समूहिक गत्यात्मकता क्या हैं? अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, प्रकार, क्षेत्र एवं प्रयोग

GROUP DYNAMICS:विभिन्न विद्वानों ने समूह के अस्तित्व के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न बातों को प्रकाशित किया है। कुछ विद्वानों का मानना है कि लोगों ने अपनी रक्षा के लिए समूह का निर्माण किया। कुछ विद्वानों ने कहा कि मनुष्य समूहों में इसलिए रहता आ रहा है कि उसमें समूहशीलता की प्रवृत्ति (Gregarious instinct) पायी जाती है। वास्तविकता यह है कि सामाजिक जीवन के लिए समूह काफी महत्व रखता है।

    अतः समाजशास्त्र के अन्तर्गत समूह एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा है। बोगार्डस, जॉनसन आदि समाजशास्त्रियों  के विचारानुसार सामाजिक समूह समाजशास्त्र का अध्ययन विषय है। सामाजिक मनोविज्ञान के अन्तर्गत भी समूह का अध्ययन अति आवश्यक है, क्योंकि यह न सिर्फ व्यक्ति को एक सामाजिक प्राणी बनाता है. बल्कि उसकी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति भी विभिन्न समूह का सदस्य बनकर ही की जा सकती है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी परिवार, समाज, पड़ोस, गाँव या शहर का सदस्य अवश्य होता है। उसी तरह व्यावसायिक आधार पर व्यक्ति मजदूर, क्लर्क, इंजीनियर, डॉक्टर आदि समूह का सदस्य होता। है। आयु के आधार पर भी वह बच्चों, युवाओं, प्रौढ़ों एवं वृद्ध सबका सदस्य होता है। लिंग के आधार पर भी व्यक्ति को स्त्री या पुरुष समूह का सदस्य माना जाता है। इससे स्पष्ट है कि "सामाजिक समूह एक प्रकार का संगठन है, जिसके सदस्य एक-दूसरे को जानते हैं और वैयक्तिक रूप से एक-दूसरे से अपनी एकरूपता स्थापित करते हैं।"

    सामाजिक समूह का अर्थ एवं परिभाषा 

    साधारण शब्दों में समूह का तात्पर्य व्यक्तियों का एक स्थान पर एकत्र होना माना जाता है, जैसे पार्क में बैठे हजारों व्यक्तियों का समूह, रेल के डिब्बे में बैठे यात्रीगण, सब्जी मण्डी में एकत्रित लोग इत्यादि। लेकिन समाजशास्त्र में 'समूह' शब्द का एक विशेष अर्थ होता है। कुछ विद्वानों ने सामाजिक समूह को ही सामाजिक समुच्चय (Social Aggregate or Social Category) कहा है। 

    लेकिन गिडेन् (Anthony Giddens, 1993) ने इन्हें समूह से अलग माना है। 

    गिडेन्स के अनुसार- समुच्चय एक जगह तथा एक समय में व्यक्तियों का संचयन मात्र है, पर उन लोगों के बीच निश्चित सम्बन्ध का को सामाजिक समूह तो नहीं कहा जा सकता, पर सामाजिक समुच्चय अवश्य कहा जा सकता है। इसी अभाव होता है। अतः स्पष्ट है कि मेले की भीड़, बाजार की भीड़, ट्रेन की भीड़ सिनेमाघरों की भीड़ प्रकार के समूह को बाटोमोर ने अर्द्ध-समूह (Quasi-group) कहा है।

    सामाजिक श्रेणी (Social category) को परिभाषित करते हुए बाटोमोर ने लिखा है-  सामाजिक श्रेणी एक सांख्यिकीय समूह है लोगों का वर्गीकरण कुछ विशिष्ट विशेषताओं के आधार पर होता है जो समान रूप से सभी में पायी जाती है, जैसे- आमदनी के स्तर की समानता या फिर समान पेशों का होना। 

    समाजशास्त्र में 'समूह' शब्द का एक विशेष अर्थ होता है। साधारणतया समूह का तात्पर्य व्यक्तियों  का संग्रह नहीं होता, बल्कि समूह का निर्माण केवल उन व्यक्तियों से होता है जो अपने विभिन्न स्वार्थी या आवश्यकताओं के कारण एक-दूसरे से सम्बद्ध रहते हैं अर्थात् दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच कार्यात्मक सम्बन्ध (Functional relationship) का होना ही समूह कहलाता है, जैसे यदि दो नेता अलग-अलग रास्ते पर चल रहे हों या अपने किसी काम में संलग्न हो तो वे समूह का निर्माण नहीं करते. लेकिन जब वही नेता स्वयं को एक-दूसरे से सम्बन्धित समझते हैं और एक दूसरे से अन्तर्क्रिया करते है तो वे समूह का निर्माण करते हैं। 

    इस सम्बन्ध में लिण्डग्रेन (Lindgren, 1969) ने लिखा है- दो या दो से अधिक व्यक्तियों के किसी कार्यात्मक सम्बन्ध में व्यस्त होने पर एक समूह का निर्माण होता है। 

     सापिट का कथन है कि "समूह का निर्माण इस तथ्य पर आधारित है कि कोई-न-कोई विशेष स्वार्थ एक समूह के सदस्यों को एकता के सूत्र में बाँधे रखता है।"

    शेरिफ एवं शेरिफ के अनुसार- एक समूह एक सामाजिक इकाई है जिसमें कुछ व्यक्ति होते हैं. जो एक-दूसरे के प्रति अपेक्षाकृत निश्चित पद एवं भूमिका सम्बन्ध रखते हैं और जिसके अपने प्रतिमान या मूल्य होते हैं जो कम से कम समूह के प्रति परिणाम के मामले में सदस्यों के व्यवहार को नियन्त्रित करते हैं।" 

    शेरिफ एवं शेरिफ का मानना है कि प्रत्येक समूह के सदस्यों की भूमिका निर्धारित होती है। और सभी सदस्य लक्ष्य-प्राप्ति हेतु एक-दूसरे से अन्तर्किया करते हुए समूह का निर्माण करते हैं।

    मैकाइवर एवं पेज के अनुसार - "समूह से हमारा तात्पर्य व्यक्तियों के किसी भी ऐसे संग्रह से है जो सामाजिक सम्बन्ध के द्वारा एक-दूसरे के समीप रहते हैं। 

    आगर्बन एवं निमकॉफ के अनुसार - जब कभी भी दो या दो से अधिक व्यक्ति समीप आकर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं तो वे एक सामाजिक समूह का निर्माण करते हैं।

    बेरोन तथा बिने के अनुसार- "समूह वह सामाजिक इकाई है, जिसमें दो या अधिक व्यक्ति सामाजिक पारस्परिक क्रिया में लगे होते हैं, जो एक-दूसरे के साथ स्थिर, संरचित सम्बन्ध रखते हैं, जो एक-दूसरे रे पर अवलम्बित होते हैं, सामूहिक लक्ष्यों में साझेदार होते है तथा इस बात का बोध रखते हैं कि वास्तव में वे एक समूह के अंग हैं।" 

    सामाजिक समूह को गिडेन्स ने स्पष्ट शब्दों में परिभाषित किया है -"एक सामाजिक समूह केवल व्यक्तियों का योग है जो नियमित रूप से एक-दूसरे के साथ अन्तर्क्रिया करते हैं। इस परिभाषा में समूह निर्माण का आधार सामाजिक अन्तर्क्रिया माना गया है।"

     हॉर्टन एवं हण्ट के अनुसार- "सामाजिक समूह का सार भौतिक समीपता नहीं, बल्कि संयुक्त अन्तक्रिया की जागरुकता है। इसी विचार की पुष्टि फिक्टर के द्वारा भी की गयी है, "मनुष्यों के बीच पारस्परिक सम्बन्धों को समूह कहा जाता है।"

    उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि "सामाजिक समूह एक प्रकार का संगठन है, जिसके सदस्य एक-दूसरे को जानते हैं और वैयक्तिक रूप से एक-दूसरे से अपनी एकरूपता स्थापित करते हैं।" अर्थात् जब कुछ व्यक्ति जागरूक अवस्था में एक-दूसरे के सम्पर्क में आकर सम्बन्धों की स्थापना करते हैं तो व्यक्तियों के इसी स्थायी अथवा अस्थायी संगठन को हम एक सामाजिक समूह कहते हैं।

    समूह के मुख्य तत्व्  

    समूह के मुख्य तत्त्व निम्न प्रकार है-

    (1) दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना।

    (2) कुछ हद तक स्थायी एवं बार-बार होने वाली सामाजिक अन्तर्क्रिया ।

    (3) समूह के सदस्य अपने आपको निश्चित समूह के सदस्य मानें एवं बाहरी लोग भी उन्हें उस समूह का सदस्य मानें।

    समूह की विशेषताएँ

    समूह की अवधारणा से सम्बन्धित जितनी भी परिभाषाएँ दी गयी हैं, यदि उनका विवेचन किया जाये तो उसके आधार पर समूह में अग्रांकित विशेषताएँ देखी जा सकती है-

    1. एक से अधिक व्यक्तियों का संगठन 

    किसी भी समूह का निर्माण कम से कम दो व्यक्तियों से हो जाता है और इसकी अधिकतम संख्या निर्धारित नहीं की जा सकी है। लेकिन लोगों का यह संगठन भीड़ की भाँति नहीं होता, बल्कि ये किसी सामान्य उद्देश्य को लेकर एक-दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं, तभी समूह बनता है अन्यथा वह भीड़ या समुच्चय की श्रेणी में आता है।

    2. ऐच्छिक सदस्यता

    समूह के सदस्य अपनी इच्छा से सदस्य बनते हैं और अपनी ही इच्छा से सदस्य बने रह सकते है। व्यक्ति अपने हितों को ध्यान में रखकर ही किसी समूह की सदस्यता स्वीकार करता है या अस्वीकार करता है। लेकिन कुछ प्राथमिक समूह ऐसे होते हैं जिनकी सदस्यता न तो आसानी से हो सकती है और न ही छोड़ी जा सकती है, जैसे परिवार, रिश्तेदार इत्यादि ।

    3. एक सामाजिक संरचना 

    प्रत्येक समूह की एक संरचना होती है। समूह छोटा भी हो सकता है। बड़ा भी. लेकिन समूह कितना भी बड़ा क्यों न हो उसमें अर्थात् उसके सदस्यों में एक संस्तरण पाया जाता है। प्रत्येक सदस्य की न तो समान प्रस्थिति होगी और न ही समान भूमिका। भीड़ को समूह इसलिए नहीं माना जाता, क्योंकि वह अस्थायी एवं संरचना विहीन संकलन है।

    4. समान स्वार्थ

    समूह के सभी सदस्य समान स्वार्थ के लिए एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। व्यक्ति किसी भी समूह का सदस्य इसलिए बनता है क्योंकि उस समूह द्वारा उसके हितों की पूर्ति होने की सम्भावना होती है, जैसे परिवार स्कूल क्रीड़ा-स्थल, नृत्यशाला इत्यादि |

    5. कार्यात्मक विभाजन 

    प्रत्येक समूह का कोई-न-कोई लक्ष्य होता है और इसी लक्ष्य प्राप्ति के आधार पर उसकी कार्यशैली बनायी जाती है तथा प्रत्येक सदस्य में उसकी योग्यता के अनुसार कार्यों का विभाजन किया जाता है।

    6. आदर्श नियम

    प्रत्येक समूह की एक कार्यशैली होती है और इस कार्य शैली के नियमित संचालन के लिए समूह में आदर्श नियम बनाये जाते हैं जो सभी सदस्यों के लिए समान होते हैं और इन्हीं नियमों के द्वारा सदस्यों को नियन्त्रित भी रखा जाता है। सभी समूह के आदर्श नियम अलग-अलग प्रकार के होते हैं।

    7. समूह एक सत्ता 

    समूह का सम्बन्ध सामूहिक व्यवहारों से है। व्यक्ति अपने अस्तित्व से ज्यादा समूह के अस्तित्व को महत्व  देता है जिससे समूह स्थायी बनता है। उपरोक्त विशेषताओं के आधार पर ही फिचर ने समूह की प्रकृति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि समान लक्ष्यों को पूरा करने के लिए कुछ नियमों, स्वार्थों और सामाजिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए इसके सभी सदस्य एक-दूसरे के प्रति दायित्वों का निर्वाह करते हैं।

    समूह संरचना 

    समूह छोटा हो या बड़ा, सभी की अपनी संरचना होती है। समूह की संरचना का निर्माण समूह के सदस्यों की संख्या, उसकी व्यक्तिगत प्रभावशीलता उसके सम्बन्धों की प्रकृति तथा पारस्परिक संचार की प्रकृति से होता है। संरचना के अनुरूप ही सदस्य प्रभावित होते हैं। समूह की संरचना में जब भी परिवर्तन होता है तो इसके सदस्यों के व्यवहारों में भी परिवर्तन होता है। किसी भी समूह की संरचना निम्नांकित तथ्यों पर आधारित होती है-

    1. समूह का आकार 

    समूह के सदस्यों की संख्या के आधार पर ही समूह को बड़ा या छोटा समूह समझा जा सकता है। समूह यदि दो चार सदस्यों का हो तो उनके बीच प्रत्यक्ष एवं घनिष्ठ अर्थात प्राथमिक सम्बन्ध पाये जाते हैं और उनके आपस का सम्बन्ध भी घनिष्ठ होने के कारण उनकी अन्त क्रियाएँ भी सरल प्रकृति की होती है।

    छोटे आकार के समूह में परिवार, मित्र मण्डली आदि ज्वलन्त उदाहरण है। एक परिवार के सदस्यों में प्रत्यक्ष सम्बन्ध पाया जाता है और उनके बीच निष्ठा, सहयोग एवं निःस्वार्थ की भावना पायी जाती है। खेल के साथियों में भी इसी प्रकार के सम्बन्ध पाये जाते हैं। छोटे आकार के समूह के बारे मे रोजेनबर्ग एवं टर्नर (1981) का कहना है कि "छोटे आकार के समूह का अर्थ उस समूह से है जिसमें सदस्यों के बीच प्रत्यक्ष अन्तर्क्रिया होती है, उनके बीच प्रत्यक्ष वार्तालाप एवं एक-दूसरे की प्रत्यक्ष जानकारी होती है तथा समूह के प्रति उनमें निष्ठा की भावना पायी जाती है।

    कुछ समूह ऐसे भी होते है जिनके सदस्यों की संख्या प्रारम्भ में तो कम होती है, लेकिन जैसे-जैसे समूह के सदस्यों की संख्या बढ़ती जाती है वैसे-वैसे इसका आकार जटिल होता जाता है और परस्पर सम्बन्धों में भी जटिलता आ जाती है। समूह की विशालता के कारण सदस्यों के बीच अप्रत्यक्ष सम्बन्ध पाया जाता है तथा सम्बन्ध औपचारिक होते हैं। आन्तरिक एकता के कारण छोटे समूह में तनाव एवं संघर्ष कम पाया जाता है। दोनों समूहों में सम्बन्धों की भिन्नता के बावजूद दोनों समूहों की संरचना को एक ही माना जाता है। इसमें कोई विभाजक रेखा नहीं है।

    2. समूह से सम्बन्ध

    छोटे समूह के सदस्यों में प्रत्यक्ष एवं बड़े समूह के सदस्यों में अप्रत्यक्ष सम्बन्ध पाया जाता है। अधिक सदस्यों वाले समूह में आपस में प्रतिस्पर्द्धा एवं तनाव होने के कारण समूह अनेक उपसमूहों में विभाजित हो जाते हैं।

    कुछ विद्वानों द्वारा इस प्रकार के समूह के सम्बन्धों को दो भागों में बाँटा गया है-  उदग्र सम्बन्ध (Vertical relations) एवं क्षैतिज सम्बन्ध (Horizontal relations)। बड़े समूहों में उदग्र सम्बन्धों का विकास होता है जबकि छोटे समूहों में क्षैतिज सम्बन्धों का क्योंकि बड़े समूहों में अधिक सदस्य होते हैं एवं उनके बीच एक संस्तरण पाया जाता है।

     मोरेनो (J. L.. Moreno) ने समूह सम्बन्धों को तीन भागों में बाँटा है-  युग्म सम्बन्ध (Pair relation), त्रिकोणीय सम्बन्ध (Triangular relation), तथा चेन सम्बन्ध (Chain relation) | युग्म और त्रिकोणीय सम्बन्ध छोटे समूह में तथा चेन सम्बन्ध बड़े समूहों में पाये जाते हैं। इस तरह समूह की संरचना पर सदस्यों के सम्बन्ध व्यवसाय, आयु, सामाजिक स्तर आदि का भी प्रभाव पड़ता है।

    3. प्रस्थिति

    समूह की संरचना पर प्रस्थिति के संस्तरण का भी प्रभाव पड़ता है। बहुत से समूह ऐसे होते हैं जिनके सदस्यों में स्पष्ट संस्तरण पाया जाता है, जैसे कारखाना, राजनैतिक दल इत्यादि। इसमें कुछ सदस्य ऊँचे पद पर आसीन होते हैं और कुछ निम्न पद पर तथा ऊपर से नीचे तक एक संस्तरण पाया जाता है और सदस्यों के अधिकार एवं कर्तव्य  भी निश्चित होते हैं। किसी भी समूह में इस प्रकार के क्रियाकलाप को देखकर यह अनुमान लगाना आसान हो जाता है कि वह समूह छोटे आकार का है या बड़े आकार का उसके सम्बन्ध औपचारिक हैं या अनौपचारिक।

    4. संचार का स्वरूप 

    संचार का तात्पर्य है अपने-अपने विचारों को एक-दूसरे को सम्प्रेषित करना या विभिन्न माध्यमों द्वारा सूचनाएँ प्राप्त करना सरल या छोटे आकार के समूह में संचार व्यवस्था या तो मौखिक होती है या फिर औपचारिक, जबकि बड़े समूह में संचार की प्रकृति अप्रत्यक्ष, औपचारिक तथा लिखित होती है। अतः स्पष्ट है कि संचार के स्वरूप के अनुसार ही समूह की संरचना को एक विशेष स्वरूप प्राप्त होता है।

    5. विभिन्न समूहों के बीच अन्तर्सम्बन्ध  

    जिस प्रकार से समूह के सदस्यों के बीच अन्तर्सम्बन्ध होता है और कार्यात्मक सम्बन्ध बना होता है उसी तरह अलग-अलग समूह भी अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक-दूसरे से सम्बन्ध स्थापित करते हैं। जैसे-जैसे अन्य समूहों से सम्बन्ध एवं अन्तर्क्रिया बढ़ती जाती है उसका रूप और भी जटिल एवं व्यापक होता जाता है। छोटे समूह दूसरे समूहों पर बहुत कम निर्भर होते हैं अर्थात् ये आत्मनिर्भर होते हैं।

    विद्वानों का मत है कि “जैसे-जैसे किसी समूह का सामाजिक सन्दर्भ बढ़ने लगता है, व्यक्ति पर समूह का दबाव कम होने लगता है तथा समूह का अन्य समूहों से स्थापित होने वाला सम्बन्ध समूह की संरचना को पहले से अधिक जटिल बनाता है और इसके फलस्वरूप व्यक्ति को व्यवहार के इतने विकल्प मिलने लगते हैं कि वह अधिक स्वतन्त्रता अनुभव करने लगता है।

    6. समूह की प्रभावशीलता 

    जिन समूहों का अपने सदस्यों पर व्यापक प्रभाव देखा जाता है, वे समूह सरल एवं परम्परागत होने के बावजूद अपनी प्रकृति से निरंकुश होते है। ऐसे समूह में सदस्यों की प्रस्थिति प्रदत्त होती है, लेकिन इस प्रकार की सदस्यता में प्रायः व्यक्तित्व का विकास कुण्ठित हो जाता है। लेकिन बहुत सारे समूहों में उसकी प्रभावशीलता सदस्यों पर आंशिक होने के बावजूद सम्बन्ध उदार एवं संरचना परिवर्तनशील होती है। ऐसे समूह व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को मान्यता देते हैं। अतः यही कारण है कि इनके आपसी सम्बन्ध प्रत्यक्ष एवं अंतरंग होते हैं।

    उपरोक्त वर्णित समूह की संरचना से ही समूह की प्रकृति के बारे में जानकारी ली जा सकती है।

    शेरिफ के शब्दों में- "व्यापक रूप से समूह संरचना का सम्बन्ध व्यक्तियों के (प्रस्थिति एवं कार्य भूमिका)। के अन्तर्निर्भर सम्बन्धों की न्यूनाधिक स्थिर प्रणाली से होता है। ये सम्बन्ध उन व्यक्तियों द्वारा सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति में दिये जाने वाले योगदान के अनुरूप होते हैं। ये सम्बन्ध अन्तर्निर्भर तथा आदान-प्रदानात्मक होते है और वे एक निश्चित तरीके से एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्तियों से सम्बद्ध करते हैं। कार्यों, समस्याओं अथवा परस्पर प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों से सम्बन्धित विभिन्न स्थितियों में व्यक्तियों के विभिन्न योगदानों के रूप में प्रत्येक सदस्य के लिए अन्य सदस्यों से सम्बन्धित पारस्परिक प्रत्याशाएँ स्थिर होती है। समूह के व्यवहार के लिए ये स्थिर प्रत्याशाएँ समूह के सदस्यों की भूमिकाओं को स्पष्ट करती हैं।

    समूह के कार्य 

    मानव जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी न किसी समूह के साथ अवश्य जुड़ा होता है, क्योंकि- मनुष्य की आवश्यकताएँ एवं इच्छाएँ अनन्त है, जिसकी पूर्ति समूह करता है। 

    अतः अब हम समूह के महत्वपूर्ण  कार्यों की चर्चा करेंगे-

    1. मौलिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि

    मनुष्य की बहुत-सी जरूरतें होती है जिसे मौलिक या प्राथमिक आवश्यकता कह सकते हैं. जैसे- भूख प्यास. यौन सन्तुष्टि इत्यादि। इन मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति मनुष्य अकेले नहीं कर सकता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति अच्छे ढंग से किसी न किसी प्राथमिक समूह और मुख्य रूप से परिवार में ही की जा सकती है। यह बात और है कि अन्य समूह भी इन आवश्यकताओं की पूर्ति में योगदान देते हैं। यदि समूह न हो या समूह में अन्त क्रियाएँ न हो तो अधिक कार्यकुशल व्यक्ति भी नेतृत्व का पद ग्रहण नहीं कर सकता। अतः व्यक्ति की मौलिक इच्छाओं या आवश्यकताओं को पूरा करना समूह का मुख्य कार्य है।

    2. द्वितीयक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि 

     मौलिक जरूरतों के अतिरिक्त व्यक्ति की कुछ और जरूरतें भी होती हैं, जैसे- सम्मान, प्रतिष्ठा, जीवन-लक्ष्य, आकांक्षा, प्रशंसा, निन्दा संग्रहशीलता, जिसके लिए इंसान जीवित तो रह सकता है, लेकिन सन्तुलित नहीं रह सकता। व्यक्ति की इन आवश्यकताओं की पूर्ति भी प्राथमिक समूहों के धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक या सामाजिक समूहों के द्वारा होती है।

    3. नई आवश्यकताओं का निर्माण

    प्रकृति परिवर्तन-शील है। इसलिए व्यक्ति भी समय के साथ बदलता रहता है अर्थात् व्यक्ति का बाह्य जगत् से सम्पर्क बढ़ने के बाद उसकी आवश्यकताओं में भी परिवर्तन होने लगता है। न सिर्फ परिवर्तन होता है बल्कि नये-नये अनुभव के साथ नई-नई आवश्यकताओं का भी निर्माण होता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति भी किसी न किसी समूह के द्वारा ही की जाती है। इन आवश्यकताओं के अभाव में विकास की प्रक्रिया ही रुक जायेगी। विभिन्न सामाजिक समूह सम्पर्क एवं अन्तःक्रिया के द्वारा ही इन आवश्यकताओं का सृजन करता है।

    4. व्यक्तित्व का विकास 

    व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास में भी समूह का योगदान पाया जाता है। किसी भी बच्चे का विकास सामाजिक मूल्यों के अनुरूप हो तो कहा जाता है कि उसका समाजीकरण सही दिशा में हो रहा है। समाजीकरण एक हमेशा चलाने वाली प्रक्रिया है। मानव जीवन के प्रत्येक स्तर पर विभिन्न समूह व्यक्ति के समाजीकरण में अपना योगदान देते हैं। पहले प्राथमिक समूह और बाद में द्वितीयक समूह द्वारा व्यक्ति समाजीकृत होता है तथा उसका व्यक्तित्व निखरता है। द्वितीयक समूहों का आकार और कार्यक्षेत्र अपेक्षाकृत विस्तृत होने के कारण इनका कार्य बदलती हुई परिस्थितियों से व्यक्ति की अनुकूलन करने का प्रशिक्षण देना तथा अपनी क्षमताओं की वृद्धि करने की प्रेरणा देना है।

    5. सांस्कृतिक निरन्तरता को बनाये रखना 

    समूह प्राथमिक हो या द्वितीयक, सभी के कुछ विशेष लक्ष्य, आदर्श, मूल्य, परम्पराएँ एवं व्यवहार प्रतिमान होते है। यही कारण है कि एक समूह के सदस्यों की मनोवृत्तियों, विचारों एवं व्यवहार प्रतिमानों में समानता पायी जाती है। प्राथमिक समूह द्वारा तो व्यक्ति अपनी संस्कृति से जुड़ते हैं और यही संस्कृति सामाजिक सीख की प्रक्रिया के द्वारा विभिन्न समूह इन विशेषताओं को आगामी पीढ़ी तक हस्तान्तरित करते हैं और इसी कारण से समाज की सांस्कृतिक निरन्तरता सदैव बनी रहती है।

    6. अनेक समूहों की सदस्यता 

    एक ही समूह व्यक्ति की सभी एवं बढ़ी हुई आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता है। तब समूह अपने सदस्यों को दूसरे समूहों की सदस्यता लेने पर बाध्य करता है, क्योंकि वह अपने कार्यक्षेत्र की सीमा से बाहर जाकर कोई काम नहीं कर सकता है; जैसे कोई नृत्यशाला अपने सदस्यों के गाने की इच्छा की पूर्ति नहीं कर सकती. क्योंकि वह उसका कार्यक्षेत्र नहीं है। तब ऐसी स्थिति में अपने सदस्यों को गान-समूह का सदस्य बनने के लिए प्रेरित करता है। क्रच आदि विद्वानों का मत है कि समूह का यह कार्य प्रभावशाली सदस्यों की अपेक्षा साधारण सदस्यों के लिए अधिक होता है। समूह के इस कार्य के फलस्वरूप नये-नये समूहों का निर्माण होता है तथा सामाजिक जीवन में विभिन्न समूहों की सक्रियता में वृद्धि होती है।

    इसके अतिरिक्त भी समूह के अनेक कार्य हैं। समूह न सिर्फ व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करता है, उसकी मौलिक एवं अन्य आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करता है, अपितु व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान करता है। व्यवहार प्रतिमान के साथ न सिर्फ उसे अनुशासित करता है बल्कि सामाजिक नियन्त्रण को बनाये रखने में अपना योगदान भी देता है। सभी छोटे-बड़े समूह अपने सदस्यों को न सिर्फ समाज में प्रस्थिति प्रदान करते हैं बल्कि उस प्रस्थिति को कायम रखकर उसकी प्रतिष्ठा की भावना को भी सन्तुष्ट करते हैं।

    समूह के प्रकार 

    समूह का निर्माण जिन-जिन तत्त्वों से होता है उसके आधार पर समूह के स्वरूप में अनेक भिन्नताएँ पायी जाती है। समूहों का वर्गीकरण आकार, अवधि, कार्यक्षेत्र, स्थिरता आदि के आधार पर किया गया है। इस बात को ध्यान में रखते हुए सामाजिक समूह समान मूल्यों, पारस्परिक कर्त्तव्यों एवं आशाओं द्वारा बँधे होते हैं। यही कारण है कि समूह का वर्गीकरण अनेक प्रकार का होता है। यहाँ सभी प्रकार के समूहों की चर्चा करना सम्भव नहीं है। अतः प्रस्तुत विवेचन में हम सभी विद्वानों के वर्गीकरण की व्याख्या न करके कुछ प्रमुख वर्गीकरण की रूपरेखा को ही स्पष्ट करेंगे। 

    (A) लेस्टर एफ. वार्ड: ने समूह को दो भागों में वर्गीकृत किया है -

    (1) ऐच्छिक समूह (Voluntary group)

    (2) अनिवार्य समूह (Compulsory or Non-voluntary group )

    (1) ऐच्छिक समूह- ऐच्छिक समूह वह समूह कहलाता है, जिसका सदस्य बनना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है, जैसे- राजनीतिक दल, क्लब की सदस्यता ट्रेड यूनियन, खेल समूह इत्यादि कुछ ऐसे समूह है जिसमें व्यक्ति अपनी इच्छा से सदस्यता हासिल करता है और अपनी इच्छा से सदस्यता छोड़ भी सकता है अर्थात् सदस्य रहना और सदस्य न रहना दोनों ही उसकी इच्छा पर निर्भर करता है।

    (2) अनिवार्य समूह- यह वह समूह है जिसकी सदस्यता अनिवार्य होती है अर्थात् वह अपने जन्म के साथ ही उन समूहों का सदस्य बन जाता है | 

    जैसे-  परिवार जाति समूह प्रजाति समूह, लिंग समूह आदि व्यक्ति जन्म के साथ ही परिवार जाति प्रजाति एवं लिंग से सम्बद्ध हो जाता है अर्थात् इन समूहों का सदस्य बनना उनकी अनिवार्यता है। न तो व्यक्ति इन समूहों को अपनी इच्छा से चुन सकता है और न ही इसकी सदस्यता को छोड़ सकता है।

    (B) समाजशास्त्री समनर

     समाजशास्त्री समनर ने अपनी पुस्तक 'फोकवेज' (Folkways) में सदस्यों की घनिष्ठता एवं सामाजिक दूरी के आधार पर समूहों को दो भागों में बाँटा है-

    (1) अन्तः समूह (Ingroup)

    (2) बाह्य समूह (Outgroup)

    (1) अन्तः समूह- अन्तः समूह से तात्पर्य ऐसे समूह से है जिसके सदस्य 'हम की भावना महसूस करते हैं। उनके बीच अपनत्व, प्रेमभाव एवं निःस्वार्थ की भावना पायी जाती है। इसका कारण यह है कि यह लगाव किसी को अपने परिवार से अपने समुदाय से समिति से, राष्ट्र से हो सकता है और इस स्थिति में अन्तः समूह होते हैं। अपनत्व की यह भावना बहुत कुछ आमने-सामने के सम्बन्धों द्वारा प्रभावित होती है। 

    अतः समूह के सदस्य सदैव यह विश्वास करते हैं कि उसका व्यक्तित्व कल्याण समूह के सभी सदस्यों के कल्याण में ही निहित है तथा उनके हित और अन्य सदस्यों के हित समान हैं। हार्टन एवं हण्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जब व्यक्ति यह कहने लगता है कि यह मेरा परिवार मेरा दोस्त या मेरा राष्ट्र है तो यह अन्तः समूह की बात होती है। अलग-अलग समाजों में अन्तः समूह के स्वरूप में परिवर्तन पाया जाता है। 

    आदिम समाज में नातेदारी के आधार पर यह निर्णय होता था कि कौन-सा अन्तः समूह होगा और कौन-सा बाह्य, जबकि आधुनिक समाज में अन्तः समूह की अवधारणा का आधार नातेदारी नहीं माना जाता, बल्कि व्यक्तिगत सम्बन्धों के आधार पर कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म, भाषा, राष्ट्र या समुदाय का क्यों न हो, वह अन्तः समूह का सदस्य हो सकता है।

     आधुनिक समाज में कभी-कभी अन्तः एवं बाह्य समूह में फर्क करना भी मुश्किल हो जाता है। अतः सिर्फ यही कहा जा सकता है कि जिसके हम सदस्य है वह अन्तः समूह है। यही कारण है कि संसार के विभिन्न भागों में कितने ही संघर्ष चलते रहते हैं, लेकिन उसका सदस्य न होने के कारण हमारा ध्यान उस ओर नहीं जाता है। परन्तु भारत की सीमा पर होने वाले किसी भी प्रकार के संघर्ष से देश का बच्चा-बच्चा सजग हो जाता हूँ क्योंकि भारत 'हमारा अपना देश है और दूसरे देश की तुलना में सभी भारतीय एक अन्त: समूह के सदस्य है अर्थात् अन्तः समूह की भावना सदस्यों में अपनेपन की भावना का विकास करती है।

    इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले 1907 में समनर ने अपनी पुस्तक 'फोकवेज' में किया था। बाद में सभी समाजशास्त्रियों ने किसी न किसी रूप में ऐसे समूहों का उल्लेख किया। लेकिन समनर ने बाह्य समूह की अवधारणा का उल्लेख नहीं किया था। अन्तः समूहों से बिल्कुल भिन्न विशेषताएँ प्रदर्शित करने वाले सभी समूहों को बाह्य समूहों के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा।

    (2) बाह्य समूह- समनर के अनुसार अपनत्व की भावना रखने वाले अन्तः समूह कहलाते है तो उसी के आधार पर जिन समूहों में अपनत्व का अभाव पाया जाता है उसे बाह्य समूह मान लिया जाता है। बाह्य समूह को 'वे समूह' (They-group) भी कहते हैं। ऐसे समूहों में निष्ठा, आत्मीकरण (Identification), अहम् आवेष्टन (Ego-involvement), सहानुभूति (Sympathy) आदि का अभाव पाया जाता है। हम जिसके भी सदस्य है उसके अतिरिक्त सभी बाह्य समूह हैं, जैसे एक हिन्दू के लिए हिन्दू समुदाय के अतिरिक्त सभी समुदाय बाह्य समूह है। बाह्य समूह, अन्तः समूह से पूर्णतया विपरीत भावनाएँ प्रदर्शित करता है। जब हम वह देश', 'वह समुदाय', 'वह परिवार आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं तो यह सामाजिक दूरी दर्शाता है और इस तरह से बाह्य समूह का निर्माण करता है।

    अन्तः समूह एवं बाह्य समूह की सीमाएँ एवं आकार निर्धारित नहीं होते, बल्कि यह स्थान एवं परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित होते रहते है। यदि हम एक स्थान के ही दो समूहों के बारे में चर्चा कर रहे हो तब वह समूह अन्तः समूह होगा, जिसके हम सदस्य है और दूसरा बाह्य समूह होगा। यदि दो समूह विभिन्न प्रान्तों के हो तब हमारा सम्पूर्ण प्रान्त अन्तः समूह हो जायेगा और यदि हम दो देशों के विषय में बात कर रहे हो तब हमारा सम्पूर्ण देश अन्तः समूह बन जायेगा और दूसरा बाह्य समूह बन जायेगा अर्थात् जिस समूह में हमारे हित सुरक्षित है वह हमारे लिए अन्तः समूह तथा जिस समूह से हमें आघात पहुँचता है वह हमारे लिए बाह्य समूह कहलाता है।

    अल्वडेंस (Alverdes, 1935), हारलो (Harlow, 1951) आदि के अध्ययनों से पता चलता है कि अन्तः समूह के सदस्य बाह्य समूह के प्रति घृणा तथा बैर भाव रखते हैं तथा आपस में संगठित रहते। है। जीलर आदि (Ziller et al., 1962), हॉफमैन एवं मायर (Halfman and Moier, 1961) के अनुसार जो अन्तः समूह बाह्य समूह के सदस्यों को अपने अन्दर शामिल होने की अनुमति देता है, वह अधिक सर्जनात्मक (Creative) तथा प्रभावशाली (Effective) होता है। चैपलिन (Chaplin 1975) के अनुसार, "बाह्य समूह उसे कहते है जिसके सदस्य मनोनीतकर्ता के समूह से परे होते हैं, वे किसी उल्लेखित समूह विशेष के सदस्य नहीं होते हैं। उसी तरह से लिण्डग्रेन ने अन्त समूह को परिभाषित करते हुए कहा है कि " अन्तः समूह में परस्पर आत्मीकरण का दृद अनुभव इस हद तक पाया जाता है। कि सदस्यगण समूह से अलग होने पर विमुक्त तथा बेठिकान महसूस करते हैं।" 

    (C) मिलर-उदग्र एवं समतल समूह

    विभिन्न प्रकार के समूहों के सदस्यों के बीच पायी जाने वाली सामाजिक दूरी को स्पष्ट करने के लिए मिलर ने उसे दो भागों में वर्गीकृत किया है

    (1) उदग्र समूह (Vertical groups )

    (2) सतमल समूह (Horizontal groups )

    (1) उदग्र समूह- प्रत्येक समाज में एक प्रकार का संस्तरण पाया जाता है जो किसी भी प्रकार के समूह को कई खण्डों में विभाजित करता है और प्रत्येक खण्ड की स्थिति दूसरे की तुलना में उच्च अथवा निम्न होती है, जैसे- संयुक्त परिवार इसके सदस्यों की सामाजिक स्थिति एक-दूसरे से भिन्न भी होती है तथा उनके बीच उच्च- निम्न का संस्तरण भी पाया जाता है। जाति भी एक प्रकार से उदग्र समूह है। जिसमें ऊँच-नीच का संस्तरण पाया जाता है। उदग्र समूह की यह विशेषता है कि समाज का कोई भी व्यक्ति समान प्रकृति वाले दो उदग्र समूहों का सदस्य नहीं बन सकता। कोई भी व्यक्ति एक साथ दो संयुक्त परिवारों का सदस्य नहीं बन सकता। उसी प्रकार एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति का सदस्य नहीं बन सकता।

    (2) समतल समूह- समतल समूह उसे कहते हैं जिसमें सभी सदस्यों की स्थिति (स्तर) लगभग एक समान होती है, जैसे शिक्षक वर्ग, गरीब वर्ग, अमीर वर्ग, श्रमिक वर्ग इत्यादि। इनमें आर्थिक भिन्नता तो पायी जा सकती है, परन्तु सामाजिक भिन्नता का अभाव पाया जाता है। इस समूह की दूसरी मुख्य बात यह है कि इसमें एक व्यक्ति एक ही समय में एक से अधिक समतल समूह का सदस्य भी हो सकता है, जैसे एक व्यक्ति अमीर होने के साथ-साथ लेखक संगीतज्ञ एवं कारीगर भी हो सकता है। उदग्र समूह के सदस्यों में पारस्परिक सम्बन्ध एवं सम्बन्धों में प्रगाढ़ता पायी जाती है जबकि सामाजिक स्थिति में भिन्नता होती है तथा समतल समूह में सामाजिक स्थिति में तो समानता पायी जाती है, परन्तु आपसी सम्बन्ध में औपचारिकता होती है।

    (D) मैक्डूगल : आकस्मिक तथा प्रयोजनात्मक समूह 

    उद्देश्य या प्रयोजन के आधार पर समाजशास्त्री मैक्डूगल ने समूह को दो भागों में बाँटा है-

    (1) आकस्मिक समूह, 

    (2) प्रयोजनात्मक समूह।

    (1) आकस्मिक समूह- आकश्मिक समूह वह समूह है जिसका निर्माण बिना किसी उद्देश्य के अचानक ही हो जाता है। इसके लिए कोई पूर्व-निर्धारित योजना नहीं होती। व्यक्ति द्वारा ऐसे समूह एकाएक बना लिये जाते हैं। इसलिए इसकी प्रकृति अस्थायी होती है, जैसे- पार्क में टहलते हुए किसी बात पर विचार करने हेतु लोगों का संगठित हो जाना ही आकस्मिक समूह कहलाता है। अनजान व्यक्तियों का किसी समस्या पर विचार करना, भीड़ के रूप में संगठित होकर प्रशासन या पुलिस से कोई माँग करना आदि इसके उदाहरण है। इस प्रकार के समूह के सदस्यों में भावात्मक सम्बन्ध नहीं पाये जाते क्योंकि यह अस्थायी प्रकृति का होता है।

    (2) प्रयोजनात्मक समूह- प्रयोजनात्मक समूह का तात्पर्य ऐसे समूह से है जिसका निर्माण किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है, जैसे- औद्योगिक संगठन, सरकारी योजना, आँगनबाड़ी आदि ऐसे समूह है जो किसी न किसी खास उद्देश्य की प्राप्ति के लिए काम कर रहे हैं। इनकी प्रकृति अपेक्षाकृत स्थायी होती है, सम्बन्ध औपचारिक होते हैं।

    (E) मैकाइवर एवं पेज द्वारा समूहों का वर्गीकरण

    मैकाइवर एवं पेज ने सभी प्रकार के समूहों को तीन भागों में विभाजित किया है- 

    (1) क्षेत्रीय समूह 

    (2) हितों के प्रति चेतन समूह जिनका निश्चित संगठन नहीं होता, 

    (3) हितो के प्रति चेतन समूह, जिनका निश्चित संगठन होता है।

    (1) क्षेत्रीय समूह के सदस्य एक निश्चित क्षेत्र में ही अपना जीवनयापन करते है और इनके सदस्यों के हित काफी व्यापक होते हैं, जैसे- समुदाय, जनजाति, गाँव, पड़ोस राष्ट्र, नगर इत्यादि। 

    (2) मैकाइवर के अनुसार- कुछ समूह ऐसे होते हैं जो अपने हितों के प्रति जागरूक तो होते हैं लेकिन उनका संगठन अनिश्चित प्रकृति का होता है। ऐसे समूहों के निर्माण का उद्देश्य समूह के सदस्यों की समान मनोवृत्तियाँ है। उदाहरणस्वरूप, अभिजात वर्ग, प्रतिस्पर्द्धा वर्ग, शरणार्थी समूह इत्यादि । इनके हित समान तो होते हैं, परन्तु संगठन अस्थायी होता है। इसके सदस्यों की मनोवृत्तियों में भी समानता पायी जाती है। इस श्रेणी में मैकाइवर ने ऐसे समूहों का भी वर्णन किया है जिनके सामाजिक पद और प्रतिष्ठा में भिन्नता पायी जाती है, जैसे जाति के आधार पर बने समूह मैकाइवर के अनुसार भीड़ एक ऐसा समूह है जिसके हितों में तो समानता पायी जाती है, परन्तु प्रकृति अस्थायी एवं असंगठित होती है।

     (3) मैकाइवर ने तीसरे प्रकार की श्रेणी में ऐसे समूहों को रखा है जिसके सदस्यों की कम संख्या, व्यक्तिगत सम्बन्ध एवं असीम उत्तरदायित्व होता है, जैसे परिवार, पड़ोस खेल के साथी, चर्च इत्यादि जिसे हम प्राथमिक समूह भी कह सकते हैं। इसी श्रेणी में ऐसे समूह भी होते हैं जिनके सदस्यों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक, संगठन औपचारिक एवं किसी विशेष उद्देश्य के लिए निर्मित किये जाते है, जैसे राज्य, संघ, आर्थिक संघ इत्यादि ।

    मैकाइवर ने अपनी श्रेणी में सांस्कृतिक विशेषताओं से युक्त समूहों को भी सम्मिलित किया है। प्रकृति तो एक-दूसरे से भिन्न होती है, लेकिन सामाजिक संगठन एवं सामाजिक संरचना का अध्ययन करने के लिए सांस्कृतिक समूहों के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता।

    (F) गिलिन एवं गिलिन द्वारा वर्गीकरण

    गिलिन एवं गिलिन ने मैकाइवर एवं पेज के अनुसार ही समूह को कई भागों में वर्गीकृत किया है और इन्होंने सांस्कृतिक समूहों पर विशेष जोर डाला है, क्योंकि सामाजिक संगठन एवं सामाजिक संरचना में संस्कृति का महत्त्वपूर्ण योगदान है। गिलिन एवं गिलिन ने समूह को छः भागों में बाँटा है.

    (1) रक्त सम्बन्धी समूह- परिवार जाति ।

    (2) शारीरिक विशेषताओं से युक्त समूह, जैसे समलिंगीय, आयु, प्रजाति इत्यादि ।

    (3) क्षेत्रीय समूह-जनजाति, राज्य, राष्ट्र इत्यादि । 

    (4) अस्थिर समूह- मोड़, श्रोता समूह।

    (5) स्थायी समूह- ग्रामीण. पड़ोस, कस्बे शहर, विशाल नगर इत्यादि । 

    (6) सांस्कृतिक समूह- आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक शिक्षा सम्बन्धी समूह इत्यादि । 

    उपरोक्त गिलिन द्वारा वर्णित समूहों की यह विशेषता है कि ये पूर्णरूपेण सामाजिक संरचना एवं सामाजिक संगठन पर प्रकाश डालते है। 

    (G) शेरिफ द्वारा किया गया वर्गीकरण 

    शेरिफ ने सदस्यता के आधार पर समूह को दो भागों में बाँटा है- 

    (1) सदस्यता समूह (2) सन्दर्भ समूह।

    (1) सदस्यता समूह- जिन समूहों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है तो हम ऐसे समूह के सदस्य बने रहते है। अतः इस प्रकार के समूह को सदस्यता समूह कहते हैं। ऐसे समूह में व्यक्ति स्वीकृत सदस्य रहता है, जैसे— परिवार, राजनीतिक दल की सदस्यता, औद्योगिक संगठन इत्यादि ऐसे समूह हैं जिनका व्यक्ति स्वीकृत सदस्य होता है अर्थात् व्यक्ति को उसकी सदस्यता प्राप्त होती है। चैपलिन के विचारानुसार- सदस्यता समूह वह समूह है।जिसका व्यक्ति स्वीकृत सदस्य होता है। जैसे एक हिन्दू को हिन्दू समूह में अधिकृत सदस्यता प्राप्त है। अतः उसके लिए हिन्दू समूह सदस्यता समूह है।

    (2) सन्दर्भ समूह- सन्दर्भ समूह वह समूह है जिसका प्रभाव व्यक्ति के व्यवहार पर आवश्यक रूप से पड़ता है चाहे व्यक्ति को उस समूह की सदस्यता प्राप्त हो अथवा नहीं। 

    लिण्डग्रेन के अनुसार -“कोई भी समूह जिसका आदर्शी प्रभाव हमारे व्यवहार पर पड़ता है, सन्दर्भ समूह है क्योंकि हम लोग अपने व्यवहार की तुलना उसके मानक से करते हैं। 

    फिशर के अनुसार- ऐसा समूह जिसके हम लोग सदस्य हो या नहीं हो और जिसे हम लोग किसी सूचना के स्रोत के रूप में एवं अपने व्यवहार या मनोवृत्तियों की तुलना करने के लिए मानक के रूप में प्रयोग करते हैं, सन्दर्भ समूह कहा जाता है। 

    चैपलिन के अनुसार -सन्दर्भ समूह का तात्पर्य किसी भी ऐसे समूह से है जिसके साथ व्यक्ति आत्मीकरण स्थापित कर लेता है (चाहे वह उसका सदस्य हो या नहीं) तथा जिसे वह उचित आचरण हेतु अथवा लक्ष्यों को विकसित करने के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में व्यवहार करता है।

    शेरिफ  के अनुसार - "सन्दर्भ समूह वे समूह है जिनमें व्यक्ति स्वयं को या तो उनके अंग के रूप में जोड़ लेता है अथवा मनोवैज्ञानिक रूप से वह उनसे जुड़ने की आकांक्षा रखता है। बोलचाल की सामान्य भाषा में सन्दर्भ समूह वे होते हैं जिनके साथ व्यक्ति अपनी एकरूपता स्थापित करता है अथवा एकरूपता स्थापित करना चाहता है।"

    सन्दर्भ समूह का प्रयोग सबसे पहले हरबर्ट हाइमन (Herbert Hyman) ने 1942 में किया था। उन्होंने स्कूल के बच्चों का अध्ययन किया तो पाया कि निम्न वर्ग के बच्चों का व्यवहार उच्च वर्ग से आने वाले बच्चों से मिलता-जुलता था अर्थात् वे ऐसे समूह के व्यवहार से प्रभावित थे जिसके वे सदस्य नहीं थे। 

    अतः हाइमन का ऐसा मानना था कि उच्च वर्ग का समूह निम्न वर्ग के बच्चों के लिए 'सन्दर्भ समूह' की तरह था। हाइमन के बाद कई समाजशास्त्रियों का ध्यान उस ओर गया, जिनमें आर. के. मर्टन, मुजफ्फर शेरिफ, न्यूकॉम्ब, टर्नर एवं स्टूफर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। सन्दर्भ समूह की अवधारणा इस बात की पुष्टि करती है कि मानव के व्यक्तित्व विकास में गैर-सदस्यता समूह का भी महत्त्वपूर्ण योगदान पाया जाता है। 

    हाइमन के अनुसार-  इसे सन्दर्भ समूह इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे समूह किसी व्यक्ति के समक्ष ऐसा सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं जिसके आधार पर वह व्यक्ति न सिर्फ अपना एवं अपनी स्थिति का भी मूल्यांकन करता है, बल्कि दूसरों की हैसियत का भी मूल्यांकन करता है।

    उदाहरणस्वरूप, अगर एक निम्न आर्थिक वर्ग का लड़का उच्च आर्थिक वर्ग की जीवन-शैली या उसमें प्रचलित नियम एवं विचारों से बहुत प्रभावित होता है और अपना एवं सदस्यता समूह (निम्न आर्थिक वर्ग) के अन्य सदस्यों का मूल्यांकन उच्च आर्थिक वर्ग में प्रचलित व्यवहार प्रतिमानों के आधार पर करता है तो ऐसी स्थिति में उच्च आर्थिक वर्ग उस निम्न आर्थिक वर्ग के लड़के के लिए 'सन्दर्भ समूह कहलाता है।"

    आर. के. मर्टन के विचारानुसार जैसे व्यक्ति के लिए समूह सन्दर्भ समूह हो सकता है, उसी प्रकार से व्यक्ति भी किसी व्यक्ति के लिए 'सन्दर्भ व्यक्ति' हो सकता है, जैसे- जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी, झाँसी की रानी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर आदि कुछ ऐसे व्यक्ति है जिनकी जीवन-शैली एवं विचारों को आदर्श मानकर लोग अपने जीवन में ढालने की कोशिश करते हैं। मर्टन ने इसे भूमिका प्रारूप / आदर्श (Role model) का नाम दिया है।

    सन्दर्भ समूह के प्रकार

    सन्दर्भ समूह को निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है- 

    1. सकारात्मक एवं नकारात्मक सन्दर्भ समूह

    न्यूकॉम्ब ने प्रजातियों का अध्ययन किया और अध्ययन के दौरान उन्होंने पाया कि अमेरिका के गोरे लोगों की सामाजिक स्थिति काले लोगों की अपेक्षा उच्च होती है। फलस्वरूप नीग्रो अनजाने में ही सही. लेकिन गोरे नीग्रो के विचारों एवं मूल्यों को अपनाना चाहते हैं जबकि गोरे व्यक्ति नीग्रो से सामाजिक दूरी रखते हैं अर्थात् गोरे व्यक्ति के सामाजिक मूल्य नीग्रो के लिए सकारात्मक एवं नीग्रो के आचार-विचार गोरे लोगों के लिए नकारात्मक सन्दर्भ समूह का काम करते हैं।

    2. तुलनात्मक एवं आदर्शात्मक सन्दर्भ समूह 

    तुलनात्मक सन्दर्भ समूह से तात्पर्य ऐसे समूह से है जिससे हम अपने समूह की तुलना करते हुए यह जानने का प्रयास करते हैं कि हमारे समूह का ऐसा कौन-सा मूल्य है जो अन्य समूहों में नहीं है और आदर्श समूह वह समूह है जिसके आदर्श एवं मूल्य हमारे लिए आदर्श होते हैं और यही कारण है कि वे आदर्श समूह कहलाते हैं। 

     (H) सी. एच. कूले का वर्गीकरण

    प्राथमिक समूह की अवधारणा को प्रकाश में लाने का श्रेय सर्वप्रथम कूले को ही दिया जा सकता है। आकार के आधार पर चार्ल्स कूले ने समूह को प्राथमिक समूह के रूप में वर्गीकृत किया जिसे वैज्ञानिक एवं मान्य माना गया। सन् 1909 में चार्ल्स कूले ने अपनी पुस्तक 'Social Organisation' में सर्वप्रथम 'प्राथमिक समूह शब्द का प्रयोग किया। उनके द्वारा किसी द्वितीयक समूह की चर्चा नहीं की गयी, लेकिन बाद में प्राथमिक समूह से विपरीत विशेषताएँ रखने वाले समूहों को द्वितीय समूह का नाम दिया जाने लगा। इस तरह समूह के आकार एवं सदस्यों में पाये जाने वाले सम्बन्धों की प्रकृति के आधार पर समूह को दो भागों में वर्गीकृत किया गया-

    (1) प्राथमिक समूह, एवं (2) द्वितीयक समूह।

     (1) प्राथमिक समूह- प्राथमिक समूह उसे कहते हैं जिसमें सदस्यों के बीच आमने-सामने का सम्बन्ध होता है. साथ ही घनिष्ठ पारस्परिक सम्बन्ध भी होता है, जैसे परिवार, मित्र-मण्डली, खेल के साथी आदि इसके महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। सी. एच. कूले ने इसे परिभाषित करते हुए लिखा है कि "प्राथमिक समूहों से हमारा तात्पर्य उन समूहों से है, जिनके सदस्यों के बीच आमने-सामने के घनिष्ठ सम्बन्ध एवं पारस्परिक सहयोग की विशेषता होती है। ऐसे समूह अनेक अर्थों में प्राथमिक होते हैं, लेकिन विशेष रूप से इस अर्थ में कि ये व्यक्ति के सामाजिक स्वभाव और विचार के निर्माण में बुनियादी योगदान देते है। 

    लुण्डबर्ग ने प्राथमिक समूह की परिभाषा कुछ इस प्रकार से दी है-  प्राथमिक समूह का तात्पर्य दो या दो से अधिक ऐसे व्यक्तियों से है जो घनिष्ठ, सहभागी और वैयक्तिक ढंग से एक-दूसरे से व्यवहार करते हैं। 

    लिण्डग्रेन ने प्राथमिक समूह की परिभाषा देते हुए कहा है कि "प्राथमिक समूह का तात्पर्य ऐसे समूहों से है जिनमें पारस्परिक सम्बन्ध अधिक बारम्बारता के साथ घटित होते हैं।

    उपरोक्त परिभाओं के आधार पर प्राथमिक समूह आमने-सामने के सम्बन्धों पर आधारित समूह माना जा सकता है। लेकिन फैरिस (Faris) ने इसकी आलोचना करते हुए कहा है कि केवल आमने-सामने का सम्बन्धी प्राथमिक समूह की कसौटी नहीं है, जैसे- न्यायाधीश, जूरी, वकील आदि आमने-सामने की स्थिति में अन्त क्रिया करते हैं, लेकिन बावजूद इसके ये समूह प्राथमिक समूह नहीं। कहे जा सकते, जबकि नातेदारी से सम्बन्धित व्यक्ति एक-दूसरे से कितनी भी दूर क्यों न हों, लेकिन उनमें पारस्परिक घनिष्ठता एवं एकरूपता बनी रहती है। इनके बीच 'हम की भावना' पायी जाती है। 

    प्रो. किंग्सले डेविस भी ऐसा मानते हैं कि कभी-कभी आमने-सामने की स्थिति में भी प्राथमिक सम्बन्ध नहीं पाये जाते और एक-दूसरे से काफी दूर रहने पर भी उनमें प्राथमिक सम्बन्ध के गुण दिखाई पड़ते हैं। जैसे एक सिपाही अपने अफसर के आगे झुकता है, सलाम करता है, फिर भी यह सम्बन्ध प्राथमिक न होकर यान्त्रिक होता है। दूसरे उदाहरण में उन्होंने यह बताया कि जब एक सैनिक किसी लड़की से प्रेम करता है तो वह दूर होने के कारण उसके साथ लगातार पत्र व्यवहार करता है तो यह सम्बन्ध आमने-सामने न होकर भी प्राथमिक होता है।

    इस वास्तविकता के बावजूद कूले ऐसा मानते हैं कि प्राथमिक समूह कहलाने के लिए आमने-सामने एवं सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के अतिरिक्त सम्बन्धों की सम्पूर्णता, सम्बन्धों की अवधि तथा सम्बन्धों की घनिष्ठता को भी महत्त्वपूर्ण कारक माना गया है। 

    ब्रूम तथा सेल्जनिक ने प्राथमिक समूह पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि "एक समूह प्राथमिक वहाँ तक है, जहाँ तक वह प्राथमिक सम्बन्धों पर आधारित है। जहाँ व्यक्ति कुछ समय तक घनिष्ठ रूप से साथ-साथ रहते या काम करते हैं, वहाँ साधारणतः प्राथमिक सम्बन्धों पर आधारित समूह उभरते हैं। परिवार, कीड़ा समूह तथा पड़ोस प्राथमिक समूह के विकास की समुचित दिशाएँ प्रस्तुत करते हैं। 

    जिसबर्ट के अनुसार- प्राथमिक समूह व्यक्तिगत सम्बन्धों पर आधारित होता है जिसमें सदस्य तुरन्त एक-दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं।"

    किम्बाल यंग के अनुसार- "प्राथमिक समूह में परस्पर घनिष्ठ आमने-सामने के सम्पर्क होते हैं और सभी व्यक्ति समरूप कार्य करते हैं। ये ऐसे केन्द्रबिन्दु हैं जहाँ व्यक्ति का व्यक्तित्व विकसित होता है।"

    अलेक्स इंकल्स के अनुसार- प्राथमिक समूहों में सदस्यों के सम्बन्ध भी प्राथमिक होते हैं, जिनमें व्यक्तियों में आमने-सामने के सम्बन्ध होते हैं तथा सहयोग और सहवास की भावनाएँ इतनी प्रबल होती है कि व्यक्तियों का 'अहम्' 'हम' की भावना में बदल जाता है।"

    उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि जब कभी भी कुछ व्यक्ति घनिष्ठता अथवा 'हम की भावना' से बँधकर अन्तर्क्रिया करते हैं तथा समूह के हित के सामने निजी स्वार्थों का बलिदान करने के लिए तैयार रहते हैं तब ऐसे समूह को हम प्राथमिक समूह कहते हैं।

    विभिन्न समाजशास्त्रियों द्वारा दी गयी परिभाषाएँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि प्राथमिक समूह दो प्रकार की विशेषताओं से युक्त है और वे हैं - बाह्य एवं आन्तरिक विशेषताएँ, जिन्हें क्रमशः भौतिक या संरचनात्मक तथा मानसिक विशेषताएँ भी कहा जा सकता है।

    प्राथमिक समूह की विशेषताएँ 

    प्राथमिक समूह की भौतिक विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

    1. शारीरिक समीपता (Physical Proximity )-  प्राथमिक समूह के सदस्यों के बीच आमने-सामने का सम्बन्ध होता है अर्थात् उनमें शारीरिक समीपता पायी जाती है जो घनिष्ठ सम्बन्धों को विकसित करती है। एक साथ रहने के कारण लोग एक- दूसरे को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं और अच्छे एवं बुरे समय में एक-दूसरे के समीप रहते हैं।

    2. छोटा समूह (Small Group)- प्राथमिक समूह की यह बहुत महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि इस प्रकार के समूह का आकार प्रायः छोटा होता है, जैसे परिवार, मित्र- मण्डली इत्यादि। आकार में छोटा होने के कारण ही यह सम्भव हो पाता है कि इसके सदस्य व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे को जान पाते हैं और दूसरों के निर्णयों में भी अपनी भागीदारी देते हैं।

    3. स्थायी प्रकृति (Stable Nature)- प्राथमिक समूहों का निर्माण स्वेच्छा से नहीं किया जाता बल्कि यह एक अनिवार्य प्रक्रिया है। यही कारण है कि इसकी प्रकृति स्थायी होती है। स्थायित्व घनिष्ठता का द्योतक है। डेविस के विचारानुसार, "समूह में जितनी अधिक स्थिरता होती है, अन्य बातें समान होने पर सदस्यों के सम्बन्धों में भी उतनी ही अधिक घनिष्ठता उत्पन्न हो जाती है।"

    4. असामान्य चरित्र (Unspecialized Character)- प्राथमिक समूह में योजनाबद्ध उद्देश्य का अभाव पाया जाता है। प्राथमिक समूहों द्वारा आरम्भिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। अतः प्रत्येक सदस्य अपने दायित्व के प्रति सजग होता है। प्रायः प्राथमिक समूह का अन्तिम लक्ष्य समूह कल्याण होता है और इसके लिए सभी सदस्य क्रियाशील होते हैं।

    प्राथमिक समूह की मानसिक विशेषताएँ

    भौतिक विशेषता प्राथमिक समूह की संरचना पर प्रकाश डालती है तथा प्राथमिक समूहों के सम्बन्धों में मी विशेषता पायी जाती है, जिससे विशेष प्रकार की मनोवृत्तियों का विकास होता है। इसे ही समाजशास्त्रियों ने चारित्रिक अथवा मानसिक विशेषताओं का नाम दिया है जो इस प्रकार है-

    1. लक्ष्यों में समानता (Identity of Ends )- प्राथमिक समूह में सदस्यों के बीच समान उद्देश्यों का विकास होता है अर्थात् सभी सदस्य एक-दूसरे के कल्याण की बात सोचते है। अतः सभी के में समानता पायी जाती है।

    2. सम्बन्ध स्वयं में साध्य होता है (The Relationship is an End in ltself)-  प्राथमिक समूहों में सम्बन्धों की स्थापना किसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए स्वार्थवश नहीं की जाती है, बल्कि सम्बन्ध को बनाना एवं उसे कायम रखना ही सदस्यों का अन्तिम उद्देश्य होता है डेविस के विचारानुसार, "यह सम्बन्ध समझौते, आर्थिक लाभ अथवा राजनीतिक उद्देश्यों से प्रभावित नहीं होते, बल्कि व्यक्तिगत, आत्मिक, भावनात्मक तथा अपने आप में पूर्ण होते हैं।"

    3. सम्बन्ध आत्मिक होते हैं (Relationship is Spontaneous)- परिवार के सदस्यों के सम्बन्ध, जैसे माता-पिता, भाई-बहन, पड़ोस, मित्रगण आदि के सम्बन्ध किसी दबाव के कारण न होकर स्वाभाविक होते हैं।

    4. प्राथमिक नियन्त्रण (Primary Control)- प्राथमिक समूहों के सदस्यों के लिए द्वितीयक समूह के नियन्त्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती। ये खुद तो नियन्त्रित होते ही हैं साथ ही दूसरों को भी नियन्त्रित करने की कोशिश करते हैं।

    5. सम्बन्धों में पूर्णता (Inclusive Relationship)- इसके सदस्य एक-दूसरे के प्रति काफी जागरूक होते हैं। इनमें विशेषीकरण नहीं पाया जाता। सभी सदस्य साथ मिलकर किसी भी उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। इस सम्बन्ध में डेविस का कहना है कि "प्राथमिक समूह एक संयुक्तता की स्थिति है, जिसमें वैधानिक, प्रथागत, तकनीकी और मनोरंजनात्मक आदि सभी प्रकार के सम्बन्धों का समावेश होता है अर्थात् यह स्थिति सभी सदस्यों के सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करती है, उनके जीवन के किसी विशेष पक्ष को नहीं।"

    6. सम्बन्ध वैयक्तिक होते हैं (Relations are Personal)- ऐसे सम्बन्ध इस अर्थ में वैयक्तिक होते हैं कि इनमें कोई दिखावा नहीं होता, कोई चातुर्य नहीं होता। वैयक्तिक होने का तात्पर्य है कि इनके सदस्यों के बीच कोई स्वार्थ भावना नहीं होती, बल्कि एक व्यक्ति के रूप में ही यह एक-दूसरे के साथ सम्बन्धों की स्थापना करते हैं। यही कारण है कि आर्थिक या सामाजिक भिन्नता के बावजूद इनमें धनिष्ठता पायी जाती है।

    (2) द्वितीयक समूह- प्राथमिक समूह की अवधारणा ने ही द्वितीयक समूह की अवधारणा को जन्म दिया अर्थात् वे विशेषताएँ जो प्राथमिक समूह में न पायी जायें या उन विशेषताओं की विपरीत विशेषताएँ जहाँ देखी जा सकती है, वह द्वितीयक समूह कहलाता है। 

    जॉर्ज सी. होमन्स तथा किंग्सले डेविस आदि समाजशास्त्रियों ने द्वितीयक समूह पर विशेष रूप से प्रकाश डाला है। 

    डेविस का कहना है कि द्वितीयक समूह को स्थूल रूप से सभी प्राथमिक समूहों के विपरीत कहकर परिभाषित किया जा सकता है।" डेविस के कथन का समर्थन राबर्ट बीरस्टीड के द्वारा किया गया। उनके कथनानुसार वे सभी समूह द्वितीयक हैं जो प्राथमिक नहीं हैं।" डेविस एवं बीरस्टीड की परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्राथमिक समूह में पायी जाने वाली विशेषताओं के विपरीत प्रकार की विशेषताओं को व्यक्त करने वाले समूह ही द्वितीयक समूह है। 

    इस तरह समूह में आमने-सामने का सम्बन्ध काफी कमजोर होता है। समूह के सदस्यों के बीच घनिष्ठता का अभाव होता है, जैसे- डॉक्टर रोगी, नेता-अनुयायी, दुकानदार ग्राहक आदि के सम्बन्धों में औपचारिकताएँ पायी जाती है जो प्राथमिक समूह में नहीं देखी जाती। ऐसे समूहों का निर्माण प्रायः स्वार्थ के लिए किया जाता है। आकार में बड़ा होने के कारण इसमें आमने-सामने की स्थिति उत्पन्न नहीं होती। अतः स्वाभाविक रूप से सदस्यों के बीच में संवेगात्मक, भावात्मक लगाव की कमी होती है।

    द्वितीयक समूह की परिभाषाएँ

    फेयरचाइल्ड सम्पादित 'समाजशास्त्रीय शब्दकोष में द्वितीयक समूह को इस तरह परिभाषित किया गया है-  "समूह का वह रूप जो अपने सामाजिक सम्पर्क और औपचारिक संगठन की मात्रा में प्राथमिक समूहों की घनिष्ठता से भिन्न हो, द्वितीयक समूह कहलाता है।"

    लुण्डबर्ग द्वारा दी गई परिभाषा भी इसी कथन की पुष्टि करती है। उनके अनुसार, "द्वितीयक समूह वे है जिनमें सदस्यों के सम्बन्ध अवैयक्तिक हित प्रधान तथा व्यक्तिगत योग्यता पर आधारित होते हैं।" 

    ऑगबर्न एवं निमकॉफ के अनुसार- "द्वितीयक समूह उन्हें कहते हैं जिनमें प्राप्त अनुभवों में घनिष्ठता का अभाव होता है। आकस्मिक सम्पर्क ही द्वितीयक समूह का सारतत्त्व है।"

    उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि "द्वितीयक समूह वे हैं जिनमें सदस्यों के बीच अवैयक्तिक सम्बन्ध पाये जाते हैं। व्यक्तिगत रूप से सदस्यों को जानना यहाँ आवश्यक नहीं है। ऐसे समूहों में शारीरिक निकटता भी अनिवार्य नहीं है। ये सम्बन्ध औपचारिक प्रकार के जीवन के किसी एक पक्ष से सम्बन्धित, अस्थायी प्रकार के विशेष हितों पर आधारित और हस्तान्तरणीय होते हैं।" जैसे स्कूल, कॉलेज, राजनीतिक दल राष्ट्र आदि इसके उदाहरण हैं, जिसमे एक व्यक्ति के स्थान पर दूसरे व्यक्ति का हस्तान्तरण आसानी से किया जा सकता है। इसमें स्थायित्व एवं निरन्तरता का भी अभाव पाया जाता है, जिस कारण सम्बन्ध संवेदनाहीन एवं भावहीन होते हैं।

    चार्ल्स कूले द्वारा सिर्फ प्राथमिक समूह की चर्चा की गयी थी. लेकिन जब अन्य समाजशास्त्रियों द्वारा प्राथमिक समूह के विपरीत विशेषताएँ रखने वाले को 'द्वितीयक समूहों की श्रेणी में रखा जाने लगा, तब चार्ल्स कूले ने भी इसे स्वीकार किया तथा इसे परिभाषित करते हुए कहा कि "ये वे समूह हैं जिनमें घनिष्ठता, प्राथमिक तथा अर्द्ध-प्राथमिक विशेषताओं का पूर्ण अभाव रहता है।" 

    होलेण्डर ने द्वितीयक समूह को इस प्रकार परिभाषित किया है, "द्वितीयक समूह अवैयक्तिक होते है और इनके सदस्यों के बीच संवेगात्मक सम्बन्ध पाये जाते हैं। ऐसे समूहों के साथ तादात्म्य स्थापित करना अपने आप में एक लक्ष्य नहीं होता है बल्कि किसी लक्ष्य की प्राप्ति का मात्र एक साधन होता है।" अर्थात् द्वितीयक सम्बन्धों का अर्थ ऐसे सम्बन्धों से है जो प्राथमिक न होकर आकस्मिक एवं औपचारिक है।

    स्टीवन कोल के अनुसार -द्वितीयक समूह वे हैं जो अपेक्षाकृत काफी बड़े होते हैं एवं उनमें पाये जाने वाले सम्बन्ध काफी अवैयक्तिक होते हैं।" 

    गिडेन्स के अनुसार- "यह व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसके अन्तर्गत लोग नियमित रूप से मिलते तो है, लेकिन उनके सम्बन्ध मुख्य रूप से अवैयक्तिक होते हैं। व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध गाढ़े नहीं होते हैं लोग सामान्यतः एक-दूसरे के निकट तभी आते हैं जब उनके सामने कोई निश्चित व्यावहारिक उद्देश्य होता है।"

    उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर द्वितीयक समूह की विशेषताओं पर भी प्रकाश डाला जा सकता है। समाजशास्त्रियों ने अपनी-अपनी अवधारणाओं में इसके गुणों या विशेषताओं या इसके स्वरूप की चर्चा की है, जिसकी चर्चा नीचे की जा रही है।

    द्वितीयक समूह की विशेषताएँ 

    (1) द्वितीयक समूह का आकार अपेक्षाकृत बड़ा होता है जिसकी संख्या हजारो, लाखों में भी हो सकती है, जैसे- राज्य राष्ट्र शिक्षण संस्थाएं, कार्यालय इत्यादि ।

    (2) द्वितीयक समूह का निर्माण किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है।

    (3) समूह की विशालता के कारण इसके सदस्यों के सम्बन्ध प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष होते हैं। अर्थात् इनके सदस्यों में शारीरिक समीपता का अभाव पाया जाता है।

    (4) इसके सदस्यों के सम्बन्ध अवैयक्तिक एवं औपचारिक होते हैं अर्थात् इनके सम्बन्धों में घनिष्ठता नहीं पायी जाती।

    (5) इनके सम्बन्धों में प्रतिस्पर्द्धा पायी जाती है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी कार्य कुशलता एवं क्षमता के बल पर दूसरों से आगे बढ़ना चाहता है। दूसरों की तरक्की उसमें ईर्ष्याभाव उत्पन्न करती है।

    (6) ऐसे समूहों के सदस्यों के उत्तरदायित्व सीमित होते हैं।

     (7) ऐसे समूहों में सदस्य अपनी इच्छा से सदस्यता हासिल करते हैं और अपनी इच्छा पर ही उसे छोड़ भी देते हैं।

    (8) यही कारण है कि द्वितीयक समूहों की सदस्यता की अवधि सीमित होती है। 

    (9) द्वितीयक समूह का निर्माण योजनाबद्ध तरीके से होता है। 

    (10) द्वितीयक समूहों का संगठन औपचारिक होता है।

    समूहों में हमारा जीवन

    हम अपने जीवन का अधिकांश भाग समूहों में व्यतीत करते हैं। हमारा तात्कालिक परिवार एक लघु समूह होता है जिसे हम प्राथमिक समूह (Primary Group) कहते हैं। इस प्रकार के समूह में सन्निकटता के आधार पर हमारा निरन्तर आमने सामने (Face to Face) का सम्पर्क होता है। इसी प्रकार हमारे अनेक मित्र गण और अपने समाज के लोगों का समूह तथा हमारे अनेक कार्य समूह जो एक दिये हुये लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये संगठित हुए है, को भी प्राथमिक समूह (Primary group) कहते है।

    गौड़ समूह (Secondary groups ) 

    दूसरी ओर ऐसे बड़े अवैयक्तिक व्यक्तियों के संग्रह को कहते हैं जिनमें निम्न स्तर की अन्तःक्रिया  और घनिष्ठता होती है, जैसे व्यवसायिक संगठन और समुदाय सेवा क्लब (Clubs) |

    प्राथमिक और गौड़ दोनों ही प्रकार के समूह सदस्यता समूहों के रूप में कार्य करते हैं। ये वे समूह है जिनमें हमारी सक्रिय भागीदारी रहती है। यह समूह सन्दर्भ समूह (Reference group) का कार्य भी करते हैं, जिनका प्रयोग हम करते हैं चाहे हम उसके सदस्य हो या न हो। इनका प्रयोग हम सूचना के खोत के रूप में और अपनी मनोवृत्तियों और व्यवहार की तुलना के मानक के रूप। 

    दूसरे शब्दों में हम स्वयं को समझने और स्वयं का मूल्यांकन इन समूहों के सन्दर्भ में करते हैं जो इन उद्देश्यों के लिये प्रासंगीक होते हैं। उदाहरणार्थ जब हम हाईस्कूल में होते हैं तब हमारी मित्र मण्डली हमारे लिये एक महत्वपूर्ण सन्दर्भ समूह होता है, हम सामान्य मनोवृत्ति और व्यवहार की भागीदारी करते हैं तथा स्वयं को इस समूह के रूप में परिभाषित करते हैं। इसी के साथ स्वयं का आत्मीकरण (Identify) उस सन्दर्भ समूह से करते है जिसके हम सदस्य नहीं है। जैसे उस कॉलेज के विद्यार्थियों के रूप में जिसमें हम दाखिला लेना चाहते है तथा हम अपने व्यवहार और मनोवृत्तियों की तुलना उस समूह से करते हैं। हम समूहों में एक और विभेद कर सकते हैं। आन्तरिक समूह (In group) और वाह्य समूह (Out group) संरचित समूह और असंरचित समूह आदि। इस प्रकार हम अग्र प्रकार के समूहों का वर्गीकरण प्राप्त करते हैं |

    (1) प्राथमिक समूह  और गौड़ समूह 

    (2) सन्दर्भ समूह  और सदस्यता सहित और बिना सदस्यता के। 

    (3) आन्तरिक समूह और बाह्य समूह 

    (4) संरचित समूह और असंरचित समूह 

    1 छोटे समूह के अनेक आयाम है जो 2 से 20 सदस्यों तक हो सकते हैं। इस कारण इन्हें परिभाषित करना एक कठिन कार्य हो जाता है। समूह की न केवल अनेक परिभाषायें है. वरन उन्हें परिभाषित करने के अनेक उपागम (Approaches) है। उदाहरणार्थ, सदस्यों के प्रत्यक्षीकरण, अभिप्रेरणा या लक्ष्यों के सन्दर्भ में या उनकी परस्पर निर्भरता और अन्त क्रिया के सन्दर्भ में (Show, 1981) यद्यपि Show द्वारा दो तत्वों को महत्वपूर्ण माना गया है, 'अन्तक्रिया' (Interaction) और प्रभाव' (Influence)| अतः आपके द्वारा समूह को इस प्रकार परिभाषित किया गया है, 'दो या अधिक व्यक्ति जो एक दूसरे से इस प्रकार अन्त क्रिया करते हैं कि हर कोई दूसरे को प्रभावित करता है और दूसरे से प्रभावित होता है।

    छोटे समूहों की मूल विशेषताओं को समझ कर हम उन समूहो को समझ सकते हैं जिनसे हम रोजमर्रा आमने सामने मिलते है। हम उन प्रभावों को भी भली प्रकार समझ सकते है जो समूह मैं प्रचालित (Operate) होते हैं, वे प्रभाव जो व्यक्तिगत सदस्यों के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। समूह में इन शक्तिशाली परस्पर सम्बन्धित शक्तियों का अध्ययन, जिन्हें कर्ट लेविन (Kurt Lewin) ने समूह गत्यात्मकता (Group dynamics) कहा है, जिनका अध्ययन छः दशाब्दियों से अधिक से समाज मनोविज्ञान में किया जा रहा है। इन अध्ययनों के निष्कर्ष हमें सामाजिक व्यवहार को निकट से समझने तथा होने वाले परिवर्तन कैसे समूह में हमारे व्यवहार को अधिक प्रभावी और सन्तोषदायक बनाते है, को समझने में सहायता प्रदान करते हैं।

    समूह की सदस्यता क्यों ग्रहण करते हैं ? 

    हम किसी समूह के सदस्य अपने भौतिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये करते है। हम किसी समूह के प्रति अन्तरवैयक्तिक आकर्षण, निकटता, समानता, अन्योन्यता (Reciprocity) और पूरकता (Complementarity) के कारण आकर्षित होते हैं। अतः किसी समूह का सदस्य होने के चार मुख्य कारणों को इंगित कर सकते हैं।

    (i) समूह के सदस्यों का आकर्षण,

    (ii) समूह की क्रियाये,

    (iii) समूह के लक्ष्य और

    (iv) समूह के लोगों से सम्बद्धता (Affiliation)।

    (i) आकर्षण 

    समूह के सदस्यों के प्रति आकर्षण निकटता और अन्त क्रिया की आवृत्ति के कारण होता है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि निकटता (Proximity) केवल आकर्षण की सम्भावना उत्पन्न करती है, पर सम्बना स्थापित करने में अन्य कारक प्रायः अपनी भूमिका अदा करते हैं। 

    (ii) समूह निर्माण में समानता की शक्ति विशेष रूप से मनोवृत्यात्मक

    समानता उतनी ही शक्तिशाली होती है जितनी कि अन्तर्वैयक्तिक आकर्षण पर पूरकता (Complementary) की व्याख्या का भी अपना महत्व है, विशेष रूप से जब योग्यताओं की पूरकता या आवश्यकतायें प्रभावी समूह संकार्य (Functioning) के लिये अपरिहार्य हो। सामान्यतः मनोवृत्तात्मक समानता, आर्थिक पृष्ठभूमि, प्रजाती (Race), लिंग (Sex) अन्य कारक भी समूह निर्माण के सम्बन्ध में बहुत कुछ बताते हैं।

    समूह का कार्य, जो कि उसकी क्रियाओं और लक्ष्यों में व्यक्त होता है, प्रायः समूह में सम्मिलित होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण होता है। समूह अपने सदस्यों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं की प्राप्ति में सहायता करता है। आप एक फोटोग्राफी क्लब के सदस्य बनते हैं क्योंकि आपको फोटो खींचना अच्छा लगता है और इसके सम्बन्ध में अन्य लोगों से चर्चा करना आपको सन्तोष और सुख प्रदान करता है। आप एक क्रिकेट की टीम के सदस्य बनते हैं क्योंकि इसे अकेले खेलना सम्भव नहीं है। आप बढ़ी हुई ट्यूशन फीस के प्रति आन्दोलन करने वाले समूह से जुड़ते हैं क्योंकि आप अधिक फीस नहीं दे सकते। इन सभी उदाहरणों में आप प्रत्यक्ष रूप से पुरस्कार, समूह का सदस्य होने के कारण प्राप्त करते हैं। समूह निर्माण का सामाजिक विनिमय के सिद्धान्त (Social exchange theory) का आरोपण यह पूर्व कथन करता है कि हम समूह के सदस्य बनते हैं ओर समूह में बने रहते हैं, जब कि ऐसा करना व्यय से अधिक होता है, अर्थात् लाभदायक होता है। हम आशा करते हैं कि हमारा लाभ समूह में लगायी लागत के अनुपात में हो। जब परिणाम वैकल्पिक समूह संघ के तुलीय स्तर से कम होता है, तब हम समूह छोड़ने के लिये अभिप्रेरित होते हैं।

    समूह में सम्मिलित होने का तृतीय सामान्य कारण उस समूह के लोगों में सम्बन्धन (Affiliation) होना पसन्द करते हैं। हम अपनी सम्बन्धन की आवश्यकता की सन्तुष्टि लोगों से अन्तःक्रिया करके प्राप्त करते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे उपलब्धी की आवश्यकता की सन्तुष्टि समूह की क्रियाओं और लक्ष्यों से प्राप्त करते हैं। हम चाहे सम्बन्धन को जन्मजात आवश्यकता मानें या अर्जित अभिप्रेरक, हमें ध्यान और साथ (Companionship) की शक्ति को एक सामाजिक पुनर्बलन के रूप में स्वीकारना ही पड़ेगा। चाहे हम सामाजिक तुलना के लिये सम्बन्धन (Affiliate) करें या चिन्ता कम करने के लिए, या जन्मजात उत्कण्ठा (Raving) को सन्तुष्ट करने के लिये, यह स्पष्ट है कि समूह हमारी मूल सामाजिक आवश्यकताओं और हमारे व्यवहार पर तीव्र प्रभाव की पूर्ति का एक शक्तिशाली फोरम है।

    समूह सदस्यता उन आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होती है जो समूह के बाहर विद्यमान है|  इस प्रकार समूह सदस्यता वाह्य लक्ष्यों को प्राप्त करने की पहली सीढ़ी हो सकती है, बजाय प्रत्येक सन्तुष्टि का स्रोत होने के। एक प्रोफेसर निरन्तर व्यावसायिक संघों की मिटिंग में इस आशा से जाता है। कि उसकी उन्नति की सम्भावना बढ़ जायेगी। इस एक समूह के सदस्य होने का कारण सदैव समूह में ही नहीं ढूंढा जा सकता।

    जब हम आकर्षणता पर विचार करते हैं, तब हमें समूह की विशेषताओं पर भी ध्यान देना चाहिये। समूह के अनेक गुण सामान्यतः भावी सदस्यों के लिये उसे अधिक आकर्षित बना देते हैं (Napiert Gershenfeld, 1981). इन विशेषताओं का उल्लेख निम्नांकित पंक्तियों में किया गया है-

    1. अधिक आकर्षित समूह, सदस्य को अधिक प्रतिष्ठा प्रदान कर सकता है। सदस्य जो प्राधिकारी (Authority) और प्रतिष्ठा का स्थान रखते हैं प्रायः समूह में बने रहने के प्रति अधिक आकर्षित रहते है।

    2. सहयोगी सम्बन्धों और संयुक्त पुरस्कार समूह का आकर्षण बढ़ाते हैं, जब व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा इसे कम करती है।

    3. सदस्यों में सकारात्मक अन्तक्रिया के अंश प्रत्यक्ष रूप में आकर्षण को प्रभावित करते हैं। क्योंकि इससे सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रसार बढ़ जाता है।

    4. समूह का आकार आकर्षण को प्रभावित करता है। छोटे समूह अन्त क्रिया के अधिक अवसर प्रदान करते हैं क्योंकि इनमें भागीदारी की समानता, व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति होने के कारण यह अधिक आकर्षित होते है।

    5. अन्य समूहों से सकारात्मक सम्बन्ध प्रतिष्ठा आदि में बढ़ोतरी करते हैं और समूह को अधिक आकर्षित बनाते हैं।

    6. सफलता से अधिक कोई सफलता नहीं होती (Nothing Succeeds like Success)। समूह जो अपना लक्ष्य प्रभावकारी रूप में प्राप्त करने के लिए जाने जाते है वे प्राय: अधिक आकर्षक प्रतीत होते. है।

    अन्त में आकर्षण को उस प्रक्रिया से जोड़ना चाहिये जिसके द्वारा व्यक्ति समूह का सदस्य बनता है। उपर्युक्त वर्णित सभी वर्णनों में सदस्यता मुख्यतः ऐच्छिक थी, उसमें सदस्य बनने के लिये बाध्य नहीं किया गया था। इसके अतिरिक्त हमने वास्तविक सदस्यों की चर्चा की थी. सदस्य बनने के इच्छुक सदस्यों की नहीं। आकर्षण का कारक हमें कम-से-कम यह पूर्वकथन करने में सहायता कर सकता है कि सदस्य बनने का इच्छुक व्यक्ति वास्तव में सदस्य बनेगा या नहीं। इसके अतिरिक्त हममें से अधिकांश लोग विभिन्न प्रकार के समूहों के सदस्य होते हैं जो किसी एक समूह के प्रति उनके आकर्षण को प्रभावित करते हैं। किसी समूह में काफी प्रयासों के पश्चात् उसकी सदस्यता प्राप्त करने और फिर उसकी ओर आकर्षित होना वस्तुतः एक विसंगति होगी। 

    अतः विसंमवादिता (Dissonance) को कम करने के लिये हम उस समूह का सकारात्मक मूल्यांकन करते हैं। हम किसी समूह के सदस्य क्यों बनते हैं और किसी समूह विशेष के प्रति क्यों आकर्षित होते हैं एक ऐसा प्रश्न है जिसका सरल और सीधा उत्तर सदैव नहीं दिया जा सकता है। इसके लिये निम्नांकित कारकों का वर्णन महत्वपूर्ण है-

    1. समूह की एकजुटता

    2. समूह मानक और अनुसारिता

    3. प्राधिकार का आज्ञापालन

    4. उत्तरदायित्व का विसरण 

    5. समूह चिन्तन।

    1. समूह एकजुटता:

    समूह स्तर पर आकर्षणता के अन्तर्वैयक्तिक चर एकजुटता की आवश्यक विशेषता में योगदान देते हैं। यद्यपि एकजुटता (Cohesiveness) को आकर्षण, समन्वय और मनोबल के सन्दर्भ में सामान्यतः तीन रूप में परिभाषित किया जाता है, पर समूह के सन्दर्भ में इसे उस सीमा के रूप में परिभाषित किया जाता है जिस सीमा तक सदस्य समूह में बने रहने के लिये अभिप्रेरित होते है। अतः एकजुटता केवल अन्तर्वैयक्तिक आकर्षण पर बल नहीं देती वरन् समूह में और उसके प्रति आकर्षण की शक्ति और समग्र प्रारूप पर बल देती है।

    एकजुटता समूह विकास में एक मुख्य चर है और अन्य महत्वपूर्ण विशेषताओं से सम्बन्धित है, विशेष रूप से अन्त क्रिया के अंशों, सामाजिक प्रभाव उत्पादकता और सन्तुष्टि से ( Show 1981) अधिक एकजुट समूह, मित्रता, सहयोगिता और समूह कृत (Task) की प्रासंगिकता के रूप में अन्त क्रिया के प्रकार और गुणात्मकता में अधिकता दर्शाता है।

    इसका एक रुचिकर प्रभाव यह है कि एकजुटता में सदस्य समूह उपलब्धी का कुछ अंशों तक Credit लेते हैं। एकजुट समूहो में ऐसा प्रतीत होता है कि सदस्य सुख और दुख में एक साथ बने रहते है।

    2. समूह मानक और अनुसारिता:

     एक बार समूह की सदस्यता ग्रहण करने के पश्चात् आप अपने व्यवहार में समूह के मानकों का पालन करते हैं जिन्हें समूह द्वारा पुरस्कार और दण्ड के माध्यम से लागू किया गया है। इन मानकों का उल्लंघन करने के परिणामों से आप भली प्रकार परिचित होते है। मानकों का उल्लंघन करने पर आपको सामाजिक बहिष्कार और भर्त्सना का सामना करना पड़ सकता है तथा आप ऐसे सभी व्यवहारों के प्रति सचेत रहते हैं जो समूह मानकों के अनुरूप (Conform) नहीं है।

    3.प्राधिकारी की आज्ञापालन: 

    प्राधिकारी (Authority) की आज्ञापालन अनुसारिता (Conformity) का एक उदाहरण है। इसमें समूह का नेता समूह मानक लागू कराने वाला मुख्य व्यक्ति होता है। मिलग्राम (Milgram, 1965) के मत में, आज्ञापालन के पीछे मुख्य कारक व्यक्तिगत उत्तरदायित्व का नकारना है जो कि प्राधिकार को स्थानान्तरित कर दी जाती है।

    सुन्न करने वाली नियममत्तता से देखा गया है कि प्राधिकारी की मांग के आगे ऐसी क्रियायें कर जाते है जो कठोर (Callous) और तीव्र होती हैं। लोग जो सामान्य जीवन में उत्तरदायित्वपूर्ण और अच्छा व्यवहार करने वाले होते हैं वे भी प्राधिकारी की आज्ञा के कारण कठोर (Harsh) क्रियायें कर जाते हैं।

    4.उत्तरदायित्व, अव्यक्तिकरण और ध्रुवीकरण का विसरण: 

    मिलग्राम (Milgram) के अध्ययन में व्यक्तिगत उत्तरदायित्व को नकारना एक सामान्य समूह सम्प्रत्यय है जिसे उत्तरदायित्व का विसरण (diffusion of respon sibility) कहते हैं। इसी से सम्बन्धित एक प्रत्यय जिसका अनुभव समूह में कभी-कभी किया जाता है वह अव्यक्तिकरण (deindividuation) है। यह वह अवस्था है जब भीड़ में व्यक्तियों को व्यक्तिगत व्यक्ति के रूप में नहीं देखा जाता वरन् वह भीड़ में खो जाता है और व्यक्तिगत पहचान खो जाने का अनुभव करता है (Festinger, Pepitone and Newcomb, 1952)। इस क्षेत्र में अनेक अध्ययन किए गये है पर उनके परिणामों द्वारा कोई अन्तिम हल प्राप्त नहीं हुआ है।

    Cartwright (1971) के परिणाम यह दर्शाते हैं कि समूह चर्चा (Group discussion) से अनेक क्षेत्रों में ध्रुवीकरण (Polarization) प्राप्त होता है जैसे मनोवृत्तियों में, दूसरों के प्रत्यक्षीकरण आदि में।

    5.समूह चिन्तन:

    अनुसारिता अव्यक्तिकरण और ध्रुवीकरण की प्रक्रियायें राष्ट्रीय निर्णयों को प्रभावित करती हैं। जिनके हम सभी के लिए घातक परिणाम होते हैं। अमेरिकन प्रेसीडेण्ट के अनेक निर्णयों का विश्लेषण करने के पश्चात् उनके एक घनिष्ठ सलाहकार इरविंग जेनिस (Irwing Janis, 1972) ने शब्द समूह चिन्तन (Group think) को रचा। यह वह प्रक्रिया है जिसमें एकजुट समूह अपनी सहमती देता है और वास्तविक वैकल्पिक कार्यवाही की अवहेलना करता है। क्यूबा पर आक्रमण, वियतनाम युद्ध, U. S. A और चीन के मध्य गहनतम द्वन्द्व, यह सभी त्रुटिपूर्ण समूह समस्या समाधान के उदाहरण हैं।

    'समूह चिन्तन' (Group Think ) में कृतिक (Critical) व्यक्तिगत निर्णय और वैकल्पिक विचारो की अभिव्यक्ति को अनेक सूक्ष्म अनुसारिता दबावो द्वारा विस्थापित कर दिया जाता है। इस अवस्था में। वैकल्पित अल्पमत को किनारे कर सर्वसम्मत का परिधान पहना दिया जाता है और नेता को आलोचना से बचाया जाता है। इससे प्राप्त होने वाले परिणाम न तो तार्किक होते हैं और न ही नैतिक।

    सम्भावित समूह भागीदारी ग्रहण करने से पूर्व आप निम्नांकित पर ध्यान देकर उस समूह का चयन कर सकते है जो आपके लिये उपयुक्त है

    1. सावधानीपूर्वक अपने अधिगम लक्ष्य पर विचार करें।

    2. विख्यात व्यवसायियों नेतृत्व वाले समूह में ही जाये जो मानवीय सेवा में लिप्त हैं।

    3. कार्यक्रम में सामर्थ्य और उत्तरदायित्व को इंगित करने वाले समूह को तलाशिये । 

    4. उन समूहों की उपेक्षा करिये जो धर्म के आधार पर समाज को बदलना चाहते हो।

    समूह गत्यात्मकता

    डायनामिक्स भौतिकशास्त्र से लिया गया है। डायनामिक्स ग्रीक भाषा से लिया गया शब्द है, जिसका अर्थ है-शक्ति। इस प्रकार 'समूह गत्यात्मकता' समूह में छिपी हुई शक्ति के अध्ययन से सम्बन्धित विषय है। समूह गति विज्ञान उन शक्तियों का ज्ञान देता है जो एक समूह में सक्रिय होते है। उन व्यक्तियों का अध्ययन समूह गति विज्ञान का अन्वेषण का विषय होता है। यह अन्वेषण उस दिशा में होते हैं जिससे पता चल जाए कि शक्तियाँ किस प्रकार उभरती है, किन दशाओं में ये शक्तियाँ सक्रिय होती है, क्या इनके परिणाम होते हैं और किस प्रकार से उनका रूपान्तर किया जा सकता है। अर्थात् समूह गति विज्ञान वह विज्ञान है जो समूह को गतिशील करने वाली शक्तियों का अध्ययन करता है। समूह गतिशीलता के अध्ययन में इसे समूह गत्यात्मकता, समूह मनोविज्ञान के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है।

    समूह गत्यात्मकता की परिभाषाएँ

    प्रो. ट्रो के अनुसार- समूह गति विज्ञान वह वैज्ञानिक अध्ययन है जो समूह सम्बन्धों में व्यक्ति के व्यवहारों और विभिन्न आंतरिक एवं बाह्य दशाओं के अन्तर्गत समूह प्रतिक्रियाओं का कभी-कभी उनकी प्रभावकारिता को बढ़ाने के विचार से अध्ययन करता है।

    फिशर के अनुसार-समूह गतिकी अध्ययन का एक ऐसा क्षेत्र है जो उन बलों या दबाव पर  प्रकाश डालता है पर प्रकाश डालता है जिनसे छोटे समूह में व्यक्तियों का व्यवहार प्रभावित होता है।"

    उदय पारीख के अनुसार-समूह गति विज्ञान एक ऐसा विज्ञान है जो व्यक्ति की एक समूह के सदस्य के रूप में अंतः प्रक्रियात्मक का वैज्ञानिक अध्ययन करता है।

    एस. एस. माथुर के अनुसार- समूह गति विज्ञान उन शक्तियों की जानकारी प्रदान करता हैजो एक समूह में सक्रिय होती है।"

    क्षेत्र जिनमें समूह गत्यात्मकता का प्रयोग किया जा सकता है

    लेविन (Lewin) के साथ-साथ अन्य अनेक लोग जो समूह प्रशिक्षण आन्दोलन के जनक माने जाते हैं, जैसे केनबेन लीब्रेडफोर्ड और रोनलिपिट (Ken Benne Lee Bradford, and Ronlippit) आदि, सभ्यता की समस्या को मानवीय सम्बन्धों की समस्या मानते हैं। ब्रेडफोर्ड (Bradford, 1961) का मानना है कि आज के युग की जटिलता में परस्पर निर्भर लोगों में सहयोग की आवश्यकता के लिये समूह व्यवहार को समझना, अनेक क्षेत्रों में स्पष्ट है।उद्योगों में प्रबन्धक निर्णय टीम द्वारा लिये जाते है जो एक • समूह है। समुदायों में समस्या समाधान की मुख्य विधि कमेटियों और मीटिंग के माध्यम से निर्णय लेना है अर्थात् समूह प्रक्रिया से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में अनेक एजेन्सियों और कान्फ्रेंसों की सफलता व्यक्तियों को समूहों के साथ कार्य करने और उन्हें समझने की योग्यता पर निर्भर करती है।

    आनुभविक समूह, विशेष रूप से सम्वेदनशीलता प्रशिक्षण, सहभागियों को निर्णायक समूह प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में अधिगम करने में सहायता करते हैं, अतः यह अनेक मानवीय सम्बन्धों की कार्यक्षमताओं में महत्वपूर्ण बने हुए हैं। इसके अतिरिक्त अन्य बहुत से प्रकार के समूह जैसे चेतना विकसित करने वाले, आत्मनिर्भरता, आग्रहिता ( assertiveness) प्रशिक्षण आदि आंशिक रूप से संवेदनशील प्रशिक्षण से ही लिये गये हैं।

    अन्तःसमूह द्वन्द्व की (destructiveness) एक ऐसी सामाजिक समस्या थी जिसके सम्बन्ध में लेविन (Lewin) चिन्तित था और उन्होंने समूह गत्यात्मकता (Group dynamics) के विकास द्वारा द्वन्द्व को हल करने का प्रभावी हल देखा। इस आशा को अन्त समूह सामना करने की कार्यशाला को विकसित करने का सुझाव दिया दोनों सामाजिक और अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों के विश्लेषण पर । इसके अतिरिक्त द्वन्द्व को हल करने के सामान्य उपाय की जड़ें मानवीय सम्बन्धों के प्रशिक्षण उपागम में गहरी जमी हुई हैं।

    आनुभविक समूहों (experiential groups ) के साथ कार्य को इस प्रकार अभिकल्पित किया गया जिससे वह संगठनों के सदस्यों को उनकी भूमिका प्रभावकारी रूप से पूरा करने में सहायक हो। यह उपागम अब टीम निर्माण में विकसित हो गया है। इस उपागम द्वारा अध्यापन और अधिगम प्रक्रिया को अधिक चुनौतीपूर्ण और पुरस्कारी बनाया जा सकता है, अध्यापकों और विद्यार्थियों दोनों के लिये।




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