शिक्षा और निर्देशन
टी. रेमण्ट ने शिक्षा को परिभाषित करते हुये लिखा है "शिक्षा विकास का वह क्रम है, जिसके द्वारा मानव अपने को भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बनाने का प्रयास करता है।" स्पष्ट है कि मानव बाल्यावस्था से ही एक निस्सहाय प्राणी होता है। उसका जैविक विकास तो पौष्टिक भोजन पर निर्भर है लेकिन सामाजिक विकास शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। समाज में समायोजन करने में व्यक्ति को सक्षम बनाने में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इस कार्य के लिये शिक्षा उद्देश्य निर्धारण करती है। निर्देशन शिक्षा न होकर शिक्षा का सहयोगी है। निर्देशन शिक्षा के द्वारा निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता करता है। निर्देशन में किसी अर्जित अनुभव का हस्तान्तरण न होकर व्यक्ति को उसमें निहित क्षमताओं का ज्ञान कराकर उसको अपनी समस्या स्वयं हल करने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है।
अनुदेश और निर्देशन
कुछ विद्वानों का मत है कि शिक्षा अनुदेश देने की प्रक्रिया है। इस मत के अनुसार शिक्षक ही शिक्षा का केन्द्र होता है। शिक्षक को ही लक्ष्यों का ज्ञान होता है और वही उन तरीकों को निश्चित करता है। जिनके द्वारा इन लक्ष्यों को छात्र प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षण की प्रक्रियाओं में वह इन तरीकों को ही अनुदेश के माध्यम से अपने छात्रों को सिखाता है। इस प्रकार के अनुदेश में शिक्षक क्रियाशील और छात्र निष्क्रिय रहते हैं। आधुनिक विचारधारा के अनुसार शिक्षा का केन्द्र छात्र ही है। कक्षा में छात्र के सम्मुख अनेक उतेजनाएँ होती है। कुछ उत्तेजनाएँ शिक्षक द्वारा प्रस्तुत की जाती हैं और कुछ उत्तेजनाएँ छात्र कक्षा या बाह्य परिवेश से ग्रहण करता है। सफल शिक्षा का लक्ष्य यही है कि व्यक्ति विभिन्न उत्तेजना समूहों में से अपने लिये उपयुक्त उत्तेजना का चयन कर उसके प्रति सही अनुक्रिया अभिव्यक्त करने की क्षमता का अपने में विकास करे। स्पष्ट है कि शिक्षा ही शिक्षक प्रधान क्रिया में अनुदेश प्रधान होता है किन्तु बालक केन्द्रित शिक्षा में निर्देशन की प्रधानता होती है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि शिक्षा और निर्देशन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। दोनों एक सिक्के के दो पहलुओं के समान हैं। दोनों के उद्देश्य और प्रयोजन समान हैं। निःसंकोच रूप से कह सकते हैं कि निर्देशन शैक्षिक प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
शैक्षिक निर्देशन का अर्थ एवं परिभाषाएँ
शैक्षिक निर्देशन को समझने के लिये यहाँ कुछ विद्वानों द्वारा दी गयी शैक्षिक निर्देशन की परिभाषाओं पर विचार करना उपयुक्त होगा-
ब्रेवर के अनुसार- 'शैक्षिक निर्देशन व्यक्ति के बौद्धिक विकास में सहायता प्रदान करने का चेतनापूर्ण प्रयास है शिक्षण या अधिगम के लिये किये गये सभी प्रयत्न शैक्षिक निर्देशन के अंग है।"
जोन्स के अनुसार - "शैक्षिक निर्देशन का सम्बन्ध छात्रों को प्रदान की जाने वाली उस सहायता से है जो उन्हें विद्यालयों, पाठ्यक्रमों एवं विद्यालयों के जीवन से सम्बद्ध चुनावों एवं समायोजनों के लिये अपेक्षित है |"
होपकिंस के अनुसार- "उदीयमान विद्यालय सिद्धान्त निर्देशन को समस्त अधिगम के एक पक्ष के रूप में स्वीकार करता है अतएव अधिगम परिस्थितियों के कुशल प्रबन्धन में निर्देशन केन्द्रित होना चाहिये |"
आर्थर ई. ट्रेक्सलर के अनुसार - "निर्देशन विद्यालय के प्रत्येक पहलू जैसे- पाठ्यक्रम, अनुदेश की विधि, निरीक्षण, अनुशासन, उपस्थिति की समस्याएँ, पाठ्यातिरिक्त क्रियायें स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्यक्रम तथा परिवार और समाज के सम्बन्धों से सम्बन्धित है |"
जी. ई. मायर्स के अनुसार- "शैक्षिक निर्देशन छात्र के विकास या शिक्षा हेतु अनुकूल परिस्थितियाँ। उत्पन्न करने के लिये छात्र के विभिन्न गुणों एवं विकास के अवसरों के विभिन्न समूहों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने वाला प्रक्रम है।"
कार्टर थी. गुड के अनुसार -" शैक्षिक निर्देशन का सम्बन्ध मुख्य रूप से विद्यालयों, पाठ्य विषयों, पाठ्यक्रमों और विद्यालय से है, न कि व्यावसायिक, सामाजिक या व्यक्तिगत बातों से |"
उपर्युक्त परिभाषाओं के विवेचन से निकलने वाले निष्कर्ष है-
1. शैक्षिक निर्देशन का सम्बन्ध विद्यालय और विद्यालय में होने वाली क्रियाओं से होता है।
2. शैक्षिक निर्देशन छात्रों को उनके विषयों को चयन करने में सहायता करता है।
3. शैक्षिक निर्देशन विद्यालय के उचित कार्यक्रम के वरण में तथा उसमें प्रगति करने में सहायता करता है।
4. शैक्षिक निर्देशन छात्रों को उनकी योग्यताओं तथा अन्य गुणों का ज्ञान कराने में सहायक होता है।
5. अधिगम में आने वाली कठिनाइयों और समस्याओं के समाधान में छात्रों की मदद करता है।
6. शैक्षिक निर्देशन उन सभी समस्याओं से है जिनका अनुभव छात्र विद्यालय के परिवेश में अपने समायोजन में करता है।
शैक्षिक निर्देशन के उद्देश्य
शैक्षिक निर्देशन शैक्षिक प्रक्रम का महत्त्वपूर्ण अंग है। विद्यालयों में प्रचलित पाठ्यक्रम और पाठ्य सहगामी क्रियाओं की विविधता तथा भिन्न-भिन्न परिवेश से आने वाले छात्रों के कारण शैक्षिक निर्देशन के महत्त्व में और अधिक अभिवृद्धि हुई है। शैक्षिक निर्देशन के उद्देश्यों पर यहाँ चर्चा करना उपयुक्त होगा।
1. छात्रों की अन्त: शक्तियों को समझना (Understanding Potentials of the Students)- शैक्षिक निर्देशन का एक उद्देश्य छात्रों में निहित शक्तियों एवं गुणों की पहचान करना है क्योंकि बिना उनकी शक्तियों के ज्ञान के शैक्षिक निर्देशन का कार्य सम्भव नहीं है।
2. छात्रों को उनकी क्षमताओं का ज्ञान कराना (To aware Students of their Potentiali- ties)- शैक्षिक निर्देशन का उद्देश्य छात्रों को उनकी क्षमताओं से अवगत कराना है ताकि वे अवसरों के चयन में सक्षम बन सकें।
3. पाठ्यक्रम चयन में सहायता (Helping in Selecting Curriculum )–विद्यालय में प्रचलित विविध पाठ्यक्रम में से छात्र को अपने उपयुक्त पाठ्यक्रम का चयन करने में सहायता करना।
4. आत्म-निर्देशन (Self-Guidance)- शैक्षिक निर्देशन का उद्देश्य छात्र में आत्मविश्वास पैदा कर उसमें आत्मनिर्देशन के गुण का विकास करना है।
5. उत्तम अभिरुचि का विकास करना (Development of Best Aptitude)—– शैक्षिक निर्देशन छात्र को विद्यालय में संचालित विविध क्रियाओं में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित कर उनमें उत्तम अभिरुचि को विकसित करता है।
6. अध्ययन की आदतों का विकास (To Develop Good Study Habits) — शैक्षिक निर्देशन का उद्देश्य छात्रों में अध्ययन की अच्छी आदतों का निर्माण करना है।
7. पुस्तकालय के उपयोग के लिये प्रोत्साहन (Encouragement for the Use of Library)- पुस्तकालय ज्ञान के भण्डार होते हैं। शैक्षिक निर्देशन छात्रों के पुस्तकालय के महत्त्व का ज्ञान करवाकर उसके उत्तम उपयोग के लिये प्रेरित करता है।
8. स्वस्थ समायोजन (Healthy Adjustment) -शैक्षिक निर्देशन छात्र की विद्यालय परिवेश और कक्षा परिवेश में स्वस्थ समायोजन स्थापित करने में सहायता करता है।
9. आत्मानुशासन का विकास (Development of Self-discipline )- विद्यालय में अनेक प्रकार के छात्र होते हैं। कुछ असन्तुष्ट तथा कुसमायोजित छात्र विद्यालय व्यवस्था में विघ्न पैदा करते हैं। ऐसी स्थिति के लिये छात्रों में आत्म-अनुशासन का विकास करना।
10. शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसरों की जानकारी (Awareness about educational and Vocational Opportunities)- शैक्षिक निर्देशन का यह भी उद्देश्य है कि आगे की शिक्षा और व्यावसायिक अवसरों के बारे में छात्रों को जानकारी दी जाये।
11. समाज कल्याण (Social Welfare) -शैक्षिक निर्देश छात्रों को सामाजिक कल्याण के कार्य करने का प्रोत्साहन देता है।
12. स्वयं निर्णय लेना (Self Decision)- शैक्षिक निर्देशन छात्र को इस योग्य बनने में सहायता करता है कि वह अपने निर्णय स्वयं ले सके।
शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता
मनोवैज्ञानिक अनुसन्धान के आधार पर शिक्षा के क्षेत्र में पहले की अपेक्षा अब अधिक परिवर्तन हुये हैं। व्यक्ति तथा समाज की आवश्यकताओं के आधार पर शिक्षा के उद्देश्य निश्चित होते हैं। समाज अधिक जटिल होता गया, विचारधारा में परिवर्तन हुए। इसके अनुसार ही शिक्षा के उद्देश्य तथा उन उद्देश्यों तक पहुँचने की विधि में भी परिवर्तन हुए हमारे देश में भी प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में सुधार तथा पुनर्संगठन हो रहा है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली का प्रमुख दोष छात्रों की बुद्धि वैभव (Talents) पर ध्यान न देना है। शिक्षा छात्रों की अभिरुचि, योग्यता और रुचि के अनुसार नहीं दी जाती है। इसका परिणाम छात्रों की शक्ति, समय तथा धन का अपव्यय है। इस अपव्यय को कम करने का एक ही साधन शैक्षिक निर्देशन है। निम्नलिखित दृष्टियों से भी शैक्षिक निर्देशन आवश्यक है।
1. पाठ्य विषयों का चुनाव
सन् 1935 में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने अपने प्रतिवेदन में विविध पाठ्यक्रम का सुझाव दिया है। छात्रों में जब व्यक्तिगत विभिन्नता पायी जाती है, उनकी क्षमताएँ, योग्यताएँ रुचियाँ समान नहीं होतीं, तो उनको एक ही पाठ्यक्रम का अध्ययन कराना उचित नहीं है। उस प्रतिवेदन के अनुसार कुछ आन्तरिक विषय तथा इनके अतिरिक्त कुछ वैकल्पिक: विषय रखे गये है, जिनको 7 वर्गों में विभाजित किया गया है। इन वर्गों का चुनाव करना एक कठिन कार्य है। यहाँ विद्यालयों में छात्रों को विषयों के चयन करते समय किसी प्रकार का पथ प्रदर्शन नहीं दिया जाता है। छात्रों को स्वयं के तथा पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में कोई ज्ञान नहीं होता है। वे नहीं जानते हैं कि किस विषय का किस वृत्ति (Occupation) से सम्बन्ध है। ये छात्र अपने माता-पिता के परामर्श से या स्वयं उन विषयों को चुन लेते है, जो उनको रुचिकर या सरल दिखते हैं। इस प्रकार गलत पाठ्यक्रम का चुनाव करने से छात्र अवरोधन तथा अपव्यय की समस्या को बढ़ाते हैं। गलत पाठ्यक्रम का चुनाव मुख्यतः दो कारणों से होता है।
(i) कम योग्यता तथा उच्च महत्वाकांक्षा के कारण पाठ्य विषयों का गलत चुनाव करना। बहुत से छात्र, जिनकी बुद्धि लब्धि (1.Q.) 100 या इससे कम होती है, विज्ञान या गणित आदि जैसे कठिन विषय चुन लेते हैं। इसका दुष्परिणाम एक ही कक्षा में बार-बार अनुत्तीर्ण होना होता है।
(ii) उच्च योग्यता तथा निम्न महत्त्वाकांक्षा भी गम्भीर समस्याएँ उत्पन्न करती है। अधिकांश छात्र प्रखर बुद्धि के होने पर सरल विषय चुन लेते हैं। इस तरह उनकी प्रखर बुद्धि का कोई लाभ राष्ट्र या स्वयं उस छात्र को नहीं हो पाता है। इसको रोकने के लिये शैक्षिक निर्देशन अति आवश्यक है।
2. अग्रिम शिक्षा का निश्चय
हमारे देश में शैक्षिक निर्देशन के अभाव से छात्र अग्रिम शिक्षा का उचित निश्चय नहीं कर पाते है। हाईस्कूल परीक्षा में सफलता प्राप्त करने के उपरान्त छात्रों के लिये यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि उनको व्यावसायिक विद्यालय में औद्योगिक विद्यालय में या व्यापारिक विद्यालय में कहाँ जाना चाहिये। कभी-कभी छात्र गलत विद्यालयों में प्रवेश प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे विद्यालयों में बाद में वे समायोजित (Adjust) नहीं हो पाते हैं। छात्रों को उचित अग्रिम शिक्षा का निर्णय लेने के लिये शैक्षिक पथ-प्रदर्शन अवश्य दिया जाये।
3. अपव्यय तथा अवरोधन को दूर करना
भारत में प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर अधिक अपव्यय होता है। भारतीय संविधान के अनुसार 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के बालको के लिये शिक्षा अनिवार्य की गयी है लेकिन अधिकांश छात्र स्थायी साक्षरता प्राप्त किए बिना ही विद्यालय छोड़ देते हैं। बाह्य परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है। यह अवरोधन भी दूसरे रूप में समय धन तथा शक्ति का अपव्यय है। अपव्यय को दूर करने के लिये आवश्यक है कि छात्रों को निर्देशन दिया जाये।
4. नवीन विद्यालय में समायोजन हेतु
बहुत से छात्र जब नवीन विद्यालय में प्रवेश लेते हैं तो उनको वहाँ के नियमों का ज्ञान न होने से वे नवीन वातावरण में अपने को समायोजित करने में असफल पाते हैं। भारत में यह समस्या विकट रूप धारण किये हुये है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या गाँव में निवास करती है। इन गाँवों में उच्च शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं होता है। ग्रामीण वातावरण में पले हुये छात्र जब नगरीय क्षेत्र के विद्यालयों में प्रवेश प्राप्त करते हैं, तो उनको इन विद्यालयों में नवीन वातावरण मिलता है। अधिकांश छात्र नवीन वातावरण में समायोजित न होने पर अध्ययन छोड़कर गाँवों को लौट जाते है। शैक्षिक निर्देशन उपलब्ध होने पर छात्रों का कुसमायोजन रोका जा सकता है।
5. जीविकाओं का ज्ञान देना
स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त देश के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिये पंचवर्षीय योजनाएँ बनायी गयी है। इन पंचवर्षीय योजनाओं ने हमारे नवयुवकों के लिये अवसरों का भण्डार खोल दिया है। इन नवीन अवसरों का ज्ञान भारतीय जनता के बहुत कम व्यक्तियों को है। भारत में छात्र बिना किसी अवसर की परवाह किये विद्यालयों में प्रवेश पाते हैं। उनको इस बात का ज्ञान नहीं होता कि कौन-सा पाठ्य विषय किस व्यवसाय या सेवा की आधारशिला तैयार करता है। इसका कुपरिणाम भारत में शिक्षित बेकारी' की समस्या है जो प्रति वर्ष उग्र रूप धारण करती है। अगर विद्यालयों में निर्देशन द्वारा विभिन्न पाठ्य विषयों से सम्बन्धित अवसरों (Opportunities) का ज्ञान दे दिया जाये तो बेकारी की समस्या कुछ सीमा तक हल हो सकती है। कुछ व्यक्ति एक वृत्ति से दूसरी वृत्ति में बार बार परिवर्तन करते है, उसको दूर किया जा सकता है।
6. विद्यालय व्यवस्था, पाठ्यक्रम तथा शिक्षण विधि में परिवर्तन
शिक्षा में पहले की अपेक्षा बहुत से परिवर्तन हुये है। पहले शिक्षा बौद्धिक विकास की एक प्रक्रिया मात्र थी परन्तु आज ज्ञान व्यक्तिगत तथा सामाजिक समस्याओं के समाधान का एक साधन (Instrument) माना जाता है। मौरिस के अनुसार, निश्चयात्मक शिक्षा (Deterministic education) का, जो कि विभिन्न सामाजिक स्तर के व्यक्तियों को विभिन्न अवसर प्रदान करती है, रूप परिवर्तित होकर प्रजातन्त्रात्मक शिक्षा होता जा रहा है जो कि सभी व्यक्तियों को समान अवसर प्रदान करता है साहित्यिक पाठ्यक्रम (Linguistic curriculum) के स्थान पर विस्तृत. वैज्ञानिक तथा सामाजिक पाठ्यक्रम स्वीकार किया जा रहा है जो प्रतिदिन की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाया जाता है। पहले विद्यालय समाज से दूर स्थापित किये जाते थे, लेकिन आज विद्यालय समाज में ही स्थापित होते हैं। समाज तथा विद्यालय में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करने के प्रयत्न किये जा रहे है।
पहले शिक्षण में अध्यापक क्रियाशील रहता था। आज अध्यापन में बालक को प्रधानता दी जाती है। पहले अध्यापक सभी छात्रों को एक-सा मानकर अध्यापन करता था। आज व्यक्तिगत विभिन्नता के सिद्धान्त पर अधिक बल दिया जाता है। ये सभी परिवर्तन शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता पर बल देते हैं।
शैक्षिक निर्देशन का महत्व और कार्य
छात्र के जीवन में शैक्षिक निर्देशन का महत्वपूर्ण स्थान है। नवीन विद्यालय में प्रवेश के साथ उसको अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उसे नवीन साथी नवीन शिक्षक और विद्यालय या नवीन परिवेश मिलता है। उसके मस्तिष्क में अनेक प्रश्नों की झड़ी लग जाती है। वह जानना चाहता है कि विद्यालय भवन में कौन-सी सुविधाएँ उपलब्ध है और इन सुविधाओं के उपलब्धि स्थान कहाँ पर है. विद्यालय में कौन-कौन से विषय पढ़ाये जाते हैं, विषयों का शिक्षण करने वाले शिक्षक कौन-कौन है। इस प्रकार उठने वाले प्रश्नों का उत्तर देने की क्षमता केवल शैक्षिक निर्देशन में ही निहित है। यहाँ पर ऐसे बिन्दु प्रस्तुत है जो शैक्षिक निर्देशन के महत्व और कार्यों पर प्रकाश डालते है-
1. शैक्षिक निर्देशन छात्रों को उनकी योग्यताओं और क्षमताओं का ज्ञान करवाकर उनके लक्ष्य निर्धारण में सहायता करता है।
2. विद्यालय में चलने वाले विविध पाठ्यक्रम में से छात्र की योग्यता, क्षमता और लक्ष्य के अनुरूप पाठ्यक्रम के चयन में निर्देशन प्रदान करता है।
3. शैक्षिक निर्देशन का एक कार्य छात्र को अधिगम में होने वाली कठिनाइयों को दूर करना है।
4. कक्षा में अध्ययनरत से छात्रों में वैयक्तिक भिन्नताएँ होना स्वाभाविक है। इसके आधार पर विशिष्ट छात्रों की करना भी निर्देशन का कार्य है।
5. विद्यालय में चलने वाली पाठ्य सहगामी क्रियाओं में उचित तथा उपयुक्त क्रिया में भाग लेने के लिये प्रेरित करने का कार्य भी शैक्षिक निर्देशन का है।
6. अनेक छात्र जब नये विद्यालय में प्रवेश लेते है तो नवीन परिवेश के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते है। शैक्षिक निर्देशन ऐसे छात्रों को कुसमायोजन से बचाने का कार्य करता है।
7. शैक्षिक निर्देशन एक स्तर की शिक्षा समाप्त होने पर छात्र को अग्रिम शिक्षा के लिये सहयोग प्रदान कर उस शिक्षा के लिये उपयुक्त विद्यालय का सुझाव देता है।
8. पाठ्यक्रम सुधार के लिये सुझाव देना भी शैक्षिक निर्देशन का कार्य है।
9. शैक्षिक निर्देशन पाठ्यक्रम और उससे सम्बन्धित व्यवसायों की जानकारी छात्रों को देता है।
10. व्यावसायिक अवसरों की जानकारी देना भी शैक्षिक निर्देशन का कार्य है।
11. शैक्षिक निर्देशन का कार्य छात्रों को परीक्षा की तैयारी के बारे में सुझाव देना भी है। अधिकांश छात्र परीक्षा के भय से अवसाद ग्रसित हो जाते हैं।
12. कक्षा शिक्षण और विद्यालय में संचालित कार्यक्रमों में शिक्षकों की मदद करना भी शैक्षिक निर्देशन का कार्य है।
विभिन्न स्तरों पर शैक्षिक निर्देशन
यह विचार दोषपूर्ण है कि शैक्षिक निर्देशन का प्रारम्भ उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं से होता है। शैक्षिक निर्देशन तो प्रारम्भिक कक्षाओं से ही प्रारम्भ होना चाहिये। प्राथमिक शिक्षा में पहले की अपेक्षा अधिक परिवर्तन हुआ है। प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य भी बालक का सम्पूर्ण विकास करना है। जोन्स' ने अपनी पुस्तक 'निर्देशन के सिद्धान्त' में प्राथमिक विद्यालयों में निर्देशन के महत्त्व के सम्बन्ध में कहा है, "निर्देशन सम्पूर्ण शिक्षा कार्यक्रम का अभिन्न अंग है। सुधारात्मक शक्ति की अपेक्षा वह सकारात्मक (Positive) कार्य के रूप में सेवा करता है और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिये बालक के विद्यालय से प्रथम सम्पर्क स्थापित होने से लेकर जब तक वह किसी वृत्ति में नियुक्ति योग्य नहीं हो जाता है, निरन्तर प्रक्रिया के रूप में चलता रहना चाहिये।"
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि निर्देशन की आवश्यकता विद्यालय के सभी स्तरों पर होती है।
प्राथमिक स्तर पर शैक्षिक निर्देशन के कार्य
किण्डरगार्टन या प्राथमिक विद्यालयों की प्रथम कक्षा के बालकों को निर्देशन की अधिक आवश्यकता होती है। ये बालक अपने घर को छोड़कर नवीन वातावरण में प्रवेश करते हैं। घर में स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करते हैं, परन्तु विद्यालय का जीवन अधिशासित ( Regimented) होता है। यहाँ पर स्वतन्त्रता के साथ कुछ प्रतिबन्ध भी होते हैं। बालकों को निश्चित समय पर पूर्व निर्धारित कार्य करने पड़ते हैं। यहाँ पर बालक ऐसे समूह का सदस्य होता है जो समान उम्र के बालकों द्वारा निर्मित होता है। घर के परिचित वातावरण को त्याग कर जब बालक विद्यालय के नवीन वातावरण में प्रवेश करता है, उसको वहाँ पर समायोजित होने में कठिनाई उपस्थित होती है। बहुत से बालक कुसमायोजन के शिकार हो जाते हैं। इसका बालकों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। मानसिक क्षुब्धता तथा प्रतिकूल अभिवृत्ति बालकों में उत्पन्न होती है। प्राथमिक स्तर पर व्यावसायिक अंग सापेक्षिक रूप से कम महत्त्व रखता है। शैक्षिक निर्देशन का प्रमुख उद्देश्य बालको के व्यक्तित्व तथा सामाजिक व्यवहार का विकास करना तथा सीखने से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान में छात्रों की सहायता करता है।
प्राथमिक स्तर पर निर्देशन की विधियों
प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक का प्रमुख कार्य होता है अध्यापन तथा इसके साथ ही वह परामर्शदाता का कार्य भी करता है। प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य आधारभूत कौशल (Fundamental skills) में निपुणता प्राप्त करना तथा विषयों का ज्ञान प्राप्त करना है। अध्यापक इन उद्देश्यों की प्राप्ति में छात्रों की सहायता करता है। अध्यापक अपनी कक्षा के छात्रों के अधिक सम्पर्क में रहता है। अतः वह झगड़ालू, शर्मीले, प्रतिभावान, डरपोक इत्यादि बालकों का पता लगा सकता है। अध्यापक परामर्श द्वारा माता-पिता से सम्पर्क स्थापित कर तथा कुछ क्रियाएँ संगठित कर बालकों की इन कमियों पर विजय प्राप्त करने में सहायता करता है। अध्यापक को परीक्षाओं के लागू करने का ज्ञान होना चाहिये। प्राथमिक स्तर पर निर्देशन कार्य प्रभावशाली ढंग से चलाने के लिये विद्यालय के समस्त अध्यापक मण्डल का सहयोग आवश्यक है।
माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक या बहु-उद्देशीय विद्यालयों में शैक्षिक निर्देशन
प्राथमिक विद्यालय स्तर की अपेक्षा उच्चतर माध्यमिक स्तर पर निर्देशन कार्य का क्षेत्र विस्तृत होता है। इस कारण इस स्तर पर विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है। इसके तीन प्रमुख कारण हैं-
1. प्राथमिक विद्यालय तथा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम में स्पष्ट अन्तर होता है। इस स्तर पर पाठ्यक्रम में विविधता होती है। जब छात्र 9वीं कक्षा में पहुँचता है तो उसके समक्ष विषय चुनने की समस्या उत्पन्न होती है।
2. इन दोनों प्रकार के विद्यालयों के अध्यापक मण्डल के संगठन में भी अन्तर होता है। प्राथमिक विद्यालयों में कक्षाध्यापक व्यवस्था चलती है लेकिन उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में विशेष योग्यता वाले अध्यापक अध्यापन करते हैं। प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक सम्पूर्ण कक्षा के छात्रों की प्रगति के लिये उत्तरदायी होता है। उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में कोई एक अध्यापक छात्रों की प्रगति के लिये उत्तरदायी नहीं होता है। अतः इस स्तर पर छात्रों की समस्याओं को समझने तथा उनको दूर करने में सहायता के लिये संगठित निर्देशन व्यवस्था की आवश्यकता होती है।
3. प्राथमिक विद्यालय की अपेक्षा इस स्तर पर व्यावसायिक विचारधारा पर अधिक बल दिया जाता है। छात्र 9वीं तथा 11वीं कक्षा में पहुँचकर व्यवसाय के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण निर्णय करते हैं। निर्देशन की सहायता से ही छात्र उपयोगी निर्णय कर सकते है।
माध्यमिक विद्यालय में अध्ययन करने वाले छात्र किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं। इस अवस्था में शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांवेगिक परिवर्तन तथा विकास अधिक होता है। स्वयं बालक भी इस परिवर्तन के प्रति सचेत नहीं होता है। इन किशोरों का विकास समान गति से नहीं होता है। किशोरों की रुचियाँ तथा अभिरुचियों में भिन्नता पायी जाती है। ये सभी बातें निर्देशन की आवश्यकता को दर्शाती है। इस स्तर पर निर्देशन कार्य में निम्नलिखित क्रियाएँ सम्मिलित है-
1. प्रवेश प्राप्त करने की विधि।
2. विद्यालय की आवश्यकताएँ (Requirement), कार्य करने की विधि आदि का ज्ञान छात्रों को देना।
3. छात्रों से सम्बन्धित सूचनाएँ एकत्रित करना ।
4. व्यावसायिक तथा शैक्षिक सूचनाएँ छात्रों के लाभ के लिये एकत्रित करना।
5. छात्रों को परामर्श देना। परामर्श द्वारा कुछ विशिष्ट सेवाएं की जा सकती है।
(क) अध्ययन के लिये पाठ्य विषय का चुनाव करने में छात्रों की सहायता करना।
(ख) छात्रों की रुचियों, अभियोग्यता (Aptitude) और योग्यताओं का पता लगाकर छात्र के वर्तमान तथा भविष्य के उद्देश्यों (Goals) से सम्बन्ध स्थापित करना।
(ग) व्यक्तिगत समस्याओं के सम्बन्ध में वार्तालाप करना।
6. सामूहिक क्रियाएँ संगठित करनी चाहिये। उदाहरण के लिये, छात्र संघ, क्लब तथा सामाजिक क्रियाएँ।
7. छात्रों को शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के सम्बन्ध में सलाह देने के लिये स्वास्थ्य सेवाएँ संगठित करना।
8. विद्यालय के सभी अध्यापकों का सहयोग प्राप्त होना चाहिये।
माध्यमिक शिक्षा के उपरान्त शैक्षिक निर्देशन
शैक्षिक निर्देशन मुख्य रूप से प्रारम्भिक एवं माध्यमिक स्तरों से ही सम्बद्ध होता है क्योंकि उसके बाद उच्च कक्षाओं में उदार शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र संख्या में अधिक नहीं होते और जो होते हैं वे स्वतः इतने समर्थ हो चुके होते हैं कि अपनी शैक्षिक समस्याओं का समाधान खोज सकें। फिर भी उच्च अध्ययन में अध्ययन के क्षेत्रों, अवसरों, उपलब्ध पुस्तकों एवं विषय की विस्तृति आदि बातों का ज्ञान प्रदान करने में कैरियर मास्टर सहायक होता है।
जो छात्र प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों (training courses) या व्यावसायिक पाठ्यक्रमों (vocational courses) में प्रवेश ले लेते हैं उनकी शैक्षिक समस्याएँ बहुत कुछ व्यावसायिक निर्देशन के अन्तर्गत आ जाती हैं, क्योंकि उनका स्वरूप शुद्ध शैक्षिक नहीं रहता।
शैक्षिक निर्देशन कैसे दें ?
शैक्षिक निर्देशन का स्वभाव, प्रकृति तथा आवश्यकता का अध्ययन कर चुकने के उपरान्त स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि छात्रों को शैक्षिक निर्देशन कैसे दिया जाये ? सामान्यतया निर्देशक को शैक्षिक निर्देशन के लिये निम्नांकित सोपानों का पालन करना पड़ता है-
1. अनुस्थापन वार्तायें (Orientation Talks)- निर्देशन को चाहिये कि वह सबसे पहले स्वयं ही अथवा अन्य विद्वानों से सामूहिक रूप में अनुस्थापना वार्तालाप कराएं। इस प्रकार की वार्ताओं से छात्र को शिक्षा- निर्देशन की आवश्यकता तथा महत्त्व स्पष्ट हो जायेंगे। दूसरे शब्दों में, निर्देशन हेतु छात्र में स्वयं ही उत्सुकता पैदा हो जायेगी। छात्रों को निर्देशन हेतु तैयार करने के पश्चात् निर्देशन देना सदैव अच्छा रहता है।
2. प्राथमिक साक्षात्कार ( Initial Interview ) वार्तायें सामूहिक रूप से दी जाती हैं। उनसे व्यक्तिगत रूप में कुछ भी सम्पर्क नहीं होता है। अतः छात्र का व्यक्तिगत रूप से अध्ययन करने के लिये प्राथमिक साक्षात्कार करना चाहिये। इस साक्षात्कार में निर्देशक मण्डली (guidance committee) को सभी आवश्यक बातों की सूचना प्राप्त करना आवश्यक है।
3. सामाजिक व आर्थिक अध्ययन (Social and Economic Status Study)- इसके उपरान्त छात्र के समाज, घर, गृहस्थी, माता-पिता, मित्र- मण्डली. पास-पड़ोस आदि के सम्बन्ध में पूरी-पूरी आर्थिक तथा सामाजिक जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिये इसके लिये किसी अच्छे Socio-economic status scale' की सहायता लेना अच्छा रहेगा।
4. मनोवैज्ञानिक परीक्षण (Psychological Testing)— इसके पश्चात् छात्र का मनोवैज्ञानिकः परीक्षण होना चाहिये। इस परीक्षण में सामान्य बुद्धि तथा विशिष्ट बुद्धि, रुचि, अभिरुचि, निष्पत्ति तथा व्यक्तित्व का आवश्यक रूप से परीक्षण होना चाहिये। इसके साथ ही उनकी भाषा, विज्ञान आदि के ज्ञान का भी परीक्षण जरूरी है।
5. विद्यालय - जीवन का अध्ययन (Study of School Life)- मनोवैज्ञानिक परीक्षण करने के उपरान्त छात्र के विद्यालय जीवन का भी अध्ययन करना चाहिये। वह किन-किन विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करके आया है। कौन-कौन से विषयों की शिक्षा उसने प्राप्त की है ? किस विषय में कितने अंक प्राप्त किये ? कक्षा में उसका क्या स्थान रहा? सहगामी क्रियाओं के प्रति उसकी क्या रुचि है ? उसके शौक (Hobbies) क्या हैं? शिक्षकों का उसके प्रति क्या दृष्टिकोण है ? इत्यादि बातों की पूरी-पूरी जानकारी करनी चाहिये। इसके लिये छात्र के संचयी आलेख पत्र का विस्तृत अध्ययन करना चाहिये।
6. स्वास्थ्य परीक्षण (Medical Examination ) - तदुपरान्त छात्र के स्वास्थ्य के परीक्षण की व्यवस्था करनी चाहिये। स्वास्थ्य परीक्षण में बाह्य तथा आन्तरिक रोगों या कमजोरियों आदि सभी का पता लगा लेना चाहिये।
7. अन्तिम साक्षात्कार (Final Interview) अन्त में छात्र के साथ अन्तिम रूप से साक्षात्कार करना चाहिये। इस अन्तिम साक्षात्कार में निर्देशक मण्डली को अपनी समस्त शंकाओं का समाधान कर लेना चाहिये। जो कोई अतिरिक्त सूचना प्राप्त नहीं हो पायी हो, उसे इस के समय प्राप्त कर लेना चाहिये।
8. पार्श्वचित्र-निर्माण (Construction of Profile)—समस्त प्रकार की सूचनाएँ प्राप्त कर लेने के उपरान्त इन प्राप्त सूचनाओं के आधार पर एक पार्श्वचित्र बना लेना चाहिये। पार्श्वचित्र एक ग्राफ पेपर पर बना हुआ रेखाचित्र होता है जिसमें छात्र की विभिन्न योग्यताओं, क्षमताओं तथा अनेक परीक्षणों के स्तर का चित्र दिया होता है।
9. सम्मेलन (Conference ) — छात्र से सम्बन्धित सूचनाओं का निचोड़ तथा निष्कर्ष निकालने के उपरान्त निष्कर्ष को निर्देशक मण्डली के सम्मेलन में प्रस्तुत करना चाहिये। यहाँ प्रत्येक विशेषज्ञ अपनी-अपनी राय प्रस्तुत करेंगे और एक निर्णय पर पहुंचेंगे। यह निर्णय शिक्षा निर्देशन में बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। अतः निर्णय अत्यन्त सावधानी से लेना चाहिये।
10. लेखा लिखना (Report Writing)- सम्मेलन के निर्णय के आधार पर छात्र के सम्बन्ध में लेखा प्रस्तुत करना चाहिये। इस लेखे को छात्र को छात्र के अभिभावक को या विद्यालय अधिकारियों को दे देना चाहिये।
11. अनुवर्ती कार्य (Follow-up Work )— छात्र के सम्बन्ध में निर्णय लेकर लेखा दे देने से ही निर्देशन कार्य पूरा नहीं हो जाता है। निर्देशक को अपने निर्णय का मूल्यांकन करना चाहिये। प्रश्न है कि उस मूल्यांकन या निर्णय की जाँच कैसे की जाये ? इसके लिये सबसे सरल विधि यह है कि जिस छात्र को निर्देशित किया गया है उसे जिस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के लिये कहा गया है. उसमें वह कितनी सफलता प्राप्त कर रहा है ? यह सफलता का स्तर ही निर्देशन कार्य का मूल्यांकन है। यदि छात्र सफलता प्राप्त नहीं कर रहा है तो हमें समझना चाहिये कि हमारी निर्देशन पद्धति में कहीं कोई त्रुटि का पता लगा लेने के पश्चात् उसके निवारण हेतु प्रयास करना चाहिये। दूसरे शब्दों में अनुवर्ती कार्य निर्देशन- व्यवस्था को सुधारने में सहायक होता है तथा अनुसन्धान (research) की आवश्यकता पर जोर देता है।