ऐसा करने से आप अपने प्रस्तुति की मुख्य धारा में आसानी से प्रवेश करते हैं।

    8. सम्पूर्णता का सिद्धान्त 

    सम्पूर्ण प्रस्तुतीकरण सदैव इस बात को दर्शाता है कि प्रस्तुतीकरण की तैयारी में पूरा समय व ध्यान लगाया गया है। इससे प्रस्तुतीकरण में विश्वसनीयता आती है। इसके अतिरिक्त इसमें आवश्यक सूचनाओं का ही समावेश किया जाना चाहिए क्योंकि अधिक सूचनाओं का समावेश सम्पूर्ण प्रस्तुति को अविश्वसनीय बनाता है। एक सम्पूर्ण प्रस्तुतीकरण सदैव एक अपूर्ण व शीघ्रतापूर्वक की गयी प्रस्तुति से अधिक प्रभावशील होती है।

    9. मुख्य विचारों के विकास का सिद्धान्त 

    प्रस्तुतीकरण में मुख्य बिन्दुओं को एक ही वाक्य में प्रस्तुत करना चाहिए क्योंकि मुख्य बिन्दु ही वक्ता के उद्देश्य को श्रोताओं को प्राथमिकता से जोड़ता है जिससे श्रोताओं में विषय-वस्तु के प्रति रुचि पैदा होती है।

    10. शोध का सिद्धान्त 

    एक प्रस्तुतकर्ता को अपनी मुख्य अवधारणा के समर्थन के लिए तथ्यों, सूचनाओं व अन्य सम्बन्धित सामग्री को आवश्यकता होती है। आपकी खोज / शोध ही प्रारम्भिक विचारों को सम्पूर्ण प्रस्तुतीकरण से पृथक् कर कुछ नये विचारों को प्रस्तुतीकरण से जोड़ती है।

    11. रुचि पैदा करने का सिद्धान्त 

    यदि प्रस्तुतीकरण का विषय श्रोताओं को रुचि का है तो श्रोता उसमें अधिक ध्यान देते हैं। यदि विषय श्रोताओं की रुचि के प्रतिकूल है तो इस विषय को अविलम्ब मानवीय प्रवृत्ति के साथ जोड़ना श्रेयस्कर होता है। इससे विषय की गम्भीरता से ओता अवगत होते हैं और उनमें रुचि पैदा होती है। 

    12. स्पष्टता का सिद्धान्त

    मौखिक प्रस्तुतीकरण में भाषा का विशेष महत्व है अतः प्रस्तुतीकरण की भाषा इतनी सरल एवं स्पष्ट होनी चाहिए ताकि जो बात प्रस्तुतकर्ता जिस रूप में कहना चाहता है, श्रोता भी उसी रूप में स्पष्ट रूप से समझ सके।

    13. संरचना दबाव का सिद्धान्त

    एक प्रस्तुतीकरण में प्रस्तुतकर्ता को अपने विचारों को अभिव्यक्ति समय-समय पर संक्षेप में श्रोता को देनी चाहिए। विचारों की समानता को बताने के लिए अधिकाधिक शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। वक्तव्य के मुख्य भाग को अन्य भाग से सम्बद्ध करने के लिए एक पूरे वाक्य का प्रयोग होना चाहिए। विषय परिवर्तन में सदैव विचारों के सम्बन्धों पर दबाव देना चाहिए। एक वक्तव्य जितना अधिक लम्बा होता है, परिवर्तन का महत्व उतना ही बढ़ता है। यदि एक प्रस्तुतीकरण में श्रोता के सम्मुख अधिक विचारों व मतों को प्रस्तुत किया जाता है तो श्रोताओं को समझने में कठिनाई उत्पन्न होती है।

    14. समापन का सिद्धान्त 

    प्रस्तुतीकरण में जितना प्रारम्भ का महत्व है, उतना ही समापन का होता है क्योंकि इस अवधि में श्रोता अधिक सजग / सचेत होता है। समापन सदैव श्रोताओं को बताकर करना उचित होता है। इस हेतु वक्तव्य में "अन्त में", "संक्षेप में" शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इस अवस्था में प्रस्तुतकर्ता को अपने मुख्य विचारों को श्रोताओं के सम्मुख दोहराना चाहिए, तत्पश्चात् मुख्य अभिप्रेरक बिन्दुओं को बताइये। आपके अन्तिम वाक्य अत्यन्त ही उत्साहवर्द्धक, जोश भरे/ एकत्रित होने चाहिए। समापन सदैव सकारात्मक तथ्यों द्वारा करना चाहिए।

    मौखिक प्रस्तुतीकरण को प्रभावित करने वाले तत्व 

    एक प्रभावपूर्ण व सफल मौखिक प्रस्तुतीकरण में निम्नलिखित तत्व सहायक होते हैं-

    मौखिक प्रस्तुतीकरण
    (A) शारीरिक भाषा

    मौखिक प्रस्तुतीकरण में शारीरिक भाषा अधिक महत्वपूर्ण होती है क्योंकि सम्प्रेषण में शारीरिक भाषा का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा होता है। श्रोताओं की यह प्रवृत्ति होती है कि जो वे दृश्यिक रूप में देखते हैं, उसी के आधार पर मान्यताएँ / धारणाएँ बना लेते हैं। उसी आधार पर में प्रस्तुतोकरण को ग्रहण करते हैं। शारीरिक भाषा के विभिन्न प्रकार मौखिक प्रस्तुतीकरण में निम्न प्रकार से सहयोग देते हैं

    (i) व्यक्तिगत दैहिक बाह्य स्वरूप- मौखिक प्रस्तुतीकरण में व्यक्ति के दैहिक बाह्य स्वरूप का अधिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि श्रोता जो भी देखता है, उसी आधार पर वह अपनी मान्यताएँ बनाता है। अतः प्रस्तुतीकरण में निम्न बातें जो कि व्यक्ति के बाह्य स्वरूप से सम्बन्धित होती हैं, महत्वपूर्ण हैं-

    (a) व्यक्ति द्वारा ऐसे वस्त्रों को धारण किया जाये जो वातावरण के अनुकूल हों अर्थात् जो भी वस्त्र ग्रहण किया जाये, वह अवसर के लिए उपयुक्त हो।

    (b) धारण किये गये वस्त्र साफ व सुव्यवस्थित हो अर्थात् ऐसा कुछ भी धारण न करें जो श्रोताओं का ध्यान विचलित करे। उदाहरण के लिए, एक वक्ता को जीन्स/टी-शर्ट धारण कर वक्तव्य देना अनुचित है। जहाँ तक सम्भव हो, वस्त्र औपचारिक होना चाहिए।

    (ii) दैहिक हाव-भाव - श्रोता किसी वक्ता/ व्यक्ति के प्रस्तुतीकरण में दैहिक हाव-भाव का विश्लेषण अत्यन्त ही निकट से करते हैं, जबकि एक वक्ता अपने हाव-भावों का केवल अनुभव करते हैं और इस बात का अन्दाज लगा लेते हैं कि दैहिक हाव-भाव उचित है या अनुचित । तत्सम्बन्ध में केवल अन्य व्यक्ति ही आपके दैहिक हाव-भावों में परिवर्तन की उपयुक्तता/अनुपयुक्तता का विश्लेषण कर सकता है। इसलिए वक्ता का ध्यान सदैव व पूर्णतः श्रोताओं की ओर होना अधिक लाभप्रद होता है। एक वक्ता को प्रस्तुतीकरण के पूर्व दर्पण के सम्मुख अपने हाव भावों का विश्लेषण करना चाहिए। ऐसा करने से उनके दैहिक हाव-भावों पर वांछित परिवर्तन सम्भव होता है व दैहिक हाव-भाव को प्रस्तुतीकरण के अनुकूल करना सम्भव हो जाता है।

    (iii)चाल - एक मौखिक प्रस्तुतीकरण में प्रस्तुतकर्ता की चाल का श्रोताओं पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि वक्ता की चाल में आत्म-विश्वास हो तो इससे श्रोताओं पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जबकि संकोच / झिझक से परिपूर्ण चाल श्रोताओं पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। वक्तव्य के समय अत्यधिक चहलकदमी से श्रोता का ध्यान बँट जाता है इसलिए परिस्थितियों व विषय के अनुकूल ही चहलकदमी की जाये।

    (iv) मुखाभिव्यक्ति - मुखाभिव्यक्ति किसी भी प्रस्तुतीकरण का अधिक प्रभावशील अंग है। मुखाभिव्यक्ति सदैव विषय / परिस्थिति के अनुकूल होनी चाहिए। विषय/परिस्थितियों के प्रतिकूल मुख्याभिव्यक्ति हमारे सम्पूर्ण वक्तव्य का गलत अर्थ व सन्देश प्रेषित कर सकती है। यद्यपि नेत्र सम्पर्क मौखिक प्रस्तुतिकरण का एक प्रबल स्रोत है क्योंकि इसी के माध्यम से श्रोता किसी वक्ता की गम्भीरता, साख व लोच का अन्दाज लगाते हैं बल्कि एक वक्ता नेत्र सम्पर्क से ही अपने श्रोताओं की विषय के प्रति गम्भीरता का अनुमान लगा पाने में सक्षम होते हैं।

    (v) मुद्रा/आसन - दैहिक हाव-भाव की तरह ही मुद्रा/आसन सम्प्रेषण प्रक्रिया में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निवर्हन करते हैं। मुद्रा/आसन एक प्रस्तुतीकरण/ वार्तालाप में प्राकृतिक सहयोग प्रदान करते हैं। श्रोताओं का वक्ता द्वारा की जाने वाली शारीरिक अंगों की प्रत्येक गतिशीलता पर ध्यान रहता है और यह भी निश्चित है कि एक वक्ता बिना हाथ /पैर/सिर को हिलाये किसी सन्देश को पूर्णता दे पाने में असमर्थ होता है।

    (B) ध्वनि का प्रयोग 

    ध्वनि द्वारा किसी सन्देश को नियन्त्रित व वास्तविक स्वरूप / अर्थ में संचारित किया जा सकता है। इसलिए प्रस्तुतकर्ता को ध्वनि के सन्दर्भ में निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिए-

    (1) आवाज -  श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करने में आवाज महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, यद्यपि प्रत्येक वक्ता का प्रथम उद्देश्य यह होता है कि श्रोता उसे सुने। इसलिये वह आवाज की तीव्रता को कक्ष व श्रोताओं के अनुकूल ढालता/नियन्त्रित करता है। अतः स्पष्ट आवाज का होना अत्यन्त आवश्यक है।

    (ii) स्वर - एक वक्तव्य में स्वर का उतार-चढ़ाव विषय की गम्भीरता को स्पष्ट करता है। जैसे, यदि स्वर को बढ़ाया जाये, इसका अर्थ यह है कि वे किसी विचार-विशेष पर बल दे रहे हैं। यदि हम कोमल/हल्के स्वर का प्रयोग कर रहे हैं, इसका अर्थ यह है कि हम श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करना चाह रहे हैं।

    (ii) पिच - पिच के उतार चढ़ाव एक वक्तव्य में श्रोताओं को वक्ता के विषय परिवर्तन का संकेत देता है।

    (iv) स्वर गति - यदि वक्तव्य एक ही गति में चलता है तो श्रोता बोरियत महसूस करते हैं एवं उनका ध्यान बँट जाता है। रुचि जाग्रत करने के लिए स्वर की गति को घटाते/बढ़ाते रहना चाहिए। प्रारम्भ में वक्तव्य की गति धीमी रखते हुए धीरे-धीरे क्रमशः गति बढ़ाने से वक्तव्य अधिक रुचिकर हो जाता है।

    (C) श्रोता विश्लेषण

    सम्पूर्ण मौखिक प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया में प्रस्तुतकर्ता द्वारा प्रस्तुतीकरण के पूर्व/पश्चात् श्रोताओं का विश्लेषण करना चाहिए। प्रस्तुतीकरण के पूर्व विश्लेषण में वक्ता को उन बातों की जानकारी लेनी चाहिए जो उनकी प्रस्तुति को प्रभावित कर सकते हैं, जैसे, श्रोताओं का आकार, उनको आयु/लिंग/शिक्षा/ अनुभव / विषय सम्बन्धी जानकारी वक्ता अपने श्रोताओं की जितनी अधिक जानकारी रखेगा, उसका प्रस्तुतीकरण उतना ही प्रभावशाली होगा। प्रस्तुतीकरण के पश्चात् श्रोता विश्लेषण से अभिप्राय व्याख्यान वक्तव्य के प्रति उनकी प्रतिक्रिया ज्ञात होना है। श्रोताओं द्वारा पूछे गये प्रश्नों के द्वारा आप उनका विश्लेषण कर सकते हैं।

    (D) सम्प्रेषण वातावरण

    प्रस्तुतकर्ता के आस-पास का वातावरण जो श्रोता को दिखाई देता है, बाह्य वातावरण कहलाता है, जैसे, प्रकाश व्यवस्था/मंच / पृष्ठभूमि / इसके अतिरिक्त शोर भी. बाह्य वातावरण का अंग है। यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि समस्त वातावरण का प्रस्तुतीकरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ना चाहिए।

    (E) शब्द चयन

    किसी भी प्रस्तुतीकरण में शब्दों के चयन का अपना एक अलग महत्व होता है। एक प्रस्तुतीकरण में अपनी मूल भावना / सन्देश को अत्यन्त ही सरल / सहज स्पष्ट भाषा में संक्षिप्त रूप में कहना महत्वपूर्ण होता है। कम अनुभवी श्रोताओं के बीच तकनीकी भाषा का प्रयोग श्रेयस्कर नहीं होता। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अत्यधिक अलंकारिक भाषा का प्रयोग किया जाये बल्कि आवश्यक यह है कि वक्तव्य में सरल / साधारण शब्दों का चयन किया जाये।

    (F) प्रश्नोत्तर

    सम्पूर्ण प्रस्तुतीकरण की प्रभावशीलता में वृद्धि के लिए प्रश्नोत्तर काल का आयोजन महत्वपूर्ण होता है। प्रत्येक श्रोता द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों को ध्यान से सुनकर उत्तर स्पष्ट करना चाहिए। प्रश्न का उत्तर न बनने पर गलत उत्तर देने का प्रयास न करें। श्रोताओं को वास्तविकता से अवगत कराना ज्यादा उचित होगा।



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