वैयक्तिक निर्देशन का अर्थ, परिभाषा, समस्याएं एवं निर्देशन का स्वरुप

वैयक्तिक निर्देशन -PERSONAL GUIDANCE :

वैयक्तिक निर्देशन,आधुनिक मानव का जीवन जटिलताओं से युक्त होने के कारण उसे अनेक समस्याओं का सामन करना पड़ता है। मनुष्य के वैयक्तिक जीवन से सम्बन्धित समस्याएँ उसके जीवन के विविध पक्षों से जुड़े होती है। 
    अतः मानव के वैयक्तिक जीवन के चार प्रमुख पक्ष सामाजिक, पारिवारिक, शारीरिक और मानसिक हैं। व्यक्ति इन सभी क्षेत्रों में उत्पन्न समस्याएँ जैसे-स्वास्थ्य, संवेग, धार्मिक, सामाजिक सामंजस्य आदि व्यक्ति के जीवन में अधिकतम सम्भव सामंजस्य स्थापित करने में बाध बनाती है। फलतः उसका जीवन दुःखी हो जाता है। हताशा, निराशा, भय आतंक आदि समस्याएँ उसको और दुःखी करने लगती है। ऐसी स्थिति में वैयक्तिक निर्देशन उसकी सहायता करता है और उसे सामंजस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिये तैयार करता है।

    व्यक्ति की कुछ समस्याएँ उसके वैयक्तिक जीवन से सम्बन्धित होती हैं जिनके लिये समुचित निर्देशन शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन के अन्तर्गत सम्भव नहीं है। व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से जुडी समस्याओं के समाधान हेतु व्यक्ति की जो सहायता की जाती है वह वैयक्तिक निर्देशन कहलाती है। विश्व में कुछ व्यक्ति भावनात्मक दृष्टि से कम विचलित होकर वे बुद्धिमानी और व्यावहारिक रीति से अपनी शारीरिक और सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा कर लेते हैं। अन्य कुछ व्यक्ति सामान्य दशाओं या कार्यविधियों में तनिक विघ्न आ जाने पर विचलित हो जाते हैं। वे अत्यन्त भावुक होने से शीघ्र ही हताश हो जाते हैं। ऐसे लोगों के लिये जीवन उलझी हुई समस्याओं का चक्र मात्र है। ऐसे व्यक्ति के लिए चाहे वह किसी आयु का हो व्यक्तिगत निर्देशन की सहायता की आवश्यकता पड़ती है।

    वैयक्तिक निर्देशन का अर्थ एवं परिभाषा

    मानव अपने जीवन के विविध पक्षों से जुड़ी नित नवीन आवश्यकताओं को अनुभव करता है और उनको पूरा करने का भरसक प्रयास करता है। आवश्यकताओं की पूर्ति में उत्प्रेरक सहायता करते हैं। लेकिन उत्प्रेरकों के अभाव में जब वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में असफल होता है तो हताशा.. निराशा, विषाद, भय आदि उस पर हावी होकर जीवन को नरक बना देते हैं। ऐसी स्थिति से उसको विशिष्ट सहायता की आवश्यकता होती है। यह विशिष्ट सहायता उसके व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं को हल करने के उद्देश्य से प्रदान की जाती है। अतः इसे व्यक्तिगत निर्देशन कहते है। यहाँ व्यक्तिगत निर्देशन को समझने के लिये कुछ विद्वानों की परिभाषाओं पर विचार करना उपयुक्त होगा-

    सी. वी. गुड के अनुसार -" निर्देशन का वह पहलू जो व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत आदतों मनोवृत्तियों और आन्तरिक वैयक्तिक समस्याओं के समाधान हेतु सहायता प्रदान करता है, वैयक्तिक निर्देशन कहलाता है।" 

    क्रो और क्रो- "वैयक्तिक निर्देशन वह सहायता है जो व्यक्ति को जीवन के समस्त क्षेत्रों में रवैयों और व्यवहार के विकास में श्रेष्ठ सामंजस्य स्थापित करने के लिये दी जाती है।"

    उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि वैयक्तिक निर्देशन से प्रयोजन व्यक्ति के शारीरिक, संवेगात्मक, सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास और समायोजन में सहायता देना है। इस प्रकार वैयक्तिक निर्देशन उन पक्षों पर विशेष रूप से ध्यान देता है जिन पर शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन कम ध्यान देते हैं और जो व्यक्ति की वैयक्तिक एवं सामाजिक समंजन की कठिनाइयों से सम्बन्धित होती हैं।

    सामान्य वैयक्तिक समस्याएँ

    निर्देशन के क्षेत्र में शोध करने वाले विद्वानों ने युवकों की समस्याओं का व्यापक अध्ययन किया है। इस अध्ययन के आधार पर उन्होंने जीवन में प्राय: उपस्थित होने वाली समस्याओं का वर्गीकरण शैक्षिक, व्यावसायिक एवं वैयक्तिक क्षेत्रों के अन्तर्गत किया है। मूनी (रास एल. मूनी) एवं रेमर्स ( एच. एच. रेमर्स) आदि के अध्ययन के आधार पर व्यक्तिगत समस्याओं को सात वर्गों में रखा जा सकता है-

    1. स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास सम्बन्धी समस्याएँ 

     वैयक्तिक समस्याओं में स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास सम्बन्धी समस्याएँ प्रमुख हैं। किसी रोग या शारीरिक कमजोरी के निदान के लिये व्यक्ति को डॉक्टर से निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।

     2. सामाजिक सम्बन्धों से जुड़ी हुई समस्याएँ

    सामाजिक समायोजन में उत्पन्न होने वाली कठिनाइयाँ इस वर्ग के अन्तर्गत आती हैं। व्यक्ति किस सीमा तक सामाजिक, नागरिक एवं मनोरंजन के कार्यों में भाग लेता है, किस प्रकार के व्यक्तियों में वह रुचि प्रदर्शित करता है एवं किस प्रकार के व्यक्तियों से उसे अरुचि है, सामाजिक सम्बन्धों में कहाँ तक अपने व्यवहार को सन्तोषप्रद पाता है आदि समस्याएँ इस वर्ग के अन्तर्गत आती है। 

    3. पारिवारिक जीवन एवं पारिवारिक सम्बन्धों से सम्बन्धित समस्याएँ

    पारिवारिक स्थिति का व्यक्ति के जीवन निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान है। व्यक्ति के माता-पिता, भाई-बहन तथा घर के अन्य रिश्तेदारों के साथ सम्बन्धों का स्वरूप कैसा है, उनसे उत्पन्न होने वाली समस्याएँ पारिवारिक समस्याओं में आती हैं।

     4. संवेगात्मक व्यवहार से सम्बन्धित समस्याएँ

    संवेगात्मक समस्याएँ अपेक्षाकृत अधिक जटिल होती हैं और व्यक्ति के जीवन के सभी पक्षों पर इनका प्रभाव अधिक पड़ता है। विभिन्न परिस्थितियों में व्यक्ति की संवेगात्मक अभिव्यक्ति एवं प्रतिक्रिया के स्वरूप, संवेगात्मक स्थिरता एवं आत्म-विश्वास इत्यादि की समस्याएँ इस वर्ग में आती है।

     5. आर्थिक समस्याएँ 

    आर्थिक सम्पन्नता व्यक्ति के जीवन को सुखमय बनाने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। आर्थिक समस्याओं के निराकरण के लिये समुचित निर्देशन की आवश्यकता होती है धन की कमी, सुखी आर्थिक जीवन के लिये किये जाने वाले कार्य से सम्बन्धित समस्याएँ आर्थिक समस्याओं के वर्ग में रखी जा सकती है।

    6. धर्म, चरित्र, आदर्श और मूल्यों से सम्बन्धित समस्याएँ 

    मानव आध्यात्मिक प्रकृति का होता है। परवर्तित सामाजिक परिवेश में धर्म, चरित्र, आदर्श और मूल्यों की समस्याएँ भी व्यक्ति के सामने आती हैं। इस प्रकार की समस्याएँ इस वर्ग में सम्मिलित की जाती है।

    7. यौन, प्रेम एवं विवाह सम्बन्धी समस्याएँ

    जीवन में काम (sex) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। काम से सम्बन्धित समस्याएँ उचित निर्देशन की अपेक्षा रखती हैं।

    वैयक्तिक निर्देशन के आधारभूत सिद्धान्त

     वैयक्तिक निर्देशन के सिद्धान्त निम्नलिखित है-

    1. व्यक्ति की अनेक समस्याओं में अन्तर्सम्बन्ध होता है। 

    2. व्यक्तित्व अखण्डित एवं जटिल होता है।

    3. वैयक्तिक समस्याओं की उत्पत्ति प्रत्यक्ष और परोक्ष कारणों से होती है।

    4. वैयक्तिक समस्याओं के साथ संवेगात्मक पहलू भी होता है।

    5. व्यक्ति को अपनी समस्याओं के समाधान के लिये अपनी अन्तर्दृष्टि विकसित करनी चाहिये।

    6. व्यक्ति की समस्या समाधान के प्रति निजी धारणा समस्या के समाधान का हल खोजने में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।

    व्यक्तिगत निर्देशन का महत्त्व एवं कार्य 

    व्यक्तिगत निर्देशन का वर्तमान जटिल जीवन में महत्त्व अधिक बढ़ गया है। जीविकोपार्जन के लिये व्यक्ति परिवार से दूर रहता है जहाँ कठिन परिस्थितियों में परिवार के सदस्यों का सहारा उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार समाज में बढ़ रहे अपराध जैसे-बलात्कार, चोरी, रिश्वत खोरी, हिंसा, आत्महत्या आदि मानव के कुत्सित मनोवृत्ति और कुसमायोजन के परिणाम है। व्यक्तिगत निर्देशन मानव की कुण्ठाओं को दूर कर इस प्रकार के अपराधों को नियंत्रित करने में सहायक हो सकता है।

    व्यक्तिगत निर्देशन के कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं- 

    1. छात्रों एवं व्यक्तियों को समझाना कि मानसिक अव्यवस्था कुछ अवधि के लिये पैदा होना स्वाभाविक है।

    2. चिढ़ाये जाने पर सहिष्णु बनने में छात्र की सहायता करना।

     3. छात्र को धीरे-धीरे परालम्बन से हटकर स्वावलम्बी बनने में सहायता देना।

    4. छात्र की उसमें मैत्री भाव पैदा करने में सहायता करना।

    5. छात्र को भावात्मक नियंत्रण कला में निपुण करना।

    6. व्यक्ति को नागरिक और सामाजिक सम्बन्धों में निपुण बनने में सहायता करना।

    7. पहले प्रारम्भ किये गये स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा कार्यक्रमों में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करना।

    8. स्कूल की पाठ्य सहगामी गतिविधियों में भाग लेने के परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन से लाभान्वित होने में छात्र की सहायता करना।

    9. लड़के-लड़कियों के पारस्परिक सम्बन्धों और सेक्स के कार्य को बुद्धिमत्ता पूर्वक तथा नियन्त्रित भावना से समझने के परिणामस्वरूप प्राप्त मूल्य से छात्र को परिचित करना। 

    10. मानसिक, शारीरिक और आर्थिक दृष्टि से पंगु छात्रों को ऐसा प्रोत्साहन देना कि वे अपने भावी जीवन और व्यक्तिगत तथा सामाजिक कल्याण के संघर्ष कर सकें।

    11. शारीरिक गतिविधियों के सन्तुलित कार्यक्रम का अनुसरण में छात्रों को प्रोत्साहित करना।

    12. व्यक्ति में स्वस्थ भावनात्मक जीवन और उचित व्यवहार का विकास करना।

    13. अवकाश के समय का लाभप्रद उपयोग करने की दक्षता का विकास करना।

    14. व्यक्ति को अपनी समस्याओं के समाधान के लिये अपनी अन्तर्दृष्टि (Insight) विकसित करनी चाहिये। 

    शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर वैयक्तिक निर्देशन का स्वरूप

    बाल्यावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक व्यक्ति की वैयक्तिक समस्याओं में निर्देशन की व्यवस्था शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत होनी चाहिये। शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर वैयक्तिक निर्देशन की क्या रूपरेखा हो सकती है, इसका विवेचन हम अगले अनुच्छेदों में कर रहे है।

    1. पूर्व प्राथमिक स्तर 

    पूर्व प्राथमिक स्तर पर बच्चों को स्वास्थ्य सम्बन्धी बातों का निर्देशन दिया जा सकता है। अपने दाँतों को स्वच्छ रखना, हाथ-मुँह की स्वच्छता एवं अपने रहने के स्थान को स्वच्छ रखने की आदतें उनमें इसी स्तर से डाली जा सकती है। इसके अतिरिक्त अपनी सामान्य शारीरिक आवश्यकताओं, भोजन एवं वस्त्रों का ध्यान रखना भी उन्हें सिखाया: जाता है। अपने साथियों के साथ सहयोग एवं मिल-जुलकर खेलने, संवेगों को नियन्त्रित करने का निर्देशन इस स्तर पर दिया जा सकता है क्रो एवं क्रो ने अपनी पुस्तक 'एन इन्ट्रोडक्शन टु गाइडेन्स' में पूर्व-प्राथमिक स्तर पर वैयक्तिक निर्देशन का प्रयोजन निम्नलिखित बातों को सीखने में सहायता देना बताया है-

    1. आपस में एक-दूसरे से मिलना एवं अनुभवों का आदान-प्रदान करना, खिलौनों का आदान-प्रदान करना, नम्रता सीखना, क्रोध को रोकने की आदत बनाना, नेतृत्व करना सीखना एवं अनुयायी के रूप में समूह में उत्तरदायित्व की भावना प्रदर्शित करना तथा खेल में ईमानदारी की भावना प्रदर्शित करना।

    2. अपने हाथों से कार्य करके गीतों का अनुकरण करके कहानियों का अनुभव करके अपने को अभिव्यक्त करना तथा दूसरों की बात को ध्यान से सुनना।

    3. पालतू पशुओं की देखभाल करके खेल की वस्तुओं को यथास्थान रखकर अपने वस्त्रों की देखभाल करके उत्तरदायी व्यवहार करना सीखना। 

    उपर्युक्त कार्य पूर्व प्राथमिक स्तर पर वैयक्तिक निर्देशन के महत्त्वपूर्ण अंग है। बालकों को शैक्षिक कार्यों के साथ-साथ इन्हें भी सिखाया जाना चाहिये।

    2. प्राथमिक स्तर 

    प्राथमिक स्तर पर वैयक्तिक निर्देशन बालको की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर दिया जा सकता है क्रो तथा क्रो के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका के कैलीफोर्निया राज्य के माटेबेलों के स्कूलों में चलने वाले निर्देशन कार्यक्रम में बालकों की निम्नलिखित आधारभूत आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयत्न किया जाता है-

    (1) अच्छा स्वास्थ्य- सन्तुलित एवं पर्याप्त भोजन, अपेक्षित निद्रा एवं विश्राम।

    (ii) आधारभूत कौशलों का ज्ञान- सीखने एवं समझने की योग्यता के अनुरूप |

    (iii) सुरक्षा एवं भरोसे की भावना- घर विद्यालय एवं विद्यालय की सम्पूर्ण क्रियाओं में |

    (iv) मित्रों एवं सामाजिक स्वीकृति की इच्छा- बालकों के बीच में तथा प्रौढ़ों के मध्य ।

    (v) अनुशासन -स्नेहपूर्ण एवं दृढ़, आत्मानुशासन की ओर प्रगति।

    (vi) अवकाश के समय के क्रिया-कलाप- वैयक्तिक रुचियों एवं मनोरंजन के सन्दर्भ में।

    (vii) व्यावसायिक कौशल- संसार के कार्यों का सामान्य ज्ञान ।

    प्राथमिक स्तर पर बालको की इन आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर वैयक्तिक निर्देशन की व्यवस्था की जानी चाहिये। बालकों में उचित-अनुचित समझने की आदत एवं आत्मानुशासन का विकास इस स्तर से प्रारम्भ किया जाना चाहिये। आत्मानुशासन का विकास तभी किया जा सकता है जब बालक अनुशासन का वास्तविक उद्देश्य समझेंगे। उन्हें यह ज्ञात कराया जाना चाहिये कि अनुशासन द्वारा ही जीवन को सुखी एवं सार्थक बनाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त उनमें ऐसी भावना भी विकसित की जानी चाहिये कि अनुशासन उनके स्वयं के हित के लिये आवश्यक है। यदि कभी दण्ड दिया जाता है तो बालक के स्वयं के सुधार के लिये न कि किसी शत्रुता की भावना के कारण इस प्रकार प्राथमिक स्तर पर वैयक्तिक निर्देशन बालकों में जीवन के व्यक्तिगत एवं सामाजिक पक्षों के प्रति उचित दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक होता है।

    3. जूनियर हाई स्कूल स्तर

    जूनियर हाई स्कूलों में आने वाले छात्र किशोरावस्था से पूर्व की आयु के होते हैं, उनमें उत्साह एवं शारीरिक विकास की गति तीव्र होती. है। इस स्तर पर उनके सामने अनेक समस्याएँ उपस्थित हो जाती है जिनके समाधान हेतु वैयक्तिक निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है। इस स्तर के छात्र अपने परिवेश में सामंजस्य प्राप्त कर सकें, इस प्रयोजन को दृष्टि में रखते हुये उनके लिये वैयक्तिक निर्देशन की व्यवस्था की जानी चाहिये ताकि वे एक-दूसरे से सम्बन्ध स्थापित करते हुये मित्रता की भावना विकसित कर सके।

    नेतृत्व के गुणों का विकास एवं अनुमान करने का गुण उनमें विकसित किया जा सके यह वैयक्तिक निर्देशन का प्रयोजन है। वे एक समूह में एकता की भावना से कार्य कर सकें, उनकी शैक्षिक, व्यावसायिक एवं वैयक्तिक समस्याओं का अन्तर्सम्बन्ध इस स्तर पर वैयक्तिक निर्देशन प्रदान करते हुये दृष्टि में रखा। जाना चाहिये, क्रो  एवं क्रो के अनुसार जूनियर हाई स्कूल स्तर पर वैयक्तिक निर्देशन की व्यवस्था करते समय निम्न बातों का ध्यान रखा जाये- 

    1. बालकों को अपने एवं दूसरों के हित के लिये उत्तरोत्तर अधिक जिम्मेदारी के निर्वाह की प्रेरणा प्रदान करना।

    2. छात्रों को इस तथ्य से अवगत कराना कि वैयक्तिक सामंजस्य की कुछ समस्याएँ विकास के प्रक्रम में सामान्य रूप में आती रहती है।

    3. भविष्य की शिक्षा के प्रति उन्हें उत्साहित करना एवं क्रियाशील बनाना।

    4. श्रम के महत्त्व और जीविकोपार्जन के विभिन्न प्रकारों से उन्हें अवगत कराना।

    5. छात्रों के विभिन्न व्यवसायों के प्रारम्भिक अध्ययन में उन्हें निर्देशन देना अपनी योग्यता एवं रुचि के अनुरूप व्यवसाय की धारणा विकसित करना। 

    6. उन्हें कतिपय व्यावसायिक समस्याओं से अवगत कराना जिनका कि साक्षात्कार उन्हें बाद में हो सकता है।

    7. उन गुणों का विकास करने की प्रेरणा देना जो रचनात्मक जीवन के लिये आवश्यक है।

    8. जीवन की वर्तमान एवं भावी योजनाओं के विषय में अपने माता-पिता, अध्यापक एवं परामर्शदाता इत्यादि के बीच सह-चिन्तन की आवश्यकता पर बल देना।

    9. पड़ने पर वैयक्तिक परामर्श के लिये निःसंकोच प्रस्तुत होना।

    4. हाई-स्कूल स्तर

    हाई स्कूल स्तर पर आने वाले छात्र या तो किशोरावस्था की दहलीज पर होते है या उसमें प्रवेश कर चुके होते हैं। उनकी आवश्यकताओं एवं रुचियों को दृष्टि में रखते हुये इस स्तर पर वैयक्तिक निर्देशन का स्वरूप निर्धारित किया जा सकता है। इस स्तर पर सामंजस्य की समस्याएँ अपेक्षाकृत जटिल होती हैं। वैयक्तिक निर्देशन छात्रों को परिवेश में समुचित सामंजस्य प्राप्त करने में सहायता कर सकता है।

    हाई स्कूल स्तर पर छात्रों में इस भावना का विकास किया जाना चाहिये कि समस्याएँ सभी के सम्मुख आती हैं, समस्याओं की प्रकृति का समझना एवं उनका समाधान खोजने की प्रवृत्ति छात्रों में विकसित करने में वैयक्तिक निर्देशन छात्रों की मदद कर सकता है।

    किशोरावस्था में शरीर में विचित्र एवं तीव्र गति से होने वाले परिवर्तन किशोरों में चिन्ता उत्पन्न करते हैं। विपरीत लिंगी व्यक्तियों के प्रति उनका आकर्षण स्वाभाविक रूप से बढ़ता है। किशोरावस्था में सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश के अनुरूप यौन समस्याओं में निर्देशन की व्यवस्था की जानी चाहिये ताकि वे किशोरावस्था के परिवर्तनों और विकास से उत्पन्न समस्याओं को साहस और धैर्य से सुलझा सके।

    किशोरों के लिये स्वस्थ मनोरंजन की व्यवस्था की जा सकती है, उनमें उचित निर्देशन से परिपक्वता एवं अच्छी नागरिकता के गुणों का विकास किया जाना चाहिये। उन्हें आत्म-विश्वास उत्पन्न करने एवं अपने स्वास्थ्य की देखभाल करने के लिये उत्साहित किया जाये।

    छात्रों के नैतिक एवं सामाजिक विकास की दृष्टि से हाई स्कूल स्तर पर वैयक्तिक निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है। सामुदायिक सेवा कार्यों एवं सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना के विकास के लिये उन्हें जन सेवा के कार्यों में लगाया जाना चाहिये। इस स्तर पर छात्रों की समस्याएँ बहुमुखी होती हैं। अतः व्यापक निर्देशन सेवाएँ भी उन्हें सुलभ करायी जायें।

    माध्यमिक विद्यालयों में युवकों की समस्याओं के इस विस्तार को ध्यान में रखते हुये उन्हें निर्देशन प्रदान किया जाये। उनकी व्यावसायिक, शैक्षिक एवं सामाजिक सम्बन्धों की समस्याओं के अन्तर्सम्बन्ध पर दृष्टि रखते हुये अभिभावकों, अध्यापकों एवं निर्देशन कर्मचारियों को सहयोगपूर्वक माध्यमिक स्तर के छात्रों को निर्देशन प्रदान करने की व्यवस्था की जानी चाहिये।

    5. कॉलेज तथा विश्वविद्यालय स्तर 

    सामान्यतः कॉलेज एवं विश्वविद्यालय स्तर तक आते-आते युवक किशोरावस्था को पार कर चुके होते हैं और वे प्रौढ़ता की ओर उन्मुख होने लगते हैं। माध्यमिक स्तर पर वैयक्तिक निर्देशन का प्रक्रम यदि सन्तोषजनक रहा होता है तो इस स्तर पर आते-आते सामंजस्य की समस्या का सुविधाजनक हल प्राप्त हो जाता है। कॉलेज स्तर के छात्रों को वैयक्तिक एवं सामाजिक सामंजस्य हेतु वैयक्तिक निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है। इस स्तर पर विवाह की समस्या भी छात्रों के सम्मुख होती है।

    युवक प्रायः शिक्षा पूरी करने के उपरान्त ही विवाह करते हैं पर विवाह की समस्या, तत्सम्बन्धी जिज्ञासाएँ. बदलते मानदण्ड इस सम्बन्ध में निर्देशन की सहायता की माँग करते हैं। हमारी संस्कृति एवं सामाजिक मूल्य पाश्चात्य संस्कृति एवं मूल्यों के अन्तर्घात से विघटित एवं परिवर्तित हुये हैं। बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों में प्रेम-विवाह, अन्तर्जातीय विवाह, विधवा विवाह आदि समस्याएँ युवकों के सम्मुख होती है। ऐसी समस्याओं में निर्देशन कार्य में सावधानी, सहानुभूति एवं समझदारी की अपेक्षा होती है।

    कॉलेज स्तर पर छात्रों के सम्मुख आर्थिक प्रश्न भी होते है। भारत जैसे देश के निर्धन छात्र इस क्षेत्र में निर्देशन की अपेक्षा करते हैं। अंशकालिक कार्यों को सम्पन्न करके वे अपनी शिक्षा पूरी करने के लिये आर्थिक साधन जुटा सकते हैं। सरकार द्वारा प्रदत्त आर्थिक सुविधाओं के सम्बन्ध में निर्देशन द्वारा जानकारी प्रदान की जा सकती है। समाज और निर्देशन कर्मचारियों के सहयोग से छात्रों की आर्थिक समस्या का समाधान खोजने में सहायता मिल सकती है। अवकाश के समय का सदुपयोग भी उचित निर्देशन द्वारा उन्हें सिखाया जा सकता है।

    कॉलेज एवं विश्वविद्यालय स्तर पर निर्देशन. एक अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में विद्यार्थियों की सहायता करता है और वह है उनका नैतिक एवं चारित्रिक विकास विज्ञान एवं कला के नवीन आलोक में परम्परागत धार्मिक मूल्य एवं विश्वास परिवर्तित हो रहे है। धार्मिक संकीर्णता आज के धर्म-निरपेक्ष युग में अस्वीकृत हो रही है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले युवक को मानवता और धर्म के शाश्वत मूल्यों को पहचानने के कार्य में निर्देशन उसकी सहायता करता है। दूसरे शब्दों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले छात्र समुदाय को स्वस्थ सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक दृष्टिकोण विकसित करने में सहायता देना वैयक्तिक निर्देशन का कार्य है।

    वैयक्तिक निर्देशन, जैसा कि हमने देखा, व्यक्ति के जीवन की सफलता के लिये अपरिहार्य है। समुचित वैयक्तिक निर्देशन की व्यवस्था करके समाज एवं विद्यालय व्यक्ति तथा समाज को ऊँचा उठा सकते हैं। परामर्श और साक्षात्कार की तकनीक व्यक्ति की वैयक्तिक समस्याओं में निर्देशन कार्य में सहायक हो सकती है। पुस्तक के दूसरे और तीसरे भागों में परामर्श एवं निर्देशन की उन तकनीको पर विचार किया जायेगा जिनका ज्ञान निर्देशन कर्मचारियों के लिये आवश्यक है।

    वैयक्तिक निर्देशन में व्यक्ति की समस्याओं के दोनों पक्ष-वैयक्तिक एवं सामाजिक-ग्रहण किये जाते हैं। वैयक्तिक निर्देशन का प्रयोजन व्यक्ति के शारीरिक संवेगात्मक, सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास एवं समायोजन में सहायता करना है।

    मूनी तथा रेमर्स के अध्ययन के आधार पर व्यक्तिगत समस्याओं को सात वर्गों के अन्तर्गत रखा जा सकता है। स्वास्थ्य एवं शारीरिक विकास सम्बन्धी समस्याएँ, यौन, प्रेम एवं विवाह सम्बन्धी समस्याएँ, आर्थिक समस्याएँ एवं धर्म, चरित्र, आदर्श एवं मूल्यों से सम्बन्धित समस्याएँ ।

     वैयक्तिक निर्देशन प्रदान करते समय परामर्शदाता को निम्नलिखित सिद्धान्तों को दृष्टि में रखना चाहिये-

    1. व्यक्तित्व अखण्डनीय एवं जटिल होता है।

    2. व्यक्ति की विभिन्न समस्याओं में अन्तर्सम्बन्ध विद्यमान रहता है।

    3. वैयक्तिक समस्याओं के पीछे निश्चित प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष कारण होते हैं।

    4. वैयक्तिक समस्याओं के साथ संवेगात्मक पहलू भी जुड़ा रहता है।

    5. व्यक्ति को अपनी समस्याओं के समाधान के लिये स्वदृष्टि विकसित करनी चाहिये।।

    बाल्यावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक व्यक्तिगत समस्याओं के निर्देशन की व्यवस्था शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत होनी चाहिये। पूर्व प्राथमिक स्तर पर स्वच्छता, भोजन एवं वस्त्रों से सम्बद्ध आदतों के विकास में निर्देशन की सहायता लेनी चाहिये। मिल-जुलकर खेलने, संवेगों को नियन्त्रित करने की शिक्षा इसी स्तर पर प्रारम्भ की जा सकती है। प्राथमिक स्तर पर निर्देशन अच्छे स्वास्थ्य, आधारभूत कौशलों का ज्ञान, अवकाश के क्रिया-कलाप एवं सुरक्षा की भावना आदि आवश्यकताओं पर ध्यान देता है। इसी स्तर से आत्मानुशासन का विकास भी वांछनीय है।

    जूनियर हाई स्कूल पर परिवेश के साथ सामजस्य, रचनात्मक क्रिया-कलाप, जीवन की भावी योजनाओं एवं आगे की शिक्षा के प्रति उत्साह उत्पन्न करना, व्यावसायिक समस्याओं का परिचय देना व्यक्तिगत निर्देशन के प्रमुख कार्य है। सामाजिक एवं नागरिक कार्यों में निर्देशन पर इस स्तर पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये। हाईस्कूल स्तर पर छात्रों के नैतिक एवं सामाजिक विकास को दृष्टि में रखकर तथा किशोरावस्था के परिवर्तनों को ध्यान में रखकर व्यक्तिगत निर्देशन की व्यवस्था की जानी चाहिये। इस स्तर पर समायोजन की समस्याएँ अपेक्षाकृत जटिल होती हैं।

    माध्यमिक स्तर पर वैयक्तिक निर्देशन की प्रक्रिया यदि सन्तोषजनक रहती है तो कॉलेज एवं विश्वविद्यालय स्तर पर आते-आते सामंजस्य की समस्या सुविधापूर्वक हल की जा सकती है। इस स्तर पर यौन, प्रेम एवं विवाह सम्बन्धी समस्याएँ निर्देशन की विशेष अपेक्षा रखती हैं। इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत निर्देशन के अन्तर्गत आर्थिक प्रश्न भी इस स्तर पर महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। चारित्रिक एवं सामाजिक विकास, स्वस्थ जीवन दर्शन की आवश्यकता भी व्यक्तिगत निर्देशन की अपेक्षा रखती है।

    Post a Comment

    Previous Post Next Post