प्रधानाचार्य
COUNSELLING PERSONAL:विद्यालय में प्रधानाचार्य को प्रमुख स्थान प्राप्त है। पी. सी. रेन ने विद्यालय में प्रधानाध्यापक के स्थान के सम्बन्ध में निम्नलिखित विचार प्रकट किये है-घड़ी में प्रधान कमानी, मशीन में प्रचक्र या जलयान में यन्त्रीकरण को जो स्थान प्राप्त है. वही स्थान किसी भी विद्यालय में प्रधानाचर्य का है। प्रधानाचार्य की योग्यता, सूक्ष्म एवं प्रशासकीय क्षमता पर ही विद्यालय की प्रगति निर्भर करती है।
निर्देशन प्रक्रिया शिक्षा का आवश्यक अंग स्वीकार की गयी है। अतः प्रधानाचार्य का नेतृत्व इस क्षेत्र में प्राप्त होना चाहिये। विद्यालय के परामर्श कार्यक्रम का प्रशासकीय प्रधान प्रधानाचार्य ही होता है। कार्यभार अधिक होने से वह परामर्श कार्यक्रम का भार किसी योग्य अध्यापक को सौंप सकता है परन्तु वह अपने नेतृत्व एवं समर्थन को किसी अन्य को नहीं सौंप सकता है प्रधानाचार्य को चाहिये कि अपने सभी अध्यापकों को निर्देशन कार्य के लिये प्रोत्साहित करे एवं सभी प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करे।
प्रधानाचार्य के परामर्श कार्यक्रम सम्बन्धी उत्तरदायित्व
प्रधानाचार्य विद्यालय का प्रमुख अधिकारी होता है, अतः सामान्यतः वह विद्यालय की समस्त क्रियाओं को सफलतापूर्वक करने के लिये उत्तरदायी होता है। परामर्श कार्यक्रम विद्यालय का ही अभिन्न अंग है। इसलिये परामर्श कार्यक्रम के प्रति प्रधानाचार्य के उत्तरदायित्व का वर्णन यहाँ किया जायेगा, यथा-
1. परामर्श सेवाओं के संगठन में नेतृत्व प्रदान करना।
2. अपने विद्यालय के अध्यापको को निर्देशन का महत्त्व, प्रयोजन एवं समस्याओं को समझने में सहायता देना।
3. योग्य परामर्श कर्मचारियों की नियुक्ति एवं कार्य वितरण करना।
4. परामर्श क्रियाओं का निरीक्षण करना।
5. अध्यापकों एवं परामर्श कर्मचारियों को नौकरी के समय प्रशिक्षण (Inservice training) की सुविधा प्रदान करना।
6. परामर्श कमेटी का निर्माण करना।
7. परामर्श कार्य के लिये पर्याप्त समय प्रदान करना।
8. परामर्श कार्यक्रम के लिये धन देना।
9. परामर्श सेवा के लिये अच्छे भवन का प्रबन्ध
10. परामर्श कार्यक्रम के प्रभाव का मूल्यांकन अध्यापकों के सहयोग से करना।
11. बालकों के माता-पिता को परामर्श सेवाओं से परिचित रखना।
"प्रधानाचार्य या प्रधानाध्यापक अपने विद्यालय के परामर्श कार्यक्रम का मुख्य व्यक्ति (Keyman) होता है। उसको उसके उद्देश्यों के साथ सहानुभूति रखनी चाहिये तथा अपनी हार्दिक सहायता प्रदान करनी चाहिये |
प्रत्येक विद्यालय में प्रधानाचार्य को आज की परिवर्तित परिस्थितियों में परामर्श की आवश्यकता अनुभव करनी चाहिये। इसके उपलब्ध साधनों के आधार पर उसको परामर्श कार्यक्रम की योजना बनानी चाहिये।
प्रधानाचार्य को विद्यालय में एक परामर्श समिति बनानी चाहिये। प्रधानाचार्य स्वयं इस समिति का प्रधान रहेगा। सभी सदस्य मिलकर परामर्श क्रियाएँ निश्चित करेंगे। समय-समय पर यह समिति मूल्याकन द्वारा परामर्श क्रिया की उपयुक्तता (Worthwhileness) निश्चित करेगी। परामर्श समिति में सदस्यों का चुनाव बड़ी सावधानी से करना चाहिये। उन अध्यापकों को ही समिति का सदस्य बनाया जाये जो परामर्श में कुछ रुचि तथा योग्यता रखते हों।
अध्यापकों को परामर्श कार्य का प्रशिक्षण देने के लिये प्रधानाचार्य को सेवा कालीन शिक्षा (Inservice education) का आयोजन करना चाहिये। इस कार्य के लिये विभागीय मीटिंग करनी चाहिये। इसमें किसी योग्य व्यक्ति को आमन्त्रित किया जा सकता है जो परामर्श के क्षेत्र में ज्ञान रखता हो विद्यालयों में ही अध्यापकों के लिये अंशकालीन पाठ्यक्रम संगठित किये जायें।
प्रधानाचार्य का उत्तरदायित्व है कि परामर्श कार्यक्रम के लिये सभी सुविधाएँ उपलब्ध करें। परामर्श। कार्यालय की व्यवस्था करे। उसके लिये पर्याप्त फर्नीचर प्रदान करे। सभी प्रकार की सामग्री खरीदने के लिये पर्याप्त धन जुटाये। भारत में धनाभाव के कारण सभी भौतिक सुविधाएँ प्राप्त नहीं हो पाती है।
अध्यापकों को परामर्श कार्य का उत्तरदायित्व देते समय उनके कार्यभार पर ध्यान दिया जाये। जिन अध्यापकों को परामर्श कार्य सौंपा जाये उनको शिक्षण कार्य कम दिया जाये। छात्रों तथा अध्यापकों के समय-चक्र में कुछ घण्टे खाली रखे जायें, जिससे वे परामर्श सुविधाओं का लाभ उठा सकें।
प्रधानाचार्य को विद्यालय कार्य की भाँति परामर्श क्रियाओं का भी निरीक्षण करना चाहिये। परामर्शदाता के सुझावों के अनुसार पाठ्यक्रम आदि में परिवर्तन के लिये तैयार रहना चाहिये।
परामर्शदाता
प्रत्येक विद्यालय में परामर्शदाता होता है। परामर्श देने के लिये या तो अध्यापक को ही प्रशिक्षण दिलवा दिया जाता है या परामर्श विशेषज्ञ की नियुक्ति की जाती है। परामर्शदाता के निम्नलिखित कार्य होते हैं-
1. नवीन कक्षाध्यापक एवं अन्य विद्यालय कर्मचारियों को निर्देशन कार्यक्रम का ज्ञान कराना।
2. विद्यालय, गृह एवं समाज के मध्य सम्बन्ध विकसित करने में सहायता देना।
3. छात्रों की मनोवैज्ञानिक जाँच करना।
4. विद्यालयों से विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रम के बारे में सूचनाएँ एकत्रित करना एवं छात्रों को प्रदान करना।
5. विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित सूचनाएँ देना।
6. छात्रों को स्वयं समझने तथा भविष्य की योजना बनाने में सहायता देना।
7. विद्यालय के आलेखों की व्याख्या करना जिससे छात्र परिचित नहीं होते हैं।
8. विद्यालय के साथ घनिष्ठ सम्पर्क बनाये रखना।
9. उन अध्यापकों की सहायता करना जिनकी कक्षा में समस्यात्मक छात्र होते हैं।
10. युवको को विभिन्न जीविकाओं में प्रस्थापना करने में युवक नियोक्ता सेवाओं की सहायता करना।
11. निर्देशन सेवाओं का फल ज्ञात करने के लिये निर्देशित छात्र का उत्तरोत्तर अध्ययन करना।
12. माता-पिता की मीटिंग करना, उनसे सम्पर्क बनाये रखना।
13. छात्रों को यथार्थ स्थिति का अध्ययन कराने के लिये भ्रमणादि का आयोजन रखना।
14. सामूहिक निर्देशन का प्रबन्ध करना, जिससे सामाजिक समायोजन को प्रोत्साहन दिया जा सके।
15. विद्यालय की विभिन्न समितियों में रुचि दिखाना।
16 छात्रों की योग्यताओं, रुचियों, अभियोग्यताओं एवं शारीरिक गुणों का वस्तुनिष्ठ मापन करना।
17. छात्र के घर के परिवेश, आर्थिक स्तर एवं व्यक्तित्व से सम्बन्धित विभिन्न अंगों का ज्ञान प्राप्त करना।
18 सांवेगिक कठिनाइयों के प्रति सचेत रहना। ऐसे छात्रों को विशेषज्ञों के पास भेजना।
19. छात्रों को परीक्षाफलों से परिचित कराना।
20. छात्रों में स्वतः प्रेरणा और स्वतन्त्रता विकसित करने में उनकी सहायता करना जिससे वे आत्मनिर्देशन में प्रगति कर सकें।
परामर्शदाता के आवश्यक गुण
परामर्शदाता के कार्यों का अध्ययन स्पष्ट करता है कि निर्देशन कार्यक्रम का प्रमुख व्यक्ति यही है रूथ स्ट्रेंग ने परामर्शदाता के महत्त्व को स्पष्ट करते हुये कहा है-
"परामर्शदाता एक माली की भाँति है, जो मिट्टी तैयार करता है तथा प्रत्येक पौधे को स्वयं उगने में सहायता करने के लिये प्रत्येक कार्य करने को उत्साहित रहता है।"
परामर्शदाता को कार्यकुशल व्यक्ति बनने के लिये निम्नलिखित गुणों से युक्त होना चाहिये-
1. बौद्धिक क्षमता अधिक मात्रा में होनी चाहिये।
2. व्यक्तियों का सहानुभूतिपूर्ण एवं वैषयिक ज्ञान ।
3. विस्तृत सामान्य ज्ञान और विस्तृत रुचियों ।
4. स्थिर एवं भली-भाँति समायोजित व्यक्तित्व |
5. सामाजिक और आर्थिक दशाओं एवं उनके प्रभाव का ज्ञान।
6. छात्रो एवं साथी कर्मचारियों को प्रेरणा देने की योग्यता ।
7. व्यक्तिगत एवं सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने की योग्यता।
8. कक्षा की परिस्थितियों और शिक्षण के उत्तरदायित्वों का ज्ञान।
9. व्यवसाय का कार्य करने की शर्तों का ज्ञान।
10. अन्य व्यक्तियों के साथ सहकारिता के आधार पर कार्य करने की योग्यता ।
एक अच्छे परामर्शदाता में अधोलिखित गुण होने चाहिए-
1. माता-पिता के साथ कार्य करने के लिये आवश्यक गुण-
(i) माता-पिता का विश्वास प्राप्त करने की योग्यता
(ii) उनसे सम्मान प्राप्त करने की क्षमता।
(ii) छात्रों की समायोजन की समस्याओं के समाधान में माता-पिता का सहयोग प्राप्त करना।
(iv) माता-पिता का सम्मेलन संगठित करने की योग्यता।
2. छात्रों के साथ कार्य करने के लिये आवश्यक गुण-
(i) छात्रों की समूह परीक्षाएं लेने की योग्यता
(ii) छात्रों को सूचनाएँ प्रदान करने के लिये विभिन्न स्रोतों से सूचनाएँ संगृहीत करना।
(iii) छात्रों के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने की योग्यता।
(iv) समाजमिति बनाने एवं व्याख्या करने की योग्यता।
(v) छात्रों को परामर्श देने की क्रिया का ज्ञान ।
(vi) छात्रों का साक्षात्कार लेने की योग्यता।
3. समाज के साथ कार्य करने के लिये आवश्यक गुण-
(i) सामाजिक क्रियाओं में भाग लेने की योग्यता
(ii) नियोक्ताओं के साथ मधुर सम्बन्ध स्थापित करने की योग्यता ।
(iii) निर्देशन कार्यक्रम के लिये समाज की सहायता प्राप्त करने की योग्यता
(iv) सामाजिक सेवाओं की सहायता प्राप्त करने की योग्यता।
4. अध्यापकों का सहयोग प्राप्त करने के लिये आवश्यक गुण-
(i) निर्देशन समिति में नेतृत्व करने की योग्यता ।
(ii) प्रधानाचार्य एवं अध्यापकों का विश्वास प्राप्त करना।
(iii) सेवाकालीन कार्यक्रम संगठित करना।
(iv) पुस्तकालयाध्यक्ष का सहयोग प्राप्त करने की योग्यता
5. कार्यक्रम का नेता बनने के गुण-
यह गुण भी परामर्शदाता में होने चाहिये। उसको निर्देशन कार्यक्रम की क्रियाओं एवं निर्देशन कार्यक्रम के संगठित रूप का ज्ञान होना चाहिये। उसको बाल मनोविज्ञान का ज्ञान भी होना चाहिए।
अध्यापक
इस बात पर प्रायः विवाद होता है कि परामर्श का कार्य कौन करे-शिक्षक अथवा विशेषज्ञ ? जो लोग यह कहते हैं कि परामर्श का कार्य शिक्षक को करना चाहिये उनका तर्क है कि शिक्षक का विद्यार्थी से निकट का सम्बन्ध होता है। वह बालकों को अच्छी तरह जानता है तथा उनके परिवेश एवं क्षमताओं और उपलब्धियों से अपेक्षाकृत अधिक परिचित होता है। किन्तु जो लोग परामर्श कार्य के लिये विशेषज्ञ की नियुक्ति पर बल देते हैं उनका तर्क है कि परामर्श की प्रक्रिया इतनी जटिल एवं व्यापक है कि अध्यापक के लिये अध्यापन के साथ परामर्श का कार्य कर पाना नितान्त कठिन है। साथ ही परामर्श का कार्य बिना प्रशिक्षण के दक्षतापूर्वक करना सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त अध्यापक के पास परामर्श के कार्य के लिये पर्याप्त समय का भी अभाव रहता है।
यदि ध्यानपूर्वक देखा जाये तो दूसरे पक्ष के तर्कों में पर्याप्त बल है और परामर्शदाता का कार्य विशेषज्ञता की माँग करता है, किन्तु परामर्शदाता एवं शिक्षक के कार्यों में कोई अन्तर्विरोध नहीं है। दोनों एक दूसरे के सहयोगी है। परामर्शदाता बिना शिक्षक के सहयोग के अपना कार्य दक्षतापूर्वक नहीं कर सकता और शिक्षक परामर्शदाता के निष्कर्ष एवं सहायता का लाभ उठाकर अपने कार्य में और प्रगति कर सकता है।
फ्रैंकलिन, जे केलर ने परामर्शदाता को अध्यापक के समकक्ष माना है। केलर के अनुसार परामर्शदाताओं और अध्यापक में पर्याप्त सीमा तक समानता होती है। इस समानता को स्पष्ट करते हुये यह लिखता है, "अध्यापक वह सिखाता है जो वह (Teacher) स्वयं है अध्यापक को कार्य के महत्त्व में विश्वास करना चाहिये। ऐसा विश्वास उसके व्यक्तित्व का अंग बन जाता है, वह अपने विश्वास के अनुरूप बन जाता है और दूसरों को वैसा ही बनाने में समर्थ हो सकता है जैसा वह स्वयं है |"
अध्यापक का व्यक्तित्व प्रभावशाली होना चाहिये। उसे यह अनुभव करना चाहिये कि उसका कार्य जितना महत्त्वपूर्ण है, तदनुसार ही उसे अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण तत्परता से पूरा करना चाहिये। अध्यापक एक आदर्श होता है जिसका अनुकरण छात्र करते हैं।
अतः उसे स्वस्थ्य एवं सन्तुलित विश्वासों को निर्मित करना चाहिये और अपने व्यक्तित्व को उन विश्वासों के साथ एकरूप करने का प्रयत्न करना चाहिये। केलर ने अध्यापक के व्यक्तित्व को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना है तथा उसके विवेकशील, जनतन्त्रवादी एवं सच्चरित्र होने पर बल दिया है, किन्तु केलर इस बात को भी अपने ध्यान में रखता है। कि अध्यापकों में भी वैयक्तिक अन्तर होते हैं और उनका यन्त्रवत् मॉडल तैयार नहीं किया जा सकता।
अध्यापक को परामर्शदाता के समानान्तर केलर ने बताया है कि परामर्शदाता के व्यक्तित्व एवं कार्यों पर संस्थाध्यक्ष, प्रधान अध्यापक तथा परामर्श में सहयोग देने वाले अन्य अनेक व्यक्तियों की सापेक्षता में विचार किया जाना चाहिये।
परामर्शदाता के रूप में शिक्षक के कार्य
चूँकि शिक्षक छात्रों के निकट सम्पर्क में रहता है अतः वह विविध परिस्थितियों में छात्रों का अध्ययन करने में समर्थ होता है। शिक्षक को छात्रों की आवश्यकताओं का अच्छा ज्ञान होने से वह कुछ परामर्श सम्बन्धी कार्य कर सकता है। शिक्षक परामर्श सम्बन्धी निम्नलिखित कार्य कर सकता है-
1. छात्रों से सम्बन्धित सूचनायें एकत्रित करने में सहायता करना।
2. परामर्श कार्य के लिये आवश्यक परीक्षणों के प्रशासन में परामर्शदाता की सहायता करना।
3. कुसमायोजित छात्रों का पता लगाकर परामर्शदाता के पास भेजना।
4. मन्द गति से अधिगम वाले छात्रों को उचित परामर्श देना।
5. अपने विषय को विभिन्न व्यवसायों से जोड़ना।
6. माता-पिता एवं सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्ध स्थापित करना।
7. पाठ्य सहगामी क्रियाओं के चयन में छात्रों की सहायता करना।
8. संकलित आलेख पत्र तैयार करने में सहायता करना।
शारीरिक शिक्षा अध्यापक
विद्यालय, बालकों के शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक संवेगात्मक स्वास्थ्य के लिये भी उत्तरदायी है। विद्यालय का यह उत्तरदायित्व है कि प्रत्येक बालक को उत्तम शारीरिक विकास व स्वास्थ्य से अवगत कराये। इसके लिये विद्यालय में शारीरिक शिक्षा उपलब्ध कराये तथा इससे सम्बन्धित अध्यापक को भी विद्यालय में नियुक्त किया जाये जो बालकों को उचित परामर्श दे। वह बालकों को बताये कि उत्तम स्वास्थ्य क्या है और किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। बीमारियों से किस प्रकार बचा जा सकता है आदि इसके अतिरिक्त पौष्टिक भोजन तथा सफाई का महत्त्व और मानसिक व संवेगात्मक विषयों से भी अवगत कराना आवश्यक है। शिक्षक स्वास्थ्य शिक्षा से सम्बन्धित कार्यक्रमों का आयोजन करे तथा बालकों को अवगत कराये।
शारीरिक शिक्षा अध्यापक को निम्न कार्य करने चाहिये-
1. व्यक्तिगत छात्रों की आवश्यकताओं, समस्याओं एवं गुणों का अवलोकन करे।
2. छात्रों को पहचानना जो विद्यालय की या विद्यालय से बाहर की समस्याओं से ग्रसित होते हैं।
3. छात्रों के शारीरिक विकास का नियमित मूल्यांकन करें।
4. शिक्षक छात्रों को सहयोग प्रदान करें।
लाईब्रेरियन
पुस्तकालय विद्यालय का हृदय है। यहाँ छात्र विभिन्न अनुभव, समस्याएँ तथा प्रश्न लेकर आते हैं। और तब उन पर विचार-विमर्श करते हैं और दूसरों के अनुभवों तथा संग्रहीत विद्वता, जो कि पुस्तकालय में सुसज्जित सुव्यवस्थित तथा प्रदर्शित रहती है, के माध्यम से नवीन ज्ञान की खोज करते हैं। लाईब्रेरियन को जानने पहले विद्यालय पुस्तकालय का महत्त्व जानना आवश्यक है।
विद्यालय पुस्तकालय की अवधारणा एवं आवश्यकता
पुस्तकालय सेवा शैक्षिक कार्यक्रम से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। इसको शैक्षिक कार्यक्रम का एक अंग मानना उपयुक्त होगा। पुस्तकालय को विद्यालय के एक सहायक अंग के रूप में ग्रहण नहीं किया जाना चाहिए, वरन् इसको एक अनिवार्य सेवा के रूप में स्वीकार किया जाये। यह अपने उच्चतम महत्व को तभी प्राप्त कर सकता है, जब यह छात्रों को शिक्षा देने के लिए मुख्य साधन के रूप में कार्य करता है। इसीलिए पुस्तकालय को 'विद्यालय का हृदय' कहा गया है। इस कथन का अर्थ यह नहीं है कि जब पुस्तकालय विद्यालय के प्रत्येक अंग के लिए पुस्तकों तथा अन्य सामग्री को प्रदान करे, तभी पुस्तकालय वास्तविक सेवा को पूर्ण कर सकता है।
पुस्तकालय वह स्थान है जिसका बालकों को शिक्षित करने के लिए अनिवार्य रूप से सहारा लेना चाहिए। पुस्तकों का पढ़ लेना ही शिक्षा का मर्म नहीं है, वरन् यह एक क्रिया है जो उत्तम रूप से शिक्षित होने के लिए एक महत्वपूर्ण साधन सिद्ध होती है। इसलिए पुस्तकालय को शिक्षा की एक अनिवार्य सेवा के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए।
अतः पुस्तकालय को विद्यालय का सबसे महत्वपूर्ण अंग माना गया है। शिक्षक इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि पाठ्य-पुस्तकों द्वारा सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती, वरन् उसकी पूर्ति अन्य उपयोगी पुस्तकों से की जानी चाहिए।
पुस्तकालय के विषय में नये विचारों को आजकल मान्यता प्रदान की जा रही है। अब पुस्तकालय को 'विद्यालय की बौद्धिक प्रयोगशाला' के रूप में देखा जाता है। जिसके द्वारा छात्रों में पठन-पाठन की रुचि ही उत्पन्न नहीं होती वरन् व्यक्तिगत एवं सामूहिक योजनाओं, बहुत-सी क्रियाओं, साहित्यिक, प्रिय-क्रियाओं (Hobbies) तथा पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को पूर्ण करने के लिए सहायता प्रदान की जाती है। इसके अतिरिक्त इसके द्वारा प्रगतिशील शिक्षण पद्धतियों को व्यावहारिक रूप भी प्रदान किया जाता है।
पुस्तकालय का अर्थ
बेकन (Bacon) के शब्दों में- पुस्तकालय अलमारियों के वे खाने है जहाँ सद्गुणयुक्त सन्तों की स्मृतियों, बिना किसी भ्रमपूर्ण मिश्रण और पूर्ण महत्ता के साथ सुरक्षित रखी जाती है।"
अतः पुस्तकालय किसी कमरे या भवन में पुस्तकों के एकत्रीकरण का नाम नहीं है।
शिक्षा आयोग (Education Commission, 1964-66) के कथनानुसार- पुस्तकों का एकत्रीकरण यहाँ तक कि अच्छी पुस्तकों का एकत्रीकरण भी पुस्तकालय का निर्माण नहीं करता। पुस्तकालय पृष्ठभूमि सम्बन्धी सामग्री का समूह है जो पाठ्यक्रम से सम्बन्धित क्रियाओं को संवृद्ध करने के लिए एकत्रित किया जाता है। यह ऐसा स्थान है जहाँ सूचना संसाधन के रूप में पुस्तकों का प्रयोग सिखाया जाता है और उनका अभ्यास कराया जाता है।"
पुस्तकालय को एक ऐसी सार्वजनिक संस्था अथवा व्यवस्थापन समझा जाता है जो पुस्तकों का सावधानी से एकत्रीकरण करती है, उन लोगों तक पुस्तकें पहुँचाती हैं जिन्हें उनकी आवश्यकता होती है। और आस-पड़ोस के लोगों में पुस्तकालय आने तथा पुस्तकें पढ़ने की आदत का निर्माण करती है।
पुस्तकालय बुलेटिन (Library Bulletin) के अनुसार- पुस्तकालय स्कूल के बौद्धिक जीवन का केन्द्र होना चाहिए जो सन्दर्भों (References), अध्ययन एवं निजी पठन के लिए हर समय खुला रहे। यह एक शान्त स्थान होना चाहिए। यहाँ का वातावरण ऐसा होना चाहिए जिसके अध्ययन को प्रोत्साहन मिले। यहाँ की सज्जा ऐसी होनी चाहिए कि अपेक्षित वस्तु का प्रयोग सुविधापूर्वक हो सके। यह केवल पुस्तकों को एकत्रित करने एवं बाँटने का केन्द्र नहीं होना चाहिए।"
इसलिए कहते है कि पुस्तकालय विचारों का खजाना है, ज्ञान का भण्डार है और जीवित विचारों की वेगवान नदी है।
पुस्तकालय का महत्व, उपयोगिता एवं कार्य
पुस्तकालय ज्ञान का प्रवेश द्वार है, संस्कृति का भण्डार है और विकास का साधन है। यह एक ऐसा संवृद्ध झरना है जो शिक्षा एवं संस्कृति के विस्तृत क्षेत्र का सिंचन करता है। हमारी बहुत-सी सांस्कृतिक विरासत नष्ट हो चुकी होती यदि वह प्राचीन पुस्तकालयों में सुरक्षित न होती।
बरवारा रूथ फ्यूस्सली कईल (Barbara Ruth Fuessli Kyle) के शब्दों में- "पुस्तकालय ज्ञान का संरक्षण करते है ताकि उसमें कुछ भी लुप्त न हो जाये, ज्ञान को संगठित करते है ताकि कुछ भी व्यर्थ न जाये और ज्ञान को सबकी पहुँच में रखते हैं ताकि कोई भी उससे वंचित न रहे।"
पुस्तकालय के बिना स्कूल ऐसे है जैसे आत्मा के बिना शरीर स्कूल पुस्तकालय स्कूल के शैक्षणिक जीवन का स्नायु केन्द्र है। यह वास्तविक अर्थों में स्कूल की बौद्धिक कार्यशाला होती है।
एच. जी. वेल्ज (H. G. Wells) के शब्दों में- "जिस स्कूल के पुस्तकालय में कम से कम एक हजार पुस्तकें में नहीं है और वे पुस्तकें आसानी से प्राप्त नहीं है, उसे वास्तविक अर्थों में स्कूल नहीं कहा जा सकता। ऐसा स्कूल उस औषधालय के समान है जहाँ दवाइयाँ नहीं है या ऐसे रसोईघर के समान है जहाँ वांछित सामान नहीं है।"
फ्रांसिस हेनी (Frances Henne) के कथनानुसार- "अच्छे स्कूलों, बहुत अच्छे स्कूलों और शानदार स्कूलों में शानदार पुस्तकालय होने चाहिए। घटिया स्कूलों में भी शानदार पुस्तकालय होने चाहिए ताकि वहाँ के पाठ्यक्रमों के अभावों को दूर किया जा सके और उचित शैक्षणिक कार्यक्रमों की क्षतिपूर्ति हो सके |"
पुस्तकालय के महत्व, उपयोगिता एवं कार्यों का निम्नलिखित बिन्दुओं में अध्ययन किया जा सकता है-
1. बौद्धिक कार्य (Intellectual function )
पुस्तकालय विद्यार्थियों एवं अध्यापकों के लिए बौद्धिक भोजन प्रदान करता है। यह विचार प्रक्रिया, कल्पना तर्क एवं रचनात्मकता को प्रोत्साहन देता है। यह उनकी ज्ञान-पिपासा शान्त करता है, उनका मानसिक क्षितिज विस्तृत करता है, उनकी सामान्य सूचनाओं में वृद्धि करता है, उन्हें शिक्षित करता है और उनमें और जानने की जिज्ञासा जगाता है। पुस्तकालय एक अच्छे स्कूल का स्नायु केन्द्र (Nerve Centre) और उसके शैक्षणिक जीवन का केन्द्र-चक्र है।
2. पढ़ने की आदत (Reading habit)
पुस्तकालय पढ़ने की उचित आदत के निर्माण में सहायता प्रदान करता है। यह पढ़ने में रुचि जाग्रत करता है और स्वतन्त्र अध्ययन की आदत का निर्माण करता है। ज्ञान के व्यापक भण्डार को सामने देखकर ज्यादा पढ़ने की इच्छा को प्रोत्साहन मिलता है।
3. रचनात्मक कार्य (Creative function)
पुस्तकालय रचनात्मक कार्यों में भी सहायता प्रदान करता है। यह पाठकों को रचनात्मक कार्यों के लिए प्रोत्साहित एवं प्रेरित करता है। पुस्तकालय द्वारा विद्यार्थी सूचनाएँ एकत्रित करने के लिए प्रेरित से उठते है और वे इन सूचनाओं का अपनी मौलिक रचनाओं में उपयोग करते है। स्वतन्त्र अध्ययन से वे विभिन्न क्षेत्रों में मौलिक योगदान करने की योग्यता प्राप्त करते हैं। पुस्तकालय से प्राप्त विविध पुस्तकं प्रेरणा का महान साधन है और नये दृष्टिकोणों नये विचारों तथा जीवन के प्रति नवीन उत्साह जगाने में सहायता करती है।
4. भावात्मक कार्य (Linguistic function)
पुस्तकालय से पाठकों की भाषात्मक योग्यताएँ सशक्त बनती है। विविध पुस्तकों के अध्ययन से उन्हें नये शब्दों का ज्ञान होता है जो उन्हें पाठ्य पुस्तको तथा सन्दर्भ पुस्तकों को उचित रूप से समझने की योग्यता प्रदान करता है।
5. मनोरंजक कार्य (Recreational function )
पुस्तकालय विद्यार्थियों को मनोरंजन प्रदान करता है और उन्हें कक्षा के उबाऊ वातावरण से मुक्ति दिलाता है। पुस्तकालय केवल परीक्षाओं के लिए नही बल्कि मनोरंजन के लिए भी अध्ययन रुचि को विकसित करता है। यह विद्यार्थियों को अवकाश काल के उपयोगी एवं आनन्दपूर्ण यापन के लिए स्वस्थ वातावरण प्रदान करता है एक कवि ने कितना सुन्दर लिखा है-
"Books are keys to wisdom's pleasure:
Books are gates to lands of pleasure:
Books are paths that upward lead:
Books are friends, come, let us read."
इसका अर्थ है कि पुस्तक मित्र है, दिवे की निधि है, हमें आनन्द देती है और हमे ऊंचा उठाती है। पुस्तकालय किशोरों की शक्ति को उपयोगी दिशाओं की और ले जाता है और उन्हें गप्पें लगाने, आवारागर्दी करने. ताश खेलने जैसी बुरी आदतों से बचाता है।
6. पूरक कार्य (Supplementary function )
पुस्तकालय अध्ययन कक्षा के कार्य को पूर्ण करता है। शिक्षण की सभी प्रगतिशील विधियाँ पुस्तकालय द्वारा आत्म-अध्ययन एवं निरीक्षित अध्ययन ((Supervised Study) पर आधारित है। मुदालियर (Madaliar) के कथनानुसार, 'प्रगतिशील शिक्षण विथियों को क्रियान्वित करने के लिए पुस्तकालय की एक अनिवार्य साधन समझना चाहिए।
विद्यार्थी दत्त-कार्य (Assignment) को सन्दर्भ पुस्तकों, खोत पुस्तक (Source Books) तथा अन्य उच्च स्तरीय पुस्तकों से प्राप्त सामग्री की सहायता से पूरा करते हैं।
7. पाठ्य-सहायक क्रियाओं में भाग लेना (Participation in co-curricular activities)
वाद-विवाद, भाषण, सम्मेलन, नाटक मंचन प्रस्ताव लेखन आदि पाठ्य-सहायक क्रियाओं में भाग लेने के लिए पुस्तकालय का होना अत्यन्त आवश्यक है।
8. सांस्कृतिक कार्य (Cultural function )
पुस्तकालय सांस्कृतिक परम्पराओं के संरक्षण का महान साधन है। (A library is a great source for the preservation and tradition of culture.) इतिहास साक्षी है कि ज्ञान पुस्तकों के माध्यम से ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचता है। पुस्तकें वस्तुतः 'स्याही में सुरक्षित मस्तिष्क' है। पुस्तकों के माध्यम से ही महान विद्वानों, दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों के विचार समस्त संसार में जाने जाते है।
9. अनुदेशनात्मक कार्य (Instructional function)
पुस्तकालय अध्यापकों को विभिन्न स्कूल विषयों से सम्बन्धित विविध प्रकार की पाठ्य एवं सन्दर्भ पुस्तकें प्रदान करके उनके अनुदेशनात्मक कार्य को सुविधाजनक बनाता है।
कार्लाइल (Carlyle) केवल उस विश्वविद्यालय को मान्यता देता है जो अच्छे पुस्तकालय से सम्पन्न हो। बर्नार्ड शॉ, टैगोर, शेक्सपीयर, राधाकृष्णन आदि महान विभूतियाँ कक्षाओं की नहीं, बल्कि पुस्तकालयों की उपज थीं।
पुस्तकालयाध्यक्ष के गुण
जिस प्रकार शिक्षक वर्ग अधिकांशतः विद्यालय को बनाता है उसी प्रकार पुस्तकालयाध्यक्ष पुस्तकालय को बनाता है। जैसा पुस्तकालयाध्यक्ष होगा, वैसा ही पुस्तकालय होगा। यदि हमारे पास उत्तम पुस्तको का संकलन पुस्तकालय एवं अध्ययन कक्ष अपनी समस्त सामग्री के साथ उपलब्ध है, परन्तु उनको कुशलतापूर्वक संचालित करने वाला पुस्तकालयाध्यक्ष नहीं है तो उपयुक्त सामग्री बहुत ही कम लाभ प्रदान करने वाली सिद्ध होगी। अतः प्रत्येक विद्यालय के लिए प्रशिक्षित एवं योग्य पुस्तकालयाध्यक्ष की आवश्यकता है।
इसकी नियुक्ति पूर्ण समय के लिए की जानी चाहिए। बहुधा हमारे विद्यालयों में या तो थोड़े समय के लिए (Part Time) एक पुस्तकालयाध्यक्ष नियुक्त करके या किसी शिक्षक के अ यापक कार्य के लिए कुछ घण्टे कम करके पुस्तकालय का कार्य सौंप दिया जाता है, परन्तु ऐसी व्यवस्था सन्तोषजनक नहीं होती, क्योंकि इस व्यवस्था के द्वारा पुस्तकालय का सदुपयोग नहीं हो पाता है और पुस्तकालय अपने उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर पाता है। पुस्तकालय की सफलता एक कुशल सेवा पर ही निर्भर है। यह कुशल सेवा तभी प्राप्त की जा सकती है जब एक योग्य तथा प्रशिक्षित पुस्तकालयाध्यक्ष को पूर्ण समय के लिए नियुक्त किया जाये।
पुस्तकालयाध्यक्ष को वेतन सेवा दशाओं (Service Conditions) आदि बातों में शिक्षक के समान रखा जाना चाहिए क्योंकि उसका कार्य उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि शिक्षक का। उनमें शिक्षक के समान ही कुछ गुणों की अपेक्षा की जाती है। उदाहरणार्थ उत्साह, चातुर्य, समझदारी, सहृदयता, उपगम्यता या मिलनसारी (Approachability), मनःशान्ति या सन्तुलन (Poise) आदि। उसमें इन गुणों का होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि वह एक शैक्षिक संस्था में व्यावसायिक एवं प्रशासकीय दोनों प्रकार के कार्यों को पूर्ण करता है। इसके साथ ही वह विद्यालय के प्रत्येक भाग की सेवा भी करता है तथा बालकों एवं बालिकाओं की सहायतार्थ उनकी रुचि के प्रत्येक क्षेत्र पर बातचीत करता है। उसके निम्नलिखित गुण हैं-
(i) पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं आदि का वर्गीकरण करना तथा उनका लेखा रखना।
(ii) उत्तम पुस्तकों की बालकों तथा शिक्षकों को जानकारी कराने के लिए उनका विभिन्न ढंगों से प्रचार करना।
(iii) बालकों तथा शिक्षको को पढ़ने के लिए पुस्तकें देना और उनको लेखबद्ध करना।
(iv) विभिन्न स्तरों के बालकों के लिए उत्तम पुस्तकों की सूची तैयार करना तथा उनके पास तक पहुँचाना।
(v) पुस्तकालय में आयी हुई नवीन पुस्तकों के मुखपृष्ठों (Title Pages) तथा विभिन्न पुस्तकों के पुनर्निरीक्षणों को सूचनापट पर लगाना।
(vi) बालकों को पुस्तकों के विषय में सलाह देना। इसके व्यक्तिगत या सामूहिक योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता हो, उनके विषय में बालकों को बताना।
(vii) पुस्तकालय में सुव्यवस्था रखना।
भूमिका
परामर्श में सबसे महत्त्वपूर्ण लाईब्रेरियम की भूमिका होती है। वह निम्न है—
1. नई सूचनाओं को अध्यापक और बालकों तक पहुँचाना।
2. शिक्षक और विद्यार्थियों को शैक्षिक व व्यावसायिक निर्देशन से सम्बन्धी पुस्तक उपलब्ध कराना। 3. समय-समय पर पुस्तकालय से सम्बन्धित सामग्री को उपलब्ध कराना।
4. समय-समय पर सम्पर्क अधिकारियों से परामर्श लेना तथा व्यावसायिक परामर्श से सम्बन्धित पुस्तकों को उपलब्ध कराना ।
चिकित्सा कर्मचारी
विद्यालय में शिक्षकों और परामर्शदाताओं को स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्यक्रम चलाने चाहिये जिनमें चिकित्सा कर्मचारियों की मदद लेनी चाहिये जो विद्यार्थियों को स्वास्थ्य से सम्बन्धित जानकारी प्रदान कराये तथा उनकी जाँच-पड़ताल करे। चिकित्सा कर्मचारियों को निम्न कार्य करने चाहिये-
1. विद्यार्थी का मेडिकल चैकअप कराने में मदद करनी चाहिये।
2. विद्यार्थियों की शारीरिक स्वास्थ्य से सम्बन्धी रिपोर्ट को अध्यापक और अभिभावको तक पहुंचाना चाहिये।
चिकित्सा कर्मचारियों की भूमिका (Role of the Medical Staff)
बालकों के वैयक्तिक निर्देशन के क्षेत्र में स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। बालकों का शारीरिक गठन, उनके अंगों का विकास कार्य करने की शक्ति के विकास तथा सामान्य रोगों की रोकथाम में चिकित्सा कर्मचारी, डॉक्टर या नर्स इत्यादि अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बालकों के अध्ययन में शारीरिक अस्वस्थता या कमजोरी बाधक होती है।
पौष्टिक भोजन की कमी. व्यायाम एवं खेलों की उचित व्यवस्था के अभाव में स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है। बालकों के लिये सन्तुलित आहार एवं समुचित व्यायाम की व्यवस्था के बारे में परामर्श दिया जाना चाहिये। नाक, कान, आँख, पेट अथवा चमड़ी आदि के कटने की औषधि की व्यवस्था विद्यालय में रहनी चाहिये। प्राथमिक, चिकित्सा इत्यादि भी बालकों को सिखायी जानी चाहिये।
चिकित्सा सेवा में लगे हुए डॉक्टर इत्यादि कर्मचारी वर्ष में दो बार विद्यालय के सभी बालकों की स्वास्थ्य परीक्षा करें। स्वास्थ्य परीक्षा के अभिलेख नियमित रूप से विद्यालय में रखे जायें एवं चिकित्सा सम्बन्धी परामर्श से अभिभावकों को भी अवगत कराया जाये जिससे वे रोगी छात्र का समुचित इलाज करा सके।
छात्रालयाध्यक्ष
शिक्षा के साधन के रूप में छात्रावास की उपयोगिता पर्याप्त सीमा तक छात्रालयाध्यक्ष के व्यक्तित्व, उनके गुणों तथा योग्यताओं पर निर्भर है। छात्रालयाध्यक्ष सम्पूर्ण पद्धति की धुरी है। इसी के द्वारा छात्रावास के अच्छे या बुरे चरित्र का निर्धारण होता है जब चालक छात्रावास में प्रवेश लेता है तब वह अपरिपक्व होता है। ऐसे बालकों को समाज का उत्तरदायी सदस्य बनाने तथा सामूहिक जीवन व्यतीत करने योग्य बनाने के लिए छात्रालयाध्यक्ष के ऊपर बहुत बड़ा दायित्व रहता है।
उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह उनको उत्तरदायी नागरिक बनाने के लिए सतत् प्रयत्न करे। इसके अतिरिक्त छात्रालयाध्यक्ष ही छात्रावास की सम्पूर्ण व्यवस्था एवं उसमें उत्तम अनुशासन हेतु अन्ततः उत्तरदायी होता है। समान्यतः इस कार्य का भार विद्यालय के किसी अध्यापक को सौंप दिया जाता है। इसके बदले में उसके शिक्षण कार्य में कुछ कमी कर दी जाती है।
इस व्यवस्था को अधिक उपयोगी बनाने में विद्यालय के अन्य शिक्षक छात्रालयाध्यक्ष को सहायता दे सकते हैं। छात्रालयाध्यक्ष छात्रावास की व्यवस्था का नियन्त्रण एवं निरीक्षण करने के साथ विद्यालय में. भी कार्य करता है. इसलिए उसको सहायता मिलनी ही चाहिए क्योंकि उनके सहयोग से वह अपने दायित्वों को पूर्ण करने में अधिक समर्थ हो सकेगा।
छात्रालयाध्यक्ष को विद्यालय छात्रावास की समस्त व्यवस्थाओं का निरीक्षण एवं नियन्त्रण करना है। विद्यालय छात्रावास की कोई क्रिया उसकी दृष्टि से ओझल नहीं होनी चाहिए। यदि छात्रावास को घर का रूप ग्रहण करना है तो उसको बालकों के अभिभावकों का स्थान लेने के लिए भरसक प्रयत्न करना चाहिए और उन्हें माता-पिता की भाँति सर्वोत्तम प्रकार का पथ-प्रदर्शन, सहायता एवं परामर्श प्रदान करना चाहिए। छात्रालयाध्यक्ष को छात्रों के लिए छात्रावास में वे आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करनी चाहिए जो कि उन्हें घर पर प्राप्त हो सकती है हर सम्भव उपाय से छात्रावास के जीवन को पारिवारिक जीवन का रूप देने का प्रयत्न करना चाहिए।
छात्रालयाध्यक्ष का महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य यह भी है कि वह छात्रावास में जनतन्त्रात्मक वातावरण की स्थापना करे। इसके लिए दायित्व के विभाजन के सिद्धान्त को अपनाना चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार विभिन्न दायित्वों को छात्रों की विभिन्न समितियों को सौपा जा सकता है। इससे बालकों में कर्त्तव्य परायणता आत्मनिर्भरता एवं सहकारिता के गुणों का विकास होता है। छात्रावास की विभिन्न क्रियाओं के संगठन एवं संचालन का दायित्व बालकों के ऊपर डाला जाय। इसके लिए छात्रालयाध्यक्ष छात्रों की विभिन्न समितियों का निर्माण करवा सकता है: उदाहरणार्थ-भोजन समिति, सफाई समिति, साहित्यिक समिति, सांस्कृतिक समिति, खेल-कूद समिति, अनुशासन समिति एवं सुरक्षा समिति ये विभिन्न समितियाँ अपने-अपने क्षेत्राधिकार में स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करती है, परन्तु इसको छात्रालयाध्यक्ष का सदैव पथ-प्रदर्शन प्राप्त होता है।
छात्रालयाध्यक्ष इनके कार्यों का निरन्तर निरीक्षण भी करता है। इस प्रकार की व्यवस्था से बालक यह अनुभव करेंगे कि अपने घर पर ही रह रहे है और उनका दायित्व है कि अपने घर (छात्रावास) की प्रतिष्ठा को स्थिर ही न रखें, वरन् उसको उच्च बनायें। इसके अतिरिक्त जनतन्त्रात्मक वातावरण छात्रों के बीच सहयोग, पारस्परिक सहायता, सामाजिकता तथा अधिकारियों एवं नियमों के प्रति आज्ञाकारिता की भावना उत्पन्न करने के लिए अवसर प्रदान करेगा। ऐसी व्यवस्था प्रजातन्त्रीय देश के नागरिक के लिए अत्यन्त आवश्यक है, जिससे बालक उत्तरदायी सदस्य बने तथा अपने भावी जीवन में योग्य नागरिक सिद्ध हो सके।
छात्रालयाध्यक्ष का दूसरा महत्त्वपूर्ण कर्तव्य छात्रावास में रहन-सहन की उपयुक्त दशाओं की स्थापना करना है। इस सम्बन्ध में उसे यह देखना है कि छात्रों के सर्वांगीण विकास के लिए छात्रावास में उपयुक्त व्यवस्था है या नहीं। इस उद्देश्य के लिये उसे निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए-
1. प्रत्येक बालक को रहने के लिए उपयुक्त स्थान तथा आवश्यक सामग्री – खाट, मेज, कुर्सी,रैक, अल्मारी प्राप्त हो।
2. जिन कमरों या शयनागारों में बालक रह रहे हैं. उनमें प्रकाश एवं शुद्ध वायु का उचित प्रबन्ध हो।
3. निवास-कक्षी, रसोई गृह, स्नानगृह तथा शौचालयों की सफाई के लिए उचित व्यवस्था हो।
4. उनके शारीरिक विकास के लिए व्यायाम, खेल-कूद आदि का उचित प्रबन्ध हो।
5. सामान्य कक्ष तथा वाचनालय के लिये उचित व्यवस्था हो।
6. बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण हो, जैसे-नियमितता, समय-निष्ठता, नियमों के प्रति आज्ञाकारिता, सहयोग, दूसरो की सहायता करना तथा मितव्ययी जीवन व्यतीत करना।
7. छात्रालयाध्यक्ष का यह भी कर्तव्य है कि वह देखे कि बालकों को सन्तुलित एवं पौष्टिक भोजन मिल रहा है या नहीं तथा भोजन के लिए बालको से जो धनराशि ली जाती है, उसके अनुसार उनको भोजन मिलता है या नहीं। पूर्व सूचना दिये बिना भोजन और रसोईघर की सफाई का निरीक्षण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त बर्तनों की सफाई एवं पीने के पानी की व्यवस्था का भी निरीक्षण आवश्यक है।
8. विभिन्न पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के संगठन एवं संचालन के लिए उचित व्यवस्था हो तो छात्रावास मे ऐसी सुविधाएँ एवं अवसर प्राप्त हो जिससे छात्र व छात्राएँ घरों के क्रिया-कलापों में भी दक्षता प्राप्त कर सकते हैं। कभी-कभी आवश्यकता होने पर या वैसे ही उन पर खाना बनाने का भी दायित्व डाला जाय तो उनको लाभकारी अनुभव प्राप्त होगे खाना परोसने एवं दूसरों को खिलाने का दायित्व प्रतिदिन उन्ही पर रखना चाहिए। इसके लिए नौकर रखना उचित नहीं।
छात्रालयाध्यक्ष के गुण
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते है कि छात्रालयाध्यक्ष के कन्धों पर छात्रावास के अनुशासन, उसकी व्यवस्था तथा निरीक्षण आदि सभी कार्यों का भार है। इस पद के दायित्व का निर्वाह करने वाले व्यक्ति में कुछ विशिष्ट गुणों का होना आवश्यक है। आगे संक्षेप में उन पर प्रकाश डाला जा रहा है-
1. प्रशासकीय योग्यता- छात्रावास में सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए छात्रालयाध्यक्ष को कुशल संगठनकर्ता एवं प्रबन्धक होना चाहिए।
2. सामाजिक गुण- छात्रालयाध्यक्ष में सहयोग, सहानुभूति, न्यायप्रियता आदि गुणों का होना आवश्यक है, जिससे बालकों के लिए छात्रावास में सहयोगी वातावरण निर्मित कर सके। इसके अतिरिक्त उसे मृदुभाषी, धैर्यवान, निष्पक्ष व्यवहार करने वाला व्यक्ति होना चाहिए।
3. व्यक्तित्व- छात्रालयाध्यक्ष में उन गुणों का होना आवश्यक है जो एक उत्तम व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं, उदाहरणार्थ नेतृत्व करने की क्षमता, उच्च चरित्र, सहनशील एवं स्पष्ट चिन्तन, निष्पक्षता एवं दूरदर्शिता आदि उसमे वात्सल्य भाव का होना भी परमावश्यक है जिसके अभाव में यह छात्रावास में वास्तविक पारिवारिक जीवन की पूर्ति नहीं कर सकता।
4. मानवीय दृष्टिकोण- छात्रालयाध्यक्ष में मानव प्रकृति की विशेषताओं एवं मानवीय सम्बन्धों को समझने की क्षमता होनी चाहिए। इसके अभाव में वह छात्रों एवं उनके अभिभावकों तथा शिक्षकों आदि से उचित सम्बन्ध स्थापित करने में असमर्थ रहेगा। इसके अतिरिक्त उसको उदार दृष्टिकोण रखना चाहिए। वह छात्रों की योग्यता एवं शक्ति में निष्ठा रखने की क्षमता रखे मानव प्रकृति को समझने के लिए उसे मनोविज्ञान का ज्ञान भी होना आवश्यक है।
छात्रालयाध्यक्ष सम्पूर्ण पद्धति की घुरी है। इसी के द्वारा छात्रावास के अच्छे या बुरे चरित्र का निर्धारण होता है जब विद्यार्थी छात्रावास में प्रवेश लेता है तब वह अपरिपक्व होता है। उन्हें उचित परामर्श की आवश्यकता होती है। छात्रालयाध्यक्ष एक अच्छा परामर्शदाता साबित हो सकता है जिसके निम्न कार्य है-
1. छात्रालयाध्यक्ष छात्रावास की सम्पूर्ण व्यवस्था एवं उत्तम अनुशासन का उत्तरदायी है।
2. छात्रावास की समस्त व्यवस्थाओं का निरीक्षण व नियन्त्रण करना।
3. छात्रालयाध्यक्ष माता-पिता की भाँति पथ-प्रदर्शन सहायता एवं परामर्श प्रदान करता है।
4. छात्रावास में रहने वाले छात्रों का उपस्थिति रजिस्टर उपलब्ध कराना।
5. छात्रावास में प्रवेश लेने वाले समस्त छात्रों की उपस्थिति की रिपोर्ट रखना।
परामर्शदाता के रूप में माता-पिता
माता-पिता का अपने बच्चों से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। वह जीवनपर्यन्त बच्चों के लिये एक अच्छे परामर्शदाता की भूमिका निभाते है चाहे वह परामर्श उनके व्यक्तिगत रूप में हो या व्यावसायिक रूप में हर जगह परामर्श के भागीदार होते हैं। माता-पिता या अभिभावकों को अपने बालकों की रुचि का पता होना चाहिये। उन्हें यह पता होना चाहिये कि वह अपने व्यावसायिक क्षेत्र में किस दिशा को चुन रहे हैं। उसी के अनुसार उन्हें परामर्श दिया जाना चाहिये। उन्हें ऐसे विषयों के चुनाव के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये जो उसके भावी विकास की दृष्टि से उपयोगी हों। इस दृष्टि से अभिभावक को चाहिये कि वह अपनी संतान की वास्तविक क्षमताओं और योग्यताओं के अनुरूप उसकी शिक्षा की व्यवस्था करे और ऐसे विद्यालय में प्रवेश दिलाये जहाँ की शिक्षा छात्र के मनचाहे कैरियर के लिये तैयारी में सहायक हो इस निमित्त अभिभावक का यह कर्त्तव्य है कि वह अपनी संतान के लिये ऐसे वातावरण का निर्माण करे जो उसकी रुचि के अनुकूल हो और ऐसा साहित्य, पत्र-पत्रिकायें लाकर दें जो उसकी दृष्टि के विस्तार में सहायक हो।
बहुधा ऐसे कार्यक्रम भी विद्यालय में आयोजित होते है जो भावी कैरियर के चुनाव में सहायता प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिये किसी सरकारी, अर्ध सरकारी अथवा गैर सरकारी व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में जाना और यह देखना कि किस प्रकार से कार्य हो रहा है और उसके निमित्त कैसे प्रशिक्षण की आवश्यकता है। अच्छे विद्यालय में कैरियर मास्टर होते हैं और वे अपने विद्यार्थियों की सहायता उनकी इच्छा के अनुरूप कैरियर की तैयारी कराते है, जिससे कि छात्र अपनी रुचि के व्यवसाय में सफलतापूर्वक आगे बढ़े और जीविकोपार्जन के लिये उपयोगी व्यवसाय अपनायें रुचि के व्यवसाय में होने से एक लाभ यह है कि प्रत्येक छात्र की क्षमताओं का रचनात्मक उपयोग होता है। अतः अभिभावकों को अपनी संतान के समुचित एवं सर्वांगीण विकास का विशेष ध्यान रखना चाहिये और उसकी इच्छाओं पर अपनी इच्छा 'थोपनी नहीं चाहिये।