सृष्टि का उदभव कैसे हुआ
सृष्टि का उदभव कैसे हुआ ? जगत का जनक कौन है ? ये प्रश्न मानव मस्तिष्क को प्रारम्भ से ही उद्वेलित करते रहे हैं और इन्ही प्रश्नों को मानस में अत्यन्त सरल किंन्तु वैज्ञानिक विधि से बताया गया है। इन प्रश्नों को पार्वतीजी ने भगवान शिव से इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए अनुरोध करते हुए कहा ।
कृपया पहले विचार कर यह कारण बतावें कि निर्गुण ब्रह्म ने सगुण रूप क्यों धारण कर लिया।
वह कारण विचार कर बताएं जिससे निर्गुण ब्रह्म, सगुण रूप धारण करता है। यह ऊर्जा क्यों प्रथमतः किया करती है और पदार्थ कैसे बनता है? इसका विस्तृत वर्णन आगे दिया गया है, जिसमें कहा है कि अनुशासन पाते ही ऊर्जा 1/2 सेकेण्ड्स के अन्दर ही ऊर्जा स्रोत से अलग होकर विस्तार क्षेत्र में युग्मन कर पदार्थ कण बनाते हैं।
यदि सामान्य बुद्धि से विश्लेषण किया जाय तो ध्यान जाता है कि कोई ऐसा पदार्थ जो जड़, चेतन व जीव सभी को बनाने में सक्षम हो और सभी कुछ जानता हो। ऐसी शक्ति ही सर्वव्यापी व सर्वशक्तिमान हो सकती है जिसे ब्रह्म कहा जा सके साथ ही उसे सभी से स्नेह हो। इस प्रश्न का उत्तर मानस में भगवान शिव के द्वारा पार्वतीजी को दिया गया है।
ब्रह्म जो व्यापक विरज अज अकल अनीह अभेद ।
सो कि देहधरि होइ नर जाहि न जानत बेद ।।
यह ब्रह्म (बिरज) माया रहित, अगोचर (न दिखने वाला) भेद-भाव रहित, माया धनी, निज तंत्रवाला है। बिना पैर के चलने वाला, बिना कान के सुनने वाला, बिना हाथ के कर्म करने वाला, बिना मुँह के समस्त रसों का भोग करने वाला, बिना जिव्हा के बहुत अच्छा वक्ता, बिना शरीर के स्पर्श करने वाला, बिना नेत्र के देखने वाला, बिना घ्राण के गंध लेना उसके लिए सहज है। अच्छे भले को ढीला कर देना, ढीले को ठीक करना, निर्गुण, अखण्ड, अनन्त और अनादि है। ब्रह्मज्ञानी, तत्ववेत्ता लोग उसका सदैव चिन्तन किया करते हैं।
अविनाशी इन्द्रियों के परे, पुनीत चरित्र वाले, सर्वव्यापी, आनन्द निधान मन के परे निर्मल, शुद्ध, नष्ट न होने वाला।
निर्गुण ब्रह्म की उपरोक्त विशेषताओं का वर्णन मानस में किया गया है। इनके एक-एक गुणों का यदि विश्लेषण किया जाए तो एक मार्ग प्रशस्त होता है।
एक अनीह अरूप अनामा अज सच्चिदानंद पर धामा ।
व्यापक विश्वरूप भगवाना तेहि धरि देह चरित कृत नाना ।।
निर्गुण ब्रह्मकण मान सकते है। मानस में उद्धृत क्रमशः निर्गुण ब्रह्म के अन्य गुणों की व्याख्या समझने के लिए भौतिक संरचना में एक और नाम ध्यान में आता है वह फोटान है जो सूर्य की किरणों से निकलता है। जो एक प्रकार से ऊर्जा की थैली है। शरीर रहित भार रहित, आवेश रहित, सर्वव्यापी, सर्वगुण सम्पन्न है। किसी का अंग नहीं और सभी का अंग है। फोटान का पौधों के हरित कणों (Chlorophyll) द्वारा अवशोषित होने पर कार्बन डायआक्साइड और पानी का संयोजन होता है और ग्लूकोज का संश्लेषण होता है और इस प्रक्रिया को प्रकाश संश्लेषण कहते हैं। आशय यह है कि इलेक्ट्रॉन से यदि आवेश और भार अलग कर दिया जाए तो फोटान के समान ऊर्जा थैली बनती है। जो माया धनी है।
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ | कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ ।।
(बाल काण्ड दो. 108 चौ.01)
यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और है, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर कहिये।
जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान ।
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान ।।
(बाल काण्ड दोहा 118)
जिसका वेद और पण्डित इस प्रकार वर्णन करते हैं, मुनि जिसका ध्यान धरते है, वही दशरथ नन्दन, भक्तों के हितकारी, अयोध्या के स्वामी भगवान् श्रीरामचन्द्रजी हैं |
वही दशरथ नन्दन भक्तों के हित करने वाले भगवान कोसलपति हैं। दशरथ के नन्दन अर्थात् दस इन्द्रियों का रथ या दस इन्द्रियों का भार ढोने वाला रथ शरीर ।शरीर का पुत्र अर्थात शरीर से जिसकी उत्पत्ति हो वह है ऊर्जा। जो कम ऊर्जा वाले क्षेत्रों शरीर या शरीर के हिस्सों या ऊर्जा रहित शरीर के अंगों (भक्तों) का हित करते हैं और यह ऊर्जाधारी पंचभूत भगवान (भूमि, गगन, वायु, अग्नि, नीर) ही कुशलता प्रदाय करते हैं जिनका वर्णन वेद तथा पंडित भी करते है और मुनिगण उनका ध्यान करते हैं
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित ।
मैं निज मति अनुसार कहते उमा सादर सुनहुँ ।।
(बाल काण्ड सो. 120 (घ)))
श्रीहरि के गुण, नाम, कथा और रूप सभी अपार, अगणित और असीम है। फिर भी हे पार्वती मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ, तुम आदरपूर्वक सुनो।
राम अतर्क्यबुद्धि मन बानी ।
तदपि संत मुनि बेद पुराना
जो कछु कहहिं स्वमति अनुमाना ।।
(बाल काण्ड दो. 120 चौ.02)
शंकरजी के अनुसार बुद्धि मन और वाणी से श्रीरामचन्द्रजी (ऊर्जा नियंता) पर तर्क नहीं किया जा सकता। तथापि संत मुनि, वेद और पुराण अपनी-अपनी बुद्धि अनुसार कुछ कहते हैं।
ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभांग
कहहिं भगति भगवंत के संजुत ग्यान बिराग ।।
(बाल काण्ड दो:44)
ब्रह्म के स्वरूप को जानने के लिए बैठे मुनियों ने विभागवार तत्वों की विवेचना प्रारम्भ की। जिसमें पंचभूतों की कथा (भगवंत-भूमि, गगन, वायु, अग्नि, तोय) को ज्ञान और वैराग्य की कसौटी पर कसा। जिससे क्रमशः ब्रह्म और उसकी माया का निरूपण स्पष्ट रूप से किया गया।
जगत प्रकास्य प्रकाशक रामू |
मायाधीस ज्ञान गुन धामू ।।
(अयोध्या काण्ड दो. 116 चौ.04)
कहते हैं, हमारे अनुसार श्रीराम बुद्धि, मन और वाणी से परे हैं। राम अर्तक्य क्यों है ? उन्हें प्रकाश स्वरूप बताया गया है और प्रकाश सूर्य से निकली किरणें है।
पदार्थ का मूल कण एवं ऊर्जा का आधार होने के कारण उन्हें समझने में अत्यन्त कठिनाई होती है। इसीलिए वह बुद्धि से परे मन एवं वाणी से व्यक्त करनेमें कठिन है। प्रथमत यह ध्यान में आया कि इस संसार को प्रकाशित करने वाली सत्ता श्रीराम है और उन्हीं के कारण यह विश्व प्रकाशित हो रहा है और नियन्ता व नियत्रक है। जब यह स्पष्ट हो गया कि वह माया के स्वामी और जगत के प्रकाशक एक है तो यह भी स्पष्ट हुआ कि प्रकाश भी भगवान राम ही है और जब प्रकाश रामजी है तो यह भी ध्यान में आता हैं कि उन्होंने कहकर दिनकर वंश में जन्म लिया है और सूर्यवंश में अपने अंशों के साथ जन्म लेने की घोषणा की। साथ ही कहा कि आदि शक्ति जिसने इस संसार की उत्पत्ति की है वह भी मेरे साथ अवतरित होगी। यह अवतरण भी मेरा "माया" के साथ होगा। इसका आशय स्पष्ट हुआ कि श्रीराम प्रभु सूर्यकुल में जन्म लेकर जगत को प्रकाशित करते हैं और सूर्य की किरणें विभिन्न तरंग दैर्ध्य व भिन्न-भिन्न गुणवाली होती है जिन्हें श्रीराम के अंशों के रूप में देखा जा सकता है और मैं अपने अंशों के साथ सूर्यकुल में मानव रूप में जन्म लूँगा। आशय स्पष्ट है कि प्रकाश अपने अंशों के साथ जन्म लेगा। जिससे स्पष्ट है कि सूर्य के प्रकाश में असंख्य प्रकार की किरणों का समावेश होता है जो विभिन्न प्रकार के अलग-अलग कार्य करती है क्योंकि उन सबकी तरंग दैर्ध्य तरंग लम्बाई भी भिन्न-भिन्न होती है और इस प्रकाश पुंज में असंख्य-असंख्य ऊर्जा पैकेट्स (फोटान्स) अनवरत पृथ्वी पर अधिरोपित होते हैं और इस अधिरोपण से प्रत्येक फोटान असंख्य परिवर्तन (रासायनिक क्रिया से इलेक्ट्रॉन उत्तेजित कर नये उत्पाद बनाता है) करके नये-नये उत्पादों को जन्म देता है तो यह कल्पना की जा सकती है कि निमिष भर में सूर्य से आने वाले फोटान्स की संख्या कितनी होगी और उनसे बनने वाले उत्पादों की संख्या की क्या गणना की जा सकती है। अर्थात यह अगणनीय होगी और इसीलिए इससे बनने वाले उत्पाद व उनके परिणाम भी अगणनीय होगे। जिससे स्पष्ट होता है कि जब एक सूर्य के एक पृथ्वी पर बनने वाले ब्रह्माण्डों की संख्या अगणनीय है तो अनगिनत सौर्य मण्डलों द्वारा ग्रहो उपग्रहों में बनने वाले ब्रह्माण्डों की संख्या भी अगणनीय होगी और प्रभु श्रीराम के रोम-रोम में अगणित ब्रह्माण्डों की उपस्थिति है। जैसे सूर्य की प्रत्येक किरण में अगणित फोटोन्स और अनगिनत किरणे (रोम) है। इस ऊर्जा से शरीर का निर्माण होता है। जीव शरीर के अन्दर पायी जाने वाली असंख्य कोशाएँ भी स्वतंत्र ब्रह्माण्ड है जो भिन्न-भिन्न उत्पाद बनाती हैं। कहते हैं :-
लेइह दिनकर वंश उदारा। अंशन्ह सहित मनुज अवतारा।
लोचन अभिरामां तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी ।
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।
ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम-रोम प्रति वेद कहें।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अविगत अलख अनादि अनूपा ।
एक कहहिँ ए सहज सुहाए। आप प्रगट भए बिधि न बनाएँ ।
प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम ।
ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल ।
राम सत्यव्रत धरमरत सबकर सीलु सनेहु ।
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा ।
सुनु सर्बग्य सकल उर बासी बुधि बल तेज धर्म गुन रासी ।
अकल अगुन अज़ अनध अनामय, अजित अमोघ शक्ति करुणामय ।
ब्रह्म को व्याख्यित करते हुए उनके गुणों की विवेचना व वर्णन किया गया है।
ब्रह्म करुणा, दया और सुख के समुद्र हैं। आप समस्त गुणों के धाम हैं। अपनी माया शक्ति या रासायनिक क्रियाओं से आपने पूरे ब्रह्माण्डों का सृजन किया है। परोपकार के प्रतिरूप हैं। आप अनादि हैं दृष्टि से परे व अन्त के भी परे हैं। आप स्वतः से प्रकट हुए हैं प्राणों के भी प्राण हैं। जीव के जीवन व सुख के आधार हैं। सब कुछ जानने वाले, पवित्र, शीलवान, स्नेहिल सत्यव्रती, सर्वज्ञ, सब कुछ जानने वाले सबके हृदय में निवास करने वाले बुद्धि, बल, तेजस्विता एवं धर्म की राशि है। निर्गुन, पाप रहित, इच्छा रहित अजेय, अभेद्य शक्ति वाले एवं करुणामयी हैं जिनकी इच्छा से पलक झपकते ही समस्त भुवनों का सृजन हो जाता है और सबके प्रति स्नेहिल व पूर्णतः धर्माचरण करने वाले एवं धर्म की रक्षा करने वाले हैं। आप सहज में प्रकाश रूप हैं जिसके कारण संसार प्रकाशित होता है |
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया ।।
(बालकाण्ड दो. 151 चौ.02)
यह सब प्रकाश किरणे “क्रियाधारक माया" कहलाएँगी और इनके गर्भ में "आदि शाक्ति" स्थापित है और इसी "आदिशक्ति ऊर्जा के द्वारा क्रियाधारक माया " पदार्थों का सृजन करती है। यह सृजन प्रभु प्रेरणा से होता है जिसे स्पष्ट करते हुए बताया है।
श्रीराम ने स्पष्ट घोषणा की है कि जिस आदि शक्ति ने इस संसार का सृजन किया वह माया भी मेरे साथ अवतरित होगी।
इच्छानिर्मित मनुष्य रूप में सजकर मै तुम्हारे घर प्रकट होऊंगा। हे तात । मैं अपने अशो सहित देह धारण करके भक्तों को सुख देने वाले चरित्र करूँगा। आदिशक्ति यह मेरी (स्वरूपभूता) माया भी, जिसने जगत को उत्पन्न किया है, अवतार लेगी।
मैं इच्छा निर्मित मनुष्य रूप में आपके घर प्रकट होऊंगा। मैं अपने अशो सहित भक्तों को सुख देने वाले चरित्र करूँगा। मेरे साथ मेरी माया से जगत को बनाने वाली आदिशक्ति भी अवतरित होगी।
उपरोक्त पंक्तियों से स्पष्ट है कि माया मोह का पर्दा न होकर व्यवस्थित क्रियात्मक प्रक्रिया है।और आध्यात्मिक दृष्टि से देखने पर भगवान के भक्तों को मोह जनित पर्दे से अवरोध नहीं होता है। और स्पष्ट किया गया कि जिस आदि शक्ति से जगत की उत्पत्ति हुई है। वह आदिशक्ति ऊर्जाधारक प्रभु की माया ही है। इन सब बातों से एकदम स्पष्ट हो जाता है कि मानस के आधार पर माया ऊर्जाधारक से प्रेरित है और सृजन, संचालन व संहार के लिए पूर्ण सक्षम है तथा यही ऊर्जा समस्त पदार्थों का सृजन करती है और इसी से संसार के सभी कार्य होते है। ऊर्जा के अतिरिक्त संसार में कोई दूसरा बल या शक्ति नहीं है।
बिनु कारन दीन दयाल हितं । छबि धाम नमामि रमा सहितं ।।
भव तारन कारन काज परं मन संभव दारुन दोष हरं । ।
(लंकाकाण्ड छं)
हे बिना कारण ही दीनों पर दया तथा उनका हित करने वाले और शोभा के धाम में श्रीजानकीजी सहित आपको नमस्कार करता हूँ। आप भवसागर से तारने वाले हैं, कारणरूपा प्रकृति और कार्यरूप जगत् दोनों से परे हैं और मन से उत्पन्न होने वाले कठिन दोषों को हरने वाले है।
अनवद्य अखंड न गोचर गो सबरूप सदा सब होइ न गो।।
इति बेद बदंति न दंतकथा रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा ।।
(लंकाकाण्ड छं)
आप अनिन्द्य या दोषरहित है, अखण्ड हैं, इन्द्रियों के विषय नहीं हैं। सदा सर्वरूप होते हुए भी आप वह सब कभी हुए ही नहीं, ऐसा वेद कहते हैं। यह दन्तकथा नहीं है। जैसे सूर्य और सूर्य का प्रकाश अलग-अलग है और अलग नहीं भी है, वैसे ही आप भी संसार से भिन्न तथा अभिन्न दोनों ही है।
अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर ।।
(लंकाकाण्ड छं)
आप निर्गुण, सगुण, दिव्य गुणों के धाम और परम सुन्दर हैं। भ्रमरूपी अन्धकार के लिये प्रबल प्रतापी सूर्य हैं।
ब्रह्म निरूपण के समय यह ध्यान रखना चाहिए कि ब्रह्म शक्ति ही निर्गुण एव सगुण दोनों है यही गुणों की धारक व प्राप्ति प्रबल शक्ति का एकमात्र स्थान है और उसकी शक्ति सूर्य के समान है।
लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचई जासु अनुशासन माया ।।
ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया | रोम-रोम प्रति वेद कहें। |
ब्रह्म शक्ति के द्वारा इन ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति ऊर्जा की चाहत में होने वाली रासायनिक क्रिया के फलस्वरूप होती है। फोटान अधिकारक पर अधिरोपित होकर फोटान्स की श्रृंखला को उत्तेजित कर देता है और यह उत्तेजित इलेक्ट्रॉन / फोटान अवस्था में जाकर जुड़ते हैं। इस श्रृंखला में लगातार नये पदार्थों, नये ब्रह्माण्डों या नये संसार का निर्माण पलक झपकते ही हो जाता है। रासायनिक क्रिया के अनुशासन में या निश्चित भौतिक व रासायनिक अवस्थाओं में भुवन / संसार का निर्माण होता है और वह भी कुछ क्षणों के अन्दर क्योंकि सूर्य किरणों में अनगिनत फोटान्स पाये जाते हैं और प्रत्येक फोटान अगणित पदार्थों का सृजन एक साथ कुछ क्षणों में ही कर लेते हैं।
सब कर परम प्रकाशक जोई-राम अनादि अवधिपति सोई ।।
ऊमरि तरु विशाल तव माया फल ब्रह्मांण अनेक निकाया ।।
और यह सौर्य ऊर्जा शक्ति (माया) जो विभिन्न पदार्थों के बीच विभवान्तर के कारण ऊर्जा का विनियम करती है। इस विनियम के परिणामस्वरूप अनेको अनेक ब्रह्माण्डों का सृजन हो जाता है। इसीलिए इस अतुलनीय शक्ति को जो अनवरत रासायनिक क्रियायें करने में सक्षम है। उस माया के स्वरूप को ऊमर के वृक्ष के बराबर की उपमा दी गई है जिसमें अनेक फल लगे होते हैं और प्रत्येक फल में असंख्य कीडे उसी के अन्दर अपना जीवन यापन करते रहते हैं। यह अनवरत होनेवाली रासायनिक क्रियाओं (माया) के परिणामस्वरूप यह संसार गतिशील, परिवर्तनशील एवं सनातन बना रहता है
राम ब्रह्म चिन्मय अबिनासी सर्व रहित सब उर पुर बासी ।।
सुनु रावण ब्रह्माण्ड निकाया। पाई जासु बल विरचित माया ।।
जाके बल बिरंचि हरि ईसा पालत सृजन हरत दस सीसा।।
दस ब्रह्माण्ड निकाया का सृजन माया द्वारा किया जाता है लेकिन "माया" रासायनिक क्रियाओं को करने की शक्ति कहाँ से आती है किसके बल से इसे विरचित अर्थात् विशेष रूप से सृजन किया जा सकता है। वह शक्ति है श्रीराम भगवान की।
जिसके बल से सृजनकर्त्ता ब्रह्मा, पालनकर्ता विष्णु और सहारकर्ता शिव हरि इन ब्रह्माण्डों का सृजन पालन और संहार करते हैं वह बल समस्त ब्रह्माण्डों में स्थित बिद्दुत चुम्बकीय बल और गुरुत्वाकर्षण का बल भी है और सौर मण्डल के उपग्रहों से उत्पन्न होने वाली गतिज ऊर्जा का बल भी उसमें शामिल रहता है।
जा बल सीस धरत सहसानन । अंणकोस समेत गिरि कानन।।
उसी बल से पृथ्वी भी अपने कक्ष एवं अक्ष में निरंतर गतिमान रहती है और अनेकानेक ब्रह्माण्डों का सृजन संचालन व संहार अबाध गति से चलता रहता है।
मम माया संभव संसारा | जीव चराचर विविध प्रकारा ।।
यह भी स्पष्ट है कि इस संसार में पाये जाने वाले जड जगत समस्त प्रकार के चेतन, अचेतन और विविध प्रकार के जीव सभी मेरी "माया" अर्थात् रासायनिक क्रियाओं से सृजित हुए हैं, उनकी संभावित उपस्थिति ही मेरी माया का परिणाम है।
श्रुति सेतु पालक राम तुम | जगदीश माया जानकी ।।
इससे यह स्पष्ट है कि प्रभु श्रीराम जो स्वतः ऊर्जाधारक हैं, वह इस जगत के पालक है क्योंकि ऊर्जा स्वतंत्र नहीं रह सकती उसे किसी न किसी धारक की आवश्यकता पड़ती है। उसे ब्रह्म श्रीराम ऊर्जाधारकों के स्वरूप में धारित करते है और "क्रियाधारक माया" जो रासायनिक क्रियायें करने / करवाने में सक्षम है वही ऊर्जा "क्रिया माया" है।
मैं तैं मोर तोर तैं माया | यहि बस कीन्हें जीव निकाया। ।
इस ब्रह्माण्ड निकाया में पूरा ब्रह्माण्ड ब्रह्म के आवरण या गर्भ में स्थित है, | लेकिन इस ब्रह्माण्ड निकाया के अन्दर भी असंख्य छोटे-छोटे ब्रह्माण्ड हैं जो ग्रहों-उपग्रहों से प्रारम्भ कर जीव शरीर-जीव निकाया और उसके अन्दर भी कोशा स्तर पर भी ब्रह्माण्ड हैं और इन ब्रह्माण्डों का सृजन पंच भूत (भगवान) के छोटे से हिस्से में आवरण बन जाने से हो जाता है और उन ब्रह्माण्डों के पिण्डों में भी अन्तः क्रियायें होती है जिनसे उनकी प्रगति होती रहती है। इन अनवरत होने वाली भौतिक व रासायनिक क्रियाओं (माया) के फलस्वरूप बने छोटे ब्रह्माण्ड कई बार जड़ -अचेतन, चेतन एवं जीवन गति की अवस्था में भी होते हैं जिन्हें जीव निकाया कहा जाता है। यह जीव निकाया शरीर की कोशा के अन्दर की आनुवांशिक इकाई से प्रारम्भ कर कोशिकांगों को समाहित कर कोषा फिर उत्तक शरीर के अंग और फिर जीव शरीर "जीव निकाया" तक जाती है।
सुत बित लोक ईषना तीनी केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी ।।
यह सब माया कर परिवारा प्रबल अमित को बरने पारा ।।
और फिर इसमें चाहत का कीड़ा, पुत्र, धन, लोकेषणा आदि जन्म लेकर सब की मति को एवं व्यक्ति को मलिन कर देती हैं और यह सभी इच्छाएँ अत्यन्त प्रबल हैं जिनकी सीमा नहीं है। इनका वर्णन नहीं किया जा सकता और यह सभी "माया" के परिवार के अन्तर्गत आते हैं। क्योकि भौतिक संसार में जीव व पदार्थ दोनों ही अपने चारों ओर के बल आकर्षण से प्रभावित होते हैं और यह प्रक्रिया अनत है जैसे माया की प्रबलता" ।
ब्यापि रहेउ संसार मह माया कटकु प्रचंड ।।
इस पूरे संसार में ऊर्जारूपी माया के कारण, अनवरत पूरे जगत में रासायनिक क्रियायें होती रहती है और ऊर्जा (माया क्रिया) की फौज पूरे जगत में व्याप्त है।
जो माया सब जगहिं नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा ।।
और यही माया / ऊर्जा की चाहत सारे संसार को व्याकुल किए रहती है और इसका स्वरूप उप परमाणुविक होने के कारण न किसी को दिखाई पड़ता है और न ही समझ में आता है।
माया बस्य जीव सचराचर |
और पूरा जीव-जगत तथा सभी चर-अचर लगातार इन होने वाली रासायनिक क्रियाओं के थपेड़ों के बीच रहते हैं।
माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुनखानी ।।
सारा जगत और अभिमानी जीव तो माया के वशीभूत रहता है, लेकिन यह ईश्वर के आधीन है। जो पराभौतिक एवं आध्यात्मिक बल के धारक हैं।
मूक होई बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन ।।
बिनु पद चलई सुनह बिनु काना
कर बिनु कर्म करम करइ बिधि नाना ।।
आनन रहित सकल रस भोगी बिन वानी बक्ता बड़ जोगी ।।
तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ धान बिनु बास असेषा ।।
जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता | अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता |
(अरण्यकाण्ड दो. 12 चौ.06)
अस तय रूप बखानऊँ जानऊँ | फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानऊँ ।।
(अरण्यकाण्ड दो. 12 चौ. 7)
बिना पैर के चलता है, बिना हाथ के काम करता है, बिना मुँह के समस्त रसों का भोग करता है, बिना शरीर स्पर्श करने वाला है, बिना नेत्र के देखने वाला है। फोटान के इन सभी गुणों का स्पष्ट चित्र प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में दिखाई देता है।
काग भुसुडिजी कहते हैं कि यद्यपि ब्रह्म अखंड है, अनंत है ऐसा अनुभवी संतों का मत है। उस निर्गुण निराकार रूप की आराधना भी मैं करता हूँ फिर भी मेरी लगन सगुण ब्रह्म श्रीराम के प्रति है इसलिए गुरुजी कृपया मुझ पर कृपा कर सगुण ब्रह्म की आराधना की पद्धति मुझे बतावें जिससे मेरा कल्याण हो। यद्यपि आप अखण्ड और अनन्त ब्रह्म हैं, जो अनुभव से ही जानने में आते हैं और जिनका संतजन भजन करते हैं। यद्यपि मैं आपके ऐसे रूप को जानता हूँ और उसका वर्णन भी करता हूँ वस्तुतः लौट लौटकर मैं सगुण ब्रह्म में ही प्रेम मानता हूँ।
सोई राम व्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पतिमाया धनी ।
अवतरेउ अपने भगत हित निज तंत्र नित रघुकुल मनी ।।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ।।
रामजी परब्रह्म हैं आप केवल परमार्थरूप हैं जिनका आदि अंत का किसी को ज्ञान नहीं है आप अदृश्य है अनुपम है। समस्त विकारों से परे हैं, मतभेदों से रहित हैं। वेद इन्हें नेति नेति कहकर निरूपित करते हैं। जन्म के समय आपके स्वरूप का वर्णन किया गया है।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा अविगत अलख अनादि अनूपा।
सकल विकार रहित मतभेदा कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।
लोचन अभिरामं तनघन श्यामं निज आयुध भुज चारी ।।
करुणासुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।।
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम-रोम प्रति बेद कहें। |
राम एवं ब्रह्म परोपकारी, अनादि न दिखने वाले, अनुपम, विकारों से रहित भेदों के परे, वेदों द्वारा नेति नेति जिनके लिए कहा गया है। उनके दिव्य शरीर में श्याम वर्ण के साथ चार भुजाएँ हैं। इन चारों भुजाओं में आयुध है। आयुध का आशय है मार करने के साथ ही बहुगुणित होने वाली मारक क्षमता। वह कार्बन के चार संयोजी इलेक्ट्रॉन के समान है जो आवश्यकतानुसार दिए और लिए जा सकते है। वह करुणा के सागर है. सर्वगुणों के निवास, समस्त ब्रह्माण्ड को अपनी माया से सृजन करने वाले जिनके प्रत्येक रोम में स्थित ब्रह्माण्डों का वेदों ने वर्णन किया है।
एक कहहिं ए सहज सुहाए आप प्रकट भए विधि न बनाए ।
प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम ।
ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल ।
प्रभु राम ने स्वतः अवतार लिया है इन्हें ब्रह्मा ने नहीं बनाया है। ऐसा माना जाता है कि शेष संसार क्रमशः भौतिक वस्तुओं की आपस में रासायनिक क्रियाओं का परिणाम है जबकि प्रभु राम चिन्मय दिव्य शरीर धारी प्रज्ञा के मूल स्रोत, शक्ति के आधार व नियंता हैं। वह समस्त जीव जगत में प्राणों के प्राण हैं और जीवन में सुख के आधार या सुख के पर्याय हैं।
जीवन में प्राण कब तक रहते हैं जब तक शरीर में संतुलित ऊर्जा का प्रवाह समस्त आवश्यक अंगों में बना रहता है। ऊर्जा का यही संतुलित प्रवाह प्राणों के प्राण का आधार है। जिसके वह नियंत्रक हैं। प्रभु राम ज्ञान का भंडार, ज्ञान के जानकार, पवित्र एवं धर्म को धैर्य के साथ धारण करने वाले मनुज रूप में सभी के पालक हैं वह सत्यव्रती हैं।