विशिष्ट बालकों के लिए निर्देशन एवं परामर्श - in hindi

विशिष्ट बालकों का अर्थ 

निर्देशन एवं प्रजातन्त्र के दर्शन के अनुसार सभी बालकों को बिना किसी पक्षपात के अपने व्यक्तित्व के समुचित विकासार्थ यथेष्ट और सुगमतापूर्वक निर्देशन सेवाएँ उपलब्ध होनी चाहिये।। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक बालक की दक्षताएँ, क्षमताएँ, मानसिक व शारीरिक स्तर आदि पृथक-पृथक होती है, कोई तीव्र बुद्धि होता है तो कोई मन्द बुद्धि, कोई लम्बा होता है तो कोई बौना और कोई अन्तर्मुखी होता है तो कोई बहिर्मुखी। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण कुछ बालक सामान्य व्यवहार नहीं कर पाते हैं, ये सामान्य तथा औसत बालकों से पृथक् सहज ही पहचाने जा सकते हैं। ये बालक ही विशिष्ट कहलाते हैं। 

जो बालक सामान्य और औसत से परे हैं. पृथक् है तथा भिन्न है वही विशिष्ट बालक हैं क्या हम सभी सामान्य बालकों को विशिष्ट बालक कहें ? नहीं, कुछ बालक असामान्य होते हुये भी सामान्य और औसत बालकों से परे तथा पृथक् तो होते हैं किन्तु उनसे बहुत भिन्न नहीं होते, केवल कुछ ही बातों में औसत बालकों से थोड़े-बहुत पृथक होते हैं। ऐसे बालकों को हम विशिष्ट बालको में सम्मिलित नहीं करते हैं। वही बालक विशिष्ट बालक कहलाते है जो औसत तथा सामान्य बालकों से काफी भिन्न और पृथक् होते हैं तथा जिनके लिये विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है। 

जे. टी. हण्ट ने विशिष्ट मानसिक बालकों की परिभाषा देते हुये लिखा है- "विशिष्ट बालक वे हैं जो शारीरिक, संवेगात्मक या सामाजिक विशेषताओं में सामान्य बालकों से इतने पृथक् हैं कि उनकी क्षमताओं के अधिकतम विकासार्थ शिक्षा सेवाओं की आवश्यकता पड़ती है।" 

क्रुकशांक (Cruckshank) ने विशिष्ट बालकों के सम्बन्ध में इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं। वह लिखते है- "विशिष्ट बालक वह है जो सामान्य बौद्धिक, शारीरिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक वृद्धि तथा विकास से इतने पृथक है कि वे नियमित तथा सामान्य विद्यालय शैक्षणिक कार्यों से अधिकतम लाभान्वित नहीं हो सकते हैं तथा जिनके लिये विशिष्ट कक्षाओं या अतिरिक्त शिक्षण व सेवाओं की आवश्यकता होती है।

फ्रो एवं क्रो के अनुसार- "विशिष्ट प्रकार या विशिष्ट शब्द किसी ऐसे गुण या उस गुण से मुक्त व्यक्ति पर लागू होता है जो उस गुण को सामान्य दशा में रखने वाले से इतनी अधिक विचलित होती है कि इसके कारण व्यक्ति अपने साथियों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करता है और इससे उसके व्यवहार की अनुक्रियाएं और क्रियाएँ प्रभावित होती है

सचवार्ट्ज के अनुसार- "जब हम किसी व्यक्ति का विशिष्ट कहकर वर्णन करते है तो हम उसको औसत या सामान्य व्यक्तियों जिनके हम एक या अधिक गुणों से परिचित होते है, से पृथक रखते है।"

परिभाषाओं से स्पष्ट है कि 'विशिष्ट शब्द के अनेक अर्थ लगाये जाते है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि और आशाओं के अनुरूप इस शब्द की व्याख्या करता है। लेकिन यथार्थ रूप में विशिष्ट बालक ये हैं जो या तो अपंग है या मानसिक न्यूनता से ग्रसित है या कुसमायोजित या भावनात्मक रूप से अस्थिर है।

विशिष्ट बालकों के प्रकार

विशिष्ट बालकों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया जाता है। यहाँ विशिष्ट आवश्यकता वाले छात्रों का वर्गीकरण किया जा रहा है-

1. शारीरिक और स्वास्थ्य की दृष्टि से भिन्नता - (i) बाह्य अपंगता (अ) लूला-लगदा. (ब) श्रवण क्षति युक्त. (स) दृष्टि क्षतियुक्त, (ब) गूंगा।

(ii) आन्तरिक अपंगता (अ) हृदय का रोग, (ब) फेंफड़ों का रोग (स) ग्रंथियों की खराबी |

2. बौद्धिक रूप से भिन्नता  - (अ) प्रतिभावान (ब) मन्द-बुद्धि, (स) सृजनात्मक, (व) शैक्षिक. पिछड़ापन |

3. मनोसामाजिक रूप से भिन्न- (अ) समस्यात्मक बालक. (ब) अपराधी बालक,(स) सामाजिक कुसमायोजन (द) संवेगात्मक रूप से अशान्त ।

विशिष्ट बालकों की समस्याएँ

ऐसे बालको को अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इनमें से कुछ सामान्य समस्याएँ निम्नलिखित है-

 1. शारीरिक रूप से अपंग बालको में हीनता की भावना पैदा हो जाती है। वे अपने को औसत बालकों से निम्न कोटि का मानते है और यह विश्वास हो जाता है कि हम उनके समान कार्यशील नहीं बन सकते हैं।

2. इनमें एक समस्या समायोजन की है। ये सामान्य बालको के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में हिचकते हैं। 

3. विशिष्ट बालकों में सांवेगिक तीव्रता पायी जाती है। प्रायः मदद करने वाले पर ये क्रोधित हो जाते है।

4. ये प्रायः संकोची, स्वभाव के कारण एकाकी प्रवृत्ति के बन जाते हैं।

5. प्रतिभाशाली छात्रों में अहम् की भावना पैदा हो जाती है और सामान्य बालकों से मिलना पसन्द नहीं करते हैं।

6. ये प्रायः अन्तः मुखी होते हैं।

प्रतिभावान बालक

प्रतिभावान बालक समाज और राष्ट्र की सम्पत्ति होते हैं, क्योंकि वे भविष्य में राष्ट्र के एक योग्य नागरिक और कल्याणकारी सदस्य के रूप में उभर कर सामने आते हैं। सामान्यतः ऐसे बालकों को प्रतिभावान माना जाता है जिनकी बुद्धि लब्धि 120 से ऊपर होती है। ऐसे बालक सामान्य बालकों से भिन्न होते हैं। अतः विद्यालय में सामान्य छात्रों के साथ अध्ययन करते समय जब इनकी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि नहीं होती है तो ऐसे बालक कक्षा शिक्षण में रुचि न लेने के कारण समस्यात्मक हो जाते हैं।

प्रतिभावान बालक का अर्थ 

प्रतिभावान बालक का अर्थ समझने के लिये यहाँ कुछ परिभाषाओं का अध्ययन आवश्यक है- 

1. दी नेशनल सोसाइटी फॉर दी स्टडी ऑफ एजूकेशन-"एक योग्य या प्रतिभावान बालक वह है जो लगातार उच्च स्तर का कार्य निष्पादन किसी भी सामान्य प्रयास के क्षेत्र में प्रदर्शित करता है।"

2. क्रो व क्रो-प्रतिभावान बालक दो प्रकार के होते हैं-

 (a) एक वे जिनकी बुद्धि लब्धि 130 से अधिक होने से असाधारण बुद्धि वाले होते हैं।

(b) दूसरे वे जो संगीत, गणित, कला, अभिनय आदि में से एक या अधिक में विशेष योग्यता रखते हैं।"

3. टरमन एवं ओडन- प्रतिभावान बालक अनेक बातों जैसे सामाजिक समायोजन, व्यक्तित्व के गुणों, शारीरिक गठन, विद्यालय उपलब्धि आदि में सामान्य बालकों से बहुत श्रेष्ठ होते हैं।

4. स्किनर व हरीमैन- "प्रतिभावान शब्द का प्रयोग उन एक प्रतिशत बालकों के लिये किया जाता है जो सबसे अधिक बुद्धिमान होते हैं।"

प्रतिभावान बालक की सामान्य विशेषताएँ

 उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर निष्कर्ष रूप में प्रतिभावान बालक में निम्नलिखित विशेषताएँ। पायी जाती है-

1. बालकों की बुद्धि-लब्धि साधारणतया ऊँची (प्रायः 130 से ऊपर) होती है। 

2. शारीरिक स्वास्थ्य तथा सामाजिक समायोजन अच्छा होता है।

3. चरित्र - परीक्षणों के आधार पर मापित नैतिक अभिवृत्तियों में श्रेष्ठता होती है।

 4. शैशवावस्था में अपेक्षाकृत शीघ्रता के साथ तथा जल्दी से खड़ा होना, चलना तथा बोलना सीख लेते हैं।

5. विद्यालय विषयों के मापन हेतु प्रयुक्त निष्पत्ति परीक्षणों में अच्छे अंक प्राप्त करते हैं। 

6. बालकों में तीव्र निरीक्षण शक्ति, अच्छी स्मरण शक्ति, तत्काल उत्तर क्षमता, ज्ञान की स्पष्टता एवं मौलिकता, विचारों को तार्किक विधि से प्रस्तुत करने की शक्ति तथा विशाल एवं मौलिक शब्दावली पायी जाती है।

7. बालकों में शब्दावली के प्रयोग में मौलिकता पायी जाती है, भाषा और भाव-प्रदर्शन मे श्रेष्ठता और मौलिकता होती है। वर्तनी और वाचन में पर्याप्त श्रेष्ठता होती है।

8. प्रतिभा सम्पन्न बालक व्यक्तिगत स्वास्थ्य तथा शारीरिक स्वच्छता का पूरा-पूरा ध्यान रखते है। कपड़े पहनने तथा हाथ-पैर-मुँह आदि की स्वच्छता में एक पृथक्ता सदैव झलकती रहती है।

9. प्रतिभा सम्पन्न बालक सामाजिक होते है, उनका सामाजिक विकास सन्तुलित होता है, सामाजिक कार्यों में प्रसन्नता से सहयोग प्रदान करते हैं।

10. प्राय: प्रतिभा सम्पन्न बालक उन परिवारों से आते है जो आर्थिक एवं सामाजिक रूप से श्रेष्ठ होते हैं, किन्तु कभी-कभी ऐसे बालक सामान्य परिवारों में भी दिखायी दे जाते है।

11. ये नियमित रूप से विद्यालय में अध्ययन हेतु उपस्थित रहते है। 

12. अपने साथियों, अध्यापक वर्ग तथा पारिवारिक सदस्यों के साथ इनका व्यवहार मधुर होता है। 

13 इनका सामान्य परिपक्वता स्तर ऊँचा होता है। वास्तव में वे जितने है उससे कहीं अधिक बड़े लगते है।

14. वे विश्व- समस्याओं तथा वयस्क मामलों में भी रुचि दिखाते हैं।

 15. ये किसी-न-किसी क्षेत्र-संगीत, कला, खेल, यांत्रिकी आदि में सृजनात्मक सम्मान रखते हैं।

16. अन्य की तुलना में प्रतिमा सम्पन्न बालक शीघ्रता से दो तथ्यों के मध्य सम्बन्ध स्थापित कर लेता है और कारण प्रभाव समस्या का अति शीघ्र समाधान ज्ञात कर लेता है।

प्रतिभावान बालकों की पहचान

प्रतिमादान बालक की उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त उनकी पहचान करने में निम्नलिखित विशेषताएँ उपयोगी सिद्ध हो सकती है-

1. प्रतिभावान बालक शारीरिक रूप से आकर्षक होते है और स्वास्थ्य अच्छा होता है। ये सामाजिक व्यवहार में दक्ष होते हैं।

2. इनका शब्द कोष बड़ा होता है तथा शब्दों का सही प्रयोग शीघ्र करने लगते है। 

3. पुस्तकं पढ़ने में रुचि होती है तथा लम्बी अवधि तक ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं।

4. प्रारम्भिक अवस्था से ही कारण और प्रभाव जानने की उत्कण्ठा प्रबल होती है।

5. विज्ञान तथा गणित में इनकी अधिक रुचि होती है।

6. चित्रकला में प्रारम्भ से ही रुचि रखते है।

7. ये नेतृत्व के गुण से विभूषित होते है।

8. इनमें कई प्रकार की रुचियों का विकास होता है।

9. ऐसे बालक शीघ्रता से सीखते है और कल्पना शक्ति विकसित होती है।

10. संवेगात्मक रूप से स्थिर होते है।

प्रतिभावान बालक की पहचान प्रमापीकृत परीक्षणी, शिक्षक के अवलोकन और विद्यालय की परीक्षाओं द्वारा की जा सकती है।

प्रतिभावान बालकों की आवश्यकता और समस्याएँ

अन्य बालको की भाँति प्रतिभावान बालको की भी आधारभूत आवश्यकतायें जैसे-सुरक्षा, प्यार, अपनापन और एक व्यक्ति के रूप में स्वीकृति आदि होती है। इन आधारभूत आवश्यकताओं के अतिरिक्त प्रतिभावान बालको की कुछ विशिष्ट आवश्यकताएं होती है. जैसे-

 (i) ज्ञान और समझने की आवश्यकता,

(ii) सृजनशीलता और कौशल के लिये आवश्यकता,

(iii) अपनी विशिष्ट योग्यता या योग्यताओं के विकास की आवश्यकता।

 (iv) आत्म अभिव्यक्ति की आवश्यकता ।

प्रतिभावान बालक इन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिये प्रयत्न करता है, लेकिन जब इन आवश्यकताओं की पूर्ति में वह कठिनाई अनुभव करता है तो वह मानसिक और सांवेगिक रूप से अस्थिर होकर कुसमायोजन का शिकार बनकर समस्यात्मक बालक बन जाता है। प्रतिभावान बालक की उत्सुकता तथा सत्य जानने के लिये पूछे गये प्रश्नों के सन्तोषजनक उत्तर शिक्षक और माता-पिता से नहीं पाता है तो वह खलनायक बन जाता है।

विद्यालय की अनेक क्षेत्रों से सम्बन्धित सीमाएँ भी छात्रों की आवश्यकताओं को जन्म देती है। छात्र अपनी अनेक उच्चस्तरीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहता है, वह विद्यालय तथा पुस्तकों में वर्णित तथ्यों से भी आगे बहुत कुछ सीखना चाहता है। सामान्य स्तर के लिये लिखित पुस्तकें तथा सामान्य स्तर के लिये सम्पादित शिक्षण कार्य प्रतिभा सम्पन्न बालकों को सन्तुष्ट नहीं कर पाते हैं। वह इससे कहीं अधिक बहुत कुछ सीखना चाहता है; उदाहरण के लिये विद्यालय का दैनिक कार्य छात्रों की सौन्दर्यानुभूति से सम्बन्धित अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में प्रायः असफल रहता है। विद्यालय समय और साधनों की सीमाओ तथा सामान्य पाठ्यक्रम के बन्धनों के कारण भी प्रतिभा सम्पन्न अपनी सौन्दर्यानुभूति से सम्बन्धित आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अन्य व्यक्तियों की सहायता लेते हैं।

सौन्दर्यानुभूति से सम्बन्धित आवश्यकताओं के अतिरिक्त प्रतिभा सम्पन्न बालकों की और भी अनेक विशिष्ट आवश्यकताएँ होती हैं, जैसे- 'स्व' का विकास, विश्व की समस्याओं का ज्ञान, 'मानव-व्यवहार का ज्ञान', 'उच्च-स्तरीय गणितीय ज्ञान आदि। प्रतिभा सम्पन्न बालक सृजनात्मक शक्तियों का विकास करना चाहते हैं। अतः वे ऐसे व्यक्तियों की तलाश मे रहते हैं जो उनकी इस सृजनात्मक शक्ति के विकास में सहयोग एवं सहायता कर सकें।

प्रतिभावानों का निर्देशन

निर्देशन कार्यकर्ताओं तथा अध्यापक की प्रतिभा सम्पन्न बालकों को निर्देशन प्रदान करने में विशेष सावधानी रखने की आवश्यकता होती है क्योंकि इनकी आवश्यकताएँ तथा विशेषताएँ सामान्य बालकों से पृथक होती है परामर्शदाता तथा अध्यापक को प्रतिभा सम्पन्न बालकों के निर्देशन के सम्बन्ध में निम्नांकित तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिये-

1. प्रतिभा सम्पन्नों की समुचित पहचान की जाये तथा उनकी अनेक तथा विविध क्षमताओं की। माप की जाये।

2. उन क्रियाओं को प्रारम्भ किया जाये जो प्रतिभा सम्पन्नों की योग्यताओं, क्षमताओं तथा रुचियों के अनुकूल हो तथा उनका विकास करने में सहायक हों।

3. प्रतिभा सम्पन्न बालकों के कार्यों में रुचि प्रदर्शित की जाये तथा उनके कार्यों की प्रशंसा करके उन्हें और प्रोत्साहित किया जाये झूठी प्रशंसा का सदैव कुप्रभाव पड़ता है, यह परामर्शदाता को ध्यान में रखना चाहिये।

4. कक्षा कक्ष के सामान्य स्तर से ऊँचा उठाने हेतु सदैव प्रोत्साहित किया जाये। 

5. नेतृत्व गुणों के विकास, स्वाध्याय, चारित्रिक दृढ़ता, आत्म-निर्भरता तथा स्वतन्त्र चिन्तन-शक्ति का निरन्तर विकास किया जाना आवश्यक है।

 6. छात्रों को आत्म मूल्यांकन तथा आत्म-विवेचन हेतु न केवल प्रोत्साहित ही किया जाये, वरन इस कार्य में उनकी आवश्यक सहायता भी की जाये। 

7. उन्हें उच्च स्तरीय शिक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की जाये।

प्रतिभावान बालक की शिक्षा 

 प्रतिभावान बालक की शिक्षा का स्वरूप अग्रलिखित प्रकार का होना चाहिये-

1. विस्तृत पाठ्यक्रम 

 प्रतिभावान बालक सामान्य बालक की अपेक्षा कम समय में ही कक्षा में पढ़ाई गयी सामग्री को समझ लेता है। इस प्रकार बच्चे समय का उपयुक्त उपयोग करने के लिये उसे विस्तृत पाठ्यक्रम पढ़ाया जाना चाहिये। इनके लिये विशेष रूप से निर्मित पाठ्यक्रम में सभ्यता का अध्ययन, जीवनियों का अध्ययन, आधुनिक भाषा का अध्ययन और विशिष्ट योग्यताओं के प्रशिक्षण को सम्मिलित करना चाहिये।

2. सामाजिक अनुभवों के अवसर

 प्रतिभावान बालकों को सामान्य बालकों के साथ रखकर उनको सामाजिक अनुभव अर्जित करने के अवसर देने चाहिये।

3. नेतृत्व का अवसर

प्रतिभाशाली बालकों की प्रतिभा के विकास के लिये कक्षा के अन्दर और बाहर की क्रियाओं में उसे नेतृत्व करने का अवसर देना चाहिये।

 4. पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन 

 प्रतिभावान बालकों की रुचियों का विकास करने की दृष्टि से विद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिता. सरस्वती मात्राएँ, विभिन्न पर्वो का आयोजन होना चाहिये।

5. विशेष अध्ययन की सुविधाएँ 

 प्रतिभावान बालकों की अध्ययन में अधिक रुचि होती है। इस रुचि के विकास के लिये पुस्तकालय में अच्छी पुस्तकों का भण्डार होना चाहिये।

 6. सर्वागीण विकास

प्रतिभावान बालक को एक किताबी कीड़ा (Book-worm) बनने से बचाने के लिये उसके विकास के विभिन्न पक्षों जैसे शारीरिक, सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक और सांवेगिक आदि के विकास पर भी ध्यान देना चाहिये।

सृजनात्मक बालक 

प्रत्येक प्राणी में अपने प्रजातीय गुणों के अनुसार सृजनशीलता है, किन्तु मानव में अपनी उच्च मानसिक योग्यताओं के कारण सृजनशीलता अपेक्षाकृत अधिक होती है। लेकिन यह भी सत्य है कि सभी व्यक्तियों में समान स्तर की सृजनशीलता नहीं होती है आदि मानव कन्दराओं और झोपड़ियों में निवास करता था लेकिन आधुनिक मानव ऊँची अट्टालिकाओ में निवास करता है, रेल और वायुयानों से यात्रा करता है, बैल और हल के स्थान पर यंत्रों से खेती करता है, तेल के दीपक के स्थान पर जल विद्युत और सौर ऊर्जा से प्रकाश ही नहीं बल्कि बड़ी-बड़ी मशीने चलाता है। यह परिवर्तन मानव की सृजनशीलता का ही परिणाम है।

सृजनात्मकता का अर्थ

सृजनात्मकता ऐसा शब्द है जिसके अर्थ के बारे में विद्वान एकमत नहीं है। वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर शिक्षक आदि सभी अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार इसको परिभाषित करते है। सृजनात्मकता का अर्थ समझने के लिये यहाँ कुछ विद्वानों द्वारा दी गयी परिभाषाओं का अध्ययन करना उपयुक्त होगा-

क्रो व क्रो के अनुसार- "सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को अभिव्यक्त करने की मानसिक प्रक्रिया है |"

स्टेन के अनुसार- "सृजनात्मकता ऐसा कार्य है जिसका परिणाम श्रेष्ठ हो और किसी समय, किसी समूह द्वारा उपयोगी और सन्तोषजनक रूप में स्वीकार किया जाये |"

गिलफोर्ड के अनुसार- "सृजनात्मकता कभी रचनात्मक सुषुप्त शक्ति कभी रचनात्मक उत्पादन और कभी रचनात्मक उत्पादकता है।"

Guilford- "Creativity is sometimes creative latent power, sometimes creative production and sometimes creative productivity." 

लूथी के अनुसार- सृजनात्मकता किसी वस्तु को यथार्थ रूप में पैदा करने, बनाने, अभिव्यक्त करने जो कम से कम एक भाग में स्वयं से पैदा होती है, की योग्यता और सुविधा है।" 

Luthe- "Creativity is an ability and facility to actually produce, make, express something that atleast in part in originated from one-self."

ड्रेवहल के अनुसार- "सृजनात्मकता मनुष्य की वह योग्यता है जिसके द्वारा वह नवीन रचना करता है या नवीन विचार प्रस्तुत करता है।" 

Drevhull- "Creativity is that ability of man with which he does novel creation or presents novel thinking." 

पारनीस के अनुसार- "जो अपने उत्पाद में अनोखापन तथा प्रासंगिकता दोनों प्रदर्शित करता है। उत्पाद एक समूह या संस्था पूर्ण रूप में समाज या एक व्यक्ति के लिये अनोखा या प्रासंगिक हो सकता है। सृजनात्मकता इस प्रकार ज्ञान, कल्पना और मूल्यांकन का कार्यात्मक रूप है।"

 Parners". Which demonstrates both uniqueness and relevance in its product. The product may be unique and relevant to a group of organisation, to society as a whole or merely to the individual himself. Creativity is thus a function of knowledge, imigination and evaluation."

सृजनात्मकता की विशेषताएँ 

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर सृजनात्मकता की निम्नांकित विशेषताएँ निष्कर्ष रूप में उभर कर आती हैं-

1. सृजनात्मकता में मौलिकता होती है।

 2. सृजनात्मकता में नवीनता होती है।

3. सृजनात्मकता में उच्च बौद्धिक योग्यता निहित होती है।

4. सृजनात्मकता में लोच होती है।

5. कल्पना करने और कल्पना की जाँच करने की शक्ति होती है।

6. सृजनात्मकता में समस्या की उपस्थिति का ज्ञान होता है।

सृजनात्मक बालकों की पहचान के कारण

सृजनात्मकता एक प्रकार का रचनात्मक कौशल है और भारत में बेकारी की समस्या को हल करने का एक मात्र उपाय यहाँ के नवयुवकों में उनकी रुचि के अनुरूप कौशल विकास करना है। सृजनात्मक बालक राष्ट्र की अमूल्य सम्पत्ति होते है, क्योंकि देश का आर्थिक विकास इन पर ही निर्भर होता है। यहाँ हम उन कारणों पर विचार करेंगे जो सृजनात्मक बालकों की पहचान की आवश्यकता को प्रकट करते हैं-

1. ऐसे बालकों को पता लगाने से उनके व्यवहार, व्यक्तित्व तथा मानसिक योग्यताओं से सम्बन्धित हमारा ज्ञान समृद्ध होता है।

2. सृजनात्मक बालकों के व्यक्तिगत शिक्षण की व्यवस्था की जा सकती है। 

3. सृजनात्मक बालकों की पहचान होने पर उनको शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन की सुविधा उपलब्ध करवायी जा सकती है।

4. इनकी पहचान उनकी सृजनात्मकता का सही मूल्यांकन करने के उद्देश्य से भी आवश्यक है। 

5. सृजनात्मक बालकों की पहचान द्वारा उनकी शैक्षिक और मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना सम्भव हो सकता है।

6. उनकी पहचान होने पर उनकी सृजनात्मक शक्ति के विकास के लिये आवश्यक प्रयास करना सम्भव हो सकता है।

सृजनात्मक बालक की विशेषताएँ

सृजनात्मक बालक में निम्नलिखित गुण प्रायः पाये जाते है- 

1. सृजनात्मक बालक में मौलिकता एवं नवीनता का अद्भुत गुण होता है।

2. इनकी बुद्धि-लब्धि उच्च होती है।

3. सृजनात्मक बालक में जिज्ञासा की मात्रा अधिक होती है।

4. उनमें सामान्य बातों पर ध्यान केन्द्रित करने की शक्ति होती हैं।

 5. इनमें साहस अधिक होने से ये सदैव नया मार्ग तलाश करने का प्रयास करते हैं।

6. संवेदनशीलता अधिक होने से वह प्रत्येक कार्य गम्भीरता से करता है। 

7. ऐसा बालक विचारों को दबाने के स्थान पर उसे व्यक्त करना अच्छा समझता है।

8. सृजनात्मक बालक उत्तरदायित्वों के प्रति सजग रहता है।

9. ऐसे बालक में कल्पना- शक्ति उच्च विकसित स्तर की होती है।

10 यह बालक काफी लगनशील तथा परिश्रमी होता है।

11. उसमें स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति होती है। 

12. इसके व्यवहार में लोच की उपस्थिति के कारण वह एक ही विचार से चिपका नहीं रहता है।

13. उसमें एकाग्रचित्तता का महान गुण होता है।

14 सृजनात्मक बालक दूरदर्शी तथा स्वतंत्र निर्णय लेने वाला होता है।

15. यह विनोदी स्वभाव का होता है।

16. यह शाब्दिक कौशल में निपुण होता है।

सृजनात्मक बालकों की शिक्षा और निर्देश 

सृजनात्मक बालकों को निर्देशन सहायता प्रदान करते समय निम्नांकित बातों को ध्यान में रखना चाहिये-

 1. सृजनात्मक बालको की पहचान करके उनकी रुचियों और सृजनात्मकता की माप करनी चाहिये।

2. छात्र की जिस क्षेत्र में सृजनात्मकता अधिक है, उसी क्षेत्र में उसे विकास करने के लिये प्रोत्साहित किया जाये।

3. छात्रों की सृजनात्मकता की प्रशंसा करके उनको और अधिक प्रोत्साहित किया जाये।

 4. उसको अपने विचारों को रचनात्मक रूप देने को अवसर प्रदान किये जायें।

5. छात्रों को आत्म मूल्यांकन तथा आत्म-विवेचन के लिये प्रोत्साहित किया जाये।

6. ऐसे बालकों की कल्पना शक्ति के विकास में उचित परामर्श दिया जाये। 

7. उनके लिये रचनात्मक कार्य करने के लिये पृथक कक्ष की सुविधा की तथा उसमें आवश्यक सामग्री की व्यवस्था की जाये।

यह एक विवादास्पद विषय है कि सृजनात्मकता के विकास में शिक्षा की कोई भूमिका होती है या नहीं। कुछ मनोवैज्ञानिको के मतानुसार सृजनात्मकता बुद्धि-लब्धि से सम्बन्धित होती है। अतः इसका विकास सम्भव नहीं है। लेकिन गिलफोर्ड जैसे विद्वानों का मत है कि सृजनात्मकता का बुद्धि से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। अतः अनुकूल वातावरण इसके विकास में अधिक सहायक हो सकता है और उपयुक्त वातावरण का निर्माण शिक्षा द्वारा ही सम्भव है।

1. सृजनात्मक बालकों के लिये शिक्षा का उद्देश्य विचारों को क्रियान्वित करने की क्षमता को बढ़ाना कल्पना शक्ति का विकास करना तथा मानसिक योग्यताओं और वैचारिक प्रवाह, मौलिकता, लचीलापन, तार्किक चिन्तन और निर्णय लेने की शक्ति का विकास करना होना चाहिये।

2. गिलफोर्ड के अनुसार सृजनात्मकता एक सीखा गया व्यवहार होने से इसके शिक्षण में अवरोधको को दूर करने और शिक्षण की उपयुक्त विधियों और तकनीकों का प्रयोग शिक्षक को करना चाहिये। 

3. सृजनात्मक बालक के शिक्षण के लिये वाद-विवाद, शब्द साहचर्य, भूमिका करना आदि प्रविधियों का प्रयोग होना चाहिये।

4. कक्ष कक्ष प्रक्रिया में छात्रों की सहभागिता को प्रोत्साहन, वाद-विवाद को प्रोत्साहन, बालकों को अपनी गतिअनुसार कार्य करने देना, दण्ड का भय समाप्त करने सम्बन्धी कार्य शिक्षक को करने चाहिये।

5. सृजनात्मक बालकों में स्व-अध्ययन को प्रोत्साहन देना, प्रश्न पूछने पर बल देना. कुछ समय एकान्त में छोड़ देना असाधारण उत्तर की प्रशंसा करना आदि कार्य शिक्षक द्वारा होने चाहिये।

 6. पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिये जो मौलिक विचारों, धारा प्रवाहिता, लोच को बढ़ावा देता है। पाठ्यक्रम में अधिक से अधिक नवीन सूचनाओं का समावेश होना चाहिये।

मन्द गति का अधिगमकर्ता 

मन्द गति के अधिगमकर्ता को ही शैक्षिक रूप से पिछड़ा बालक भी कह सकते हैं। मन्दगति से सीखने वाला बालक वह होता है जो कक्षा में उपस्थित सामान्य बालकों की अपेक्षा लिखने पढ़ने व समझने में धीमी गति का अनुसरण करता है। परिणामस्वरूप वह सामान्य रूप में कार्य न कर पाने के कारण कक्षा में चल रही शिक्षण क्रिया में समायोजित नहीं हो पाता है। कक्षा में अन्य बालकों के समान गति न पकड़ने के फलस्वरूप वह भावात्मक रूप में अस्थिर हो जाता है और कक्षा में सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की इच्छा से समस्यात्मक बालक का रूप धारण कर लेता है। अतः इस प्रकार मन्द गति से अधिगम करने वाले बालकों की शिक्षा पर उचित ध्यान देने की आवश्यकता है।

मन्द अधिगमकर्ता की बुद्धि लब्धि 76 से 89 के मध्य होती है। विद्यालय में पढ़ने वाले कुल छात्रों में से इनकी संख्या 8 प्रतिशत तक होती है। शारीरिक रूप से ये हष्ट पुष्ट होते हैं, लेकिन अधिगम में मन्द होते हैं और इसी मन्द गति के कारण कक्षा के अन्य छात्र उनका मजाक बनाते हैं। यद्यपि कक्षा- कार्य कठिन होते हुये भी वे धैर्यवान और सहयोगी होते हैं। अमूर्त और प्रतिकीय सामग्री को समझने की योग्यता कम होती है और व्यावहारिक स्थिति में तर्क का उपयोग करने की क्षमता औसत बालकों से कम होती है। बर्ट (Burt) के अनुसार मन्द अधिगमकर्ता शब्द उन छात्रों के लिये उपयोग में आता है जो अपनी आयु के सामान्य बालकों की नाँति कार्य नहीं कर पाते है। जैनसन (Jenson) का विचार है कि यदि पढ़ाई जाने वाली सामग्री प्रतिकीय, अमूर्त और प्रत्यात्मक है और 80 से 90 बुद्धि-लब्धि वाले बालक धीमी गति से सीखते हैं तो इनको मन्द अधिगम कर्ता कहेंगे।

मन्द अधिगमकर्ता के प्रकार 

मन्द अधिगमकर्ता दो प्रकार के होते है-

1. पृथक् व्यवस्था चाहने वाले बालक- इसमें वे बालक सम्मिलित किये जाते है जो सीमित योग्यताओं जैसे मनोसामाजिक कमियों सहित मानसिक पिछड़ेपन से पीड़ित होते हैं। ऐसे बालकों को विशिष्ट विद्यालय या पृथक कक्षा की आवश्यकता होती है।

2. समन्वित सामान्य व्यवस्था द्वारा सेवित बालक- ऐसे बालको में अधिगम और शैक्षिक, पिछड़ेपन का स्वरूप और मात्रा कम गम्भीर ोने से ये बालक सामान्य विद्यालयों में अध्ययन करने में सक्षम होते हैं। इनमें पिछड़ापन सामान्य और विशिष्ट दो प्रकार का होता है। सामान्य पिछड़ेपन से पीड़ित बालक विद्यालय पाठ्यक्रम के सभी विषयों। में कमजोर होते है। जबकि विशिष्ट पिछड़ेपन वाले बालक किसी एक या दो विषयों में कमजोर होते हैं।

मन्द अधिगमकर्ता की विशेषताएँ 

1. इन बालकों में कमजोर स्मृति पायी जाती है।

 2. संज्ञानात्मक (Cognitive) क्षमता भी इनमें आत्म विकसित रूप में होती है।

3. शिक्षण के समय ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता अधिक नहीं होती है।

4. मन्द अधिगमकर्ता मे अभिव्यक्ति योग्यता का अभाव होता है।

5. शब्दों के अभाव और भाषा पर अधिकार की कमी के कारण में वार्तालाप करने में झिझकते हैं। 

मन्द गति के अधिगमकर्ता पर ध्यान देने के कारण -

कक्षा में अधिगम में पिछड़ापन एक गम्भीर समस्या है। इस समस्या से छात्र ही नहीं अपितु शिक्षक मी पीड़ित होता है। मन्द अधिगम की समस्या किसी एक विषय में न होकर सभी विषयों में हो सकती है। मन्दगति के अधिगम से निम्नलिखित दुष्परिणाम हो सकते हैं जो इस पर ध्यान देने के कारणों पर प्रकाश डालते है--

1. हीनता की भावना (Feeling of Inferiority )—

जब कक्षा में बालक को यह आभास होता है कि वह अपने अन्य सहपाठियों के समान नहीं सीख पाता है तो उसमें हीन भावना पैदा हो जाती है। यह हीन भावना उसको परिश्रम करने से रोकती है। एक बार उत्पन्न हीन भावना को शीघ्र दूर नहीं किया जा सकता है।

2. भावनात्मक अस्थिरता (Emotional Disturbance) -

कक्षा में मन्द गति बालक, अपने को अन्य छात्रो की भाँति अधिगम करने में असफल पाता है तो वह मानसिक अस्थिरता का शिकार हो जाता है। वह अपनी मन्दगति से चिन्तित रहने लगता है। इस चिन्ता के कारण कक्षा में हो रहे शिक्षण के प्रति ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाता है।

3. भग्नाशा का भाव (Feeling of Depression)—

 अधिगम की मन्द गति बालक में भग्नाशा पैदा कर देती है और वह कक्षा कार्य शिक्षक और यहाँ तक कि विद्यालय से भी घृणा करने लगता है। इस दशा के पैदा होने से पहले ही बालक को निर्देशन सहायता उपलब्ध करवानी चाहिये।

4. माता-पिता द्वारा उपेक्षा (Neglected by parents )-

ऐसे बालको को घर पर माता-पिता की उपेक्षा का भी शिकार बनना पड़ता है। उसकी उपलब्धि परीक्षा के अंक देखकर माता-पिता उसकी प्रगति को देखकर कभी-कभी डाँटते भी रहते हैं। इससे छात्र अपमानित अनुभव कर घर से भी घृणा करने लगता है।

मन्द अधिगम के कारण

मन्द अधिगम के अनेक कारण हो सकते हैं। कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित है- 

1. शारीरिक दोष -अनेक शारीरिक दोष जैसे-दृष्टि कमजोर होना, श्रवण दोष, बीमार रहना तुतलाना आदि के कारण अधिगम की मन्द गति रहती है। इन दोषों से युक्त बालक सामान्य बालक की भाँति सीखने में कठिनाई अनुभव करते हैं। 

2. शिक्षण विधियाँ- शिक्षण की अनेक विधियों है। लेकिन शिक्षक कक्षा में प्रायः एक-दो विधियों काही प्रयोग करते हैं। हो सकता है इन विधियों से कुछ बालक शीघ्रता से सीखने में कठिनाई अनुभव करते हो और परिणामस्वरूप वे मन्द गति से सीखते हो। 

3. मानसिक योग्यताओं के विकास में कमी- मन्द अधिगम के लिये मानसिक योग्यताओं के विकास में कमी भी उत्तरदायी हो सकती है।

4. बायें हाथ का प्रयोग करना- यह भी एक धारणा बनी हुई है कि बायें हाथ का प्रयोग करने वाले मन्द अधिगम गति वाले होते है। मनोवैज्ञानिक इस तथ्य में कम विश्वास करते हैं।

5. तत्परता की कमी- अनेक शिक्षक सीधे कक्षा में प्रवेश करते ही पढ़ाना प्रारम्भ कर देते हैं। वे शिक्षा के इस सिद्धान्त को भूल जाते हैं कि सर्वप्रथम भूमिका या प्रस्तावना द्वारा बालकों में नवीन ज्ञान के लिये तत्परता पैदा करनी चाहिये। बिना तत्परता के कुछ बालक अधिगम में पिछड़ जाते हैं। 

6. प्रेरकों का अभाव-शिक्षक द्वारा शिक्षण के समय प्रेरकों का प्रयोग न करने से बालक में शिक्षण के प्रति नीरसता पैदा हो जाती है। रुचि के अभाव में उसकी सीखने की गति प्रभावित होती है।

 7. घर का वातावरण- घर का वातावरण भी मन्द गति का कारण हो सकता है। परिवार में सदस्यों की अधिक संख्या या माता-पिता में होने वाले प्रतिदिन के झगड़े भी सीखने को प्रभावित करते हैं।

 निर्देशन सम्बन्धी कार्य 

मन्द गति से सीखने वाले बालको के लिये निम्नलिखित निर्देशन सम्बन्धी कार्य होने चाहिये-

1. धीमी गति से अधिगम करने के कारणों का निदान निर्देशन कार्यकर्ता को करने चाहिये। नैदानिक कार्य निम्न तरीकों से किये जा सकते हैं-

 (i) विशिष्ट विषय में मन्द अधिगम गति के स्वरूप और मात्रा की जाँच के लिये उपलब्धि और नैदानिक परीक्षणों का प्रयोग करना चाहिये।

 (ii) ऐसे बालकों के बौद्धिक स्तर की जाँच के लिये प्रमापीकृत बुद्धि परीक्षा प्रयोग में लानी चाहिये।

 (iii) व्यक्तित्व परीक्षण का उपयोग व्यक्तित्व के गुण ज्ञात करने के लिये करना चाहिये।

 (iv) ऐसे छात्र के साथ साक्षात्कार करके मन्द अधिगम के कारणों का पता लगाना चाहिये।

मन्द गति अधिगमकर्ताओं के लिये शैक्षिक कार्यक्रम

निम्नलिखित उपचारात्मक उपाय उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं-

1. प्रेरणा (Motivation )- शिक्षक को शिक्षण के समय उत्प्रेरकों का प्रयोग करना चाहिये। भन्द अधिगमकर्ता को सदैव शिक्षक द्वारा उसमें आत्म-विश्वास पैदा करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये।

2. व्यक्तिगत ध्यान देना (Individual Attention )- शिक्षक को मन्द अधिगमकर्ता पर व्यक्तिगत ध्यान देना चाहिये। उसे ऐसे छात्र के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिये। 

3. लचीलापन पाठ्यक्रम (Elastic Curriculum) – शिक्षक को अमूर्त और सैद्धान्तिक विषय-वस्तु पर अधिक बल नहीं देना चाहिये।

4. उपचारात्मक शिक्षण (Remedial Instruction)—उपचारात्मक शिक्षण में शिक्षक को दृश्य-श्रव्य सामग्री का अधिक प्रयोग करना चाहिये। बार-बार छोटे-छोटे पाठ पढ़ाने चाहिये। कला, अभिनय और संगीत का प्रयोग सामाजिक कुशलता के विकास के लिये करना चाहिये। अभ्यास पर अधिक बल देना चाहिये। 

5. सामायिक स्वास्थ्य परीक्षण (Periodical Medical Check-up)- मन्द अधिगम के लिये शारीरिक रोग भी उत्तरदायी हो सकते है। अतः ऐसे छात्रों का समय-समय स्वास्थ्य परीक्षण होना चाहिये।

 6. शिक्षण की विशिष्ट विधियाँ (Special Methods of Teaching )—मन्द गति से अधिगम करने वालों के लिए दृश्य-श्रव्य शिक्षण, मोड्यूलर शिक्षण और कम्प्यूटर सहित शिक्षण की विधियों का प्रयोग करना चाहिये।

पिछड़ा बालक 

शिक्षा मनोविज्ञान की दृष्टि से वे बालक पिछड़े हुये कहलाते हैं जो अपनी ही आयु के अन्य साथियों के समान गति से आगे नहीं बढ़ पाते हैं। सामान्य रूप से देखा गया है कि कुछ बालक ऐसे होते है जो किन्हीं कारणों से शिक्षा के क्षेत्र में इतनी उन्नति या इतनी गति के साथ आगे नहीं बढ़ पाते है जितनी गति से उनके उसी आयु के अन्य साथी आगे बढ़ जाते है। यह स्थिति मानसिक मंदता के कारण हो सकती है अथवा किसी अन्य कारण से भी इसी स्थिति को पिछड़ापन कहते है।

 सिरिल बर्ट (Cyril Burt) के अनुसार -पिछड़ा बालक वह है, जो अपने विद्यालय जीवन के मध्य में (अर्थात् लगभग 10 1/2 वर्ष की आयु में) अपनी कक्षा से नीचे का कार्य न कर सके जो उसकी आयु के लिये सामान्य कार्य है।" 

"A Backward child is one, in the middle of his school (ie about ten and half years) is unable to do his work of the class below that which is normal for his age." 

सिरिल बर्ट अन्यत्र लिखते है कि वह बालक पिछड़ा बालक है जिसकी निष्पत्ति-लब्धि (Achievement quotient or A. Q.) 85 से कम है।

"Backward child is one whose achievement quotient is below 85."

बुद्धि-लब्धि के समान निष्पत्ति-लब्धि का पता निष्पत्ति परीक्षणों के फलाकों से लगाया जाता है। यदि बालक की वास्तविक आयु 15 वर्ष है किन्तु विभिन्न विषयों में उसकी शैक्षिक प्रगति के आधार पर पता लगाया कि उसकी शैक्षिक आयु 12 वर्ष के बराबर है तो उसकी निष्पत्ति-लब्धि निम्नलिखित होगी-

निष्पत्ति-लब्धि =शैक्षिक आयु / वास्तविक आयु × 100 

12 / 15x100=80 

सिरिल बर्ट के अनुसार यह बालक पिछड़ा बालक है क्योंकि उसकी निष्पत्ति-लब्धि 85 से कम है। साधारण भाषा में व्याख्या करें तो कह सकते हैं कि वह बालक 15 वर्ष का है किन्तु पढ़ने-लिखने में वह 12 वर्ष के सामान्य बालक की योग्यता रखता है व उसका विद्यालय विषयों में ज्ञान 13 वर्ष के बालक जितना है। वह 15 वर्ष के सामान्य बालकों के साथ -साथ शिक्षा के क्षेत्र में नहीं चल पा रहा है। यह पिछड़ा बालक है।

पिछडेपन के प्रकार

विद्यालयों में दो प्रकार के पिछड़े बालक पाये जाते हैं-

(अ) सामान्य पिछड़े बालक. (आ) विशिष्ट पिछड़े बालक।

(अ) सामान्य पिछड़े बालक (General Backwardness)- जब बालक सभी विद्यालय विषयों में सामान्य रूप से पिछड़ जाता है तो वह सामान्य पिछड़ापन कहलाता है।

(आ) विशिष्ट पिछड़ापन (Specific Backwardness)- जब बालक सभी विद्यालय-विषयों में न पिछड़ा हो वरन किसी एक या दो विषयों में ही अपनी आयु के अन्य साथियों के साथ नहीं चल पा र हो तो वह विशिष्ट पिछड़ापन कहलायेगा। यहाँ बालक अन्य विषयों में सामान्य रूप से प्रगति कर रहा है. केवल एक दो विषयों में ही पीछे रहता है।

पिछड़े बालकों के प्रकार

पिछड़े बालक निम्नलिखित प्रकार के होते हैं- 

1. मानसिक रूप से पिछड़े बालक।

2. शारीरिक अपंगता से पिछड़े बालक। 

3. शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े बालक

4. संवेगात्मक दृष्टि से पिछड़े बालक ।

 5. वातावरण के कारण पिछड़े बालक

पिछड़ेपन के कारण

पिछड़ेपन के अनेक कारण हो सकते हैं। वास्तव में पिछड़ेपन के कई कारण एक साथ मिलकर कार्य करते हैं।

1. मानसिक योग्यताओं की कमी-

अधिकांश क्षेत्रों में पिछड़ापन मानसिक योग्यताओं की कमी के कारण होता है। बर्ट के एक अध्ययन के अनुसार 80 प्रतिशत पिछड़ापन मन्द बुद्धिता के कारण होता है। इसी प्रकार का मत शोनेल ने प्रकट किया है। निम्न-बुद्धिता के कारण बालक शिक्षा के क्षेत्र में सामान्य रूप से प्रगति नहीं कर पाता है और पिछड़ जाता है।

 2. शारीरिक दोष-

अनेक शारीरिक दोषों के कारण भी बालक कभी-कभी शिक्षा के क्षेत्र में सामान्य रूप से नहीं बढ़ पाता है। निर्बलता, दृष्टिदोष, श्रवण-दोष, हकलाना, तुतलाना, वामहस्तता, कुबड़ापन आदि अनेक शारीरिक दोष है जो बालक की शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।

 3. शारीरिक रोग-

 अनेक शारीरिक रोगों के कारण भी कभी-कभी बालक की शैक्षिक प्रगति रुक जाती है। नजला, पाचन शक्ति की कमी, टॉन्सिल, ग्रन्थियों की बीमारी, टी. बी. आदि ऐसे रोग है। जो थोड़ी ही देर में थकान व सिरदर्द कर देते हैं। बालक की शिक्षा पर बड़ा ही प्रतिकूल प्रभाव डालते है और उसकी निष्पत्ति लब्धि को कम कर देते हैं।

4. संवेगात्मक अस्थिरता-

 कुछ बालक संवेगात्मक दृष्टि से सन्तुलित नहीं होते हैं, समाज के साथ, अपनी परिस्थितियों के साथ समायोजन नहीं कर पाते हैं। परिणामस्वरूप वे भय, चिन्ता, असुरक्षा, तनाव आदि के शिकार हो जाते हैं। ये बालक भय, चिन्ता आदि के कारण शिक्षा में ठीक से प्रगति नहीं कर पाते हैं।

5. पारिवारिक कारण-

अनेक पारिवारिक कारणों के परिणामस्वरूप भी बालक कभी-कभी अपनी शिक्षा सामान्य गति से ग्रहण नहीं कर पाता है। परिवार की निर्धनता के कारण बालक को अध्ययन की पर्याप्त सुविधाएँ नहीं मिल पाती, उसे पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाता, जिनका उनकी शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। परिवार का बड़ा आकार होने पर उसे पढ़ने-लिखने को स्थान नहीं मिल पाता, माता-पिता उसकी ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते, परिवार में बड़ा कोलाहल रहता है, अतः उसे पढ़ाने को शान्ति नहीं मिल पाती. क्लेशपूर्ण वातावरण रहने से भी बालक अपना ध्यान अपनी पढ़ाई पर केन्द्रित नहीं कर पाता है। इसी कारण माता-पिता का निम्न नैतिक जीवन, उनकी अशिक्षा, अनुशासन हीनता आदि के कारण भी बालक पिछड़ जाता है।

6. विद्यालय का दूषित वातावरण-

विद्यालय का दूषित तथा कोलाहलपूर्ण वातावरण भी बालक निष्पत्तियों पर कुप्रभाव डालता है। गंदे, संकीर्ण तथा शोरगुल युक्त वातावरण में विद्यालय की स्थिति, विद्यालय भवन की अपर्याप्तता तथा अनुपयुक्तता, पुस्तकालय तथा प्रयोगशाला जैसी सुविधाओं का अभाव, अयोग्य अध्यापक, त्रुटिपूर्ण अनुशासन तथा अस्वस्थ परम्पराएँ आदि बालक की शिक्षा सम्बन्धी उपलब्धियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है और बालक में पिछड़ापन आ जाता है।

7. पलायनशीलता (Truancy)- 

सरल शब्दों में, कक्षा से भाग जाना पलायनशीलता कहलाती है। अनेक कारणों से बालक कक्षा से भाग जाता है तो वह शिक्षा में पिछड़ जाता है। पलायनशीलता या तो सामान्य होती है या विशिष्ट सामान्य पलायनशीलता की स्थिति में बालक किसी भी विषय की कक्षा से भाग जाता है जबकि विशिष्ट पलायनशीलता की स्थिति में बालक किसी एक विषय की कक्षा से ही भागता है और उसी विषय में पिछड़ जाता है।

8. अयोग्य अध्यापक-

अयोग्य तथा अक्षम अध्यापकों के द्वारा जब शिक्षण की अमनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियाँ अपनायी जाती हैं, छात्रों के साथ अनुपयुक्त व्यवहार किया जाता है, उनमें विषयगत योग्यता पर्याप्त नहीं है, वे पारस्परिक दलबन्दी में पड़े है, अनुशासन की गलत विधियाँ अपनाते हैं, दण्ड व पुरस्कार का उचित प्रयोग नहीं करते हैं, बच्चों को पर्याप्त स्नेह व प्यार नहीं दे पाते, उनका व्यवहार पक्षपात पूर्ण है, आदि अनेक ऐसे कारण हो सकते हैं जो बालक की निष्पत्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालकर पिछड़े बालकों का निर्माण करते है।

9. विशिष्ट क्षमताओं का अभाव- 

कभी-कभी चालक में किसी विषय के प्रति या तो रुचि नहीं होती है, या उस विषय को सीखने के लिये विशिष्ट योग्यता नहीं होती है तो वह उस विषय में पिछड़ जाता है, उदाहरण के लिये बालक में विज्ञान विषय के लिये आवश्यक मानसिक विशिष्ट योग्यता का अभाव है तो वह विज्ञान विषय में पिछड़ जायेगा।

पिछड़ेपन का निवारण 

हम अध्ययन कर चुके हैं कि पिछड़ापन या तो सामान्य होता है या विशिष्ट। इन दोनों ही प्रकार के पिछड़ेपन के निवारण के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार के उपाय करने आवश्यक होते हैं। 

(अ) सामान्य पिछड़ेपन का निवारण - बालक के सामान्य पिछड़ेपन की रोकथाम करने के लिये निम्न उपाय किये जा सकते है-

1. शारीरिक दोषों का पता लगाकर उन्हें दूर करने के उपाय किये जायें। 

2. शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा की जाये।

3. बालक की बुद्धि मन्दता का पता अच्छे बुद्धि परीक्षण द्वारा लगाया जाये। 

4. परिवार के वातावरण को सुधारा जाये। आवश्यकता पड़ने पर बालक के अभिभावकों के साथ सम्पर्क स्थापित किया जाये

5. विद्यालय के वातावरण को सुन्दर तथा आकर्षक बनाया जाये।

6. निर्धन बालकों को आवश्यक सुविधायें प्रदान की जायें।

7. बालकों को आवश्यक शैक्षिक निर्देशन प्रदान किया जाये |

8. विद्यालय में स्वस्थ्य परम्पराओं की स्थापना की जाये।

9. शिक्षण की उपयुक्त व आकर्षक विधियों अपनायी जायें।

 10. पिछड़े बालकों पर विशेष ध्यान रखकर उन्हें व्यक्तिगत शिक्षण प्रदान किया जाये।

 (आ) विशिष्ट पिछड़ेपन का निवारण- एक-एक या दो विषयों में पिछड़ेपन की रोकथाम के लिये निम्नांकित उपाय किये जा सकते हैं-

1. बालक की मानसिक क्षमताओं का पता लगाया जाये।

2. बालक को उसकी रुचि के अनुसार शिक्षा दी जाये। 

3. बालक को समुचित मात्रा में शैक्षिक निर्देशन प्रदान किया जाये।

4. बालक की शैक्षिक प्रगति पर व्यक्तिगत ध्यान दिया जाये।

5. निदानात्मक परीक्षण के बाद उपचारात्मक शिक्षण (Remedial teaching) की व्यवस्था की जाये।

 6. योग्य तथा अनुभवी शिक्षकों की व्यवस्था की जाये।

पिछड़े बालकों की शिक्षा 

अनेक अध्ययनों से पता चलता है कि विद्यालय जनसंख्या में करीब 10 प्रतिशत पिछड़े बालक होते है। यह प्रतिशत छोटा नहीं है जिसकी अवहेलना की जा सके। प्रत्येक विद्यालय को पिछड़े चालको का पता लगाकर उनके लिये समुचित शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये। पिछड़ेपन का पता लगाने के लिये निम्न उपाय काम में लाये जा सकते हैं- 

1. निष्पत्ति परीक्षण के परिणाम.

2. बुद्धि परीक्षण के परिणाम, 

3. अध्यापकों की सम्मतियाँ,

4. गत कक्षाओं के परीक्षा परिणाम। 

उपर्युक्त विधियों के द्वारा बालक के पिछड़ेपन का पता लगाकर उसके लिये निम्नलिखित शिक्षा-व्यवस्था करनी चाहिये-

1. विशिष्ट कक्षाओं की व्यवस्था-

 पिछड़े बालकों को यदि सामान्य बालकों के साथ ही पढ़ाया जाये तो उनमें न केवल और अधिक पिछड़ापन आयेगा वरंच उनमें आत्महीनता की भावना भी विकसित हो जायेगी। संयुक्त कक्षाओं में पिछड़े बालकों की कठिनाइयों का व्यक्तिगत रूप से निवारण भी सम्भव नहीं है। अतः इनके लिये पृथक विशेष कक्षाओं की व्यवस्था की जाये। इस कक्षा में वे अपने समान बालकों को पाकर अधिक सुरक्षित अनुभव करेंगे तथा उनकी समस्याओं एवं कठिनाइयों पर अधिक ध्यान दिया जा सकेगा। विशिष्ट कक्षाओं के संचालन के लिये निम्न बातें ध्यान में रखनी चाहिये-

(i) विशिष्ट कक्षाओं का आकार छोटा हो। 

(ii) एक कक्षा में एक ही प्रकार के बालक हो।

(iii) इन कक्षाओं को अनुभवी एवं योग्य शिक्षक पढ़ायें।

 (iv) इन कक्षाओं में शिक्षण गति धीमी हो तथा पर्याप्त शिक्षण सामग्री का प्रयोग किया जाये।

(v) पृथक-पृथक विषयों के लिये पृथक-पृथक कक्षायें हो।

 (vi) कालांशों की अवधि अधिक बड़ी न हो।

2. विशिष्ट विद्यालय-

कुछ सम्पन्न देशों में पिछड़े बालकों के लिये अलग से विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना की जाती है जिनमें थोड़े-से पिछड़े बालकों को विशिष्ट व्यवस्थाओं के द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती है। भारत में आर्थिक कारणों के फलस्वरूप इस प्रकार के विद्यालयों की स्थापना सम्भव नहीं है। अतः यहाँ सात-आठ विद्यालयों के बीच एक विशेष सामान्य विद्यालय में ही पिछड़े बालकों के शिक्षण के लिये व्यवस्था की जा सकती है।

3. विशिष्ट पाठ्यक्रम -

पिछड़े बालको के लिये विशिष्ट पाठ्यक्रम विकसित किये जायें। इस प्रकार के बालको के लिये जो पाठ्यक्रम विकसित किये जाये, वे लचीले आकर्षक तथा क्रिया-प्रधान हो। यदि बालकों में बुद्धि-मन्दता है तो उनके पाठ्यक्रम में हस्तकला को अवश्य सम्मिलित किया जाये। इनके पाठ्यक्रमों में समन्वय के सिद्धान्त का पूरी तरह पालन किया जाये।

4. विशिष्ट शिक्षण विधियों का प्रयोग -

पिछड़े बालक सामान्य शिक्षण विधियों से अधिक लाभान्वित नहीं हो सकते हैं। इनके लिये विशेष शिक्षण विधियों का प्रयोग करना चाहिये। इनके लिये जो शिक्षण विधि अपनायी जाये, उसमें निम्नलिखित विशेषताएं होनी चाहिये-

(i) बालक करके सीखे।

 (ii) शिक्षण विधि मन्द गति वाली हो।

(ii) पुनरावृत्ति के अधिकाधिक अवसर प्रदान करे।

 (iv) मूर्त के स्थान पर अमूर्त ज्ञान पर बल दे |

(v) सहायक सामग्री के प्रयोग पर बल दे।

(vi) व्यावहारिक ज्ञान पर बल दे।

5. विशिष्ट अध्यापक-

पिछड़े बालकों को पढ़ाने का कार्य निम्नांकित योग्यता व गुण वाले शिक्षकों को दिया जाना चाहिये-

(1) शिक्षक पूर्ण प्रशिक्षित तथा योग्य हो।

(ii) शिक्षक निदानात्मक तथा उपचारात्मक कार्य सफलता के साथ सम्पन्न कर सके |

(iii) जो बालक के साथ स्नेहपूर्ण तथा पक्षपातहीन व्यवहार कर सके।

(iv) जो बालक की कमजोरियों तथा कठिनाइयों को ठीक से समझकर उनके समाधान हेतु आवश्यक कदम उठा सकें।

(v) उसे बाल मनोविज्ञान का व्यावहारिक ज्ञान हो।

समावेशी शिक्षकों, बालकों एवं प्रधानाचार्य के लिये निर्देशन एवं परामर्श 

अक्षम बालकों की अनेकानेक कठिनाइयों के सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि उसके लिए क्लीनिक की सहायता अनिवार्य है। इसके साथ-साथ अक्षम एवं प्रतिभावान बालकों के साथ-साथ शिक्षकों एवं प्रधानाचार्य को एक कुशल परामर्शदाता द्वारा समय-समय पर परामर्श की आवश्यकता होनी चाहिए। यह परामर्श बालक तथा शिक्षकों की समस्या को देखते हुए उचित परामर्श देने की सहायता करते है। परामर्शदाता का विशिष्ट बालकों के सम्बन्ध में मुख्य कर्तव्य है उनके वातावरण को समझकर उनके समायोजन के लिए प्रयत्नशील होना इसके लिए आवश्यक है कि वह--

(1) स्कूल व परिवार के वातावरण की पूर्ण जानकारी रखे.

 (ii) विशिष्ट बालक की क्षमताओं व संभावनाओं को जाने

(iii) उनकी सीमाओं (Limits) को समझे,

(iv) व्यक्ति इतिहास का अध्ययन करे,

(v) स्कूल प्रोग्रामों में सुधार लाए..

(vi) स्कूल के बाहर उपलब्ध सुविधाओं का लाभ उठाये और

(vii) शैक्षिक और व्यावसायिक परामर्श न केवल विशिष्ट बालको को बल्कि उनके माता-पिता/ अभिभावक को भी प्रदान करे।

प्रतिभाशाली बालकों के लिए जहाँ स्कूलों में ही समय-समय पर परामर्श होना चाहिए वहीं पर शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम बालकों के लिए पहले क्लीनिक की व्यवस्था हो जहाँ उनके स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य व कार्यक्षमता का पूर्ण ज्ञान किया जाए लेकिन जो चिकित्सक हो उसे मनोचिकित्सक की उपाधि प्राप्त हो तथा वह स्वास्थ्य के साथ ही उसकी मनोवृत्तियों का पूर्ण अध्ययन करे।

1. शारीरिक/मानसिक दोष का इतिहास जाने।

2. अभिभावकों के वातावरण की जानकारी रखे।

3. ऐसे बच्चों की क्षमताओं व संभावनाओं को समझे। 

4. इनके लिए विशेष स्कूल का परामर्श दे यदि स्कूल जाते हैं तो उनके स्कूल की व्यवस्था व शिक्षकों को देखे कि वे कैसे बच्चों का सुधार करते हैं।

5. स्कूल कार्यक्रमों में सुधार लाए। 

6. अक्षम बच्चों की रुचियों व अभिवृत्तियों का अध्ययन करे।

शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन-

विशिष्ट बालकों के शैक्षिक और व्यावसायिक सामजस्य की अति आवश्यकता है। इसके लिए शैक्षिक और व्यावसायिक पुनर्स्थापना संस्थाएँ (Educational and Vocational Rehabilitation Agen- cies) होनी चाहिए। ये संस्थाएँ स्कूल के सहयोग से निर्देशन प्रदान कर सकती है। विदेशों के समान जनता पुनर्स्थापना संस्थाएं भी इस कार्य के लिए स्थापित की जा सकती हैं। इन संस्थाओं और विद्यालयों द्वारा विशिष्ट बालकों के समायोजन हेतु दिये जाने वाले निर्देशन में ये 8 सोपान होने चाहिए-

(i) विशिष्ट बालक की पहचान -इसके लिए अध्यापक को अन्य संस्थाओं की सहायता लेनी चाहिए। वह शैक्षिक संस्थाओं, स्वास्थ्य संस्थाओं, समाज कल्याण संस्थाओं तथा अन्य इसी प्रकार की संस्थाओं की सेवा प्राप्त कर सकता है।

(ii) डाक्टरी जाँच- बालक की भली प्रकार जाँच करवानी चाहिए। इसके द्वारा यह निश्चित करना चाहिए कि कौन से विषय विशिष्ट बालक के लिए उपयुक्त होगे और कौन सा व्यवसाय ठीक रहेगा। 

(iii) शारीरिक पुनःस्थापना- उन शारीरकि अक्षमताओं को जो कम हो सकती है या दूर की जा सकती है, अवश्य दूर करना चाहिए। इसके उपरान्त ही उन्हें शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन देना चाहिए।

(iv) परामर्श- परामर्श निर्देशन सेवाओं का केन्द्र बिन्दु है। इसके बिना पुनर्स्थापना नहीं हो सकती। परामर्श सेवाओं को प्रथम साक्षात्कार से ही आरम्भ करना चाहिए तथा तब तक देते रहना चाहिए जब तक व्यक्ति को नौकरी नहीं मिल जाती एक अच्छी परामर्श सेवा व्यक्ति को उसकी कमजोरियों से अवगत कराती है तथा उन्हें दूर करने का प्रयत्न करती है।

(v) व्यावसायिक शिक्षण- निर्देशन सेवाओं को बालक की अच्छी नौकरी के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण का भी प्रबन्ध करना चाहिए। यदि माध्यमिक स्कूल व्यावसायिक कोर्स प्रदान करते है तो अक्षम बालक को उसका पूर्ण लाभ उठाना चाहिए। माध्यमिक स्कूल को ऐसे बालक को नौकरी में लगाने का भी प्रयत्न करना चाहिए।

(vi) आवश्यक पूरक सेवाएँ- इन सेवाओं के अन्तर्गत आएँगे आवश्यक जीवन सम्बन्धी सुझाव, प्रशिक्षण सम्बन्धी सामान ऐसे सामान तथा वस्तुएँ जो व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए आवश्यक है।

(vii) व्यवसाय स्थापन -एक व्यावसायिक पुनर्स्थापना तभी संभव हो सकती है जब उस व्यक्ति को किसी उचित व्यवसाय में लगा दिया जाये। इसके लिए आवश्यक है कि व्यवसाय इस प्रकार का हो कि व्यक्ति अपनी योग्यता का पूर्ण लाभ उठा सके। विशिष्ट बालको के सम्बन्ध में भी यह बात लागू होती है। एक सफल स्थापन एक अच्छे व्यावसायिक निर्देशन का आवश्यक गुण है। हाल में इस क्षेत्र में अक्षम बालकों के लिए अत्यधिक विकास हुआ है। अमेरिका में श्री वरनन बेन्टा (Vernon Benta) के नेतृत्व में जो अध्ययन हुए उनसे स्थापन की चयनित स्थापन (Selective Placement) की विधि का पता चला। यह मुख्यत: विशिष्ट बालकों के सम्बन्ध में है।

(viii) अनुसरण सेवा (Follow up) -एक अच्छी निर्देशन सेवा में यह नहीं सोचना चाहिए कि व्यक्ति को नौकरी मिलने पर निर्देशन का कार्य समाप्त हो गया। यह देखना चाहिए कि बालक नौकरी मिलने पर संतुष्ट है या नहीं और वह ठीक से काम कर रहा है या नहीं। उसे वेतन ठीक मिल रहा है. अथवा नहीं।

कहीं-कहीं व्यक्तिगत पुनर्स्थापन सेवाएं भी होती है। इनसे भी सहायता लेनी चाहिए। स्कूल परामर्शदाता यह जान सकता है कि कौन-सी संस्था, व्यक्तिगत या बालक के लिए लाभकारी होगी। एक जवान व्यक्ति जो स्कूल में पढ़ता है उसे भी इन संस्थाओं की सहायता की आवश्यकता पड़ सकती है। एक अच्छे निर्देशक का कर्त्तव्य है कि वह सभी संस्थाओं से इस प्रकार लाभ उठाये कि बालक पूर्ण रूप से लाभान्वित हो सके। जब एक अक्षम बालक तथा प्रतिभावान बालक को एक व्यावसायिक प्रशिक्षण विद्यालय में भेजा जाता है, परामर्शदाता की राय लेना अनिवार्य है। अधिकतर विद्यालय में व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं होती। ऐसी अवस्था में निर्देशन सेवाओं हेतु बालक को किसी व्यावसायिक प्रशिक्षण विद्यालय में भेजना चाहिए।

इस प्रकार निर्देशन विशिष्ट बालकों के विकास और समायोजन में सहायक हो सकता है। यह निर्देशन अध्यापक, प्रधानाचार्य या विशेष रूप से नियुक्त निर्देशन कर्मचारी दे सकता है भारत में आजकल अनेक निर्देशन संस्थाओं की व्यवस्था की गयी है। विद्यालयों को भी इनका सहयोग अवश्य लेना चाहिए, क्योंकि इनके सहयोग के बिना विद्यालय अकेले एक समुचित निर्देशन प्रोग्राम नहीं बना सकता। लेकिन इसके अतिरिक्त भी समाज व सरकार का दायित्व है कि ऐसे बच्चों के लिए अलग से परामर्श संस्थाएँ खोली जाये या फिर ऐसे बच्चों के विशिष्ट विद्यालयों में ही शैक्षिक व व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलाए जाएँ। क्योंकि सरकारी नीतियाँ अगर विकलांग बच्चों के लिए अच्छी बनती है, जागरूकता के अभाव में उनका उचित क्रियान्वयन नहीं हो पाता है। अतः पहली आवश्यकता है-

(i) विकलांगों की योजनाओं का विस्तृत प्रसार-प्रचार किया जाए।

(ii) उनकी शारीरिक व्याधियों को देखते हुए उन्हें सहायक उपकरण बैशाखी, साइकिल, चश्मे, इयरफोन आदि प्रदान किये जायें।

(iii) ऐसे बच्चों के अभिभावकों को जानकारी करायी जाये कि अपने बच्चों को विशेष शिक्षा व प्रशिक्षण दिलायें।


Post a Comment

Previous Post Next Post