भ्रमित सम्प्रेषण का आशय,अवरोध एवं सुधार-miscommunication

    एक सम्प्रेषक द्वारा सम्प्रेषणग्राही तक सन्देश / सूचना को प्रसारित करने की प्रक्रिया सम्प्रेषण कहलाती है अर्थात् इस प्रक्रिया में सम्प्रेषक एवं प्राप्तकर्ता के मध्य सन्देशों / सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है। इस आदान-प्रदान के लिए चयनित माध्यम एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है।

    सम्प्रेषण प्रक्रिया में प्राय: देखा गया है कि कुछ सम्प्रेषक ही अपने सन्देश का वास्तविक अर्थ सम्प्रेषणग्राही तक पहुँचा पाने में सफल होते `हैं, क्योंकि सम्प्रेषण स्वतः और निरन्तर संचालित होने वाला प्रवाह है जो किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए सम्पन्न किया जाता है। सन्देश को सम्प्रेषक से सम्प्रेषणग्राही तक पहुँचने में कई प्रक्रियाओं से होकर गुजरना होता है। अतः इस पर आन्तरिक व बाह्य तत्वों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।

    भ्रमित सम्प्रेषण का आशय

    सामान्यतया सम्प्रेषक व प्राप्तकर्ता सम्प्रेषणग्राही के बीच मार्ग में ही कुछ अवरोधों/ बाधाओं की उत्पत्ति से सम्प्रेषित सन्देश / सूचना का अर्थ बदल जाता है अर्थात् सन्देश / सूचना अपना वास्तविक / मौलिक स्वरूप खो देती है तो इसे ही भ्रमित सम्प्रेषण कहते हैं।

    सरल शब्दों में, जब भेजी गयी सूचना या सन्देश अवरोधों के कारण विरूपित या विनाशित हो जाती है, तो इसे भ्रमित सम्प्रेषण कहा जाता है।  इसमें प्राप्तकर्ता सूचना या सन्देश को मूल रूप में प्राप्त नहीं कर पाता है।

    भ्रमित सम्प्रेषण कैसे एवं क्यों उत्पन्न होता है ?

    एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में अवरोध निम्न प्रकार से उत्पन्न होता है-

    (1) सन्देश/सूचना के विकसित होने सम्बन्धी कठिनाइयाँ ( Problems in Developing the Message)-

    जब सन्देश को बनाया या विकसित किया जाता है उस दौरान कुछ समस्याएँ उत्पन्न होती है। विशेष रूप से बाधा तब उत्पन्न होती है जब सम्प्रेषक में सन्देश/सूचना की विषय-सामग्री के परिप्रेक्ष्य में निर्णय क्षमता का अभाव होता है और यह स्थिति तब और बिगड़ती जाती है जब सम्प्रेषक का सम्प्रेषणग्राही के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध न हो। इनमें आपस में सन्देश के आदान-प्रदान के दौरान भावनात्मक संघर्ष हो, इस स्थिति में सम्प्रेषक अपने विचारों को व्यक्त करने में कठिनाई महसूस करता है। यदि इन समस्याओं का निराकरण नहीं किया जाता तो संचार/सन्देश का वास्तविक स्वरूप बदल जाता है।

    (2) युक्तियों / विचारों की अभिव्यक्ति सम्बन्धी कठिनाइयाँ (Difficulties in expressing Ideas.)-

     यदि सम्प्रेषक / सम्प्रेषणाही में लिखने-बोलने की क्षमता का अभाव होता है या उनमें बोलने/लिखने के पर्याप्त अनुभव की कमी होती है तो सम्प्रेषण प्रक्रिया के दौरान प्रभावपूर्ण सम्प्रेषण सम्भव नहीं होता है। अधिकांश व्यक्तियों में शब्दकोष का अभाव, व्याकरण के प्रयोग व शैली का अभाव जिससे ये लिखने/विचार व्यक्त करने/समूह में भाषण या व्याख्यान देने से डरते है जिससे सम्प्रेषण प्रक्रिया में कठिनाई उत्पन्न होती है।

    (3) सन्देश / सूचना के प्रसारण / संचारण सम्बन्धी कठिनाइयाँ ( Problems in Transmitting the Message)-

    एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में बाधा / कठिनाइयाँ तब उत्पन्न होती है जब सम्प्रेषक व प्राप्तकर्ता के मध्य स्थिति सम्प्रेषण माध्यम में अर्द्धभौतिक समस्या जैसे माध्यम का सही न जुड़ना, कमजोर ध्वनि या लिखित सामग्री जिसे पढ़ने में कठिनाई हो इत्यादि के कारण सन्देश के प्रसारण/संचारण में कठिनाई उत्पन्न होती है। इसके अतिरिक्त शौर (Noise) सम्प्रेषण के संचारण में बाधा उत्पन्न करता है। इसके अतिरिक्त जब सम्प्रेषण प्रक्रिया मैं दो प्रतिस्पद्ध सन्देश सम्प्रेषणग्राही के ध्यान को बाँट देते हैं या जब सन्देश का अर्थ अनुकूल नहीं होता तथ सम्प्रेषण के प्रसारण में बाधा उत्पन्न होती है।

    (4) सन्देश/सम्प्रेषण की प्राप्ति सम्बन्धी कठिनाइयाँ ( Problems in Receiving Message)-

     जब सम्प्रेषण प्रक्रिया में सन्देश के प्रसारण के दौरान सन्देशग्राही का ध्यान प्रतियोगी सन्देश, खराब माध्यम, अत्यधिक शोर, सन्देशग्राही का स्वास्थ्य इत्यादि के कारण बँट जाता है तो सन्देश की प्राप्ति सम्बन्धी बाधाएँ उत्पन्न होती है। कभी-कभी सम्प्रेषक/सन्देशग्राही के दृष्टि दोष, भव्य दोष / क्षेत्र के कारण भी सन्देश को प्राप्ति में बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। यद्यपि उक्त कारण सन्देश की प्राप्ति में पूर्ण बाधा तो उत्पन्न नहीं करते परन्तु सन्देशग्राही की एकाग्रता को भंग करने में अहम् भूमिका का निर्वहन अवश्य करते हैं। यदि उक्त बातों के सन्दर्भ में सन्देशग्राही का सम्प्रेषण सावधानी बरतता तो सन्देश की प्राप्ति में कठिनाइयों की उत्पत्ति एक सामान्य घटना होती।

    (5) सन्देश/सम्प्रेषण की व्याख्या सम्बन्धी कठिनाइयाँ ( Problems in Interpreting the Message)-

    यह कठिनाई तब उत्पन्न होती है जब सम्प्रेषण प्रक्रिया अपना पूर्ण रूप धारण करने की अवस्था में होती है। यदि सन्देश प्राप्तकर्ता व समोषक की पृष्ठभूमि, शब्द कोष व उसकी भावनात्मक स्थिति में अन्तर हो तो सम्प्रेषण प्रक्रिया के दौरान सन्देश / सूचना का अधिकांश हिस्सा कहीं खो जाता है या उसका क्षय हो जाता है यह भी सम्भव है कि उसका मौलिक स्वरूप पूर्णतः बदल जाये।

    (6) सम्प्रेषक व सन्देश प्राप्तकर्ता के मध्य विभिन्नताओं सम्बन्धी कठिनाइयाँ (Differences between Sender and Receiver )-

     किसी भी सम्प्रेषण प्रक्रिया के अपूर्ण रहने का सबसे बड़ा कारण सम्प्रेषक व सन्देशग्राही के मध्य पायी जाने वाली विभिन्नताओं, यथा, एक-दूसरे के प्रति अनियमितता, आयु/जाति/लिंग/संस्कृति/सम्प्रदाय सम्बन्धी विभिन्नताओं की उपस्थिति है। उक्त अन्तर सन्देश के संचारण को कठिन बना देते हैं। उचित व सफल सम्प्रेषण के लिए हमें व्यक्तियों की आवश्यकताओं/प्रतिक्रियाओं को समझने के अतिरिक्त उनमें विश्वसनीयता की स्थापना करनी होती है।

    किसी सम्प्रेषण प्रक्रिया में अवरोध की उत्पत्ति की प्रक्रिया को समझने के उपरान्त सम्प्रेषक व सन्देशग्राही के बीच सन्देश के प्रसारण/संचारण में आने वाली रुकावटों के सन्दर्भ में चर्चा करेंगे क्योंकि ये अवरोध/रुकावटें एक संगठन / व्यवसाय में प्रबन्धकीय कठिनाइयों या जटिलताओं को पैदा करती हैं।

    सम्प्रेषण के अवरोधक तत्व 

    सम्प्रेषण अवरोध का आशय सम्प्रेषण में उत्पन्न होने वाली बाधाओं से है। ये अवरोध किसी भी अवस्था पर उत्पन्न हो सकते हैं। सम्प्रेषण के अवरोधों को उनकी प्रकृति के आधार पर निम्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

    I. शब्दार्थ / भाषागत अवरोध (Sematic / Language Barriers), 

    II. संगठनात्मक अवरोध (Organisational Barriers),

    III. भावनात्मक अवरोध (Emotional/Preceptional Barriers),

    IV. भौतिक अवरोध (Physical Barriers),

    V. व्यक्तिगत अवरोध (Personal Barriers), 

    VI. अन्य अवरोध (Other Barriers)।

    I. शब्दार्थ / भाषागत अवरोध

    शब्द से अभिप्राय शब्दों के अध्ययन या उनके अर्थ से है। शब्दार्थ अवरोध से तात्पर्य सम्प्रेषण सम्बन्धी भाषा में अवरोध की उत्पत्ति से है। सम्प्रेषक की भावनाओं की गलतफहमी व प्रेषित सन्देश में उत्पन्न भ्रम से उसके मौलिक स्वरूप के बदलने की सम्भावना रहती है अर्थात् सन्देश अपना वास्तविक अर्थ खो देता है। यह स्थिति तब अत्यन्त जटिल हो जाती है जब सन्देश / सूचना को प्रेषित करने के लिए सरल / सुबोध भाषा का प्रयोग नहीं किया जाता। अतः सन्देश के प्रति सदैव भ्रमात्मक स्थिति बनी रहती है। भाषा सम्बन्धी कठिनाइयाँ निम्नलिखित है-

    (i) त्रुटिपूर्ण शब्द में अभिव्यक्त सन्देश (Wrongly Expressed Message )-

     अर्थहीन, निर्बल शब्दों में अभिव्यक्त सन्देश सदैव सम्प्रेषण का अर्थ बदल देता है। अतः सदैव सन्देश / सूचना की गलत व्याख्या की सम्भावना प्रबल रहती है। यह स्थिति तब अधिक जटिल हो जाती है जब शब्दों के गलत चुनाव के अतिरिक्त सन्देश में अशिष्ट शब्दों का प्रयोग, वाक्यों का गलत क्रम व उनकी पुनरावृत्ति होती है। 

    (ii) त्रुटिपूर्ण अनुवाद (Faulty Translation )-

     किसी संगठन / व्यवसाय में एक प्रबन्धक सन्देशों के सम्प्रेषक व सम्प्रेषणग्राही के रूप में क्रियाशील रहते हैं अर्थात् एक प्रबन्धक अपने वरिष्ठ उच्च अधिकारियों को या अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को सूचना सन्देश का आदान-प्रदान उनकी समझ के स्तर के अनुसार अनुवादित कर उन्हें आगे बढ़ा देते हैं। बहुधा यह क्रिया लापरवाही, अनुवाद में त्रुटि के फलस्वरूप सम्प्रेषण में अवरोध उत्पन्न करती है। अतः सन्देश का वास्तविक स्वरूप सम्प्रेषणग्राही तक पहुँचाने के लिए सन्देश को सरल/सुबोध/स्पष्ट शब्दों में अनुवादित कर उसे संचालित किया जाना आवश्यक है।

    (iii) अस्पष्ट मान्यताएँ (Unclarified Assumptions )- 

    बहुधा सम्प्रेषण इस मान्यता के आधार पर किया जाता है कि सम्प्रेषणग्राही सम्प्रेषण की आधारभूत पृष्ठभूमि से पूर्णतः परिचित है, परन्तु अधिकांश स्थितियों में यह मान्यता गलत साबित हो जाती है। इसलिए सम्प्रेषणग्राही को सन्देश को विषय-वस्तु/क्षेत्र के सम्बन्ध में जानकारी का पूर्वानुमान अत्यन्त आवश्यक है अर्थात् सम्प्रेषण क्रिया में सन्देश में निहित मान्यताओं की स्पष्टता सम्प्रेषणग्राही हेतु अत्यन्त अनिवार्य है।

    (iv) अस्पष्ट पूर्व-धारणाएँ (Uncleared Pre-concepts)-

    प्रत्येक सन्देश प्राय: अस्पष्ट पूर्ण 'धारणाओं से परिपूर्ण होता है जोकि सम्प्रेषण में बाधाएँ उत्पन्न करता है, क्योंकि सम्प्रेषक सन्देश में समाहित समस्त बातों की विस्तृत जानकारी प्रेषकग्राही को नहीं देता, बल्कि वह यह पूर्व अनुमान लगा लेता है कि सन्देशग्राही इन बातों को स्वयं समझ पाने में सक्षम है।

    (v) तकनीकी भाषा/विशिष्ट शैली का प्रयोग (Use of Technical Language )-

     कुछ तकनीकी व विशिष्ट समूह वर्ग के व्यक्ति, जैसे-  डॉक्टर, इंजीनियर अपनी विशिष्ट भाषा-शैली का प्रयोग करते हैं। इस विशिष्ट भाषा का संचार इस शैली से अपरिचित सम्प्रेषणग्राही के लिए कई प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न करता है. क्योंकि इनका प्रसारण/संचारण व समझ प्रत्येक व्यक्ति के लिए असान नहीं होती। अतः तकनीकी भाषा/विशिष्ट भाषा-शैली सम्प्रेषण में बाधा उत्पन्न करती है।

    II. संगठनात्मक अवरोध 

    एक व्यवसाय की संगठनात्मक संरचना/ढाँचा वहाँ कार्यरत कर्मचारियों की क्षमता/कुशलता को अधिकाधिक प्रभावित करता है। जैसे, एक जटिल संगठन संरचना में लम्बे सम्प्रेषण माध्यमों के अतिरिक्त प्रबन्धन के कई स्तर होने से सम्प्रेषण क्रिया की सफलता पर प्रश्न चिह्न लगता है। बहुतायत सम्प्रेषित सन्देश का मौलिक स्वरूप व अर्थ सम्प्रेषणग्राही तक पहुँचते-पहुँचते बदल जाता है। एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में संगठन सम्बन्धी अवरोध निम्नलिखित हैं-

    (i) संगठनात्मक नियमन नीतियाँ (Organisational Regulatory Policies)-

     किसी भी व्यवसाय के अपने कायदे/ कानून होते हैं। इन कायदे कानून के तहत उस व्यवसाय के कर्मचारी अपनी सेवाएँ देते हैं। व्यवसाय के ये कायदे/ कानून प्राय: सम्प्रेषण के प्रवाह की दिशा या मार्ग को प्रभावित करते हैं। यदि किसी संगठन / व्यवसाय में नियम / नीतियाँ या कानून अत्यन्त कठोर/जटिल व विषम हों तो सम्प्रेषण के प्रवाह में बाधा की सम्भावना अधिक होती है जिसके कारण सन्देश के प्रवाह में विलम्ब, अनुकूल फैलाव / विस्तार का अभाव, मौलिक स्वरूप में बदलाव की आशंका व अपुष्ट सम्प्रेषण की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं।

    (ii) जटिल संगठनात्मक संरचना (Complecated Organisational Structure )-

    जब किसी संगठन/ व्यवसाय के प्रबन्धन में कई स्तर होते हैं तो सन्देश के प्रसारण में अत्यन्त विलम्ब होता है। सम्प्रेषण प्रक्रिया में अधिक विलम्ब सन्देश के स्वरूप को बदल देता है, क्योंकि सन्देश के प्रतिकूल या आलोचनात्मक प्रश्न को छिपाने का पर्याप्त अवसर प्राप्त हो जाता है। अतः किसी भी संगठन का प्रबन्धन स्तर जितना जटिल (अर्थात् प्रबन्धन के अधिक स्तर) होगा सम्प्रेषण उतना ही अधिक भ्रमात्मक होगा।

    (iii) संगठनात्मक सुविधाएँ (Organisational Pacilities)-

     संगठनात्मक सुविधाओं से अ संगठन/ व्यवसाय में उपलब्ध सम्प्रेषण सामग्री, यथा, लेखन/दृश्य श्रव्य / अनुवाद सामग्री से है। जिस संगठन / व्यवसाय में इस प्रकार की समस्त सुविधाओं की उपलब्धता होगी, वहाँ सम्प्रेषण स्पष्ट, आवश्यकतानुरूप, अनुकूल व समय पर सम्पन्न होगा। इन सुविधाओं का अभाव सम्प्रेषण में बाधा को जन्म देगा।

     (iv) प्रतिष्ठात्मक सम्बन्ध (Reputory Relation)-

     एक व्यवसाय / संगठन में कार्य स्तर के आधार पर कर्मचारियों को विभिन्न विभाग/ उप-विभागों के अपने अलग-अलग उद्देश्य व लक्ष्य होते हैं अर्थात् कर्मचारियों की अपनी श्रेणियाँ बन जाती हैं। यह औपचारिक विभाजन वांछित सम्प्रेषण में बाधा उत्पन्न करता है, क्योंकि कर्मचारी अपनी प्रतिष्ठा के कारण भयभीत होते हैं या फिर विवादों को जन्म देते हैं जिससे सम्प्रेषण का स्तर न्यूनतम हो जाता है, जबकि सम्प्रेषण का कार्य एक संगठन में विवादों को न्यूनतम करना होता है।

    (v) सम्प्रेषण सामग्री का घटिया रख-रखाव (Bad maintenance of Communication Objects)-

    एक संगठन/व्यवसाय में सम्प्रेषण सामग्री; यथा, लिखित (सम्प्रेषण) सन्देशों को रखने में गम्भीरता नहीं बरती जाती, जबकि इन सम्प्रेषणों/सन्देशों की भविष्य में पुनरावृत्ति की आवश्यकता मूल दस्तावेजों के स्वरूप में पड़ती है।

    (III) भावनात्मक अवरोध 

    भावनात्मक अवरोध से अभिप्राय एक व्यक्ति के दृष्टिकोण/बोधता/नजरिया इत्यादि में कमी के पाये जाने से है, क्योंकि सम्प्रेषण मूलतः दोनों पक्षों, यथा सम्प्रेषक व सन्देशग्राही की मानसिक दशा पर निर्भर करता है। यदि सम्प्रेषक या सन्देशग्राही किसी में भी घबराहट/चिन्ता/उत्तेजना/डर/अधीनता उपस्थित है तो न तो सम्प्रेषक सन्देश को अच्छी तरह से संचारित कर सकेगा और न हो सन्देशग्राही सन्देश के वास्तविक स्वरूप व अर्थ से भली-भाँति परिचित हो पायेगा अर्थात् सम्प्रेषण प्रक्रिया में भावनाओं का सम्प्रेषण/सन्देशग्राही पर ही आधिपत्य है तो सन्देश अपनी मौलिकता को खो देगा और सन्देश सही ढंग से प्रेषित नहीं हो पायेगा व सम्प्रेषित सन्देश में सम्बन्धित व्यक्ति की स्थिति/दशा की झलक दृश्यिक होगी। सम्प्रेषण प्रक्रिया में अवरोधक भावनात्मक तत्व निम्नलिखित हैं-

    (i) अपरिपक्व मूल्यांकन (Unmature Evaluation )-

    बहुतायत सन्देशग्राही सन्देश ग्रहण करने के पूर्व ही बिना प्रतीक्षा किये अपनी सुविधानुसार मन्देश का अर्थ निकाल लेते हैं जिससे सन्देश में भ्रम उत्पन्न हो जाता है अर्थात् सन्देश के मूल्यांकन में जल्दबाजी एक सन्देश प्राप्तकर्ता के लिए हानिकारक तो है ही बल्कि इससे सम्प्रेषक भी हतोत्साहित हो जाता है।

    (ii) भावनात्मक दृष्टिकोण (Emotional Attitude)-

     अधिकांश व्यक्ति स्वभाव से भावनात्मक होने के कारण अपना मानसिक सन्तुलन खो देते हैं जिससे उनके वरिष्ठ या अधीनस्थ कर्मी क्रोधित हो सकते हैं। परिणामस्वरूप सम्प्रेषण भ्रमित हो जाता है। यदि भावनाओं का सम्प्रेषक / प्राप्तकर्ता पर आधिपत्य है तो सन्देश सदैव प्रतिकूल अर्थ ग्रहण करेगा।

    (iii) सम्प्रेषण पर अविश्वास (Distrust on Communication)-

    एक संगठन / व्यवसाय में कई वरिष्ठ या अधीनस्थ कर्मचारी बदसलूकी के लिये जाने जाते हैं, अतः सम्प्रेषण प्रक्रिया में इस प्रकार के व्यक्तियों द्वारा सम्प्रेषित सन्देश शनैः-शनैः सम्बन्धित व्यक्तियों को हतोत्साहित करता है और भविष्य में इनके द्वारा प्रेषित सन्देशों को गम्भीरता से नहीं लिया जाता है अर्थात् सम्प्रेषणग्राही का सम्प्रेषण के प्रति अविश्वास सम्प्रेषण के प्रभाव को नष्ट कर देता है।

    (iv) चयनात्मक दृष्टिकोण (Selective Attitude)-

    एक संगठन / व्यवसाय में व्यक्ति का चयनात्मक नजरिया सम्प्रेषण में बाधा उत्पन्न करता है। यह सामान्य मान्यता है कि एक सफल सम्प्रेषण प्रक्रिया में सम्प्रेषक व प्राप्तकर्ता दोनों का खुला दिमाग (Open Mind) होना अनिवार्य है। यदि व्यक्ति अपने निजी स्वार्थी / उद्देश्य के प्रति अधिक सजग होंगे अर्थात् संकीर्ण मानसिकता वाले होंगे तो सम्प्रेषण प्रभावशाली नहीं हो सकेगा अर्थात् व्यक्ति का चयनात्मक नजरिया सम्प्रेषण के अस्तित्व को खत्म कर देता है।

    (v) अल्प धारणशीलता (Less Grosping Power)-

    अल्प या न्यून धारणशीलता से अभिप्राय सम्प्रेषण प्रक्रिया में सन्देश/सूचना के प्रत्येक चरण में उसकी मौलिकता का निरन्तर ह्रास/क्षति से है। डाल्मर फिशर का यह अनुमान है कि एक संगठन या व्यवसाय में मौलिक सन्देश का 20 प्रतिशत हिस्सा ही विभिन्न अवरोधों की उपस्थिति के कारण प्राप्तकर्ता तक पहुँचता है। वे इस बात को भी स्पष्ट करते हैं कि एक संगठन के प्रबन्धन में एक मौलिक सन्देश निदेशक मण्डल से उपाध्यक्ष तक पहुँचने में लगभग 37% का क्षय हो जाता है। संन्देश या सूचना में निरन्तर क्षय का होना सम्प्रेषण के अन्य अवरोधों की उपस्थिति के अतिरिक्त सन्देश की ता के प्रति हमारी निष्क्रियता व लापरवाही का होना है।

    (vi) अनावश्यक मिश्रण व विरूपण (Unuseful Mixing and Killing of Originality)-

     एक संगठन / व्यवसाय में प्रत्येक कर्मचारी अपने निहित दृष्टिकोण की सामर्थता के अनुरूप सन्देश का अवलोकन व मूल्यांकन कर उसके अर्थ को ग्रहण करता है। कई बार जब सन्देश सम्प्रेषण प्रक्रिया के विभिन्न चरणों से होकर गुजरता है तो उसमें व्यक्ति अपने निजी स्वार्थी के कारण सन्देश में अनावश्यक मिलावट कर उसके मौलिक स्वरूप को विरूपित कर देता है जिससे सन्देश अपने मौलिक स्वरूप व विश्वसनीयता को खो देता है।

     (IV) भौतिक अवरोध 

    जो अवरोध भौतिक अवस्थाओं के कारण उत्पन्न होते हैं, उन्हें भौतिक अवरोध कहा जाता है। ये निम्नलिखित है-

    (i) शोर/समय व दूरी (Noise / Time and Distance)-

     सम्प्रेषण प्रक्रिया में शोर एक प्रमुख भौतिक बाधा है। एक व्यवसाय के कारखानों में क्रियाशील मशीनों/कल-पुर्जों की आवाज में मौखिक सन्देश प्रायः दब जाते हैं जो प्रभावहीन हो जाते हैं। साथ ही साथ समय व दूरी भी एक सम्प्रेषण के स्वाभाविक संचारण में बाधा उत्पन्न करते हैं। एक सम्प्रेषक व प्राप्तकर्ता के बीच की दूरी व समय अन्तराल सम्प्रेषण में अनेक प्रकार की भ्रान्तियाँ पैदा करता है। सम्प्रेषण के औपचारिक माध्यम प्रायः सन्देश के प्रवाह में अधिक समय लेते हैं, क्योंकि इनके प्रसारण व प्राप्तकर्ता तक पहुँचने में अधिक समय व दूरी तय करनी पड़ती है। एक देश / स्थान को भौगोलिक स्थिति व जलवायु भी सन्देश के संचारण को प्रभावित करती है। इससे सन्देश का सरल प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है।

     (ii) साहित्यिक विस्फोट (Litrary Explosion)-

     आज ज्ञान की कई शाखाएँ हैं। प्रत्येक विषय पर अथाह साहित्य उपलब्ध है अर्थात् साहित्य के विस्फोट के कारण किसी विषय वस्तु पर सम्पूर्ण साहित्य की उपलब्धता किसी सम्प्रेषण केन्द्र से प्राप्त करना असम्भव है। अतः एक स्वतन्त्र प्रक्रिया में साहित्यिक विस्फोट बाधा उत्पन्न करता है।

    (iii) हैलो प्रभाव (Hallo Effect)-

     एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में जब दो या दो से अधिक सन्देश प्राप्तकर्ता क्रियाशील होते हैं, तब एक सम्प्रेषण द्वारा प्रेषित सन्देश के आधार पर अपनी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की जाती हैं। सम्प्रेषण प्रक्रिया की इस दशा में वाद-विवाद की सम्भावना बढ़ जाती है, क्योंकि दोनों सन्देश को किस स्वरूप में प्रेषित/ग्रहित करते हैं यह उन दोनों के आपसी विश्वास पर निर्भर होता है। इसे 'हैलो प्रभाव' कहा जाता है।

    (iv) धन / वित्त सम्बन्धी बाधा (Wealth/ Finance related Obstacles)-

    एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में वित्तीय सीमितता सन्देश के प्रवाह में बाधा उत्पन्न करती है। धन/वित्तीय संकट के कारण अधिकांश लिखित सामग्री का सम्प्रेषण केन्द्र तक पहुँच पाना असम्भव होता है। साथ ही साथ वित्तीय संकट वैज्ञानिकों/शोधकर्ताओं की विभिन्न स्थानों पर आयोजित अधिवेशनों संगोष्ठियों/परिचर्चाओं/ सम्मेलनों/ कार्यशालाओं में सहभागिता से। वंचित कर देता है। वर्तमान को आधुनिक तकनीक का महँगा होना भी सन्देश के प्रसारण में अवरोध पैदा करता है।

    (V) व्यक्तिगत अवरोध 

    सम्प्रेषण एक अन्तवैक्तिक सम्बन्धों को प्रक्रिया है। एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में सम्प्रेषण व प्राप्तकर्ता के बीच विभिन्न मात्राओं व स्तरों में अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्ध निहित होता है, उनके शारीरिक हावभाव / अंग-विच्छेद एक सन्देश के वास्तविक स्वरूप को बदलने की क्षमता रखते हैं, साथ ही साथ एक संगठन में स्थिति/पद/अधिकार सम्बन्धी कटाव व विरोध भी एक सामान्य घटना है जोकि सम्प्रेषण प्रक्रिया को प्रभावित करती है। ये सब बातें व्यक्ति के व्यक्तिगत मूल्य हित व व्यक्तित्व से सम्बन्धित है। अतः एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में व्यक्तिगत बाधाएँ निम्न स्वरूप में पायी जाती हैं-

    (i) शारीरिक भाषा (Body Language )-

    पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि किसी सम्प्रेषण प्रक्रिया में शारीरिक भाषा अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शारीरिक अंग-विक्षेप की प्रत्येक क्रिया सन्देश के अर्थ को बदलने में सक्षम है। उदाहरणार्थ, यदि अंगूठे व तर्जनी को एक वृत्त आकार दें तो उसका अर्थ अमेरिको तहजीब में 'OK' होगा अर्थात् आपने अपना कार्य ठीक ढंग से किया, परन्तु फ्रांस या बेल्जियम में इसका अर्थ 'you are worth zero' होगा।

    (ii) उच्चाधिकारियों सम्बन्धी अवरोध (Senior officer related obstacles)-

     (a) व्यवहार (Attitude)- एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में संगठन / व्यवसाय/ के उच्चाधिकारियों का व्यवहार या  दृष्टिकोण सन्देश के प्रवाह को प्रत्यक्षतः प्रभावित करता है। व्यवहार से अभिप्राय एक सम्प्रेषक द्वारा सन्देश को अति करने की इव आवश्यकता से है।

     (b) डर (Pear)- एक संगठन / व्यवसाय में प्रत्येक व्यक्ति की आकांक्षा उच्च पद/स्थान या स्तर को प्राप्त करने की होती है, साथ ही साथ एक अधिकारी अपने उच्च स्थान को कायम रखने की दृष्टि से सम्प्रेषक प्रक्रिया मैं सन्देश के मौलिक स्वरूप को प्रभावित होने से रोक देते हैं। उन्हें निरन्तर इस बात का डर या भय बना रहता है कि सन्देश में वास्तविकता के प्रकट होने से कहीं उनके वर्तमान पद व स्थान से हाथ न धोना पड़े।

    (c) उचित माध्यम (Proper Mediums)- उच्च पदाधिकारियों की एक सामान्य प्रवृत्ति सन्देशों को माध्यम से स्वीकारने ग्रहण करने की होती है। ये सम्प्रेषण प्रक्रिया में सन्देश प्रवाह के किसी भी माध्यम / चरण को अपहेलना नहीं करते। प्रत्येक चरण उनके लिए महत्वपूर्ण होता है। कार्य को शीघ्रता से कराने के लिए जब प्रेषण के किसी चरण (Step) को अनदेखा किया जाता है तो यह उनके प्राधिकार के विपरीत होता है और वे गंधार के मार्ग में अवरोधक बन जाते हैं और सन्देश के प्रवाह में अनावश्यक विलम्ब होता है।

    (d) समयाभाव (Lack of Time)- एक संगठन / व्यवसाय के उच्चाधिकारियों की सोच यह होती है कि उन पर कार्य का अधिक बोझ व दबाव है, अतः समय के अभाव के कारण ये सन्देश के प्रवाह पर ध्यान नहीं दे |

    (e) ध्यानाभाव / अरुचि (Lack of Interest)- अधिकांशत: उच्चाधिकारी सन्देश के प्रसारण के प्रति जागरूक नहीं होते, साथ ही साथ वे उसको उपयोगिता व महत्व को नजरअंदाज करते हैं। इसके फलस्वरूप संचार के प्रवाह में रुकावट आती है और एक उद्यमी को कार्य में देरी व असुविधा का सामना करना पड़ता है।

    (iii) अधीनस्थों सम्बन्धी अवरोध (Problems due to Subordinates)- 

    (a) सम्प्रेषण अनिच्छा (Lack of Interest in Communication)-एक संगठन / व्यवसाय में अधीनस्थों में सन्देश के प्रसारण संचारण का अभाव भय / लापरवाही के कारण होता है। वे अपने उच्चाधिकारियों की नाराजगी की आशंका के कारण सन्देश को छुपाने का प्रयास करते हैं अनिवार्य होने पर सन्देश का परिवर्तित / संशोधित रूप संचारित कर देते हैं, अतः सन्देश का मौलिक स्वरूप बदल जाता है।

    (b) प्रेरणा का अभाव (Lack of Inspiration)- एक संगठन / व्यवसाय में अधीनस्थों में संस्था की पुरस्कार व दण्ड नीति तथा उनके सुझावों / विचारों की महत्ता न होने के कारण प्रेरणा जाग्रत नहीं हो पाती, अतः प्रेरणा के अभाव में सन्देश का प्रवाह प्रभावित होता है।

     (VI) अन्य अवरोध

    एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में सन्देश के संवाहन प्रवाह के लिये अनुचित माध्यमों का प्रयोग, दोषपूर्ण यान्त्रिक साधन, सम्प्रेषण का दबाव व सम्प्रेषक / प्राप्तकर्ता की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की विभिन्नताएँ आदि सम्प्रेषण के प्रभाव को कम कर देती हैं-

    (i) आधुनिक यान्त्रिक साधन (Modern Mechanical Equipments)- 

    वर्तमान में कम्प्यूटर के माध्यम से सम्प्रेषण प्रक्रिया सम्पन्न करना प्रत्येक के वश की बात नहीं है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति इस तकनीक के अभ्यस्त नहीं होते, साथ ही साथ जिन स्थानों पर सन्देश का प्रवाह कम्प्यूटर के जरिये किया जाता है, वहाँ प्राप्तकर्ता कठिनाइयों का अनुभव करते हैं।

    (ii) सूचनाओं का अतिभार (Over-load of Informations )-

    जब एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में सन्देश प्रवाह के माध्यम पर अधिक सूचनाओं का दबाव होता है तो सन्देश / सूचनाओं की प्रकृति जटिल रूप धारण कर लेती है व जटिल सूचनाएँ/ सन्देश सम्प्रेषणग्राही तक पहुँचते हैं एवं ये जटिल सन्देश/सूचनाएँ सम्प्रेषणग्राही म पहुँचते ही अप्रभावी हो सकती हैं।

    (iii) सामाजिक/सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की विभिन्नताएँ (Diversification of Social and Cultural Background)-

    एक संगठन / व्यवसाय में अलग-अलग सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के लोग कार्यरत होते हैं। अतः सम्प्रेषण लिंग/जाति/ वर्ग, राष्ट्रीयता व सामाजिक-सांस्कृतिक व अन्य बातों से प्रभावित होता है। सामाजिक-सांस्कृतिक विभिन्नताएँ सन्देश/सूचनाओं व उनके प्रभाव को भिन्न-भिन्न रूप प्रदान करती है।

    (iv) शासकीय प्रकाशन सम्बन्धी बाधा (Problems due to Governmental Publication)-

    अधिकांश शासकीय प्रकाशनों का सार्वजनिक प्रकाशन असम्भव होता है, अतः शासकीय प्रकाशनों को सीमितता भी आंशिक रूप में सम्प्रेषण को प्रभावित करती है।

    सम्प्रेषण बाधाओं को दूर करने के लिए सुझाव 

    आधुनिक व्यावसायिक जगत् में सम्प्रेषण अत्यधिक महत्वपूर्ण है। एक संगठन / व्यवसाय की उत्तरोतर उन्नति के लिए प्रत्येक स्तर पर सम्प्रेषण को प्रभावशील किया जाना चाहिए। इस हेतु आवश्यक है कि सम्प्रेषण क्रिया के मार्ग में आने वाले अवरोधों को दूर किया जाये। सम्प्रेषण प्रक्रिया को सुधार कर अधिक प्रभावशील बनाने हेतु सम्प्रेषण में आने वाली बाधाओं के निराकरण के निम्न सुझाव है-

    1. स्पष्ट उद्देश्य (Clear Objectives)-

    एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में सम्प्रेषक को सर्वप्रथम अपने उद्देश्य को पूर्णतया परिभाषित करना चाहिए अर्थात् सम्प्रेषित सन्देश की विषय-वस्तु, सन्दर्भ व नियम इत्यादि से सम्प्रेषकग्राही को परिचित करा देना उचित होगा, ताकि सम्प्रेषक द्वारा प्रेषित सन्देश को वास्तविक स्वरूप व अर्थ में प्राप्तकर्ता द्वारा ग्रहण किया जाये।

    2. श्रोताओं की सामान्य जानकारी (General Idea about Audience)-

    एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में सम्प्रेषक द्वारा अपने उद्देश्य को स्पष्ट करने के उपरान्त श्रोताओं की स्थिति की जानकारी लेना आवश्यक है अर्थात् श्रोताओं को आपके द्वारा सम्प्रेषित की जाने वाली सन्देश को विषय सामग्री के बारे में सामान्य जानकारी है या नहीं। वे आपके विषय से कितने परिचित हैं। यदि श्रोताओं से आप पूर्व परिचित हैं तो सम्प्रेषण में श्रोता सम्बन्धी कोई व्यवधान की उत्पत्ति की सम्भावना कम होती है, परन्तु यदि आप श्रोताओं से अपरिचित हैं तो उनके सम्बन्ध में सामान्य जानकारी अर्जित करना आवश्यक है, ताकि सम्प्रेषण प्रक्रिया में सम्प्रेषक व प्राप्तकर्ता परस्पर सहयोगी बनें।

    3. सरल व स्पष्ट भाषा का प्रयोग (Use of Easy and Clear Language)-

    एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में सम्प्रेषित सन्देश में प्रयुक्त भाषा अत्यन्त सरल, समझने योग्य व प्राप्तकर्ता के ग्राह्य योग्य होनी चाहिए, ताकि प्राप्तकर्ता सन्देश को उसके मौलिक स्वरूप में ग्रहण कर उस सन्देश के वास्तविक अर्थ को समझ सके। 

    4. प्रभावपूर्ण श्रवणता (Effective Listening)-

    एक प्रभावी सम्प्रेषण मूलत: प्रभावपूर्ण श्रवणता पर निर्भर होता है। प्रभावपूर्ण श्रवणता सम्प्रेषण प्राप्तकर्ता दोनों के लिए आवश्यक है, ताकि सन्देश का वास्तविक स्वरूप व अर्थ प्राप्तकर्ता तक सरलता से प्रवाहित हो सके।

    5. भावनाओं पर सम्पूर्ण नियन्त्रण (Total Control over Emotions)-

    एक सफल व प्रभावी सम्प्रेषण के लिए भावनाओं पर दोनों ही पक्ष सम्प्रेक्षक / प्राप्तकर्ता का नियन्त्रण होना आवश्यक है। भावनाओं पर नियन्त्रण न होने से सन्देश के प्रवाह में बाधा उत्पन्न होगी।

    6. शोर को कम करो (Lessen the Noise)-

    सम्प्रेषण प्रक्रिया के दौरान शोर की उपस्थिति सन्देश के प्रवाह में बाधक होती है, ताकि सन्देश अपना वांछित परिणाम प्राप्त करने में सफल न हो सके। इस हेतु सन्देश के संचारण हेतु उपयुक्त माध्यम का चुनाव करें। इस हेतु प्राप्तकर्ता की सुविधा का ध्यान रखें, ताकि प्राप्तकर्ता की सन्देश के प्रति रुचि पैदा हो।

    7. सन्देश की पूर्णता (Complets on of Message )–

    सम्प्रेषित किया जाने वाला सन्देश उद्देश्य की दृष्टि से पूर्ण होना चाहिए। सन्देश की अपूर्णता सन्देशग्राही की रुचि को कम करती है।

    8. अनुकूल वातावरण (Suitable Environment )-

    एक सन्देश का वास्तविक स्वरूप प्राप्तकर्ता तक दसी स्थिति में पहुँचेगा जब आस-पास का पर्यावरण सम्प्रेषण प्रक्रिया के अनुकूल हो। सम्प्रेषण का व्यक्तित्व, स्थान व शान्त वातावरण इत्यादि प्रेषित सन्देश के अनुकूल हों।

     9. शारीरिक भाषा का प्रभावी प्रयोग (Effective Use of Body Language )-

    जैसा कि पूर्व में विश्लेषित किया जा चुका है कि सम्पूर्ण प्रक्रिया में शारीरिक भाषा की एक अहम् भूमिका होती है, अतः सकारात्मक शारीरिक भाषा सम्प्रेषणग्राही के अतिरिक्त युक्तियों/विचारों को उत्पन्न करती है और सन्देश मौलिक रूप में प्राप्तकर्ता तक पहुँचता है।

    10. प्रतिपुष्टि का उचित प्रयोग (Proper Use of Feedback)-

    एक सम्प्रेषण प्रक्रिया की पूर्णता प्रतिपुष्टि पर निर्भर होती है। यदि प्रतिपुष्टि जटिल हो तो सम्प्रेषण की प्रक्रिया अपूर्ण हो जाती है। यद्यपि आमने-सामने के सम्प्रेषण में प्रतिपुष्टि स्पष्ट व शीघ्र होती है, परन्तु लिखित सम्प्रेषण में प्रतिपुष्टि में विलम्ब हो जाता है। अतः कति प्रतिपुष्टि के लिए सम्प्रेषण माध्यम सन्देश के अनुकूल हों।

    निष्कर्षत: एक संगठन / व्यवसाय के सम्प्रेषण में सामान्यतः विभ्रम की सम्भावना होती है। यह समस्या और भी जटिल तब हो जाती है जब सम्प्रेषित सन्देश जटिल होता है। उपरोक्त उपायों के द्वारा एक सम्प्रेषण प्रक्रिया को सम्पूर्णता प्रदान करने में सहायता मिलती है तथा सन्देश में विभ्रम ही सम्भावना कम-से-कम होती है।


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