विद्यालय निर्देशन सेवा का संगठन क्या है?-विस्तृत वर्णन

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शिक्षा का लक्ष्य छात्र का सर्वांगीण विकास करना है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये विद्यालयों में अनेक प्रकार की शैक्षिक एवं सामाजिक गतिविधियों का आयोजन होता है, जिनके माध्यम से बालक को भावी जीवन के लिये तैयार किया जाता है।  विद्यालय में बालक को इन गतिविधियों में भाग लेते समय अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वह अनेक समस्याओं का अनुभव करता है, जो उसके विकास व प्रगति को अवरुद्ध करती हैं। उसकी शैक्षिक तथा अन्य प्रगति को जो आन्तरिक एवं बाह्य बाधाएँ प्रभावित करती है, उनके समुचित निराकरण के लिये, निर्देशन सेवा का विधान विद्यालयों में होना चाहिये। परिक्षा के लक्ष्य को निर्देशन सेवाओं की समुचित व्यवस्था के बिना प्राप्त करना कठिन है। व्यक्ति कठिनाइयों में अपने विवेक से काम ले सके. अपने लिये उपयोगी निर्णय ले सके, ये सब बातें समुचित निर्देशन- सेवा की अपेक्षा रखती हैं।

संगठन का सम्प्रत्यय 

शब्द कोष के अनुसार संगठन से आशय किसी कार्य के लिये की जाने वाली तैयारी या व्यवस्था से है। एक अन्य अर्थ के अनुसार किसी विशिष्ट लक्ष्य की उपलब्धि हेतु व्यक्तियों द्वारा गठित एक समूह है। जैसे क्लब की रचना के लिये कुछ व्यक्ति साथ-साथ मिलकर एक समूह बना लेते हैं। निर्देशन सेवा की दृष्टि से हम कह सकते हैं कि संगठन से आशय ऐसे कर्मियों के समूह से है जो विद्यालय में निर्देशन सहायता स्वच्छ, सावधानीपूर्वक और तार्किक रूप में उपलब्ध कराने की दृष्टि से तैयारी या व्यवस्था करता है। किसी भी कार्य के प्रबन्धन में संगठन की अहम् भूमिका होती है। प्रबन्धन में प्रथम चरण नियोजन होता है। निर्देशन सेवाओं के प्रबन्धन की सफलता नियोजन पर निर्भर रहती है। इसके अन्तर्गत क्या, कैसे और कब किया जाता है, निश्चित किया जाता है। नियोजन जिन लक्ष्यों एवं कार्यक्रमों को निर्धारित करता है उनके क्रियान्वयन के लिये संगठन एक साधन है। संगठन के दो भाग होते हैं-

1. मानवीय संगठन और

2. भौतिकीय संगठन

संगठन में निम्नांकित बातें सम्मिलित होती है-

1. आवश्यक सुविधाओं को प्राप्त करना।

2. कुशल रूपरेखा स्थापित करने के उद्देश्य से कर्मियों और यंत्रों को जुटाना । 

3. विभागीय सेवाओं को क्रमिक संगठनात्मक ढाँचे में श्रेणीबद्ध करना।

4. अधिकारियों के ढाँचे और साधनों का एकीकरण स्थापित करना ।

 5. विधियों और तरीकों को परिभाषित और सूत्रवत् करना।

6. कर्मियों का चुनाव व प्रशिक्षण की व्यवस्था करना। 

विद्यालय निर्देशन सेवा संगठन का अर्थ

निर्देशन कार्य को विद्यालयों में सफलतापूर्वक चलाने के लिये आवश्यक है कि यह संगठित तथा व्यवस्थित रूप में हो। निर्देशन का महत्त्व शिक्षा एवं व्यवसाय के क्षेत्र में सभी को स्पष्ट है। अगर अपने देश के विद्यालयों में प्रत्येक छात्र को निर्देशन सहायता प्रदान करने का लक्ष्य बना लिया जाये तो उसको व्यवस्थित रूप देना होगा। निर्देशन सहायता देना किसी एक व्यक्ति का कार्य नहीं होता है। जोन्स ने इसके सम्बन्ध में कहा है— निर्देशन को विद्यालय के सामान्य जीवन से पृथक नहीं किया जा सकता है, न इसको विद्यालय के किसी एक विशेष भाग में केन्द्रित किया जा सकता है, न इसको परामर्शदाता या प्रधानाचार्य के कार्यालय तक सीमित किया जा सकता है। क्योंकि निर्देशन सहायता देना विद्यालय के प्रत्येक अध्यापक का कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व है, अतः इस कार्य में सभी का सहयोग प्राप्त होना चाहिये और इसी प्रकार प्रशासित होना चाहिये।"

"Guidance is not something that can be completely separated from the general life of the school by tucking it away in the office of the counsellor or the principal. Because, it is the duty and the responsibility in some measure of every member of school staff, it is a function that must be shared by all and should be also administered."---Arthur. J. Jones

उपर्युक्त कथन स्पष्ट करता है कि निर्देशन कार्य विधि का संगठन इस प्रकार किया जाये कि विद्यालय के सभी अध्यापकों का सहयोग प्राप्त हो सके निर्देशन कार्य विधि की सफलता अथवा असफलता इससे सम्बन्धित कर्मचारियों पर निर्भर रहती है। कार्य विधि की सफलता उसमें संलग्न व्यक्तियों की स्वत प्रेरणा ( Initiative), दूरदर्शिता (Foresight), दक्षता (Skill) पर निर्भर करती है। निर्देशन सेवाओं (Guidance Services) के सम्बन्ध में क्रो और क्रो ने निम्न विचार प्रकट किये हैं-

1. निर्देशन सेवाओं का दृढ़ संगठित रूप स्थापित करना असम्भव ही नहीं अपितु मूर्खतापूर्ण भी है।

 2. प्रभावशाली निर्देशन कार्यक्रम लचीला होना चाहिये। आवश्यकतानुसार उसमें परिवर्तन किया जा सके

3. निर्देशन सेवा में सभी सम्बन्धित व्यक्तियों का सामूहिक सहयोग होना चाहिये। प्रधानाचार्य, अध्यापक तथा परामर्शदाता आदि सभी के सहयोग से यह कार्यक्रम सफल हो सकता है।

निर्देशन सेवा संगठन की आवश्यकता 

विद्यालयों में निर्देशन सेवाएँ संगठित करने की आवश्यकता अग्र बिन्दुओं से स्पष्ट है-

1. छात्रों को कुसमायोजन से बचाने के लिये।

 2. शिक्षकों व छात्रों में निर्देशन के प्रति विश्वास पैदा करने के लिये ।

3. अधिगम में पिछड़े बालकों की अधिगम गति में वृद्धि करने के लिये ।

4. समस्यात्मक बालकों को समझने में शिक्षकों की सहायता करना।

5. शिक्षा के उद्देश्यों की उपलब्धि में विद्यालय प्रशासन की मदद करना।

6. छात्रों से सम्बन्धित सूचनाएँ एकत्रित करने और उनको व्यवस्थित रूप में रखने के लिये। 

7. शिक्षकों में परस्पर सहयोग में वृद्धि करने के लिये।

8. प्रमापीकृत परीक्षणों को उपयोग में लाने का शिक्षकों को प्रशिक्षण देने के लिये।

9. विद्यालयों तथा व्यावसायिक संगठनों में सहयोग बढ़ाने के लिये।

10 माता-पिता में निर्देशन के प्रति चेतना जाग्रत करने के लिये। 

11. शैक्षिक कार्यकर्ताओं की कार्यक्षमता में वृद्धि के लिये ।

निर्देशन सेवाओं को संगठित करने के सिद्धान्त

निर्देशन सेवा का संगठन करते समय कुछ सिद्धान्तों पर अवश्य ध्यान देना चाहिये। ये सिद्धान्त सभी प्रकार के निर्देशन संगठन के लिये उपयोगी रहते हैं चाहे यह संगठन प्राथमिक विद्यालय या उच्च कॉलेज स्तर पर हो अथवा मोटे या बड़े विद्यालय का हो। यह सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

1. कार्यक्रम के उद्देश्य

 कार्यक्रम बनाने से पहले यह निश्चित करना चाहिये कि कार्यक्रम का लक्ष्य क्या होगा ? कार्यक्रम किन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये संगठित किया जा रहा है ? क्योंकि उद्देश्यहीन कार्यक्रम कभी सफल नहीं होता है। निर्देशन सेवाएँ छात्रों की आवश्यकताओं को समझने तथा उनकी सन्तुष्टि में सहायता करने के उद्देश्य से संगठित की जाती है।। छात्रों की आवश्यकताओं पर उनके घर तथा पास-पड़ोस के वातावरण का प्रभाव पड़ता है। निर्देशन सेवाएँ यह ढूँढ़ने का प्रयत्न करती हैं कि कौन-कौन तत्व मिलकर छात्रों को प्रभावित करते हैं।

2. कार्यक्रम के प्रयोजन

 उद्देश्य निश्चित कर लेने के उपरान्त निर्देशन सेवा को संगठित करने का दूसरा सिद्धान्त कार्यक्रम के प्रयोजन निश्चित करना है। कार्यक्रम के कार्यों का लक्ष्य उन निश्चित उद्देश्यों को प्राप्त करना होगा। निर्देशन कार्यक्रम स्थिर नहीं रहता है। यह भी समय तथा परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। हमारे देश में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से अनेक परिवर्तन हो रहे हैं। नये उद्योग-धन्धे देश में स्थापित हो रहे हैं। ग्रामीण जनता नगरों की ओर आकर्षित हो रही है। यातायात के मार्ग एवं साधनों का विस्तार हो रहा है। इसके अनुसार केही विद्यालयों में निर्देशन के लक्ष्य तथा कार्य परिवर्तित होते रहते हैं। निर्देशन कार्यक्रम में लचीलापन अवश्य होना चाहिये।

3. उत्तरदायित्व निश्चित करना 

 निर्देशन कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये सभी अध्यापकों का सहयोग प्राप्त होना चाहिये। निर्देशन कार्यक्रम में अध्यापकों का सहयोग प्राप्त करने के लिये विद्यालय के प्रत्येक अध्यापक की निर्देशन में रुचि और योग्यताओं का पता लगाना आवश्यक होता है। क्योंकि अध्यापकों की रुचि एवं योग्यताओं के आधार पर ही उनको उत्तरदायित्व या कर्तव्य (duties) दिया जाता है, प्रत्येक अध्यापक को अपने निर्देशन सम्बन्धी कार्य से परिचित होना चाहिये। ये कार्य अध्यापकों की क्षमताओं के आधार पर होने चाहिये।

4. निर्देशन कार्यक्रम का मूल्यांकन

 निर्देशन कार्यक्रम प्रारम्भ करने के बाद उसकी प्रगति तथा उपयुक्तता का मूल्यांकन करना होता है। इस मूल्यांकन का उद्देश्य यह ज्ञात करना होगा कि जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये कार्यक्रम संगठित किया गया, उसमे कहाँ तक सफलता प्राप्त हुई। मूल्यांकन का दूसरा उद्देश्य यह देखना है कि कार्यक्रम समय के अनुकूल है या नहीं। सामाजिक अवस्था छात्रों की आवश्यकताओं एवं निर्देशन विधियों में निरन्तर परिवर्तन होने से निर्देशन भी सदैव परिवर्तित होता रहता है। निर्देशन कार्यकर्ता को इन परिवर्तनों के प्रति सजग रहना चाहिये जिससे कार्यक्रम में आवश्यकतानुसार नवीन परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तन कर सके।

5. छात्र, अभिभावक और समुदाय के सहयोग को संगठन में प्रोत्साहन मिलना चाहिये। 

6. निर्देशन की सभी सेवाओं का संगठन विद्यालय की परिस्थिति तथा आर्थिक संसाधनों के आधार पर होना चाहिये।

निर्देशन सेवा संगठन का क्षेत्र  

यहाँ पर शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर निर्देशन सेवा संगठन का रूप दिया जायेगा। एक बात ध्यान देने योग्य है कि कोई निर्देशन सेवा संगठन सभी विद्यालय में उपयोगी नहीं हो सकती है। अतः इसमें लचीलापन होना आवश्यक है जिसमें विद्यालय की आवश्यकताओं तथा आर्थिक साधनों के अनुरूप परिवर्तन किया जा सके। 

1. प्रारम्भिक विद्यालयों की निर्देशन सेवा संगठन 

प्राथमिक विद्यालयों में अध्ययन करने वाले बालकों की समस्याएँ कम होती है एवं अधिक गम्भीर भी नहीं होती हैं। अतः इस स्तर पर निर्देशन कार्य अध्यापक ही सम्पन्न करता है. किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता नहीं होती है। निम्न रेखाचित्र प्राथमिक विद्यालय पर निर्देशन सेवा संगठन को स्पष्ट करता है--

ORGANISATION OF SCHOOL GUIDANCE SERVICE

प्राथमिक स्तर पर निर्देशन सेवा संगठन का प्रशासन विद्यालय के हाथों में होता है। कक्षाध्यापक छात्रों के अधिक सम्पर्क में रहता है, अतः वह उनकी समस्याओं को भी भली-भाँति समझता है। निर्देशन कार्य को पूर्ण करने के लिये अध्यापक एवं प्रधानाचार्य सामाजिक संस्थाओं एवं विद्यालय के बाहर की संस्थाओं की सहायता भी लेते हैं। माता-पिता, चिकित्सक, उपस्थिति अधिकारी (Attendance Of- ficer) आदि सभी का सहयोग प्राप्त करना होता है।

प्राथमिक स्तर पर निर्देशन कार्यक्रम के प्रयोजन - प्राथमिक विद्यालय में निर्देशन कार्यक्रम के अग्रलिखित प्रयोजन हो सकते हैं-

1. व्यक्तिगत छात्रों की आवश्यकताओं, समस्याओं एवं गुणों का अवलोकन ।

2. अवलोकित तथ्यों का संकलित आलेख- पत्र में लेखन करना। 

3. उन छात्रों को पहचानना जो विद्यालय से बाहर की समस्याओं से ग्रसित होते हैं। उदाहरण के लिये-

(अ) वे छात्र जो सामाजिक या सांवेगिक समायोजन नहीं कर पाते।

 (आ) वे छात्र जो शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं से ग्रसित होते है। इनका ज्ञान साफल्य परीक्षा द्वारा होता है।

(इ) कुछ छात्र अधिक या कम मानसिक योग्यता के कारण विद्यालय के नियमित कार्यक्रम में समायोजित नहीं हो पाते हैं। ऐसे छात्र बुद्धि परीक्षा द्वारा ज्ञात किये जा सकते हैं। 

(ई) कुछ छात्रों का स्वास्थ्य खराब होता है।

4. माता-पिता एवं विद्यालय के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित करना।

 5. उपस्थित अधिकारी के साथ सहयोग, जिससे अधिक अनुपस्थित रहने वाले छात्रों का अध्ययन हो सके।

6. छात्र के विकास का निरन्तर मूल्यांकन ।

7. सभी अध्यापकों का सहयोग |

2. माध्यमिक विद्यालय की निर्देशन सेवा संगठन

प्राथमिक विद्यालयों की अपेक्षा माध्यमिक विद्यालय में निर्देशन सेवा संगठन निश्चित रूप धारण कर लेती है। इस स्तर पर संगठत कुछ जटिल हो जाता है। माध्यमिक स्तर पर निर्देशन सेवा संगठन का निम्नांकित चित्र हो सकता है-

विद्यालय निर्देशन

उपर्युक्त रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट है कि निर्देशन समिति एवं परामर्शदाता माध्यमिक विद्यालयों में निर्देशन कार्य में प्रधानाचार्य की सहायता करते है। अध्यापक को माता-पिता एवं निर्देशन समिति से भी सम्पर्क स्थापित करना होता है। परामर्शदाता मुख्य व्यक्ति होता है जो निर्देशन कार्य में केन्द्रीय स्थान प्राप्त करता है।

3. उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की निर्देशन सेवा संगठन 

 माध्यमिक शिक्षा आयोग के प्रतिवेदन के आधार पर भारत के कुछ प्रान्तों में उच्चतर माध्यमिक विद्यालय स्थापित किये गये हैं। इन उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में छात्रों को मुख्यतः निर्देशन सहायता की आवश्यकता है। इसी समय छात्र विभिन्न व्यवसायों के बारे में ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं या विश्वविद्यालय शिक्षा प्राप्त करने के लिये कॉलेजों या विश्वविद्यालय के सम्बन्ध में सूचना प्राप्त करना चाहते हैं। अतः इन विद्यालयों में निर्देशन क्रियाओं एवं निर्देशन कर्मचारियों की अधिकता होती है। उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में निर्देशन सेवा संगठन का निम्न रूप हो सकता है ---

ORGANISATION OF SCHOOL GUIDANCE SERVICE

उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में प्रधानाचार्य पर कार्य भार अधिक होने से वह निर्देशन विभाग पर विशेष ध्यान नहीं दे पाता है अतः निर्देशन कार्य के संगठन का काम निर्देशन संचालक को सौंप देता है। निर्देशन कार्य में कक्षाध्यापक, कक्षा-परामर्शदाता आदि सभी सहयोग देते हैं। इस स्तर पर विशेषज्ञों की विशेष रूप से आवश्यकता होती है।

विद्यालय निर्देशन सेवा संगठन के आधारभूत विचार

निर्देशन के क्षेत्र में कार्य करने वाले विद्वान हक्री और ट्रैक्सलर ने अपनी पुस्तक 'गाइडेन्स सर्विसेज' में विद्यालय-निर्देशन सेवा संगठन की सात आधारभूत बातों का उल्लेख किया है- 

1. विद्यालय निर्देशन सेवा संगठन -

निर्देशन कार्यक्रम के उद्देश्यों का स्पष्ट निर्धारण विद्यालय निर्देशन- सेवा संगठन के समय कर लिया जाना चाहिये। ये उद्देश्य विद्यार्थी समुदाय की आवश्यकताओं तथा शिक्षण संस्था के आदर्श को ध्यान में रखते हुये भली प्रकार विचार कर निश्चित किये जायें।

2. कार्य निर्धारण - 

निर्देशन सेवा के द्वारा पूरे किये जाने वाले कार्यों को निश्चित किया जाना चाहिये।

3. निश्चित कार्य सौंपना- 

निर्देशन सेवा में लगे कर्मचारियों को निश्चित कार्य सौंपे जाने चाहिये प्रत्येक कर्मचारी की विशेष योग्यता को ध्यान में रखते हुये कार्यों का वितरण किया जाना चाहिये।

4. अधिकार क्षेत्र का निर्धारण-

निर्देशन कर्मचारी को सौंपे गये कार्य के अनुसार उसका अधिकार क्षेत्र भी निश्चित होना चाहिये।

5. कर्मचारियों की परिभाषा-

निर्देशन सेवा में पूर्णकालिक एवं अंशकालिक कर्मचारियों के सम्बन्धों की स्पष्ट परिभाषा की जानी चाहिये। इसके अतिरिक्त संस्था के अन्य कर्मचारियों के साथ उनके निर्देशन - उत्तरदायित्वों के अनुरूप सम्बन्धों का रूप निश्चित होना चाहिये।

6. संगठन का स्वरूप-

निर्देशन- संगठन का स्वरूप संस्था के उद्देश्यों, गुणों, कर्मचारियों की संख्या, आकार एवं आर्थिक साधनों के अनुरूप हो।

 7. सरल संगठन -

जहाँ तक सम्भव हो, विद्यालय निर्देशन सेवा का संगठन जटिल न हो। उसका कार्यक्रम यथासम्भव सरल रखने का प्रयत्न किया जाये। जटिल और विस्तृत संगठन- योजनाएँ देखने में तो आकर्षक लग सकती है, किन्तु विद्यालय की सीमाओं को देखते हुये उनका सफलतापूर्वक क्रियान्वयन संदिग्ध रहता है।

विद्यालय निर्देशन सेवा द्वारा किये जाने वाले मुख्य कार्य

विद्यालय- निर्देशन-सेवा के संगठन के आधारभूत सिद्धान्तों पर विचार करते हुये यह कहा गया है। कि निर्देशन- सेवा के अन्तर्गत आने वाले कार्यों का निश्चय निर्देशन सेवा को संगठित करते समय कर लिया जाना चाहिये। यो तो निर्देशन का क्षेत्र व्यापक है, किन्तु विद्यालय जीवन से सम्बद्ध कुछ विशिष्ट कार्य ऐसे होते हैं जिन पर निर्देशन- सेवाएँ विशेष ध्यान देती है।

1. नियम निर्देशन - 

निर्देशन सेवा के विशिष्ट कार्यों में विद्यालय में प्रवेश एवं विद्यालय के जीवन की ओर अभिमुख करने का कार्य सर्वप्रथम है। प्रवेश सम्बन्धी नियमों, शुल्क, अर्हताएँ, समय आदि अनेक सूचनाएँ निर्देशन सेवा सुलभ करती है। 

2. व्यवस्थित रूप से अभिलेख रखना- 

विद्यार्थियों से सम्बन्धित अभिलेख (students records), उनकी प्रगति एवं मूल्यांकन सम्बन्धी सूचनाएँ तथा अन्य विवरण को व्यवस्थित ढंग से रखने का कार्य भी निर्देशन- सेवा करती है। छात्रों के स्वास्थ्य (शारीरिक एवं मानसिक सम्बन्धी) निर्देशन का कार्य भी निर्देशन के विशिष्ट कार्यों के अन्तर्गत आता है। छात्रों के सामाजिक सामंजस्य, पारिवारिक कठिनाइयों एवं अवकाश सम्बन्धी निर्देशन का कार्य भी अपनी सीमाओं के अन्दर निर्देशन- सेवा को करना होता है। 

3. प्रशासकीय कठिनाइयाँ- 

प्रशासकीय कठिनाइयों, छात्रावास के जीवन एवं भोजन आदि की। व्यवस्था करने में उनकी आवश्यकताओं पर निर्देशन सेवा ध्यान दे सकती है। पाठ्येतर क्रियाकलापों में विद्यार्थियों को प्रेरित करना एवं उनकी आवश्यकता और रुचि के अनुकूल खेल-कूद, भाषण एवं अन्य प्रतियोगिताओं के आयोजन में भी निर्देशन सेवा अपना योगदान देती है।

छात्रों के अध्ययन में होने वाली कमियों, उनके कारणों तथा उनका विश्लेषण करके निर्देशन- सेवा छात्रों को शैक्षिक निर्देशन प्रदान करती है। कई बालक पढ़ने में उच्चाकरण करने एवं अध्ययन के उचित ढंगों का विकास नहीं कर पाते। उनके लिये निदानात्मक शिक्षण (Remedial teaching) की व्यवस्था निर्देशन सेवा के सहयोग से की जाती है।

4. आर्थिक सहायता -

 छात्रों की आर्थिक कठिनाइयों को दृष्टि में रखते हुये आर्थिक सहायता के स्रोतों की सूचना देना एवं अंशकालिक नियोजन (Placement) प्राप्त करना व उन्हें सहायता देना भी विद्यालय निर्देशन सेवा का कार्य है। यही नहीं, अध्ययन के बाद नियोजन प्राप्त कर लेने के बाद उनके अनुवर्ती जीवन की प्रगति एवं बाधाओं के कार्यक्रमों के औचित्य एवं उनकी सफलता के मूल्यांकन की दृष्टि से अनावश्यक है।

निर्देशन के विद्वान शा ने विद्यालयों में निर्देशन सेवाओं द्वारा किये जाने वाले कार्यों का विवरण प्रस्तुत किया है, जो अग्र प्रकार है-

1. छात्रों को पाठ्यक्रम से अधिक-से-अधिक लाभ उठाने के योग्य बनाने के लिये सेवाएँ प्रदान करना। इसकी प्राप्ति के लिये निर्देशन सेवाएँ निम्नलिखित कार्य करेगी-

(i) पाठ्यक्रम के निर्माण और सुधार में सहयोग देना,

 (ii) अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों का निदान तथा उपचार करना,

(iii) निर्देशन कार्य करने हेतु शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था करना.

(iv) पाठ्य के परिणामों का मूल्यांकन करना, 

(v) पाठ्यक्रम चयन में मदद करना।

2. छात्रों के शैक्षिक एवं व्यक्तिगत विकास के लिये सेवाएँ निम्नांकित कार्य करेंगी-

(i) अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों की पहचान करके छात्रों को उनसे बचाना तथा इस समस्या से ग्रसित छात्र का उपचार करना,

(ii) यदि आवश्यक हो तो छात्र को विशेषज्ञ के पास भेजना,

(iii) कुसमायोजित छात्रों की पहचान कर उनके कुसमायोजन को दूर करना,

 (iv) छात्रों की उनकी रुचियों के विकास में सहायता करना.

3. निर्देशन सेवा द्वारा छात्रों की शैक्षिक एवं व्यावसायिक भावी योजना के निर्माण में सहायता करना- 

(i) छात्रों की स्वयं की योग्यताओं और उपलब्धि के सन्दर्भ में उनकी व्यावसायिक महत्त्वाकांक्षाओं को समझने में सहायता करना, 

(ii) माता-पिता तथा शिक्षकों की उन तकनीकों को समझने में सहायता करना जो छात्रों की शैक्षिक और व्यावसायिक निर्णय लेने में सहायक होती हैं,

 (iii) शैक्षिक एवं व्यावसायिक नियोजन में छात्रों की सहायता करना ।

4. निर्देशन कार्यक्रम का मूल्यांकन करने में निम्नलिखित कार्य करने होंगे-

(i) निर्देशन कार्यक्रम के मूल्यांकन की योजना बनाना,

 (ii) विद्यालय में संचालित निर्देशन कार्यक्रम का मूल्यांकन करने में सहायता करना।

विद्यालय निर्देशन सेवाओं के संगठन के प्रचलित सिद्धान्त

सामान्यतः विद्यालय- निर्देशन सेवा संगठन के तीन प्रारूप पाये जाते हैं-रेखा संगठन, कर्मचारी संगठन एवं रेखा कर्मचारी मिश्रित संगठन विद्यालय अपने साधनों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप इनमें से किसी को चुन सकता है।

1. रेखा संगठन

इस प्रकार के संगठन में अधिकार क्रम से कर्मचारियों में ऊपर से नीचे तक एक सीधा स्तरीकरण होता है। उदाहरण के लिये, सबसे ऊपर मुख्य प्रशासकीय अधिकारी, उसके बाद उसके सहायक अधिकारी और उन अधिकारियों के निरीक्षण में कार्य करने वाले अधीनस्थ कर्मचारी होते है। इस संगठन का मुख्य प्रशासकीय अधिकारी अधिकार की दृष्टि से सबसे ऊपर होता है और वह अन्य अधिकारियों को कार्य सौंपने का तथा उनके पूरे होने की जाँच का कार्य करता है। इसे केन्द्रित प्रारूप भी कहते हैं।

केन्द्रित प्रारूप के लाभ - (i) शीघ्र निर्णय लेना सम्भव, (ii) विशिष्टीकरण को प्रोत्साहन, (iii) समान नीति का पालन, (iv) विभिन्न क्रियाओं में समन्वय (v) कुशल कर्मचारियों की सेवा का लाभ |

 केन्द्रित प्रारूप के दोष- (i) कर्मचारियों के मनोबल, रुचि आदि पर प्रतिकूल प्रभाव, (ii) अधीनस्थ कर्मचारियों की कार्य के प्रति उदासीनता. (iii) उतावले निर्णय की सम्भावना (iv) उच्च अधिकारियों का समय दैनिक कार्यों में व्यतीत होना।

2. कर्मचारी संगठन 

कर्मचारी संगठन में मुख्य प्रशासकीय अधिकार कार्यक्षेत्रों के शीर्ष अधिकारी को सौंपे जाते हैं। वे प्रमुख अधिकारी अपने कार्य के लिये उत्तरदायी होते हैं। इस प्रकार के संगठन से यह लाभ है कि प्रत्येक वर्ग के कर्मचारी अपने-अपने कार्यों में विशेष कुशल हो जाते हैं।

रेखा संगठन एवं कर्मचारी संगठन दोनों में ही प्रबन्ध की दृष्टि से नियन्त्रण प्रशासकीय अधिकारी के ही हाथ में होता है, किन्तु कर्मचारी संगठन में जिन कर्मचारियों को विशेष कार्यों को सौंपा जाता है उन पर एक निश्चित उत्तरदायित्व होता है और उनका एक निश्चित अधिकार क्षेत्र होता है। विशेषज्ञ यद्यपि प्रशासकीय अधिकारी के नियन्त्रण में कार्य करते हैं, किन्तु निर्देशन व्यवस्था की प्रक्रिया एवं नीति-निर्धारण में उनका महत्त्वपूर्ण हाथ रहता है। यह विकेन्द्रित प्रारूप कहलाता है।

विकेन्द्रीरण के लाभ- (i) अधीनस्थ कर्मचारियों के महत्त्व में वृद्धि, (ii) उच्च प्रबन्धकों के कार्यभार में कमी. (iii) कर्मचारियों में मनोबल बढ़ना और उत्तरदायित्व के प्रति सजगता, (iv) कार्य का शीघ्र निष्पादन. (v) कर्मचारियों के सम्बन्धों में प्रगाढ़ता।

विकेन्द्रीकरण के दोष- (i) निर्णय लेने में विलम्ब (ii) निर्णयों में एकरूपता में कमी, (iii) समन्वय और समानता समाप्त।

3. रेखा - कर्मचारी मिश्रित संगठन 

 उपर्युक्त दोनों प्रकार के संगठनों के मिश्रित रूप को रेखा कर्मचारी मिश्रित संगठन कहते है। इस प्रकार के संगठन में उपर्युक्त दोनों प्रकार की संगठन पद्धति के लाभ विद्यमान रहते हैं, पर इसका प्रयोग प्रायः बड़े आकार की शिक्षण संस्थाओं में ही किया जाता है। कर्मचारी संगठन में वे सभी कर्मचारी शामिल होते हैं जो खास तौर से निर्देशन कार्य की योजना बनाने विचार करने एवं शोध कार्य में अपना योगदान देते हैं। रेखा संगठन में सामान्य कर्मचारी एवं प्रशासकीय कर्मचारी सभी आते हैं और वे एक साथ प्रशासकीय कर्मचारी के अधीन कार्य करते हैं। यह मिश्रित प्रारूप कहलाता है।

अच्छे निर्देशन संगठन की विशेषताएँ 

 एक अच्छे और प्रभावशाली निर्देशन संगठन में निम्न विशेषताओं का होना आवश्यक है-

1. निर्देशन सेवाएँ सभी छात्रों को उपलब्ध होनी चाहिये।

2. विद्यालय के समस्त कर्मचारियों को निर्देशन सेवा के संगठन में सहयोग करना चाहिये। व्यवस्थित निर्देशन का उत्तरदायित्व प्रशिक्षित और अनुभवी कर्मचारियों का होना चाहिये।

3. निर्देशन संगठन छात्र केन्द्रित होना चाहिये। तभी छात्र को स्वयं की योजनाओं का निर्माण करने, कार्यान्वित करने तथा सफलता प्राप्त करने में निर्देशन सहायक हो सकता है।

 4. निर्देशन संगठन को जनतंत्रात्मक बनाने के उद्देश्य से निर्देशन प्राप्त करने वाले व्यक्ति को ही अन्तिम निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र रखा जाये।

5. निर्देशन संगठन को निर्देशन के लिये आवश्यक उचित और पर्याप्त सामग्री निर्देशन कर्मचारियों को उपलब्ध करवानी चाहिये।

6. अच्छा निर्देशन संगठन वह है जो शिक्षित, प्रशिक्षित और अनुभवी व्यक्तियों का निर्देशन कार्य के लिये चयन करता है और उनको अपनी योग्यता बढ़ाने के अवसर देता है।

7. अच्छे निर्देशन संगठन में गोपनीयता पर अधिक ध्यान दिया जाता है। छात्रों से सम्बन्धित गोपनीय सूचनाएँ परामर्शदाता के अधिकार में हो और उन तक किसी की पहुँच न हो सके। 

8. निर्देशन संगठन तथा उसके कार्यों को व्यवस्थित रूप में संचालित करने के उद्देश्य से विद्यालय बजट में से निर्देशन को पर्याप्त धन मिलना चाहिये।

9. निर्देशन संगठन को व्यवस्थित रूप में संचालित करने के लिये विद्यालय भवन में उसको पर्याप्त स्थान मिलना चाहिये।

10. एक अच्छे निर्देशन संगठन को समाज की अन्य एजेंसियों से सम्पर्क साधकर उनका सहयोग प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये। 

11. निर्देशन में संलग्न शिक्षकों तथा अन्य कर्मचारियों को निर्देशन कार्य के लिये पर्याप्त समय उपलब्ध करवाने का समयचक्र में प्रावधान होना चाहिये।

 12. निर्देशन कार्य की सफलता के लिये विद्यालय में प्रवेश के साथ संचयी आलेख पत्र में सूचनाएँ अंकित करना प्रारम्भ करना आवश्यक है।

विभिन्न आकार एवं स्तर के विद्यालयों में निर्देशन सेवा संगठन की योजनाओं का स्वरूप 

1. छोटे विद्यालय के लिये निर्देशन योजना की रूपरेखा 

एक छोटे विद्यालय के लिये संगठन सिद्धान्त की दृष्टि से रेखा संगठन उपयुक्त माना जाता है। प्रायः छोटे विद्यालयों के पास साधनों की कमी होती है जिसके कारण निर्देशन- सेवा के सभी कर्मचारी एवं विशेषज्ञों का प्रबन्ध करना उनके लिये कठिन होता है। फिर भी यदि तीन बातें उपस्थित हो तो छोटे विद्यालय भी निर्देशन की व्यवस्था कुशलतापूर्वक कर सकते हैं-

(i) निर्देशन के बारे में विद्यालय के अधिकारी, कर्मचारी एवं छात्र सक्रिय रूप से रुचि रखते हो।

(ii) विद्यालय के प्रधान अध्यापक निर्देशन सेवा को उत्सुकतापूर्वक नेतृत्व प्रदान करने के लिये तत्पर हों तथा वे कर्मचारी वर्ग को निर्देशन योजना बनाने एवं उसमें भाग लेने के लिये उत्साहित करने में समर्थ हों।

(iii) निर्देशन क्रिया-कलापों में समन्वय लाने एवं कार्यक्रम और अन्य लोगों को प्रेरित करने केलिये कर्मचारीगण एक समिति का निर्माण कर लें।

 एक छोटे विद्यालय के लिये रेखा संगठन का स्वरूप कुछ इस प्रकार का हो सकता है। विद्यालयों का अधीक्षक संगठन में उत्तरदायित्व एवं अधिकार की दृष्टि से सबसे ऊपर होता है फिर अधिकार, कर्तव्य-क्रम, प्रधानाचार्य, अध्यापकगण एवं छात्रों तक चलता है। किन्तु अध्यापक एवं विद्यालय की निर्देशन समिति एक-दूसरे के सहयोगी के रूप में कार्य करते हैं। उनमें से कोई भी दूसरे के अधिकार क्षेत्र में न आकर स्वतन्त्र किन्तु सहयोगपूर्ण ढंग से अपना कार्य करता है। इस प्रकार के संगठन में सभी शिक्षक निर्देशन सेवाएँ प्रदान करते हैं। वे इस कार्य को अध्यापन के माध्यम से अथवा आशिक निर्देशन- सेवाएँ प्रदान करते हुये करते है। जो अध्यापक निर्देशन- सेवा में प्रशिक्षण प्राप्त किये होते है वे विशेष रुचि लेते हैं, उनके अध्यापन कार्य को कुछ हल्का बनाकर उन्हें निर्देशन की विशेष सेवाओं को सौपा जाता है। वे कालान्तर में विशिष्ट सेवाओं के क्षेत्र में अनुभव और अध्ययन से विशेष योग्यता प्राप्त कर लेते हैं।

छोटे आकार के विद्यालय में कक्षाध्यापक सामान्य निर्देशन- सेवाएँ प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं, क्योंकि वे छात्रों को निकट से जानते हैं एवं उनके परिवेश और क्षमताओं से अधिक परिचित होते है। किन्तु कुछ समस्याएँ ऐसी आ सकती है जिनके लिये निर्देशन में विशेष योग्यता प्राप्त व्यक्ति की आवश्यकता महसूस की जा सकती है। विद्यालय में यह कार्य निर्देशन- सेवा में विशेष दक्ष अध्यापक या प्रधानाध्यापक कर सकता है। यदि इस प्रकार के विद्यार्थी को आगे और भी विशेषकृत निर्देशन की आवश्यकता होती है तो उसके लिये स्कूल प्रधानाध्यापक किसी बाहरी विशेषज्ञ की सेवाएँ प्राप्त करने की सिफारिश कर सकता है।

छोटे विद्यालय के निर्देशन संगठन में निर्देशन समिति का योगदान बड़ा महत्त्वपूर्ण है। सामान्यतः स्कूल का प्रधान ही इस समिति का प्रमुख होता है, किन्तु ऐसा करना आवश्यक नहीं निर्देशन सेवा में विशेष रुचि रखने वाले दक्ष एवं उत्साही अध्यापक को इसका प्रमुख बनाया जा सकता है। यह समिति विद्यालय के निर्देशन कार्यक्रम की योजना तैयार करने, उसे संगठित करने एवं महत्त्वपूर्ण निर्देशन सेवाओं की व्यवस्था करने तथा कर्मचारियों को कार्य सौंपने आदि आधारभूत कार्यों को करती हैं।

बड़े विद्यालय में निर्देशन सेवा योजना का स्वरूप

बड़े आकार के विद्यालयों के लिये रेखा संगठन सिद्धान्त उपयुक्त नहीं है। इस प्रकार के विद्यालयों के लिये मिश्रित रेखा कर्मचारी संगठन की आवश्यकता है।

एक बड़े विद्यालय की निर्देशन योजना इस प्रकार बनायी जा सकती है-विद्यालय अधीक्षक को सलाह प्रदान करने के उद्देश्य से सहायक अधीक्षक होते हैं। सामान्यतः ये सहायक अधीक्षक चार हो सकते हैं-

1. प्रशासकीय शोध कार्य के लिये सहायक अधीक्षक छात्रों के लिये सेवाएँ देने वाले,

2. विशिष्ट सेवाओं के लिये सहायक अधीक्षक,

3. अध्यापन सहायक अधीक्षक एवं

4. विद्यालय कर्मचारियों से सम्बन्धित सहायक अधीक्षक ।

ये चारों ही सहायक अधीक्षक सहयोगपूर्ण ढंग से आपस में कार्य करते हैं तथा विद्यालय अधीक्षक को निर्देशन योजना सम्बन्धी सिफारिशें भेजते हैं। रेखा संगठन की दृष्टि से विद्यालय अधीक्षक प्रधान अधिकारी होता है। छात्रों की सामान्य एवं विशिष्ट सेवाओं के सहायक अधीक्षक के अधीक्षक स्वास्थ्य निर्देशन एवं छात्रों के कर्मचारी वर्ग की सेवाओं के निदेशक होते हैं। अध्यापक सहायक अधीक्षक के अधीन प्रधानाचार्य कार्य करते हैं। स्वास्थ्य निदेशक, छात्रों के कर्मचारी सेवा निदेशक एवं प्रधानाचार्य में सहयोगी सम्बन्धी होते हैं और वे मिलकर कार्य करते हैं। रेखा के क्रम से स्वास्थ्य निदेशक के अधीन चिकित्सक, मनोचिकित्सक एवं नर्सों की सेवाएँ आती हैं। छात्रों के लिये आवश्यक सेवा कर्मचारियों में मनोवैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता अथवा समाज सेवक उपस्थिति अधिकारी तथा विद्यालय दर्शन के लिये आये हुये अध्यापक आते हैं। ये सभी लोग कर्मचारी सेवाओं के सहायक अधीक्षक के अन्तर्गत कार्य करते हैं। प्रधानाध्यापको के अधीन अध्यापकगण, निर्देशन विशेषज्ञ अथवा प्रधान परामर्शदाता आते हैं। स्वास्थ्य निदेशक, कर्मचारी सेवा निदेशक एवं प्रधानाध्यापक के अधीन आने वाले ऊपर वर्णित कर्मचारी सहयोगी होते हैं। वे मिल-जुलकर कार्य करते हैं, अधिकार एवं कर्तव्य की दृष्टि से किसी का भी स्थान ऊँचा या निम्न नहीं होता। निर्देशन विशेषज्ञ या परामर्शदाता के अधीन अध्यापक, अध्यापक परामर्शदाता तथा नियोजन परामर्शदाता सहयोगी के रूप में कार्य करते हैं। संक्षेप में, एक बड़े आकार के विद्यालय का निर्देशन- संगठन उपर्युक्त प्रकार से किया जा सकता है। वैसे प्रत्येक विद्यालय अपनी आवश्यकताओं एवं सीमाओं को ध्यान में रखते हुये उपर्युक्त योजना में यथावश्यक परिवर्तन कर सकता है। इस प्रकार की योजना में दो सहायक अधीक्षक, छात्रों के लिये सामान्य एवं विशिष्ट सेवाएँ देने वाले कर्मचारियों के लिये सहायक अधीक्षक तथा अध्यापन सहायक अधीक्षक, रेखा अधिकारी एवं स्टॉफ अधिकारी दोनों भूमिकाओं को निभाते हैं।

कॉलेज एवं विश्वविद्यालय स्तर पर निर्देशन सेवा संगठन की योजना की रूपरेखा

कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में छात्रों की संख्या के अनुरूप भिन्न-भिन्न ढंग से निर्देशन सेवा का संगठन किया जाता है। इस संगठन की रूपरेखा कुछ इस प्रकार की हो सकती है-कॉलेज में रेखा संगठन सिद्धान्त के अनुसार संगठन का प्रमुख ट्रस्टी बोर्ड का अध्यक्ष हो सकता है तथा विश्वविद्यालयों में उपकुलपति को प्रमुख के रूप में ग्रहण किया जा सकता है। सामान्यतः अध्यक्ष या उपकुलपति के अधीन कार्य करने वाले एवं निर्देशन कार्यक्रमों में उसे परामर्श देने के लिये 5 निदेशक होते हैं। रेखा संगठन की दृष्टि से यह निदेशक, रेखा अधिकारी एवं स्टॉफ अधिकारी दोनों की भूमिका का निर्वाह करते है। ये 5 निदेशक है-अध्यापन- निदेशक, छात्र सेवाओं के निदेशक, स्वास्थ्य सेवाओं के निदेशक, पुस्तकालय - निदेशक, आर्थिक मामलों-सम्बन्धी निदेशक। ये सभी निदेशक सहयोगी के रूप में कार्य करते हैं एवं निर्देशन सम्बन्धी विशेष परामर्श अध्यक्ष को प्रदान करते हैं। रेखा क्रम से अध्यापन-निदेशक के बाद विभिन्न अध्ययन विभागों के अध्यक्ष, तत्पश्चात् अध्यापकगण आते है। अध्ययन विभागों के अध् यक्ष एवं अध्यापक कर्मचारीगण आपस मे सहयोग एवं पारस्परिक उत्तरदायित्व की भावना से कार्य करते हैं. यद्यपि रेखा -क्रम से अध्यापन कर्मचारी अध्ययन विभाग के अध्यक्ष के अधीन कार्य करते हैं।

छात्रों की विभिन्न सेवाओं के निदेशक के अधीन रजिस्ट्रार एवं प्रवेश अधिकारी, संकाय उपबोधक, विशिष्ट परामर्श कर्मचारी डीन एवं छात्रों के क्रियाकलापों के संचालक आते हैं। ये सब पारस्परिक सहयोग एवं उत्तरदायित्व के साथ निर्देशन कार्य करते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं के निदेशक के अधीन शरीर एवं मनोचिकित्सा के सभी कर्मचारी अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करते हैं। पुस्तकालय - निदेशक के अधीन व्यावसायिक परामर्शदाता एवं नियोजन उपबोधक आते हैं तथा आर्थिक मामलों के निदेशक के अधीन छात्रों की आर्थिक समस्याओं में निर्देशन प्रदान करने वाली सेवाएँ आती हैं।

कॉलेज एवं विश्वविद्यालय स्तर पर निर्देशन- सेवाओं को संगठित करते समय प्रयत्न यह होना चाहिये कि कार्यों का वर्गीकरण इस ढंग से किया जाये कि किसी अन्य कर्मचारी द्वारा वही कार्य दुहराया न जाये। सहयोगी की भावना एवं पारस्परिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह सफल संगठन की आवश्यकता है। स्टॉफ के सभी लोगों के बीच उपयुक्त कार्य- सन्तुलन लाया जाये। अधिकारी केवल योजनाएँ बनाने में ही अपने को सीमित न समझे बल्कि वे उन योजनाओं के क्रियान्वयन में वांछित सहयोग प्रदान करते रहे।

निर्देशन सेवा संगठन की प्रारम्भिक आवश्यकताएँ

निर्देशन- सेवा समिति शिक्षण संस्थाओं में निर्देशन- सेवा के संगठन के लिये सर्वप्रथम एक निर्देशन सेवा समिति का गठन किया जाना चाहिये। इस समिति का अध्यक्ष संस्था का प्रमुख अथवा निर्देशन सेवा में विशेष दक्षता प्राप्त कोई अध्यापक हो सकता है। समिति में अन्य सदस्य निर्देशन- सेवा कार्यक्रम में विशेष रुचि रखने वाले या निर्देशन कार्यक्रम से सम्बद्ध व्यक्ति हो सकते हैं। समिति का सबसे पहला कार्य विद्यालय में पहले से उपलब्ध निर्देशन सुविधाओं का सर्वेक्षण करना है। समिति का दूसरा कार्य छात्रों की उन समस्याओं का आंकलन करना है जिनके निर्देशन की व्यवस्था की जानी है। तीसरा कार्य विद्यालय के साधनों एवं कर्मचारीगणों की निर्देशन-योग्यता एवं कार्यक्रमों में भाग लेने की रुचि का पता लगाना है।

विस्तृत सर्वेक्षण के द्वारा उपर्युक्त तीनों बातों की जानकारी प्राप्त करने के बाद समिति संगठन सिद्धान्तों के अनुरूप विद्यालय की निर्देशन योजना का प्रारूप तैयार करती है एवं कार्यक्रम के उद्देश्यों का निर्धारण करती है। इन उद्देश्यों को निर्धारित करते समय संस्था के उद्देश्यों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये। निर्देशन योजना की रूपरेखा बना लेने के बाद संगठन सिद्धान्तों के आधार पर रेखा अथवा अधिकारी कर्मचारी संगठन का मानचित्र तैयार कर लेना चाहिये। इतना कार्य पूरा कर लेने के बाद समिति अपनी संगठन योजना को विद्यालय के कर्मचारीगण तथा अधिकारी वर्ग की आम सभा में रखेगी और यदि कोई ठोस संशोधन प्राप्त हो तो उसे स्वीकार कर निर्देशन कार्यक्रम को अन्तिम रूप प्रदान किया जाता है।

निर्देशन कर्मचारियों के उत्तरदायित्व 

निर्देशन कार्य की सफलता निर्देशन कर्मचारियों पर निर्भर रहती है। निर्देशन कर्मचारियों को परस्पर सहयोग के सिद्धान्त को स्वीकार करना चाहिये। किसी भी कार्यक्रम की सफलता, उसमें संलग्न कर्मचारियों के संयुक्त प्रयत्नों पर निर्भर रहती है। निर्देशन कर्मचारियों की संख्या निर्देशन सेवाओं के संगठन की योजना द्वारा निर्धारित होती है। इसमें दो प्रकार के कर्मचारी होते हैं-

1. सामान्य कर्मचारी (The Generalislts)

2. विशेषज्ञ (The Specialists) | 

1. सामान्य कर्मचारी

 इसमें वे कर्मचारी आते हैं जो विद्यालय की निर्देशन- सेवा का निरीक्षण करते हैं। विद्यालय में इस प्रकार के प्रबन्धक या निरीक्षक मुख्यतः अग्रलिखित होते है-

(अ) अधीक्षक (Superintendent),

(ब) सहायक अधीक्षक (Assistant Superintendent),

(स) प्रधानाचार्य (Principal) |

जिस विद्यालय में निर्देशन संचालक होता है, वहाँ का प्रधानाचार्य निर्देशन सेवाओं का कार्य संचालक को सौंप देता है। सामान्य कर्मचारी एक योग्य तथा अनुभवी व्यक्ति होना चाहिये। सामान्य कर्मचारी को निम्नलिखित सिद्धान्तों के आधार पर कार्य करना चाहिये- 

1. सामान्य कर्मचारी को विद्यालय के सभी अध्यापकों से सम्बन्ध स्थापित करने चाहिये। छात्रों से भी सम्पर्क स्थापित करने का प्रयत्न करना चाहिये। 

2. सामान्य कर्मचारी को निर्देशन सेवाओं के सिद्धान्तों का भी ज्ञान होना आवश्यक है। इसी ज्ञान के आधार पर निर्देशन कार्यक्रम में अधिक सहयोग देने की आशा सामान्य कर्मचारी से की जाती है।

3. निर्देशन- व्यवस्था में विशेषज्ञ भी अपना उत्तरदायित्व पूरा करते हैं। सामान्य कर्मचारियों का यह कर्तव्य है कि वे विशेषज्ञों को अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करें।

2. विशेषज्ञ 

 विशेषज्ञ वे व्यक्ति होते हैं जो निर्देशन कार्य का विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किये होते हैं, इनमें निर्देशन- संचालक, परामर्शदाता, विद्यालय मनोवैज्ञानिक आदि विशेष कर्मचारी होते हैं। इन सभी को अपने क्षेत्र का पूर्ण ज्ञान होना चाहिये।

निर्देशन व्यवस्था में निम्नलिखित कर्मचारी संलग्न रहते हैं-

(अ) प्रधानाचार्य (Principal),

(ब) निर्देशन संचालक (Director)

(स) परामर्शदाता (Counsellor )

 (द) अध्यापक (Teacher),

(य) कक्षाध्यापक (Class-room teacher),

(र) मनोवैज्ञानिक (Psychologist),

(ल) स्वास्थ्य विशेषज्ञ (Health specialist)।

 इनमें से प्रत्येक के कार्य एवं उत्तरदायित्व का वर्णन निम्न प्रकार है-

 (अ) प्रधानाचार्य - विद्यालय में प्रधानाचार्य को प्रमुख स्थान प्राप्त है। पी. सी. रेन ने विद्यालय में प्रधानाध्यापक के स्थान के सम्बन्ध में निम्नलिखित विचार प्रकट किये हैं-घड़ी में प्रधान कमानी, मशीन में प्रचक्र या जलयान में यन्त्रीकरण को जो स्थान प्राप्त है, वही स्थान किसी भी विद्यालय में प्रध धानाचार्य का है।"

प्रधानाचार्य की योग्यता, सूक्ष्म एवं प्रशासकीय क्षमता पर ही विद्यालय की प्रगति निर्भर करती है। निर्देशन प्रक्रिया शिक्षा का आवश्यक अंग स्वीकार की गयी है। अतः प्रधानाचार्य का नेतृत्व इस क्षेत्र में प्राप्त होना चाहिये। विद्यालय के निर्देशन कार्यक्रम का प्रशासकीय प्रधान प्रधानाचार्य ही होता है। कार्यभार अधिक होने से वह निर्देशन कार्यक्रम का भार किसी योग्य अध्यापक को सौंप सकता है परन्तु वह अपने नेतृत्व एवं समर्थन को किसी अन्य को नहीं सौंप सकता। प्रधानाचार्य को चाहिये कि अपने सभी अध्यापकों को निर्देशन कार्य के लिये प्रोत्साहित करे एवं सभी प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करें।

प्रधानाचार्य के निर्देशन कार्यक्रम सम्बन्धी उत्तरदायित्व - प्रधानाचार्य विद्यालय का प्रमुख अधिकारी होता है, अतः सामान्यतः वह विद्यालय की समस्त क्रियाओं को सफलतापूर्वक करने के लिये उत्तरदायी होता है। निर्देशन कार्यक्रम विद्यालय का ही अभिन्न अंग है। इसलिये निर्देशन कार्यक्रम के प्रति प्रधानाचार्य के उत्तरदायित्व का वर्णन यहाँ किया जायेगा, यथा- 

1 निर्देशन सेवाओं के संगठन में नेतृत्व प्रदान करना। 

2. अपने विद्यालय के अध्यापकों को निर्देशन का महत्व, प्रयोजन एवं समस्याओं को समझने में सहायता देना।

 3. योग्य निर्देशन कर्मचारियों की नियुक्ति एवं कार्य वितरण करना।

4. निर्देशन क्रियाओं का निरीक्षण करना।

5. अध्यापकों एवं निर्देशन कर्मचारियों को नौकरी के समय प्रशिक्षण (Inservice training) की सुविधा प्रदान करना। 

6. निर्देशन कमेटी का निर्माण करना।

7. निर्देशन कार्य के लिये पर्याप्त समय प्रदान करना।

 8. निर्देशन कार्यक्रम के लिये धन देना।

9. परामर्श सेवा के लिये अच्छे भवन का प्रबन्ध।

 10. निर्देशन कार्यक्रम के प्रभाव का मूल्यांकन अध्यापकों के सहयोग से करना ।

11 बालकों के माता-पिता को निर्देशन सेवाओं से परिचित रखना।

प्रधानाचार्य का महत्त्व 'शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन पत्रिका' में भी स्पष्ट किया गया है-

 प्रधानाचार्य या प्रधानाध्यापक अपने विद्यालय के निर्देशन कार्यक्रम का मुख्य व्यक्ति (Keyman) होता है। उसको उसके उद्देश्यों के साथ सहानुभूति रखनी चाहिये तथा अपनी हार्दिक सहायता प्रदान करनी चाहिये

प्रत्येक विद्यालय में प्रधानाचार्य को आज की परिवर्तित परिस्थितियों में निर्देशन की आवश्यकता अनुभव करनी चाहिये। इसके उपलब्ध साधनों के आधार पर उसको निर्देशन कार्यक्रम की योजना बनानी चाहिये।

प्रधानाचार्य को विद्यालय में एक निर्देशन समिति बनानी चाहिये। प्रधानाचार्य स्वयं इस समिति का प्रधान रहेगा। सभी सदस्य मिलकर निर्देशन क्रियाएँ निश्चित करेंगे। समय-समय पर यह समिति मूल्यांकन द्वारा निर्देशन क्रिया की उपयुक्तता (Worthwhileness) निश्चित करेगी। निर्देशन समिति में सदस्यों का चुनाव बड़ी सावधानी से करना चाहिये। उन अध्यापकों को ही समिति का सदस्य बनाया जाये जो निर्देशन में कुछ रुचि तथा योग्यता रखते हों।

अध्यापकों को निर्देशन कार्य का प्रशिक्षण देने के लिये प्रधानाचार्य को नौकरी वालों की शिक्षा (Inservice education) का आयोजन करना चाहिये। इस कार्य के लिये विभागीय मीटिंग करनी चाहिये। इसमें किसी योग्य व्यक्ति को आमन्त्रित किया जा सकता है जो निर्देशन के क्षेत्र में ज्ञान रखता हो। विद्यालयों में ही अध्यापकों के लिये अंशकालीन पाठ्यक्रम संगठित किये जायें। 

प्रधानाचार्य का उत्तरदायित्व है कि निर्देशन कार्यक्रम के लिये सभी सुविधाएँ उपलब्ध करे। निर्देशन कार्यालय की व्यवस्था करे। उसके लिये पर्याप्त फर्नीचर प्रदान करे। सभी प्रकार की सामग्री खरीदने के लिये पर्याप्त धन जुटाये। भारत में धनाभाव के कारण सभी भौतिक सुविधाएँ प्राप्त नहीं हो पाती है। 

अध्यापकों को निर्देशन कार्य का उत्तरदायित्व देते समय उनके कार्यभार पर ध्यान दिया जाये। जिन अध्यापकों को निर्देशन कार्य सौपा जाये उनको शिक्षण कार्य कम दिया जाये। छात्रों तथा अध्यापको के समय चक्र में कुछ घण्टे खाली रखे जायें, जिससे वे निर्देशन सुविधाओं का लाभ उठा सके।

प्रधानाचार्य को विद्यालय कार्य की भाँति निर्देशन क्रियाओं का भी निरीक्षण करना चाहिये। परामर्शदाता।के सुझावों के अनुसार पाठ्यक्रम आदि में परिवर्तन के लिये तैयार रहना चाहिये।

निर्देशन संचालक के उत्तरदायित्व

विद्यालय में निर्देशन की विभिन्न सेवाएँ कार्य करती है। निर्देशन कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चलाने के लिये आवश्यक है कि विभिन्न सेवाएँ निर्देशन संचालन द्वारा समन्वित कर दी जाएँ। संचालक के निम्नलिखित उत्तरदायित्व होते हैं-

1. प्रधानाचार्य की स्वीकृति एवं अपने अध्यापक मण्डल के सहयोग से संचालक निर्देशन नीतियाँ स्थापित करता है।

2. निर्देशन कार्यक्रम की क्रियाओं से अध्यापकों को परिचित रखता है।

 3. समायोजन की कठिन समस्याओं को सुलझाने में वह अध्यापकों की सहायता करता है।

4. निर्देशन क्रियाओं का निरीक्षण करना भी संचालक का कार्य है।

 5. वह सामाजिक संस्थाओं एवं विद्यालय के मध्य एक मध्यस्थ का कार्य करता है।

6. वह छात्रों के माता-पिता से सम्पर्क स्थापित करता है, बालकों की रुचियों एवं समस्याओं के सम्बन्ध में माता-पिता से बातचीत करता है। 

7. संचालक के निर्देशन कार्यक्रम की प्रगति में अपना नेतृत्व प्रदान करना चाहिये।

अध्यापकों के निर्देशन सम्बन्धी कार्य एवं उत्तरदायित्व

अध्यापक छात्रों के अधिक निकट सम्पर्क में आता है। वह छात्रों का अध्ययन विभिन्न परिस्थितियों में करता है। अध्यापक को छात्रों की आवश्यकताओं एवं समस्याओं का अच्छा ज्ञान होता है। अतः निर्देशन कार्य में अध्यापक अधिक सहयोग दे सकता है। अध्यापकों के अधोलिखित उत्तरदायित्व हो सकते है- 

1. छात्रों के साथ अध्यापकों को व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करना चाहिये।

2. छात्रों के अधिक विकास के लिये परिस्थितियाँ प्रदान करनी चाहिये।

3. अध्यापकों को कुसमायोजित छात्रों का पता लगाना चाहिये।

4. अध्यापकों को छात्रों के माता-पिता एवं सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्ध स्थापित करना चाहिये।

5. जिन छात्रों को सीखने में कठिनाई अनुभव होती है, वे परामर्शदाता के पास भेज दिये जायें।। 6. अध्यापकों को चाहिये कि छात्रों को पुस्तकालय का उचित उपयोग करना सिखायें।

7. अध्यापक जिन छात्रों का साक्षात्कार लेते हैं उनका प्रतिवेदन निर्देशन विभाग को भेजते है।

 8. अध्यापक को पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था करने का उत्तरदायित्व अनुभव करना चाहिये।

9. अध्यापकों को अपने विष से सम्बन्धित जीविकाओं एवं शैक्षिक अवसरों की सूचनाएँ छात्रों को दे देनी चाहिये।

10. अध्यापकों को निर्देशन कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये प्रधानाचार्य एवं परामर्शदाता को अपना पूर्ण सहयोग देना चाहिये।

11. अध्यापक को छात्रों की परीक्षायें लेने में सहयोग देना चाहिये।

कक्षा अध्यापक के कार्य

चिजहोम ने कक्षाध्यापक के सम्बन्ध में विचार प्रकट करते हुये लिखा है, "जिन विद्यालयों में कक्षाध्यापक निर्देशन सम्बन्धी उत्तरदायित्वों को स्वीकार करता है वहाँ पर उससे शिक्षण और निर्देशन सम्बन्धी उत्तरदायित्वों में विभाजन सम्भव नहीं है। अध्यापक छात्रों की स्वयं की योग्यताओं को समझने के कार्य का चुनाव करके, अपनी प्रगति का मूल्याकन करने में सहायता करता है। निर्देशन कार्यक्रम एवं कक्षाध्यापक में निकट सम्बन्ध होना चाहिये। अध्यापक छात्रों का विभिन्न परिस्थितियों में अवलोकन करता है। उस पर छात्रों से सम्बन्धित निम्नलिखित कार्यों का दायित्व होता है, अतः वह निम्न तथ्य निर्देशन कर्मचारियों को दे सकता है-

 1. कक्षाध्यापकों को अपनी कक्षा के छात्रों के बारे में अच्छा ज्ञान होना चाहिये। इसके लिये अध्यापक को छात्रों के संकलित आलेख पत्र का सहारा लेना होगा।

 2. कक्षाध्यापक को अपनी कक्षा में अच्छा वातावरण उत्पन्न करना चाहिये, जिससे छात्र अपने को ही व्यक्त करने की स्वतन्त्रता अनुभव करें।

3. अध्यापक को चाहिये कि कुसमायोजित छात्र को विशेषज्ञ के पास भेज दें।

4. कक्षाध्यापक को परामर्श प्रक्रिया का ज्ञान होना चाहिये, जिससे वह छात्रों को व्यक्तिगत दे सके।

5. कक्षाध्यापक को अन्य निर्देशन कर्मचारियों को अपना सहयोग देना चाहिये।

मनोवैज्ञानिक के निर्देशन सम्बन्धी कार्य

असाधारण बालकों को सुधारने, उनकी समस्याओं को समझने के लिये मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता होती है। बड़े-बड़े विद्यालयों में पूरे समय के लिये मनोवैज्ञानिक नियुक्त किये जाते हैं। मनोवैज्ञानिक निम्नलिखित कार्य करता है-

1. सामूहिक या व्यक्तिगत परीक्षाओं का प्रशासन,

2. परीक्षाफल की व्याख्या करना.

3. हीन ( Inferior) या उत्कृष्ट (Superior) बालकों का निदान और उपचार करना। 

स्वास्थ्य विशेषज्ञ के कार्य

जैसा कि कहा जाता है, स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है, उचित ही है। अतः विद्यालय में सभी छात्रों के स्वास्थ्य की जाँच समय-समय पर चिकित्सक द्वारा की जानी चाहिये। विद्यालय में अधिक से अधिक स्वास्थ्य सेवाओं की व्यवस्था होनी चाहिये। एक बड़े तथा सम्पन्न विद्यालय में स्वास्थ्य विभाग हो सकता है जिसमें चिकित्सक तथा नर्स हो सकते है। विद्यालय में दन्त चिकित्सक को आमंत्रित करके छात्रों के दाँतों की जाँच करवानी चाहिये।

भारत के विद्यालयों में निर्देशन सेवाओं के गठन की समस्याएँ 

 भारत में अनेक कठिनाइयों के कारण यहाँ विद्यालयों में निर्देशन सेवाओं का गठन नहीं हो पा रहा. है। निर्देशन सेवाओं के गठन में जिन बाधाओं के कारण समस्या पैदा हो रही है. ये निम्नलिखित हैं-

 1. निर्देशन के प्रति चेतना का अभाव 

भारतवर्ष के विद्यालयों में अभी तक शिक्षा का उद्देश्य पाठ्यक्रम को पूरा कराना है। यहाँ बाल केन्द्रित शिक्षा के अभाव के कारण शिक्षक, प्रधानाध्यापक छात्र आदि में निर्देशन के प्रति चेतना जाग्रत नहीं हो सकी है।

2. निर्देशन में प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव 

विद्यालयों में निर्देशन में प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी के कारण विद्यालयों में निर्देशन सेवाओं का गठन नहीं हो सका है। निर्देशन के लिये योग्य, प्रशिक्षित तथा धैर्यशील व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। इनके बिना जरा सी असावधानी एक व्यक्ति के जीवन को बदल सकती है।

3. शिक्षकों पर कार्य भार की अधिकता

भारतवर्ष के विद्यालयों में शिक्षक छात्र का अनुपात अधिक होना, शिक्षकों को चुनाव और जनगणना सम्बन्धी कार्यों में लगाना तथा प्रति सप्ताह 40 कालांश में शिक्षण करना आदि ऐसे कार्य है जिनके कारण वह निर्देशन सेवाओं के गठन में रुचि नहीं ले पाता है। 

4. अशिक्षित और रूढिवादी माता-पिता 

अधिकांश माता-पिता के अशिक्षित और रूढ़िवादी होने से भी विद्यालयों में निर्देशन सेवाएँ गठित नहीं हो सकी है।व्यवसाय चयन में माता-पिता अपना निर्णय बालकों पर थोपते है। 

5. निर्देशन के संसाधनों की कमी

 निर्देशन में आवश्यक संसाधन और उपकरणों की कमी भी निर्देशन सेवाएं गठित करने में समस्या पैदा करते है।

6. विद्यालयों में छात्र जनसंख्या विस्फोट

शिक्षा को अनिवार्य करने के कारण विद्यालयों में छात्रों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि उनके लिये निर्देशन सेवा की व्यवस्था करना प्रशासकों के लिये कठिन कार्य है।

7. विद्यालयों की दयनीय आर्थिक दशा 

विद्यालयों में अर्थाभाव निर्देशन सेवा गठित करने में सबसे बड़ी बाधा है।

8. भारतीय सन्दर्भ में परीक्षणों का अभाव

भारत में मानकों के अनुरूप प्रभावीकृत परीक्षणों की कमी के कारण भी निर्देशन सेवाएँ गठित करना कठिन हो रहा है।

9. निर्देशन संस्थाओं और विद्यालयों में सहयोग की कमी 

निर्देशन संस्थाओं और विद्यालयों में सहयोग की कमी से भी निर्देशन सेवाओं का गठन विद्यालयों में नहीं हो पा रहा है।

निर्देशन सेवाओं के संगठन की समस्याओं के समाधान के उपाय 

निर्देशन सेवाएँ प्रारम्भ करने के लिये निम्नांकित उपाय फलीभूत हो सकते हैं-

1. राज्य निर्देशन ब्यूरो द्वारा शिक्षको के प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिये।

2. प्रत्येक जिले में एक या दो विद्यालयों में निर्देशन सेवाओं की व्यवस्था की जाये जो अन्य विद्यालयों के लिये आदर्श रूप में कार्य करेगा।

3. शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम को निर्देशनोन्मुखी बनाया जाये।

4. विद्यालयों में निर्देशन सामग्री सरकार द्वारा उपलब्ध करवायी जाये।

5. अभिभावकों के लिये नवाचार कार्यक्रम की व्यवस्था की जाये।

6. आर्थिक सहायता सरकार द्वारा दी जाये।

7. निर्देशन संस्थाओं और विद्यालयों का सहयोग बढ़ाया जाये।

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