व्यावसायिक अर्थशास्त्र की प्रकृति
व्यावसायिक अर्थशास्त्र की प्रकृति का अध्ययन करने के लिए हमें देखना है कि यह विज्ञान है अथवा कला अथवा दोनों यदि विज्ञान है तो यह वास्तविक विज्ञान है अथवा आदर्श विज्ञान ।
व्यावसायिक अर्थशास्त्र विज्ञान के रूप में
क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान कहा जाता है जिसमें नियम प्रतिपादित किये जा सकते हैं, नियमों की सत्यता जांची जा सकती है, भविष्यवाणी की जा सकती है। इस परिप्रेक्ष्य में परखने पर व्यावसायिक अर्थशास्त्र भी विज्ञान ही लगता है क्योंकि इसके भी नियम एवं सिद्धान्त हैं। इन सिद्धान्तों को सत्यता की खोज की जाती है और यह क्रमबद्ध ज्ञान होने के साथ-साथ भविष्यवाणी के लिए भी उपयुक्त है।
व्यावसायिक अर्थशास्त्र वास्तविक विज्ञान के रूप में
विज्ञान वास्तविक एवं आदर्श दो प्रकार का होता है। वास्तविक विज्ञान वस्तु स्थिति का अध्ययन करता है अर्थात् 'क्या है ? (What is ?)' का अध्ययन ही वास्तविक विज्ञान कहलाता है।
यदि इस कसौटी पर व्यावसायिक अर्थशास्त्र को परखा जाए तो यह भी वास्तविक विज्ञान की श्रेणी में आता है । व्यावसायिक अर्थशास्त्र के अन्तर्गत किसी फर्म के उत्पादन की लागत, उसकी माँग लाभदेय क्षमता तथा भविष्य में उन्नति की सम्भावनाओं आदि का क्रम से विश्लेषण कर निष्कर्ष निकाला जाता है कि उस फर्म की आर्थिक स्थिति क्या है ? क्या वह प्रतिस्पर्द्धा तथा अनिश्चितता के वातावरण में अपनी नियोजित पूँजी अपेक्षित लाभदेय क्षमता रखती है ? यदि नहीं तो क्यों ? अतः 'क्या है ? (What is ? )' का पूरा समाधान व्यावसायिक अर्थशास्त्र के अन्तर्गत होता है इसलिए यह वास्तविक विज्ञान है।
व्यावसायिक अर्थशास्त्र आदर्श अर्थशास्त्र का अंग है
वास्तविक विज्ञान तो कारण एवं परिणाम की निरपेक्ष व्याख्या करता है—'क्या है' जबकि आदर्श विज्ञान 'क्या है' और 'क्या होना चाहिए' के बीच सेतु का कार्य करता है। इस दृष्टि से व्यावसायिक अर्थशास्त्र केवल व्यावसायिक फर्मों की क्रियाओं, घटनाओं एवं समस्याओं का सैद्धान्तिक विश्लेषण ही नहीं करता वरन् उनके व्यावहारिक हल भी ढूंढ़ता है। अतः व्यावसायिक अर्थशास्त्र की प्रकृति वर्णनात्मक (Descriptive) न होकर निर्देशात्मक (Perspective) है। इनमें साधनों की तुलना में साध्यों के अध्ययन को अधिक बल दिया जाता है। आर्थिक सिद्धान्तों के सैद्धान्तिक विवेचन से अधिक महत्व इन सिद्धान्तों के निर्णय, नीति निर्धारण तथा नियोजन में क्रियाशीलता को दिया जाता है। एक फर्म के उत्पाद की मात्रा क्या होनी चाहिए ? उसकी माँग क्या होगी ? लाभदेय क्षमता को कितना बढ़ाया जा सकता है ? उत्पादित वस्तु के मूल्य को कितना बढ़ाया या घटाया जा सकता है ? आदि का विश्लेषण व्यावसायिक अर्थशास्त्र में किया जाता है। इसलिए व्यावसायिक अर्थशास्त्र केवल संस्था की क्रियाओं और समस्याओं का सर्वेक्षण ही नहीं करता है बल्कि उनके प्रायोगिक समाधान की खोज करता है। अतः यह वास्तविक विज्ञान ही नहीं बल्कि आदर्श विज्ञान भी है।
व्यावसायिक अर्थशास्त्र कला भी है
किसी कार्य को सर्वोत्तम ढंग से करने की क्रिया कला कहलाती है। इस परिप्रेक्ष्य में देखने पर व्यावसायिक अर्थशास्त्र में भी कला के गुणों का समावेश नजर आता है। व्यावसायिक अर्थशास्त्र भी एक कला है क्योंकि यह प्रबन्धक को अनेक विकल्पों में से सही विकल्प को चुनने में मदद करता है। सही विकल्प को चुनना ही सही निर्णयन कहलाता है। एक व्यावसायिक संस्था के साधन सीमित होते हैं तथा उन साधनों के अनेक वैकल्पिक उपयोग होते हैं। अतः प्रन्धक को इन अनेक विकल्पों में से एक को चुनना होता है। सही चयन की यह प्रक्रिया बड़ी जटिल होती है क्योंकि संस्था का भविष्य अनिश्चित होता है। व्यावसायिक अर्थशास्त्र का यह 'कला' तत्व ही प्रबन्धक को अनिश्चितता के वातावरण में निर्णय लेने तथा भावी नियोजन के क्रियान्वयन में मदद करता है। संस्था की लाभदेय क्षमता उत्पादन बढ़ाकर, मूल्य बढ़ाकर अथवा लागत घटाकर या अन्य तरीकों से किस प्रकार बढ़ाई जा सकती है, इसका निर्णय, व्यावसायिक अर्थशास्त्र का 'कला' पक्ष ही कर सकता है। अतः व्यावसायिक अर्थशास्त्र कला भी है।
व्यावसायिक अर्थशास्त्र का क्षेत्र
जैसा कि हम पीछे अध्ययन कर चुके हैं, कि व्यावसायिक अर्थशास्त्र ज्ञान की नवोदित शाखा है और अभी अपने विकास की शैशव अवस्था में है। संक्षेप में, व्यावसायिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित शीर्षकों को सम्मिलित किया जाता है।
1. माँग विश्लेषण तथा माँग का पूर्वानुमान
इस विषय के अन्तर्गत माँग का विश्लेषण विस्तार से किया जाता है जिसमें प्रमुख निम्न हैं।
(अ) मांग निर्धारण शक्तियाँ (Demand Determinants),
(ब) माँग की लोच (Elasticity of Demand),
(स) माँग का नियम (Law of Demand),
(द) मांग विभेद (Demand Differentials) ।
माँग का पूर्वानुमान व्यवसाय की प्रकृति तथा सफलता के लिए अति आवश्यक है। इसके अन्तर्गत सांख्यिकी तथा गणित की विधियों का प्रयोग किया जाता है।
2. उत्पादन एवं लागत विश्लेषण
उत्पादन की मात्रा का निर्धारण तथा उसके उत्पादन में लगने वाली लागतों का विश्लेषण लाभ की मात्रा के नियोजन, मूल्य नीति-निर्धारण तथा फर्म के प्रभावी नियन्त्रण के लिए अति आवश्यक है। उत्पादन विश्लेषण का क्षेत्र लागत से संकुचित है। उत्पादन विश्लेषण तो भौतिक रूप में होता है। परन्तु लागत विश्लेषण हमेश मौद्रिक रूप में होता है। लागत विश्लेषण के अन्तर्गत जिन विषयों का अध्ययन किया जाता है, वे इस प्रकार हैं-
(i) लागत अवधारणा तथा वर्गीकरण,
(ii) लागत उत्पादन सम्बन्ध,
(iii) उत्पादन फलन,
(iv) उत्पादन के पैमाने से सम्बन्धित मितव्ययिताएँ
(v) रेखीय कार्यक्रम ।
3. मूल्य निर्धारण नीतियाँ एवं व्यवहार
मूल्य निर्धारण व्यावसायिक अर्थशास्त्र का एक महत्वपूर्ण पहलू है कि एक फर्म की सफलता उसकी सही मूल्य नीति पर निर्भर करती है। इसके अन्तर्गत हम निम्न बातों का अध्ययन करते हैं-
(i) विभिन्न प्रतियोगी दशाओं में मूल्य निर्धारण
(ii) व्यावसायिक फर्मों की मूल्य नीतियाँ,
(iii) मूल्य निर्धारण की वैकल्पिक पद्धतियाँ,
(iv) मूल्य विभेद-नीति,
(v) उत्पादन-श्रेणी, मूल्य निर्धारण और मूल्यों के पूर्वानुमान ।
4. पूँजी प्रवन्ध
व्यवसाय की सफलता का आधार पूँजी प्रबन्ध की क्षमता पर निर्भर करता है। पूंजी पर हो व्यवसाय का विस्तार नियोजन तथा प्रगति निर्भर रहती है। बहुत-से व्यापार पूँजी की अधिकता अथवा पूँजी की कमी के कारण असफल हो जाते हैं, अतः पूँजी का प्रबन्ध व्यावसायिक अर्थशास्त्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इसके अन्तर्गत निम्न विश्लेषण आते हैं-
(i) पूँजी की लागत,
(ii) पूँजी बजट,
(iii) पूँजी पर प्रतिफल की दर,
(iv) पूँजी का आवण्टन-स्थायी कार्यशील आदि।
5. लाभ प्रवन्धन
प्रत्येक उत्पादक एवं व्यावसायिक फर्म का उद्देश्य अन्ततः लाभ को अधिकतम करने का होता है। व्यवसाय की सफलता उसके लाभों से ही आँकी जाती है। लाभ कुल आगमों और कुल व्ययों का अन्तर होता है। इसमें अनिश्चितता के कारण लाभों में भी अनिश्चितता रहती है। अतः व्यावसायिक अर्थशास्त्र में लाभों को प्रभावित करने वाले सभी आन्तरिक और बाह्य घटकों पर विचार करके इसकी सही भविष्यवाणी करने के प्रयत्न किये जाते हैं। इसके अन्तर्गत (i) लाभ की प्रकृति तथा उसकी माप, (ii) समुचित लाभ नीति का चुनाव, (iii) लाभ नियोजन और लाभ नियन्त्रण की तकनीकियाँ जैसे- सन्तुलन स्तर विश्लेषण तथा लागत नियन्त्रण का अध्ययन किया जाता है।
6. उपभोक्ता व्यवहार का अध्ययन
व्यावसायिक अर्थशास्त्र के अन्तर्गत उपभोक्ता व्यवहार का अध्ययन एक बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित विषयों का अध्ययन किया जाता है- (i) उपभोक्ता इच्छा, (ii) उपभोक्ता की बचत ।
7. बाजार अनुसन्धान
व्यावसायिक अर्थशास्त्र का महत्वपूर्ण क्षेत्र बाजार अध्ययन भी है। अतः वस्तुओं के स्थायी बाजार बनाने के अनुसन्धान को आवश्यकता होती है। इसके अन्तर्गत प्रमुख विषय हैं— (i) विज्ञापन, (ii) विक्रय-कला. (iii) मध्यस्थ, (iv) वितरण पद्धति ।
8. समष्टिगत अर्थशास्त्र का उपयोग
यद्यपि व्यावसायिक अर्थशास्त्र की प्रकृति विशिष्ट अर्थशास्त्र है फिर भी व्यावसायिक संस्था के प्रबन्ध के क्षेत्र में समष्टिगत अर्थशास्त्र का बहुत उपयोग होता है। कारण यह है कि संस्था का संचालन आन्तरिक प्रबन्ध के अतिरिक्त बाह्य तत्वों पर भी निर्भर करता है। अतः बाह्य तत्वों का अध्ययन और उनके अनुरूप अपनी रीतियों तथा योजनाओं को बनाना आवश्यक हो जाता है, इसके लिए निम्नलिखित का अध्ययन आवश्यक है— (i) करारोपण नीति, (ii) श्रम नीति, (ii) औद्योगिक नीति, (iv) व्यापार चक्र ।
9. परियोजना मूल्यांकन
जब व्यावसायिक फर्म की परियोजना का समग्र रूप से मूल्यांकन किया जाता है तो फर्म की विभिन्न योजनाओं की उपयुक्तता या कमियों का पता लगाया जा सकता है। अतः इसके अन्तर्गत आदान-प्रदान विश्लेषण, माँग एवं लागत विश्लेषण के आधार पर फर्म के उपयुक्त आकार, साधनों का अनुकूलतम संयोग, मूल्य निर्धारण नीतियों और व्यवहार में सामंजस्य, क्रियात्मक शोध, रेखीय कार्यक्रम, सामग्री नमूना, क्रीड़ा सिद्धान्त आदि का अध्ययन करना पड़ता है।
अर्थशास्त्र अथवा आर्थिक सिद्धान्तों का व्यावसायिक अर्थशास्त्र में उपयोग
व्यावसायिक अर्थशास्त्र में व्यावसायिक फर्मों के कार्यों एवं घटनाओं के विश्लेषण तथा समस्याओं के समाधान के लिए अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों, धारणाओं एवं विश्लेषण की पद्धतियों का व्यापक प्रयोग किया जाता है। इसी कारण स्पेन्सर तथा सीगिलमैन ने इसे आर्थिक सिद्धान्त का व्यावसायिक व्यवहार के साथ एकीकरण (The Integration of Economic Theory with Business Practice) की संज्ञा दी है। मैसर्स स्पेन्सर और सीगिलमैन के मतानुसार व्यावसायिक अर्थशास्त्र में अर्थशास्त्र के उपयोग के अग्रलिखित पहलू होते हैं।
(1) व्यवसाय के आर्थिक सम्बन्धों की जानकारी
व्यावसायिक प्रबन्ध में अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों के प्रयोग से व्यवसाय के आर्थिक सम्बन्धों, जैसे—लागत और उत्पादन का सम्बन्ध, मूल्य व माँग का सम्बन्ध, उत्पादन का मूल्य से सम्बन्ध, माँग की लोच का आय से सम्बन्ध, स्थानापन्न वस्तुओं से सम्बन्ध, लागत एवं मूल्य लाभ का सम्बन्ध आदि की जानकारी होने पर उचित निर्णयों में सुविधा रहती है।
(2) व्यावसायिक भविष्यवाणी एवं पूर्वानुमान
आर्थिक मात्राओं के सम्बन्ध में भविष्यवाणी करने के लिए भी आर्थिक नियमों का प्रयोग किया जाता है, जैसे-भविष्य में क्या माँग होगी, उत्पादन की किसी विशिष्ट मात्रा पर क्या लाभ होगा, व्यापार प्रारम्भ में कितनी पूंजी की आवश्यकता होगी, मजदूरों की कौन-सी समस्याएँ उठ सकती हैं और उनका प्रभाव व्यापार पर क्या होगा आदि के सम्बन्ध में निश्चय किया जाता है, ताकि इनके आधार पर भविष्य में उठाये जाने वाले कदमों पर विचार किया जा सके।
(3) आर्थिक लागतों एवं लेखा लागतों की धारणाओं में समन्वय
कुछ परिभाषिक शब्दों, जैसे- लागत व लाभ आदि का अर्थ जो व्यापार के बहीखाते में लिया जाता है, वहीं अर्थशास्त्र में नहीं होता। हीखाते में सिर्फ वही लागत प्रदर्शित की जाती है जो दी गयी हो या दी जाने वाली हो किन्तु अर्थशास्त्र में इस प्रकार की लागत के साथ-साथ वह लागत भी चर्चा का विषय होती है जो वास्तव में होती है। जैसे-यदि कोई व्यापारी अपना व्यापार एक किराए के भवन में करता है और उसका किराया 100 रु. देता है तो उस लागत का लेखा बहीखाते में होगा, किन्तु यदि वह स्वयं के भवन में व्यापार करता है तो उसका जिक्र बहीखाते में नहीं होगा किन्तु अर्थशास्त्र में दोनों परिस्थितियों में इस लागत को गणना होगी। व्यावसायिक अर्थशास्त्र में इस प्रकार के शब्दों की बहीखाता सम्बन्धी धारणाओं और अर्थशास्त्र सम्बन्धी धारणाओं में, समन्वय स्थापित किया जाता है। इससे लेखा पुस्तकों या बहीखातों में लाभ और लागत के जो आँकड़े मिलते हैं, उनका उपयोग निर्णय लेने एवं भविष्य में नियोजन के लिए सही प्रकार से किया जा सकता है।
(4) व्यवसाय को प्रभावित करने वाली बाह्य परिस्थितियों का ज्ञान एवं प्रबन्धकीय निर्णयों में समायोजन
सरकारी आर्थिक नीतियों, व्यापार चक्र, श्रमिक सम्बन्ध, राष्ट्रीय आय में परिवर्तन, एकाधिकार विरोधी कानून आदि का अध्ययन आर्थिक सिद्धान्तों के माध्यम से किया जाता है। इन बाह्य परिस्थितियों का व्यापार पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है, इसलिए व्यापार के व्यवस्थापक को इनसे सतर्क रहना पड़ता है, ताकि इनसे होने वाले दुष्परिणामों से वह अपने व्यापार को बचा सके अथवा अच्छे प्रभाव से लाभान्वित हो सके। इन बाह्य परिस्थितियों को समझने के लिए आर्थिक सिद्धान्तों को समझना और प्रयोग करना आवश्यक है।
(5) आर्थिक सिद्धान्तों के प्रयोग से व्यवसाय संचालन में सुविधा
जब भविष्य सम्बन्धी आर्थिक मात्राओं का ज्ञान हो जाता है तो आर्थिक सिद्धान्तों के उपयोग से ही यह निर्णय लिया जाता है कि व्यापार को किस प्रकार संचालित किया जाये, ताकि भविष्य में कोई कठिनाई या अवरोध उपस्थित न हो। उदाहरण के लिए, यदि यह अनुमान लग जाता है कि आज से तीन माह बाद माँग क्या होगी तो उसकी पूर्ति के लिए अभी से उत्पादन की योजना बनायी जाती है, ताकि समय आने पर माँग की कमी का अनुभव न हो |
(6) आर्थिक सिद्धान्तों के व्यावहारिक प्रयोग की स्पष्ट सीमा
आर्थिक सिद्धान्तों का अध्ययन करके यह ज्ञात किया जाता है कि वे व्यापार में व्यावहारिक रूप से कहाँ तक लागू होते हैं ? क्योंकि अनेक आर्थिक सिद्धान्त व्यापार में लागू नहीं होते, जैसे-यदि कहा जाता है कि दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता में किसी वस्तु का मूल्य औसत लागत के बराबर होता है किन्तु व्यवहार में पूर्ण प्रतियोगिता का पाया जाना असम्भव है। इसी प्रकार आर्थिक विश्लेषण में एक मान्यता यह भी है कि एक व्यावसायिक इकाई का उद्देश्य लाभ को अधिकतम करना होता है परन्तु कुछ इकाइयाँ ऐसी भी हो सकती है जो कि विक्रय को अधिकतम करने का उद्देश्य सामने रखें। प्रायः ऐसा भी होता है कि प्रारम्भ में व्यापार जमाने के उद्देश्य से कार्य किया जाता है और इस स्थिति में मूल्य जान-बूझकर कम रखा जाता है जिसके कारण अधिकतम लाभ नहीं हो पाता।