व्यावसायिक निर्देशन क्या हैं? अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, आवश्यकता एवं कार्य

व्यावसायिक निर्देशन, मानव जीवन के विविध पक्षों में एक महत्त्वपूर्ण पक्ष सामाजिक है। सामाजिक जीवन का एक बड़ा भाग मनुष्य जीविकोपार्जन में व्यतीत करता है। वास्तविक रूप से मनुष्य अपने व्यवसाय के माध्यम से ही सामाजिक उत्तरदायित्वों को कुशलता से पूरा करता है और यही उसके व्यक्तिगत सन्तोष का उत्प्रेरक है।  व्यवसाय व्यक्ति के केवल सामाजिक जीवन को ही नहीं प्रभावित करता अपितु वह व्यक्ति की विचारशक्ति, भावना, तर्कशक्ति एवं व्यक्तित्व को भी प्रभावित करता है। 

अतः यहाँ मैक्स मैककोनन का कथन: "जीविका निर्माण से जीवन निर्माण अधिक महत्वपूर्ण है" इस दृष्टि से अधिक उपयुक्त लगता है कि जीवन निर्माण का एक आधारभूत चरण जीविका निर्माण है। यहाँ इनके परस्पर तुलनात्मक पक्ष को न देखते हुये कह सकते हैं कि दोनों एक सिक्के के दो पहलू है।

आज से कुछ वर्ष पूर्व तक लोग अपने पारम्परिक व्यवसाय को ही अपनी जीविका का साधन बनाते थे। यह तथ्य उस समय ठीक था क्योंकि उस समय व्यवसाय कम थे. जीवन सरल था. आवश्यकताएँ सीमित थी, परन्तु आज विज्ञान तथा तकनीकी आविष्कारों ने जीवन को जटिल बना दिया है। व्यवसाय में विविधता और विशिष्टीकरण बढ़ गया है तथा वैभवशाली जीवन व्यतीत करने की अभिलाषा में वृद्धि हो रही है। अतः आज व्यवसाय चयन हेतु ही व्यावसायिक निर्देशन की आवश्यकता अधिक अनुभव होने लगी है। निर्देशन का प्रारम्भ व्यावसायिक निर्देशन से ही हुआ। सर्वप्रथम मई 1908 में फेंक पारसन्स' नाम के विद्वान ने व्यावसायिक निर्देशन शब्द का प्रयोग किया।

व्यावसायिक निर्देशन का अर्थ एवं परिभाषा 

व्यावसायिक निर्देशन का अर्थ यह लिया जाता है कि कार्य विशेष के लिये उचित व्यक्ति का चुनाव अथवा व्यक्ति विशेष के लिये उचित कार्य का चुनाव ही व्यावसायिक निर्देशन है। यह एक आदर्श वस्तुस्थिति हो सकती है पर व्यवहार में ऐसा नहीं हो पाता। व्यावसायिक निर्देशन के अर्थ को समझने के लिये यहाँ कुछ परिभाषाओं का अध्ययन करना आवश्यक है।

नेशनल वोकेशनल गाइडेंस एसोसिएशन ने सन् 1924 में सर्वप्रथम व्यावसायिक निर्देशन को इस प्रकार परिभाषित किया- "किसी व्यवसाय को चुनने, उसके लिये आवश्यक तैयारी करने, उसमें नियुक्ति पाने तथा वहाँ प्रगति करने के लिये सूचना, अनुभव एवं राय देना ही व्यवसाय निर्देशन है |"

परन्तु इस परिभाषा को हम ज्यों का त्यों अक्षरशः स्वीकार नहीं कर सकते हैं क्योंकि प्रथम तो यह एक विद्वान के विचार न होकर कई विद्वानों के विचार है, दूसरे ये विचार ठीक रूप से व्यवस्थित भी नहीं है। यह तो एक सम्बोध (Concept) है जिसे गहन अध्ययन के उपरान्त एक राष्ट्रीय संगठन ने स्वीकार कर लिया है। उक्त परिभाषा त्रुटिपूर्ण है, इसका प्रमाण इसी संस्थान की 1937 में दी गयी परिभाषा है। 

यदि उपर्युक्त परिभाषा त्रुटिपूर्ण होती, तो दूसरी परिभाषा देने की कोई भी आवश्यकता न थी। सन् 1937 में एसोसिएशन ने परिभाषा देते हुये कहा कि "व्यावसायिक निर्देशन व्यक्ति को व्यवसाय चुनने, उसके लिये आवश्यक तैयारी करने, उसमें प्रवेश पाने तथा वहाँ प्रगति करने में सहायता देने की एक प्रक्रिया है। इसका प्रमुख उद्देश्य भविष्य की योजना में निहित निर्णय लेने एवं जीविका का चयन करने में व्यक्ति की सहायता करना है। ये निर्णय एवं चयन सन्तोषजनक व्यावसायिक समायोजन के लिये आवश्यक हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ही संस्थान द्वारा दी गयी दो परिभाषाओं में कितना मूलभूत अन्तर है। एक परिभाषा तो निर्देशन को 'पद्धति' बताती है तथा दूसरी परिभाषा उसे 'प्रक्रिया' (process) बताती है। दूसरी परिभाषा में कुछ दिया जाता है, जबकि प्रथम परिभाषा में सहायता की जाती है। इन सब बातों से ऐसा ज्ञात होता है मानो 'नेशनल वॉकेशनल गाइडेंस ऐसोसिएशन' को व्यवसाय निर्देशन के मूल सम्बन्धों का ज्ञान हो ए ये मूल सम्बोध जैसे अस्पष्ट हो। पर तब भी इस संस्थान ने 1937 में दी गयी परिभाषा को अपनाया है।

कभी कभी व्यवसाय निर्देशन का वर्णन इस प्रकार भी किया जाता है कि निर्देशन "गोल कील गोल छिद्र में तथा चौकोर कीलें चौकोर छिद में डालने की प्रक्रिया है।" 

उपर्युक्त परिभाषा द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवसाय निर्देशन का कार्य उचित व्यक्ति को उचित स्थान पर लगाना है। तथ्य अन्य रूप से प्रकट किया है, पर जैसे भी किया गया है. सही है। अगर उपमा तथा भाषा की दृष्टि से अवलोकन करें तो इस परिभाषा को हम अपनाने में संकोच ही करेंगे।

अपनी पुस्तक 'Appraising Vocational Fitness में सुपर ने व्यावसायिक निर्देशन की परिभाषा देते हुये कहा है- "व्यावसायिक निर्देशन व्यक्तियों को व्यवसायों में समायोजित होने में सहायता करता है तथा मानवीय शक्ति को प्रभावोत्पादन ढंग से उपयोग कर सामाजिक अर्थव्यवस्था को 'सरलतम ढंग से चलाने में सुविधाएँ प्रदान करता है।

परन्तु सुपर (Super) अपनी इस परिभाषा की स्वयं ही आलोचना करते हुये कहता है कि उपर्युक्त परिभाषा में तो व्यवसाय निर्देशन के केवल कार्य बताये है तथा इसमें अधिक महत्त्व तो व्यक्ति साफल्य पर दिया गया है। व्यवसाय निर्देशन में वास्तविक ध्यान व्यक्ति की अभिरुचियों, मूल्यों तथा क्षमता इत्यादि पर दिया गया है, अर्थात् व्यक्ति को अपनी रुचियों को व्यक्त करने, योग्यताओं को प्रयोग करने, मूल्यों को प्राप्त करने एवं भावात्मक आवश्यकताओं को तृप्त करने का अवसर दिया जाये।

सन् 1949 में अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (IL.O.) ने व्यवसाय निर्देशन की परिभाषा देते हुये कहा- "व्यक्ति के गुणों तथा उनका व्यावसायिक अवसरों के साथ सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुये व्यक्ति को व्यवसाय चयन और उसमें प्रगति से सम्बन्धित समस्याओं को हल करने में दी जाने वाली सहायता ही व्यावसायिक निर्देशन है।" 

परन्तु प्रश्न उठता है कि व्यवसाय निर्देशन क्या एक सहायता मात्र है. इससे अधिक इसका कोई कार्य नहीं है ? व्यवसाय निर्देशन वास्तव में देखा जाये तो इससे कहीं अधिक है, इसका क्षेत्र अत्यन्त महान है।

व्यवसाय निर्देशन की एक परिभाषा में कहा गया है व्यवसाय निर्देशन वह सहायता है जो व्यक्ति को अपनी क्षमताओं का दिग्दर्शन इच्छित शक्तियों की तुलना में कराता है। इस परिभाषा के दो पहलू इ-प्रथम व्यक्ति में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक रुचि, अभिरुचि, विशिष्ट सीमाएँ, व्यक्तित्व इत्यादि सम्बन्धी विभिन्नताएँ पायी जाती है. दूसरी तरफ प्रत्येक व्यवसाय विभिन्न प्रकार की योग्यता तथा क्षमताएँ चाहता है। व्यवसाय निर्देशन का प्रमुख कार्य उचित क्षमता, रुचियों तथा योग्यता वाले व्यक्तियों को उन व्यवसायों के चयन करने में सहायता करना है जो उस व्यक्ति की इन शक्तियों के अनुकूल है। निर्देशन का कार्य उचित व्यवसाय चयन में सहायता करना ही नहीं है, वरन् उसमें प्रवेश पाने तथा उन्नति करने में भी सहायता देना है। यदि समस्त व्यक्तियों की शक्तियाँ समान होती तो यह समस्या न उठती, क्योंकि सभी व्यक्ति सभी व्यवसायों के लिये उचित होते। इसी प्रकार यदि सभी व्यवसाय एक जैसी ही शक्तियाँ चाहते तो भी निर्देशन की समस्या पैदा न होती। परन्तु क्योंकि वास्तविक जगत् में ऐसा नहीं है, इसलिये व्यवसाय निर्देशन की आवश्यकता हुई। इस परिभाषा के विरोध में कहा जा सकता है कि क्या तुलनात्मक निर्देशन मात्र से ही काम चल जायेगा ? यदि काम चल सकता है तो हम इस परिभाषा को सहर्ष स्वीकार कर सकते हैं। परन्तु वास्तविक रूप से देखा जाये तो यह कार्य चलना नहीं है।

व्यवसाय निर्देशन औपचारिक तथा अनौपचारिक हो सकता है। विद्यालयों तथा अन्य संस्थाओं द्वारा सोद्देश्य निर्देशन औपचारिक निर्देशन कहलाता है। इसके विपरीत हमारे संरक्षकों, मित्रों तथा अन्य सम्बन्धित व्यक्तियों द्वारा अज्ञात, अनजाने एवं अनायास ही जो निर्देशन दिया जाता है, वह अनौपचारिक होता है। व्यवसाय निर्देशन चाहे औपचारिक हो या अनौपचारिक उसका प्रमुख उद्देश्य मानव शक्तियों को संकलित तथा सुरक्षित करना है। इसी दृष्टिकोण को नजर में रखते हुये मेयर्स (Myers) ने व्यवसाय - निर्देशन की परिभाषा देते हुये कहा है-"व्यवसाय निर्देशन बुनियादी रूप से युवक की अमूल्य जन्मजात प्रतिभाओं तथा विद्यालयों में दिये गये महँगे प्रशिक्षण को सुरक्षित रखने का प्रयास है। व्यक्ति को आत्मसन्तोष तथा समाज की सफलता की दृष्टि से इन संसाधनों के नियोग एवं उपयोग में सहायता करके व्यावसायिक निर्देशन इन संसाधनों को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है।"

इस प्रकार व्यवसाय-निर्देशन में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं- 

1. व्यवसाय निर्देशन एक प्रक्रिया है. एक घटना नहीं।

2. व्यवसाय- चयन या व्यवसाय समायोजन के लिये आवश्यक है कि व्यक्ति स्वयं की योग्यताओं, अभिरुचियों, सफलताओं, रुचियों तथा प्रेरणाओं को समझे।

3. व्यक्ति में एक ऐसा अवबोध (concept) विकसित कर दे कि वह यह समझने लगे कि यही वह व्यक्ति है जो कि मैं हूँ" (This is the person that I am.)

4. कार्य में संलग्न व्यक्तियों के सम्बन्ध में जाना जाये।

5. व्यावसायिक निर्देशन के लिये आवश्यक ज्ञान, दक्षता, योग्यता तथा अन्य तथ्यों के सम्बन्ध में सूचनायें एकत्रित की जाये।

व्यावसायिक निर्देशन के उद्देश्य

व्यवसाय - निर्देशन के निम्नलिखित उद्देश्य हैं- 

 1. विद्यार्थियों को भिन्न-भिन्न जीविकाओं के विषय में ऐसी सूचनायें एकत्र करने में सहायता प्रदान करना, जिन्हें वे चुन सकें।

2. विद्यार्थियों को यह बताना कि किसी व्यवसाय के लिये किन-किन गुणों, योग्यताओं और दक्षताओं की आवश्यकता होती है।

3. विद्यार्थियों को विभिन्न व्यवसायों का निरीक्षण करने की सुविधा प्रदान करना। 4. निर्धन छात्रों को अधिक सहायता देकर उनकी व्यवसाय सम्बन्धी योजना को सफल बनाना।

5. विभिन्न व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थाओं से छात्रों को परिचित कराना।

6. व्यवसाय चयन के उपरान्त व्यक्ति को अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा करने में सहायता देना। 

7. छात्रों में इस भावना का विकास करना कि ईमानदारी से सम्पन्न किया कार्य सर्वथा श्रेष्ठ होता है।

8. छात्रों में व्यवसाय सम्बन्धी सूचनाओं का विश्लेषण करने की क्षमता का विकास करना।

9. विद्यालय के अन्दर एवं बाहर ऐसे अवसर प्रदान करना, जिससे छात्र कार्य की परिस्थितियों से परिचय प्राप्त कर सके तथा वे अपनी रुचि का विस्तार कर सकें।

10. छात्रों को विभिन्न व्यवसायों से परिचित कराना, उनका व्यक्तिगत तथा सामाजिक महत्त्व बताना एवं कार्य के प्रति एक आदर्श भावना जाग्रत करना।

व्यवसायिक निर्देशन की आवश्यकता

अब यह देखने के उपरान्त कि व्यवसाय निर्देशन क्या है तथा इसके उद्देश्य क्या है, हमारे सम्मुख प्रश्न यह स्वतः ही उठ खड़ा होता है कि व्यवसाय निर्देशन क्यों दिया जाये ? इसकी क्या आवश्यकता है ? क्या निर्देशन के अभाव में कोई व्यक्ति अपना व्यवसाय चुन नहीं सकता है ? इसके उत्तर में हम कह सकते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपना व्यवसाय तो चुन सकता है, परन्तु निर्देशन के अभाव में वह सफलता सम्भवत: ही प्राप्त कर सकता है। अतः व्यवसाय निर्देशन की आवश्यकता निम्नांकित तथ्यों को ध्यान में रखने पर ही स्पष्ट दृष्टिगोचर हो सकेगी, यथा-

1. व्यवसायों में विभिन्नता 

आधुनिक काल में व्यवसाय- निर्देशन की आवश्यकता व्यवसायों में विविधता के कारण अधिक अनुभव की जाने लगी है। प्राचीन काल में व्यवसायों की संख्या इतनी अधिक नहीं थी अतः युवकों के सम्मुख व्यवसाय चयन की समस्या भी न थी। आज विद्यालय छोड़ने के पूर्व ही यह आवश्यक हो जाता है कि विद्यार्थियों को विद्यालय के कार्यकाल में ही व्यावसायिक निर्देशन दे दिया जाये। विद्यार्थी के शिक्षण काल में ही यदि विषयों का चुनाव उचित ढंग से उसकी योग्यता तथा कार्यक्षमतानुसार हो गया तो आगे चलकर उसे व्यवसाय चयन करने में असुविधा न होगी। अतः यह आवश्यक है कि छात्र को विभिन्न व्यवसायों से परिचित कराया जाये, उसको आवश्यक योग्यताओं, क्षमताओं तथा शक्तियों का ज्ञान कराया जाये एवं छात्र की जो निहित शक्तियाँ हैं. उनका ज्ञान भी छात्र को कराया जाये, जिससे वह भावी जीवन के व्यवसाय से अपनी शक्तियों का मिलान करके उचित व्यवसाय का चयन कर सके।

2. छात्रों के भावी जीवन में स्थिरता लाना

छात्र जिस समय विद्यालय छोड़कर व्यवसाय में प्रवेश करता है तो वहाँ ऐसे वातावरण में पाता है जिसके सम्बन्ध में उसे बिल्कुल भी ज्ञान नहीं है। अज्ञात वातावरण में ठीक से समायोजित हो जाना सरल नहीं है। समायोजन की त्रुटि अल्पकाल में ज्ञात नहीं होती है, इसमें तो समय लगता है और जब अनुचित समायोजन का पता लगता है तब तक पर्याप्त समय गुजर चुका होता है। अतः यह आवश्यक है कि बच्चों को छात्र जीवन में ही कार्य जगत् का पर्याप्त ज्ञान प्रदान कर दिया जायें, जिससे छात्र जीवन के पश्चात् तुरन्त ही वे व्यवसाय जीवन में स्थिरता ला सकें और उन्हें शीघ्र ही अपने व्यवसाय बदलने न पड़े |

3. व्यक्तिगत भिन्नताएँ 

संसार में दो प्रकार की विभिन्नतायें पायी जाती है-व्यक्तिगत विभिन्नताएँ तथा व्यवसाय विभिन्नताएँ संसार में जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के व्यक्ति पाये जाते है, उसी प्रकार विभिन्न प्रकार के व्यवसाय भी दिखायी देते हैं। प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक कार्य नहीं कर सकता है, ठीक इसी प्रकार प्रत्येक कार्य प्रत्येक व्यक्ति के उपयुक्त नहीं है। अब यह ज्ञात करना कि कौन व्यक्ति किस कार्य को कर सकता है तथा किस कार्य के लिये कौन व्यक्ति अच्छा तथा योग्य है, एक समस्या है। जब तक इस समस्या का समाधान नहीं हो जाता. समाज का कल्याण सम्भव नहीं। इस कार्य हेतु हमें व्यवसाय निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।

4. आर्थिक दृष्टिकोण से आवश्यकता

अक्सर देखने में आता है कि भारत जैसे देश में जहाँ बेकारी की समस्या अत्यन्त भयंकर रूप धारण किये हुये है, अनेक युवक विद्यालय छोड़ने के उपरान्त जिस व्यवसाय में उन्हें अवसर मिल जाता है. प्रवेश कर जाते हैं, चाहे उस व्यवसाय में उनकी रुचि हो अथवा नहीं। अरुचिकर व्यवसाय में मजबूरन जाने के कारण नवयुवक उतने उत्साह एवं लगन के साथ कार्य करने में असफल रहते है जितना कि उन्हें उत्साह तथा लगन दिखानी चाहिये। इससे नवयुवक समाज तथा देश की आर्थिक अवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अतः इस लाभहीन आर्थिक अवस्था से देश, समाज एवं युवकों को बचाने हेतु निर्देशन की आवश्यकता पड़ जाती है।

5. स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यकता

स्वास्थ्य की दृष्टि से भी व्यवसाय निर्देशन की अत्यन्त आवश्यकता है। अरुचिकर व्यवसाय श्रमिक के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है। अरुचिकर व्यवसाय में श्रमिक कोई भी रुचि नहीं लेगा, बिना इच्छा के कार्य करेगा, उसका उत्साह जाता रहेगा. उसे अपना जीवन नीरस मालूम पड़ेगा. चिन्ताएँ उसे घेर लेगी और अन्त में वह अपना स्वास्थ्य खो देगा। कुछ व्यवसाय पूरे शरीर की क्रिया न चाहते हुये कुछ विशेष अंगों की क्रिया चाहते हैं। यदि वह विशेष अंग उस व्यक्ति का पहले से ही खराब हुआ तो वह और भी ज्यादा खराब हो जायेगा। उदाहरण के लिये यदि किसी व्यक्ति की आँखें पहले से ही खराब है तो वे और भी खराब हो जायेगी। अत: स्वास्थ्य की दृष्टि से भी व्यवसाय निर्देशन आवश्यक है।

6. अरुचिकर व्यवसाय में व्यक्तित्व-हास

व्यक्ति के अनुपयुक्त एवं अरुचिकर व्यवसाय में ठहरने पर उसको आर्थिक हानि तो होती ही है, परन्तु उसके साथ ही साथ उसके व्यक्तित्व का विनाश भी हो जाता है। उपयुक्त व्यवसाय में ही श्रमिक की खुशियाँ सन्तोष तथा व्यक्तिगत विकास निहित है और इनके माध्यम से ही व्यक्तित्व का विकास सम्भव है। व्यवसाय निर्देशन की सहायता से व्यक्ति को उपयुक्त व्यवसाय में प्रवेश करवाया जा सकता है तथा उनके व्यक्तित्व में होने वाले ह्रास को रोका जा सकता है।

7. व्यवसाय निर्देशन के व्यक्तिगत एवं सामाजिक मूल्य 

उपयुक्त व्यवसाय वही है जहाँ कर्मचारी अधिकतम सन्तोष, सुख, उत्साह एवं आशा का अनुभव करे। इसी में उसके वास्तविक जीवन का विकास सम्भव है। मनुष्य का सामाजिक इकाई के रूप में मूल्य तभी है, जब वह अधिकतम सामाजिक कल्याण करता है। वह हितैषी तभी है जब वह मानव संसार का अधिकतम भला करता है। ये कार्य मनुष्य जीविका जगत् से बाहर रहकर नहीं कर सकता है तथा जीविका जगत् में सफलता उसी समय सम्भव है जब जीविका उपयुक्त हो। जब मनुष्य उपर्युक्त कल्याणकारी कार्यों को सफलतापूर्वक करता है तो हमें समझना चाहिये कि वह उपयुक्त व्यवसाय में नियुक्त है। यदि ऐसा नहीं है तो उसे व्यवसाय निर्देशन की आवश्यकता है।

8. मानवीय शक्तियों का उचित प्रयोग करने हेतु

व्यवसाय निर्देशन के माध्यम से छिपी हुई क्षमताओं को ज्ञात किया जाता है। संसार में अनेक ऐसी विभूतियाँ नष्ट हो गयी जो अवसर न मिलने के कारण अपने ज्ञान-प्रकाश से हमारा मार्ग प्रदर्शन न कर सकी तथा हमेशा-हमेशा के लिये लुप्त हो गयीं। इस बात को आंग्ल भाषा के महान् कवि ग्रे (Gray) ने इस प्रकार व्यक्त किया है-

"Full many a flower is born to blush unseen, 

And waste its sweetness on the desert air"

इन छिपी हुई विभूतियों तथा क्षमताओं का पता केवल उचित व्यवस्थित निर्देशन के माध्यम से ही लगाया जा सकता है।

9. परिवर्तित अवस्थाएँ 

सामाजिक तथा आर्थिक अवस्था के परिवर्तन के कारण व्यवसाय - निर्देशन की आवश्यकता और भी अधिक बढ़ गयी है। व्यवसायों के प्रकार में पर्याप्त मात्रा में वृद्धि हुई है तथा प्रत्येक व्यवसाय अलग-अलग क्षमताएँ चाहता है। अनेक क्षेत्रों में वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप इच्छित क्षमताएँ बदल गयी है। कुछ व्यवसायों का महत्त्व घट गया है, कुछ लुप्तप्रायः हो गये हैं। नये युग में नई विचारधारा प्रवाहित हो गयी है। इस नई विचारधारा के साथ-साथ प्रवाहित होना व्यक्तिगत उन्नति के लिये अत्यन्त आवश्यक है, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति इस धारा प्रवाह को नहीं समझ सकता है, न इसका उपयोग कर सकता है। इस प्रकार के व्यक्तियों को व्यवसाय निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।

व्यावसायिक निर्देशन के कार्य 

वर्तमान समय में व्यवसायों के परिवर्तित परिदृश्य में व्यावसायिक निर्देशन की भूमिका में अत्यधिक वृद्धि हुई है। प्रत्येक व्यवसाय में विशिष्ट कार्यों में वृद्धि और उसके अनुरूप कर्मचारियों की माँग ने व्यावसायिक निर्देशन की उपयोगिता को और बढ़ा दिया है। अतः यहाँ व्यावसायिक निर्देशन के कार्यों के बारे में विचार करना उपयुक्त होगा।

1. व्यवसायों का ज्ञान कराना- व्यावसायिक निर्देशन का महत्त्वपूर्ण कार्य व्यक्तियों को व्यवसायों के बारे में जानकारी देना है। व्यवसायों की संख्या तथा प्रकार में इतनी अभिवृद्धि हुयी है कि उनका ज्ञान न तो छात्रों को है और न उनके अभिभावकों को। परिणामस्वरूप इस अनभिज्ञता के कारण वे परम्परागत व्यवसायों के चयन में ही रुचि रखते हैं।

2. व्यवसायों में प्रवेश की विधि का ज्ञान कराना-  व्यवसायों में प्रवेश की अनेक विधियों प्रचलित है। कहीं केवल साक्षात्कार का उपयोग होता है तो कहीं लिखित परीक्षा, साक्षात्कार, सामूहिक चर्चा का प्रयोग होता है। प्रायोगिक कार्य के लिये कौशल परीक्षण का प्रयोग होता है। व्यावसायिक निर्देशन का प्रवेश विधि का ज्ञान कराना एक कार्य है।

3. व्यावसायिक सूचना प्रदान करना - व्यावसायिक निर्देशन छात्रों या व्यक्तियों को विभिन्न व्यवसायों के बारे में भिन्न-भिन्न तरह की सूचनाएँ प्रदान करने का कार्य भी करता है।

4. प्रशिक्षण केन्द्रों की जानकारी देना- विविध व्यवसायों में आवश्यक कुशलता का प्रशिक्षण देने वाली संस्थाओं की जानकारी देना तथा उनमें प्रवेश के लिये आवश्यक योग्यता एवं प्रवेश की विधि का ज्ञान कराना व्यावसायिक निर्देशन का कार्य है।

 5. छात्र को आत्म ज्ञान कराना - व्यावसायिक निर्देशन छात्रों को उनमें निहित गुणों का ज्ञान कराता है। इस ज्ञान के आधार पर छात्र व्यवसाय में अपेक्षित गुणों से अपने गुणों का मिलान करने में सफल होते हैं।

6. समायोजन में सहायता करना- व्यवसाय में प्रवेश के बाद व्यावसायिक स्थल पर समायोजन स्थापित करने में व्यक्ति की सहायता करना भी व्यावसायिक निर्देशन का कार्य है।

7. व्यवसाय में प्रगति करने की विधियों का ज्ञान -व्यवसाय में प्रवेश के बाद आगे प्रगति करने के तरीकों का ज्ञान कराना भी व्यावसायिक निर्देशन का कार्य है।

8. कार्य स्थल की दशाओं का ज्ञान -व्यावसायिक निर्देशन कार्य स्थल की दशाओं अर्थात् कार्य का समय, कार्य कार्यालय में या बाहर, कार्यस्थल की स्वच्छता, प्रकाश और हवा का प्रबन्ध आदि के बारे में जानकारी देने का कार्य करता है।

9. व्यवसाय का संगठन- व्यावसायिक निर्देशन व्यवसाय की प्रबन्ध व्यवस्था की जानकारी देने का कार्य करता है।

शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर व्यावसायिक निर्देशन

1. प्राथमिक स्तर पर - प्राथमिक स्तर पर स्पष्ट है कि व्यावसायिक निर्देशन बिना विद्यालय के सहयोग के अपने उद्देश्य में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता है। ऐसा अनुभव किया जाता है कि कार्य के प्रति बालकों को उन्मुख करने का प्रयत्न प्राथमिक शिक्षा से किया जाना चाहिये। प्राथमिक शिक्षा की योजना इस ढंग से बनायी जानी चाहिये कि व्यावसायिक निर्देशन के कार्यक्रम को सफल बनाने में कैरियर मास्टर सहायक सिद्ध हो सके।

प्राथमिक स्तर पर व्यावसायिक निर्देशन नींव तैयार करता है। पाठ्यक्रम एवं पाठ्यचर्या के माध्यम से आधारभूत कौशल तथा दृष्टिकोणों का विकास किया जाये जो कार्य में सफलता के लिये आवश्यक होते है। एक कुशल कारीगर या व्यावसायिक कुशलता के लिये सामान्य गुणों की आवश्यकता है-जैसे कार्य को सफाई से व्यवस्थित ढंग से करना, दूसरे सहयोगियों के साथ मिल-जुलकर कार्य करने की आदते कार्य के प्रति निष्ठा एवं उचित दृष्टिकोणों का विकास। इन सभी गुणों का विकास इसी स्तर से किया जाना चाहिये।

प्राथमिक स्तर पर आठवीं कक्षा व्यावसायिक निर्देशन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। इसे 'डेल्टा कक्षा' भी कहते हैं। इस कक्षा में छात्र माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्याओं में से अपने लिये उपयुक्त पाठ्यचर्या का चयन करते हैं। अनेक छात्र इसी स्तर से विद्यालय छोड़ देते हैं। उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुये इस स्तर पर व्यावसायिक निर्देशन की उचित व्यवस्था वांछनीय है। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों, प्रशिक्षण अवसरों तथा माध्यमिक शिक्षा की तैयारी इत्यादि समस्याओं में छात्रों को इस स्तर पर व्यावसायिक निर्देशन के लिये कैरियर मास्टर की पर्याप्त आवश्यकता है।

2. माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक स्तर पर- माध्यमिक विद्यालय बालक-बालिकाओं की रुचियों एवं व्यावसायिक आवश्यकताओं पर अच्छी तरह ध्यान दे सकता है। सामान्यतः व्यावसायिक निर्देशन की दृष्टि से माध्यमिक विद्यालय को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। माध्यमिक स्तर पर निर्देशन कार्यक्रम इस ढंग से आयोजित किया जाता है कि वह विद्यार्थियों को व्यवसायों का सही चुनाव करने में सहायक हो। इस दृष्टि से माध्यमिक विद्यालय निम्नलिखित कार्य कर सकता है-

1. विद्यार्थियों को अपनी क्षमता  एवं सीमाओं की उचित जाँच करने में सहायता देना-व्यक्तित्व की विशेषताओं के अनुसार छात्रों की व्यावसायिक प्रवृत्तियों का पता लगाने एवं उन्हें अपने विषय में एक समुचित धारणा बनाने में व्यावसायिक निर्देशन एवं स्कूल मनोवैज्ञानिक माध्यमिक स्तर के छात्रों की सहायता कर सकता है।

2. छात्रों को विभिन्न व्यवसायों एवं उनके लिये वांछनीय योग्यताओं के विषय में कॅरियर मास्टर द्वारा परिचित कराना- देश में रोजगार की क्या स्थिति है ? किन-किन व्यवसायों में रोजगार के कौन-कौन से साधन उपलब्ध हैं ? विशिष्ट कार्य के लिये कितनी योग्यता आवश्यक है ? आदि बातों की जानकारी व्यावसायिक निर्देशन के अन्तर्गत विद्यार्थियों को प्रदान की जाती है। माध्यमिक विद्यालयों को रोजगार विनिमय केन्द्रों, समाचार पत्र के विज्ञापनों एवं फैक्टरियों के विषय में यथासम्भव नवीन जानकारी प्राप्त करनी चाहिये जो छात्रों को व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करने में सहायक सिद्ध होती है। इसी को कैरियर (जीवनवृत्ति या पेशा) सम्बन्धी निर्देशन कहा जाता है। आजकल 'कैरियर की चर्चा जीविकोपार्जन के लिये शिक्षा के सन्दर्भ में किया जाता है। अतः जो कुछ व्यावसायिक निर्देशन के क्षेत्र में आता है, वे सभी कैरियर या जीविकोपार्जन के लिये निर्देशन में प्रयुक्त होते हैं।

व्यवसायों की योग्यता, वेतन आदि के आधार पर वर्गीकरण करके चार्ट इत्यादि के द्वारा तत्सम्बन्धी जानकारी छात्रों को कैरियर मास्टर द्वारा प्रदान की जानी चाहिये। साथ ही देश एवं समाज की व्यावसायिक जटिलता का सही चित्र भी छात्रों के सामने प्रस्तुत किया जाना चाहिये जिससे वे यथार्थ स्थितियों का सामना करने में घबराये नहीं।

3. छात्रों को सही विकल्प चुनने में मदद देना- उचित परामर्श एवं व्यक्तिगत निर्देशन द्वारा अपने जीवन के लिये उपयुक्त व्यवसाय के निश्चय में व्यावसायिक निर्देशन में कैरियर मास्टर सहायक हो सकता है। माध्यमिक स्तर पर छात्र अपने भविष्य के विषय में सोचना प्रारम्भ कर देते है। अतः उन्हें व्यवसाय के सही चुनाव में सहायता देना व्यावसायिक निर्देशन का कर्तव्य है।

4. अपने चुने हुये व्यवसाय में प्रवेश की तैयारी करने में सहायक होना- आज के विशेषीकरण के युग में अनेक कार्यों एवं व्यवसायों में प्रवेश से पहले कुछ समय प्रशिक्षण प्राप्त करना होता है। माध्यमिक स्तर पर छात्रों को प्रशिक्षण संस्थाओं एवं सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा प्रदान की जाने वाली आर्थिक सहायता सम्बन्धी सुविधाओं के बारे में जानकारी प्रदान की जाती है।

5. छात्रों को यह निश्चय करने में सहायता देना कि वह कॉलेज शिक्षा की ओर उन्मुख हों अथवा व्यवसाय विशेष को अपनायें-  माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक निर्देशन द्वारा विद्यालय छोड़ने के उपरान्त उनकी भावी योजना के निर्धारण में सहायता प्रदान की जाती है। अधिकांश छात्रों को जिनकी मानसिक योग्यता उच्च स्तर की नहीं होती. कॉलेज शिक्षा की ओर उन्मुख न करके व्यवसायों में प्रवेश का कार्य व्यावसायिक निर्देशन कर सकता है। इस प्रकार जहाँ समय, धन और श्रम की बरबादी को रोका जा सकता है वहीं दूसरी ओर कॉलेजों में शिक्षा के स्तर एवं प्रवेश सम्बन्धी कठिनाइयाँ भी दूर की जा सकती है।

3. कॉलेज एवं विश्वविद्यालय स्तर पर व्यावसायिक निर्देशन - कॉलेज एवं विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा के बारे में शिक्षाशास्त्रियों का विचार है कि केवल प्रतिभासम्पन्न छात्रों को ही यह शिक्षा प्रदान की जानी चाहिये। प्रतिभा का समुचित विकास और उपयोग तभी सम्भव है जब कॉलेज एवं विश्वविद्यालय शिक्षा व्यावसायिक दृष्टि से नियोजित एवं संगठित हो। केवल ज्ञान के लिये ज्ञान प्राप्ति का लक्ष्य बनाकर अध्ययन में प्रवृत्त होने वाले भी कुछ हो सकते है पर वे संख्या में थोड़े होते हैं। अधिकांश छात्रों के सामने जीविकोपार्जन की समस्या होती है। अतः उच्च शिक्षा के स्तरों पर छात्रों को उपलब्ध अवसरों एवं कार्य क्षेत्र के विषय में व्यापक जानकारी उपलब्ध कराने में व्यावसायिक निर्देशन सहायक होता है। इसके अतिरिक्त उच्च पदों के लिये प्रशिक्षण एवं राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित प्रतियोगिताओं के विषय में उन्हें नवीनतम जानकारी देनी चाहिये।


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