किशोरावस्था का अर्थ, परिभाषा, आवश्यकता, विशेषतायें एवं समस्याएं

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किशोरावस्था का अर्थ

बाल्यावस्था के बाद का सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ाव है किशोरावस्था, तथा  बाल्यावस्था जैसे ही समाप्त होती है। किशोरावस्था के दौर से बालक यौवन की दहलीज पर दस्तक देता है। इस अवस्था में उसके शरीर तथा व्यवहार में तूफान की गति से परिवर्तन होते हैं। वह अपने में होने वाले परिवर्तनों से स्वयं परेशान होता है। और उसे स्वयं समझ नहीं आता कि वह क्या करे ?

    इसलिए किशोरावस्था को  मानव विकास की तीसरी अवस्था कहा है, यह शैशव तथा बाल्यकाल के उपरान्त आती है। यह अवस्था वस्तुतः यौवन एवं बाल्यावस्था के मध्य पड़ने वाला संधिकाल होता है। इस अवस्था को वयः संधि भी कहते हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस अवस्था में अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं जिनके कारण किशोरों को अत्यधिक तनाव से भी गुजरना पड़ता है।

    किशोरावस्था में व्यक्ति का विकास तीव्र गति से होता है। कुल्हन  के अनुसार:"किशोरावस्था, बाल्यावस्था तथा प्रौढावस्था के मध्य का परिवर्तन काल है, मानव विकास में इस अवस्था का विशेष महत्त्व है। यह 13 से 19 वर्ष की आयु तक का काल है इसीलिये इसे टीन एज (Teen age) भी कहा गया है।

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    किशोरावस्था की परिभाषायें 

    किशोरावस्था, बाल्यावस्था तथा युवावस्था के मध्य की अवस्था है। इसे संधिकाल भी कहते है। किशोर ही भविष्य की आशा तथा वर्तमान की शक्ति है, हैडो कमेटी रिपोर्ट में कहा गया है, कि- "ग्यारह या बारह वर्ष की आयु में बालक की नसों में ज्वार उठना आरम्भ हो जाता है, इसे ही  किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है। यदि इस ज्वार का बाढ़ के समय उपयोग कर लिया जाये एवं इसकी शक्ति और धारा के साथ-साथ नई यात्रा आरम्भ कर दी जाये तो सफलता निश्चित ही प्राप्त की जा सकती है।

    इसीलिये स्टेनले हॉल ने कहा है: "किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान तथा विरोध की अवस्था है।"

    इस अवस्था में अटपटापन पाया जाता है। व्यक्ति में तनाव, आक्रोश, झंझावात तीव्रता, आक्रामकता, अहं सम्प्रयुक्तता पाई जाती है।

    किशोरों का राष्ट्र तथा समाज के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है उनमें निहित सर्जन शक्ति को नया मोड़ दिया जा सकता है।

    अतः किशोर मनोविज्ञान की परिभाषायें निम्नलिखित रूप में इस प्रकार है। 

    किशोरावस्था

    सी.वी.गुड के अनुसार- "यह वह काल है जो मानव विकास का जिसमे 13-14 वर्ष से लेकर 21 वर्ष तक होने वाले परिवर्तन प्रकट होते है, परिपक्वता आने लगती है। और यह परिपक्वता का थोड़ा सा समय है परन्तु यौन परिपक्वता हेतु यह काफी समय तक चलता है किशोर-किशोरियों शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक, नैतिक रूप से प्रौढ़ों से भिन्न होते हैं।"

    किशोर मनोविज्ञान

    सी.वी.गुड के अनुसार-"किशोर मनोविज्ञान मानव के व्यवहार का अध्ययन है जो किशोरावस्था में किया जाता है। इसमें किशोरों की रुचियाँ, शारीरिक, मानसिक वृद्धि, आदर्श तथा नैतिकता तथा घर का समायोजन तथा किशोरों की कल्पना के सामुदायिक कार्यों का संगठन आदि विषय आते है।"

    सुरेश भटनागर के अनुसार- "किशोरों के मनोविज्ञान से अभिप्राय बाल्यावस्था के समाप्त होने किशोरावस्था में प्रवेश करने के समय के बाद होने वाले परिवर्तनों से उत्पन्न व्यवहारों के अध्ययन से है।"

    किशोर मनोविज्ञान की आवश्यकता

    किशोरावस्था में बालक में होने वाले परिवर्तन परिवार के अन्य सदस्यों के लिये समायोजन की समस्या उत्पन्न करते हैं। तथा परिवार के सदस्यों का ध्यान मूल समस्या की ओर तो जाता नहीं, तो वे किशोरों के दोषी ठहराते हैं। वे भूल जाते है, कभी उन्होंने भी अपने माता-पिता को विकास के इस दौर में परेशान किया होगा। अतः किशोरों के मनोविज्ञान, उनके व्यवहार के अध्ययन की आवश्यकता इस प्रकार है-

    (1) किशोरों का मनोविज्ञान, बाल्यावस्था में अग्रगामी परिवर्तनों से प्रभावित है।

    (2) उनमें यौनांगों का विकास आरम्भ हो जाता है अतः समाजसम्मत यौन व्यवहार को अपनाने तथ सामाजिक वर्जनाओं के प्रति आरम्भ बोध उत्पन्न हो जाता है। इस तथ्य को समझना तथा उसका निराकरण करना आवश्यक है।

    (3) किशोरियों में रजोदर्शन तथा किशोरों में स्वप्न दोष (नाइट फाल) के कारण असामान्यत विकसित होने लगती है।

    (4) जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की धारणा का विकास करते हुए किशोरावस्था के आरम्भ में किसी भी कार्य को व्यवस्थित, तर्कपूर्वक तथा नमनीय रूप से सम्पन्न करने तथा जटिल सम्बन्धों को सरल करने पर बल दिया है। उनमें प्रतीकों को विकसित करने की क्षमता आ जाती है। किशोरों में संज्ञानात्मक विकास एक ही रात में नहीं होता। धीरे-धीरे यह विकास होता है।

    (5) किशोरों में सही तथा गलत के प्रति द्वन्द्व उत्पन्न होता है. आवश्यकता के अनुसार नैतिक मूल विकसित होते हैं। दूसरों की अपेक्षाओं का ध्यान रखकर सही गलत का निर्णय भी होता है।

    (6) नैतिक मूल्यों का विकास दूसरों के आदर्शों तथा स्वयं के परिचालन में होता है यथार्थ का सामना जब नैतिक मूल्यों से किया जाता है तो किशोरों का मन विद्रोह करने लगता है। 

    (7) सामाजिक विकास में पीयर-समूह में अपना स्थान निर्धारित करने की समस्या प्रमुख है। किशोर चाहते हैं कि समूह में उन्हें स्वीकार किया जाये। 

    अतः व्यवसाय का चयन, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण, अपनी पहचान आदि ऐसी अनेक समस्यायें हैं, जिनका समाधान किशोर मनोविज्ञान को समझने से ही हो सकता है।

    किशोरावस्था की विशेषतायें

    किंग के अनुसार- "जैसे एक ऋतु जाने के पश्चात् दूसरी ऋतु आती है लेकिन पहली ऋतु के जाने में ही दूसरी ऋतु के लक्षण प्रकट होने लगते हैं, वैसे ही बालक के विकास की अवस्थायें एक दूसरे से सम्बन्धित है।" 

    स्टेनले हाल के अनुसार- "किशोरावस्था के समय बालक में शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन होते हैं वे एकदम से कूदकर आ जाते हैं।" 

    अतः किशोरावस्था की विशेषतायें निम्नलिखित रूप में इस प्रकार से हैं -

    (1) शारीरिक परिवर्तन

    इस अवस्था में तीव्र गति से शारीरिक परिवर्तन होते हैं। लड़कों के दाढ़ी-मूंछ आ जाती है. लड़कियों के मासिक स्राव होने लगता है। उनके वक्षस्थल उभरने लगते हैं। लड़कों की आवाज भारी तथा लड़कियों की आवाज कोमल होने लगती है यौनांगों में परिपक्वता आने लगती है और प्रजनन शक्ति तेजी विकसित होने लगती है।

    (2) अस्थिरता 

    किशोरों के व्यवहार में तथा स्वभाव में अस्थिरता आने लगती है। कभी वे चंचल दिखाई देते है तो कभी गम्भीर हो जाते हैं। इस काल में उनमें असुरक्षा की भावना भी विकसित हो जाती है।

    (3) अस्थिरता की समस्या

    किशोरों में शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन के कारण उनमें अस्थिरता पाई जाती है। आशा-निराशा, सहयोग-विरोध आदि के कारण उनमें अनिश्चय तथा अनिर्णय की भावना विकसित होने लगती है। समाज के दोहरे मानदण्डों के प्रति उनमें आक्रोश पैदा होने लगता है।

    (4) समायोजन की समस्या

    शारीरिक परिवर्तन तथा संवेगात्मक अस्थिरता के कारण किशोरों में समायोजन की समस्या पाई जाती है। कई बार समायोजन के अभाव में उन्हें अनेक संकटों से भी गुजरना पड़ता है।

    (5) मानसिक हीनता की समस्या

    जी० डी० पेज (G. D. Page) के अनुसार: "मानसिक हीनता, मानसिक विकास की साधारण अवस्था है जो जन्म से ही या बाल्यकाल से स्पष्ट होती है। मानसिक हीनता से पीड़ित किशोर अनेक समस्याओं से ग्रसित होते हैं।"

    (6) संवेगात्मक समस्यायें 

    किशोरों को संवेगात्मक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इनमें उनके अहं की समस्या है, जब-जब किशोरों का अहं टकराता है. उनमें तूफान पैदा होता है गुटबाजी दलबन्दी के आधार पर समूह की प्रतिष्ठा के लिये ये किशोर लड़ाई-झगड़ा भी करने लगते है  ।

    (7) यौन समस्यायें

    किशोरावस्था में प्रजनन अंगों के तेजी से विकास के कारण उनमें अपने शरीर के प्रति चेतना उत्पन्न होने लगती है और वे असमय यौन सम्पर्क में आ जाते हैं। इससे अनेक वैयक्तिक तथा सामाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

    (8) नैतिकता की समस्या

    समाज में नैतिक मानदण्ड होते हैं। समाज में इन मानदण्डों का पालन नहीं किया जाता। किशोरों से अपेक्षा की जाती है कि वे नैतिकता के मानदण्डों का पालन करें। उन्हें यह दोहरापन अखरता है और वे विद्रोही हो जाते हैं।

    किशोरों की मुख्य समस्यायें 

    बिग एवं हन्ट (Bigge and Hunt) के अनुसार- "परिवर्तन शब्द के द्वारा किशोरावस्था की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति की जा सकती है। शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक व्यवहार का निर्धारण करता है। किशोरों की समस्याओं से जहाँ किशोर प्रभावित होते हैं, वहाँ उनका परिवार, संगी-साथी तथा परिवेश भी प्रभावित होता है।"

    किशोरों की प्रमुख समस्यायें निम्नलिखित रूप में इस प्रकार से हैं -

    (1) शारीरिक विकास की असामान्यता

    किशोरावस्था में प्रवेश के दौरान बालक का शारीरिक विकास असामान्य रूप से होता है। कभी उनके हाथों की लम्बाई अधिक होती है तो कभी टाँगें लम्बी दिखाई देती है। लड़कों में दाढ़ी, मूंछ निकलना, लड़कियों के स्तनों में उभार तथा चेहरे पर प्रौढत्व की रेखायें आना, किशोरों के मन में भय तथा आतंक पैदा करता है। किशोरावस्था पूर्ण होने पर परिवर्तन स्थायी हो जाते हैं और असामान्यता समाप्त हो जाती है।

    (2) मानसिक विकास में जिज्ञासा

    किशोरों का मानसिक विकास बहुत तेजी से होता है। वे हर वस्तु तथा तथ्य को समझना चाहते हैं और उनको समझने के लिये गहराई तक जाते है। इससे ऐसा लगता है कि उनमें रूचि विकसित हो रही है। तथा  कल्पना, दिवास्वप्न, विरोधी मानसिक दशायें उत्पन्न होती हैं और किशोरों में असामान्य व्यवहार विकसित होने लगता है।

    (3) भिन्न व्यवहार

    किशोरों का व्यवहार भिन्न हो जाता है। वे कभी बहुत सुस्त दिखाई देते हैं तो कभी अत्यधिक क्रियाशील दिखाई देते हैं और यंहा तक की संवेगात्मक व्यवहार में भी विरोध पाया जाता है।

    (4) समायोजन का अभाव

    किशोरावस्था में व्यक्ति स्वयं को नये परिवर्तन के सन्दर्भ में स्वयं को समाज में समायोजित नहीं कर पाता, उसका व्यवहार तनिक सी बाधा आने पर उद्विग्न हो जाता है। 

    (5) विद्रोह की भावना 

    किशोर, बन्धन में नहीं बँधा रहना चाहता। परम्पराओं को तर्क के अभाव में स्वीकार नहीं करता, अन्धविश्वास को नहीं मानता एवं प्रतिबन्ध की दशा में विद्रोह करता है । 

    (6) यौन शक्ति

    यौनांग के विकास के कारण विषमलिंगी आकर्षण बढ़ते है और कई बार इनके दुष्परिणाम होते हैं प्रेम नामक रोग पराकाष्ठा पर पहुँचता है तो आत्महत्या तक की नौबत आ जाती है।

    (7) अपराध की प्रवृत्ति 

    नये जीवन दर्शन की तलाश में किशोर प्रायः अपराध प्रवृत्तियों में फँस जाते है। एडवेंचर भी उनको कई बार अपराध करने को विवश कर देते है। वैलेनटीन ने इस अवस्था को अपराध तथा अपराधी प्रवृत्ति से बचाने पर विशेष बल दिया है। 

    (8) महत्त्वाकांक्षा 

    किशोरों में महत्त्वाकांक्षा अत्यधिक प्रबल होने लगती है। इसका परिणाम यह होता है कि दूसरों को हानि पहुँचाना, कष्ट देना, बदला लेने की प्रवृत्ति जैसे असामान्य भावनायें भी विकसित होने लगती है। 

    किशोरावस्था की प्रमुख समस्यायें 

    कुप्पूस्वामी के अनुसार- "किशोरावस्था, यौवनावस्था तथा वयस्कता के मध्य संचरण काल होती है. इस काल में बदलती हुई शारीरिक अवस्था के अनुरूप एक नया सामाजिक संवेगात्मक समायोजन सम्भव होता है।" अतः किशोरावस्था की प्रमुख समस्यायें निम्न प्रकार से है- 

    (1) शारीरिक परिवर्तन

    तेजी से हो रहे शारीरिक परिवर्तन, किशोरों की प्रमुख समस्या है। कभी उन्हें लगता है कि उनके हाथ लम्बे हो रहे हैं तो कभी टाँगें लम्बी दिखाई देती है। परिणाम यह होता है। कि उनमें हीनता का भाव उत्पन्न होता है दाढी, मूँछ निकलने से उनमें प्रौढत्व के दर्शन होते हैं। लड़कियों के चेहरे पर परिपक्वता दिखाई देती है। ये सभी परिवर्तन किशोरों को परेशान करते हैं और ऐसा लगता है कि उन्हें पता नहीं क्या होता जा रहा है।

    (2) निराशा तथा उदासी 

    इस अवस्था में आवेग तथा आवेश के कारण अभिभावक किशोरों पर कड़ी निगाह रखते हैं। इससे किशोरों को लगता है कि उनकी स्वतन्त्रता पर आघात हो रहा है। इसलिये उनमें निराशा घर कर जाती है।

    (3) तीव्र मानसिक परिवर्तन

    बालकों का मानसिक विकास किशोरावस्था में तीव्र गति से होता है। कल्पना शक्ति तेजी से विकसित होती है। तर्क एवं अमूर्त चिन्तन, ध्यान केन्द्रीकरण, स्थायी स्मृति, भाषा सौष्ठव, रुचि तथा भावी जीवन के निर्माण के प्रति चेतना विकसित होने लगती है। 

    (4) संवेगात्मक आधिक्य

    किशोरों में संवेगों का प्रभाव अधिक पाया जाता है। इसी के कारण वे अपनी भावी योजनायें बनाते हैं तथा कल्पना के द्वारा सौन्दर्यात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं। इन्हीं संवेगों के कारण उनमें प्रेम की भावनायें भी विकसित होती हैं। 

    (5) साहित्यिक रुचि का विकास

    किशोरावस्था में साहित्यिक रुचि का विकास हो जाता है। कहानी, कविता, नाटक, संगीत, उपन्यास आदि के अध्ययन के प्रति लगाव होने लगता है। 

    (6) विषमलिंगी आकर्षण 

    किशोरावस्था में लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगते हैं। उनमें अपने शरीर को सजाने-संवारने के प्रति चेतना विकसित होने लगती है। 

    (7) समस्याओं का सामना 

    किशोरों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इनमें बड़ों की उपेक्षा, अपना स्थान बनाना, यौन समस्यायें, समायोजन आदि है।

    किशोर मनोविज्ञान का उपयोग 

    किशोर, किसी राष्ट्र की अमूल्य धरोहर है। किशोरों का विकास, राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान करता है और समाज के अच्छे नागरिक देता है। इसलिये किशोर मनोविज्ञान के अन्तर्गत शिक्षक तथा अभिभावक, किशोरों की स्थिति को समझने तथा उनको वांछित दिशा प्रदान करने में विशेष सहयोग दे सकते है। यह सहयोग इस प्रकार दिया जा सकता है-

    (1) किशोरों में शारीरिक परिवर्तन के समय जो बाधायें उत्पन्न होती है, उनको खेलकूद, व्यायाम शारीरिक शिक्षा के माध्यम से दूर किया जा सकता है।

    (2) किशोरों की शिक्षा में कला, विज्ञान, भूगोल, इतिहास आदि विषयों का समावेश किया जाना चाहिये तथा पर्यटन, वाद-विवाद, लेखन, अभिनय आदि के द्वारा उनका निरीक्षण शक्ति तथा अभिव्यक्ति कौशल का विकास होना चाहिये।

    (3) पाठ्य सहगामी क्रियाओं के द्वारा किशोरों के संवेगों को प्रशिक्षण दिया जा सकता है।

    (4) सामूहिक योजना विधि द्वारा शिक्षण, सामूहिक कार्य स्काउटिंग, गाइडिंग आदि के द्वारा किशोरों में स्वस्थ सामाजिक सम्बन्ध भी विकसित किये जा सकते हैं। 

    (5) मार्गदर्शन कार्यक्रम के द्वारा, वैयक्तिक भिन्नता के आधार पर उन्हें व्यवसाय चयन में सहायता दी जा सकती है। 

    (6) जीवन-दर्शन का महत्त्व बताते हुए किशोरों की यौन भावना का मार्गान्तरीकरण (Sublimation) किया जा सकता है। इससे उनमें नैतिकता का विकास होता है और ये अपराधी प्रवृत्ति से बच जाते हैं। एवं किशोरों की समस्या कक्षा एवं विद्यालय की प्रमुख समस्या है। किशोरों को उनके विकास के लिये सहानुभूति तथा मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। यदि उन्हें सही मार्गदर्शन नहीं मिलता तो उनके गलत रास्ते पर चलने तथा समाज विरोधी होने की सम्भावनायें अधिक बढ़ जाती है। इसलिये किशोरों की समस्याओं का समाधान करने के लिये इन बातों को अपनाया जा सकता है। 

    (1) खेलकूद

    किशोरों की मनोवैज्ञानिक समस्याओं का समाधान करने के लिये आवश्यक है कि उनमें खेलकूद की भावना का विकास किया जाये। खेलकूद से किशोरों की अतिरिक्त ऊर्जा की खपत होती है और ये सामान्य बने रहते हैं।

    (2) वाद-विवाद

    किशोरों में संवेगात्मक समस्यायें अधिक होती है नाटक वाद-विवाद, सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं द्वारा किशोरों के संवेगों को दिशा दी जा सकती है। उत्तम वातावरण का निर्माण कर उनमें संवेगात्मक स्थिरता लाई जा सकती है।

    (3) सरस्वती यात्रा

    किशोरों में जिज्ञासा, कौतूहल तथा रोमांच की भावना अधिक पाई जाती है। इस भावना का विकास, सरस्वती यात्राओं, परिभ्रमण आदि का आयोजन करके किया जा सकता है। 

    (4) व्यवसाय चयन

    किशोरावस्था में किशोरों को अपने भावी जीवन में भावी व्यवसाय के प्रति भी चेतना पाई जाती है। इसलिये व्यावसायिक मार्गदर्शन द्वारा उन्हें भावी व्यवसाय का चयन करने में सहायता दी जा सकती है।

    (5) नैतिक आचरण

    किशोरों को नैतिक आचरण तथा नैतिक मान्यताओं का ज्ञान देना भी आवश्यक है। नैतिक ज्ञान तथा आचरण की शिक्षा उनमें दायित्व सौंपकर दी जा सकती है। 

    (6) सहानुभूति एवं स्वतन्त्रता

    किशोरों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने से उनमें विश्वास उत्पन्न होता है। उन्हें काम करने की स्वतन्त्रता भी दी जानी चाहिये। इससे उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न होता है। 

    (7) यौन शिक्षा

    किशोरों को यौन शिक्षा  भी दी जानी आवश्यक है। इससे वे यौन व्यवहार के प्रति सजग हो जाते हैं और अवंछित  कार्यों को नहीं करते।

    (8) वैयक्तिक भिन्नता

    किशोरों को शिक्षा देते समय उनकी वैयक्तिक भिन्नता का ध्यान अवश्य ही रखना चाहिये। किशोरों की योग्यता, क्षमता, रुचि तथा अभिरुचि का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिये

    निष्कर्ष

    किशोर मनोविज्ञान, मानव विकास की संधि-अवस्था का अध्ययन करने का रोचक विषय है। हैडोरियोटी में कहा गया है:  कि ग्यारह या बारह वर्ष की आयु में बालक की नसों में ज्वार फूटना आरम्भ हो जाता है। इसी को ही  किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है। यदि इस ज्वार का बाढ़ के समय ही उपयोग कर लिया जाये एवं उसकी सोचों तथा धारा के साथ नई यात्रा कर ली जाये तो सफलता निश्चित ही प्राप्त की जा सकती है।


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