सगुण ब्रम्ह क्या है ?- अध्यात्म एवं विज्ञान - in hindi

सगुण ब्रम्ह ,अध्यात्म एवं विज्ञान

ऊर्जा ही उचित भौतिक परिस्थितियों में पदार्थ में परिवर्तित हो जाती है और यही पदार्थ तीनों अवस्थाओं ठोस, द्रव व गैस को प्राप्त होते हैं। ठोस अवस्था में ऊर्जा साकार स्वरूप में होती है और इस अवस्था से अन्य अवस्थाओं को प्राप्त कर क्रियात्मक भाव को प्राप्त करती है। यही सगुण ब्रह्म का प्रथम लक्षण है। मानस में सगुण ब्रम्ह  को निम्नानुसार वर्णित किया गया है-

राम ब्रम्ह चिनमय अविनासी सर्व रहित सब उर पुर बासी।।

(बाल काण्ड दो. 119 चौ.03)

नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू मोहि समुझाइ कहद्दू वृषकेतू ।।

(बाल काण्ड दो 119 चौ.04) 

श्रीरामचन्द्रजी ब्रम्ह है चिन्मय (ज्ञानस्वरूप ) है, अविनाशी है. सबसे रहित और सबके हृदयरूपी नगरी में निवास करने वाले हैं। फिर हे नाथ! उन्होंने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया है धर्म की ध्वजा धारण करने वाले प्रभो । यह मुझे समझाकर कहिये ।

श्रीराम ब्रम्ह है, ज्ञान स्वरूप है अविनाशी है। सबसे रहित और सबमें वास करते है फिर उन्होंने मनुष्य का शरीर क्यों धारण किया ? मानव शरीर ही चेतना और ज्ञान का विकसित धारक है इसीलिए विकसित स्वरूप इसमें रहता है और पायी जाने वाली ऊर्जा से संचालित होता है।चूंकि ऊर्जा का शरीर नहीं होता और कार्य के लिए इसे देह की आवश्यकता होती है इसीलिए ऊर्जा ने मानव देह धारण की ऊर्जा के माध्यम से ही यंत्र व शरीर ज्ञान प्राप्त करते हैं, ऊर्जा अविनाशी है. न उसको उत्पन्न किया जा सकता और न नष्ट। ऊर्जा सभी सचराचर व संसार का अभिन्न अंग है और सबसे स्वतंत्र भी है।

श्रीराम ही ऊर्जाधारक ब्रम्ह है। वहीं इस संसार में ज्ञान स्वरूप है और शाश्वत अविनाशी हैं। जो सब के हृदय में निवास करते हुए भी सभी से भिन्न हैं।

समस्त मानव के वक्षस्थल में हृदय होता है यही वक्षस्थल उर पुर कहलाता है। इसी हृदय की अनवरत धडकनों से शरीर में रक्त का संचार होता है शरीर में रक्त पचे हुए भोजन को वक्ष पृष्ठ पर लगे हुए फेफड़ों से प्राण वायु पाचन तंत्र द्वारा आवश्यक भोज्य पदार्थों को पूरे शरीर में वितरित करता है। साथ ही फेफड़े द्वारा लायी गयी हवा से प्राण वायु ऑक्सीजन को अपने अन्दर अवशोषित करता है। 

तथा ऑक्सीजन रूपी प्राण वायु रक्त की लाल रक्त कणिकाओं के हीमोग्लोबिन से संयोग कर आक्सी- हीमोग्लोबिन नामक अस्थायी पदार्थ बनता है जो रक्त के प्रवाह के साथ शरीर में प्रवाहित होता है और जहाँ ऊर्जा के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है उसी अंग में वह ऑक्सीजन को छोड़ देता है और यह प्राण वायु ऑक्सीजन उस अंग में संचित ऊर्जा धारकों से क्रियाकर ऊर्जा को शरीर के लिए मुक्त करती है और यही ऊर्जा संसार के सभी कार्य और जीवन के सभी कार्य करने वाली एक मात्र कारण सत्ता है जो ब्रह्म स्वरूप है जो सर्वव्यापी एवं सर्वशक्तिमान है। ऊर्जा होने पर ही ज्ञानेन्द्रियों ज्ञान का आभास कराती हैं और ऊर्जा को न ही उत्पन्न किया जा सकता है और इसका विनाश भी नहीं होता है इसीलिए ऊर्जा ही इस संसार का अविनाशी तत्व है। जड़ और चेतन में सदैव विद्यमान है और समस्त क्रियाओं का केन्द्र होने के कारण इसे सब क्रियाओं का हृदय स्थल कहते हैं और सबसे अलग भी है। जैसे बहते पानी हवा व सौर्य किरणों से निकाली जाने वाली ऊर्जा उन सबसे अलग भी हो जाती है।

असुर मारि थापहि सुरह राखहि निज श्रुति सेतु । 

जग विस्तारहि बिसद जस राम जन्म कर हेतु ||

 (बाल काण्ड दोहा 121)

वे असुरों को मारकर देवताओं को स्थापित करते हैं। वेदों की मर्यादा की रक्षा करते हैं और संसार में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। 

संसार स्थायित्व चाहता है। इस संसार में स्थायित्व को नुकसान पहुँचाने वाले कारकों / कारणों को नष्ट करना केवल स्वतंत्र ऊर्जा के वश में है। ऊर्जा की  हानि हुई तो ऊर्जा उसका स्थान लेकर परमाणु की पुनः स्थापना करती है। ऊर्जा के इस संसार में विभिन्न कार्यों को करने से उसका यश फैलता है और ऊर्जा स्रोत का कारण भी यही है।

कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं ।। 

राम जनम के हेतु अनेका |

परम बिचित्र एक तें एका ।।

(बाल काण्ड दोहा 121 चौ.01)

कृपासागर भगवान् भक्तों के हित के लिये शरीर धारण करते हैं। श्रीरामचन्द्रजी के जन्म लेने के अनेक कारण है, जो एक-से बढ़कर एक विचित्र हैं।

 अवलोके रघुपति बहुतेरे सीता सहित न बेव घनेरे।।

सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता देखि सती अति भई सभीता ।।

(बाल काण्ड दो 54 चौ.2.3) 

श्रीराम वनवास के समय सती जी ने श्रीराम की परीक्षा लेते समय सीतासहित। श्रीरघुनाथजी बहुत-से देखे परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी थी. सती ऐसा देखकर बहुत डर गयीं।

उस समय सतीजी ने बहुत सारे श्रीराम (ऊर्जा स्रोत) के रूप को यहाँ-वहाँ देखा और सभी देवताओं को उनकी शक्तियों सहित अर्थात विभिन्न देवताओं को उनके भिन्न-भिन्न ऊर्जा रूपों में भी यहाँ यहाँ देखा प्रत्येक कार्य के लिए अलग-अलग ऊर्जा स्रोत हैं और उनकी कार्य पद्धति के अनुसार उनके पास ऊर्जा के विभिन्न स्वरूप (Various forms of energy) पाये जाते हैं। इस संसार में पाये जाने वाले समस्त जीवों को अनेक प्रकारों में देखा। देखा कि सभी देवता (ऊर्जा एवं कार्य करने वाली शक्तियाँ) प्रभु की पूजा कर रहे हैं। ऊर्जा की आवश्यकता बता रहे हैं और उन्हें राम का / ऊर्जा का कोई प्रतिस्थापन या उनके स्थान पर काम करने वाला कोई दिखाई नहीं दिया। उन्होंने बहुत से रघुपति / ऊर्जा स्रोत देखे लेकिन वह अन्य किसी ऊर्जा के साथ दिखाई नहीं दिए। चारों ओर वही ऊर्जा स्रोत, फोटान वही न्यूट्रॉन और वही इलेक्ट्रॉन / ऊर्जा दिखाई दी जिससे सती डर गयी और उन्हें एकमात्र ब्रह्म या ऊर्जा का आभास हुआ। जो सर्वज्ञ, सर्वव्यापी एवं सर्वशक्तिमान है।

प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला ।।

(बाल काण्ड दो. 75 चौ.03)

तब कृतज्ञ, उपकार मानने वाले कृपालु रूप और शील के भण्डार महान तेजपुर भगवान श्रीरामचन्द्रजी प्रकट हुए।

रूपवान सीलवान-शील की पूँजी, तेजोमय - अत्यन्त तेज के साथ कृपा करने वाले कृपालु एवं उपकार को चुकाने वाले कृतज्ञ राम का प्राकट्य हुआ। उन्होंने अपना प्रकटीकरण किया। 

जब कभी बिखरी हुई ऊर्जा जो निराकार प्रतीत होती है, समीप आती है जैसे किसी भी पदार्थ की गैसीय अवस्था से जब ऊर्जा का संघनन / निर्वासन किया जाता है तब वह द्रव अवस्था में परिवर्तित होने लगती है और तरल पदार्थ दिखाई देने लगता है और जब इस तरल पदार्थ से और अधिक ऊर्जा निकाल ली जाती है तो दह पदार्थ और अधिक संघनित होता है। फलस्वरूप वह ठोस अवस्था को प्राप्त कर लेता है और पिंड अधिक ऊर्जा का त्याग कर देता है। इस अवस्था में उसकी गति समाप्त हो जाती है और स्थिर प्रतीत होता है क्योंकि उसके अन्दर स्थित अणु-परमाणु अत्यधिक पास-पास आ जाते हैं और अणुओं के बीच का स्थान समानुपातिक रूप से कम हो जाता है। यही जड़ता का परिचायक है। अर्थात् कणों को दी जाने वाली ऊर्जा ही अवस्था में परिवर्तन का कारण है और इसी से स्वार्थ व परोपकार के भावों को संकेतों में समझा जा सकता है। वस्तुतः होता यह है कि संसार में किसी भी कार्य का होना या दिखाई देना ही ऊर्जा का प्रकटीकरण है |

जैसे ऊर्जा भी विशाल तेज का प्रतीक है और समस्त संसार में प्रकाश गति, युगति, हृदय गति समुद्र में गति पदार्थों के अन्दर गति जीवों की कोशाओं और उप कोषीय अंगों में गति ऊर्जा के प्रकटीकरण का प्रमाण है और यही गति कृपा की प्रतिनिधि है क्योंकि जहाँ भी ऊर्जा की आवश्यकता होती है यह ऊर्जा उस स्थान में स्वतः चली जाती है इसीलिए प्रकृति में कहीं पर भी जहाँ गति है जीवन है वह ऊर्जा का परिणाम है और इसी से कोषाओं का स्वरूप एवं क्रियाशीलता पाई जाती है।

पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा।।

(बाल काण्ड दो 109 चौ. 03)

फिर हे प्रभु ! श्रीरामचन्द्रजी के अवतार (जन्म) की कथा कहिये तथा उनक उदार बालचरित्र कहिये।

 जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना ।।

(बाल काण्ड दो 113 चौ.02)

 जिस प्रकार भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अनन्त हैं | उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनन्त हैं। 

ते जाने जेहि देहु जनाई जानत तुमहि तुमहि होई जाई ।। 

नेति नेति कहि वेद बखाना ।।

अर्थात् इसके जानने के दो प्रकार हैं विहंगम दृष्टि, भेद दृष्टि या सूक्ष्म दृष्टि। एक है कि प्रभु स्वतः बता दे जिससे प्रथमतः प्रामाणिक ज्ञान मिल जाये या दूसरा मार्ग है कि वेदों ने इसे अगम्य अत्यन्त कठिन ज्ञान होना बताया है। इस प्रकार स्पष्ट किया है कि-

सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा | गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ।।

अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई ।।

 (बाल काण्ड दो 115 चौ.01)

सोई जल अनल अनिल संधाता | होई जलद जग जीवन दाता ।। 

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसे | जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसे 

सहज प्रकासरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ।।

(बाल काण्ड दो. 115 चौ.2.3) 

सगुण और निर्गुण में कोई भेद नहीं है। मुनि, पुराण, पण्डित और वे सभी ऐसा कहते हैं, जो निर्गुण, निराकार, अव्यक्त और अजन्मा है वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है। जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है ? यहाँ पर सगुण को साकार एवं निर्गुण को निराकार माना गया है जो केवल पदार्थ की अवस्थाओं पर आधारित है। टोस, साकार और दृश्य होता है. तरल पदार्थ दृश्य तो होते हैं किन्तु आकार रहित होते हैं वह जिस बर्तन में रखे जाते हैं उसी का आकार ग्रहण कर लेते हैं और गैसीय अवस्था में पदार्थ न दृश्य होता न ही उसका आकार होता। गति की दृष्टि से इनकी स्थिति विपरीत होती है। गैस अधिकतम गतिशील उसके बाद तरल कम गति वाले और फिर ठोस अगतिशील होते हैं। जैसे जल, आग और हवा के साथ भाप बनकर बादल का निर्माण करता है जो संसार में पदार्थों का निर्माण कर जीवों को जीवन देता है जैसे जल और ओले में भेद नहीं। प्रभु स्वभाव से ही प्रकाशरूप भगवाना है  वहाँ तो विज्ञानरूपी प्रात काल से अज्ञान नहीं होता।

 राम सच्चिदानंद दिनेसा नहिँ तहँ मोह निसा लव लेसा ।।

(बाल काण्ड दो 115 चौ.03)

श्रीरामचन्द्रजी सच्चिदानन्दस्वरूप सूर्य है वहाँ मोहरूपी रात्रि का लवलेश भी नहीं है।

सगुण और अगुण में कोई अन्तर नहीं है आपस में परिवर्तनशील है। ऐसा वेदों में स्पष्ट रूप से वर्णित है और इस प्रकटीकरण व अवस्था परिवर्तन का उदाहरण जल का दिया गया है। जल का कोई आकार व स्वरूप नहीं होता उसे जिस बर्तन में डाल देते हैं उसी आकार में दिखाई देता है। जल की भाप बनना भी अदृश्य निराकार भाव की पुष्टि करता है। भक्त उसे जिस स्वरूप (आकार) में स्मरण करता है वह भक्त के उसी भाव स्वरूप को धारण कर लेता है या सगुण स्वरूप में अवतार ग्रहण करता है। जैसे बर्फ का टुकड़ा स्वरूप विहीन पानी को अत्यधिक ठंडा करने पर वह बर्फ में परिवर्तित हो जाता है और बर्फ को जिस स्वरूप में काटना चाहो उसकी जैसी आकृति बनाना चाहें या चाहे जैसा गढ़ना चाहो वह उसी स्वरूप को धारण कर लेता है। जो अगुण विहीन, रूप विहीन, अदृश्य जिसे देखा न जा सके और अजन्मा है वह प्रेम बस होकर भक्त के आधीन होकर, सगुण रूप धारण करता है जैसे प्रभु सहज में प्रकाश स्वरूप धारण करते हैं जिसकी उपस्थिति में कभी अज्ञानता पास नहीं फटक सकती।

विज्ञान भाव में भी प्रकाश ऊर्जा से संसार का संचालन होता है। जैसे पौधों में प्रकाश संश्लेषण, ऊर्जा द्वारा संसार के समस्त भौतिक कार्यों का सम्पन्न होना, रासायनिक क्रियाओं का ऊर्जा (इलेक्ट्रॉन) के माध्यम से संसार के सभी पदार्थों का सृजन, रासायनिक परिवर्तन आदि होते हैं पदार्थ के सृजन से लेकर उसका संचालन एवं निर्वाण भी ऊर्जा आधारित है।

स्पष्ट है कि ऊर्जा जब इलेक्ट्रॉन के स्वरूप में है तब निर्गुण रहती है और पदार्थ रूप में आते ही सगुण रूप धारण कर लेती है क्योंकि सभी पदार्थ गुणों को धारण करते हैं उन सभी के कुछ गुण धर्म होते हैं।

निर्गुण, बिना रूप के / आकार के, अजन्मा, अदृश्य ऊर्जा, ऊर्जा चाहने वाले कम वैद्युत विभवान्तर वाले परमाणु के प्रेम / आकर्षण में क्रिया कर सगुण रूपी अणु बना लेते हैं। जो निर्गुण है वही सगुण है जैसे जल और ओले में भेद नहीं है। पानी का आकार नहीं होता है जिसमे जल को रखें उसी बर्तन का आकार ले लेता है।

जब उस जल से और ऊर्जा निकाल लेते हैं तब संघनन हो जाता है और बर्फ बन जाती है। उस बर्फ को आकार दिया जा सकता है, उसमें ऊर्जा कम होती है।

हरष विषाद ग्यान अग्याना जीव धर्म अहमिति अभिमाना ।। 

राम ब्रह्म व्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना ।।

(बाल काण्ड दो 115 चौ.04)

हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान ये सब जीव के धर्म हैं, श्रीरामचन्द्रजी तो व्यापक, ब्रम्ह , परमानन्दस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराणपुरुष हैं। इस बात को सारा जगत् जानता है।

परम्ब्रम्ह  श्रीराम की व्यापकता को जड, चेतन व जीव में ऊर्जा के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि ऊर्जा ही संसार में कार्य का निमित्त है एवं ऐसी अनुभूति होने के बाद जीवमात्र सदैव परमानन्द को प्राप्त करता है उसे भान रहता है कि वह ईश्वर के साथ होने के कारण सदैव रक्षित है।

पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ।।

 (बाल काण्ड दो. 116 ) 

जो पुरुष पुराण प्रसिद्ध है। प्रकाश के भण्डार हैं सब रूपों में हैं। जीव, माया और जगत सबके स्वामी हैं।

जो एक मात्र प्रकाश स्रोत / ऊर्जा स्रोत है सूर्य का प्रकाश किरणों के रूप में पृथ्वी पर आता है वह फोटान नामक संरचना के माध्यम से आता है। फोटान के कारण समस्त संसार में प्रकाश होता है और समस्त गुणों के आधार है और समस्त गुणों का उद्भव भी इसी प्रकाश पुंज से होता है। पदार्थ के सूक्ष्मतम कण परमाणु में ही ऊर्जा स्रोत अवयव, प्रोटान न्यूट्रान और इलेक्ट्रॉन पाये जाते हैं। यह सभी ऊर्जा के स्रोत है और परमाणु बम हायड्रोजन बम इत्यादि से इन ऊर्जा स्रोतों की शक्ति का अंदाजा लगाया जा सकता है।

सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना | तत्त्व बिचार निपुन भगवाना।।

(बाल काण्ड दो. 141 चौ.04)

तत्त्वों का विचार करने में अत्यन्त निपुण जिन (कपिल) भगवान् ने सांख्य शास्त्र का प्रकट रूप में वर्णन किया, उन (स्वायम्भुव) मनुजी ने बहुत समय तक राज्य किया और सब प्रकार से भगवान् की आज्ञा (रूप शास्त्रों की मर्यादा) का पालन किया।

भगवान की अवस्था में निराकार होने एवं सर्व समर्थवान होने के कारण समस्त संसार एवं ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करते हैं लेकिन साकार स्वरूप धारण करने पर भगवान ब्रह्माण्ड के नियंत्रण के साथ-साथ जिस कारण से साकार स्वरूप धारण किया है उस स्वरूप का काम भी करते है और साथ ही जिस कारण से अवतार लिया है उस लक्ष्य को पूरा करने का कार्य भी करते है सगुण-साकार रूप में भगवान ने धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करने के लिए अवतार लिया। उन्होंने ज्ञान, भक्ति, वैराग्य व संसार के उद्भव संचालन एवं संहार का ज्ञान भी सांख्य शास्त्र के अनुसार बताया है जिसमें जड़ से चेतन एवं जीव में क्रमश: परिवर्तन कैसे होता है, कैसे प्रकृति रूपी चेतना जड पुरुष से संयोग कर जीवत्व को प्राप्त होती है। संसार का क्रमिक विकास कैसे होता है आदि को सरल ढंग से संसार को बताया है। क्योंकि वही एक मात्र परम सत्ता है जिन्हें सांसारिक विषयों का अद्योपांग ज्ञान है तथा वही तत्व स्तर में संसार की गतिविधियों को संचालित करते हैं। अतः उसका पूर्ण ज्ञान उन्होंने विश्व को बताया। जब दह भगवान होते हैं तब वह अपने अवयवों भूमि, गगन, वायु, अग्नि एवं नीर के व्यवहार से प्रकृति और पुरुष के सांख्य शास्त्र को दर्शाते हैं किन्तु भगवाना मानव शरीर धारी बनने पर आपने इस सबका वर्णन अपने श्रीमुख से किया।

सांख्य शास्त्र को यदि विज्ञान की भाषा में कहें तो वह ऊर्जा के द्वारा शरीर बनाने उसके संचालन व संहार की प्रक्रिया है क्योंकि ऊर्जा का न ही नाश होता और न सृजन केवल वह रूपान्तरित होती है, शरीर बनने के हर भौतिक परिवर्तन व रासायनिक परिवर्तन में ऊर्जा के शरीर में असंतुलन से जीवन का अन्त हो जाता है और यही पंचमहाभूत भगवान (भूमि, गगन, वायु, अग्नि, नीर) शरीर को बनाने एवं बनाये रखने में कार्य करते हैं भूमि अर्थात् सभी धातु अधातु आदि नगन अर्थात् शरीर की कोशा के अन्दर, कोशाओं के बीच व उत्तकों के बीच का खाली स्थान. वायु अर्थात् पदार्थों की गैसें व ऑक्सीजन, अग्नि अर्थात रासायनिक क्रियाओं और ऑक्सीजन द्वारा ऑक्सीकरण से निकलने वाला ताप एवं नीर अर्थात् रसायन बनाने वाला जल नीर है। "जल बिनु रस कि होई संसारा"

बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।

निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ।। 

(बाल काण्ड दो. 192) 

भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल ।

 करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल ।।

(अयोध्या काण्ड दो. 93)

वही कृपालु श्रीरामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्माण गो और देवताओं के हित क लिये मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं।

भक्त, भूमि, भूसुर, सुरभि और सुर यह सब उप लक्षणा रूप में उपयोग किए गए है। यहाँ पर भक्त से आशय ऊर्जा की चाह रखने वाला प्रोटान रूपी कण को अपने हृदय स्थल पर रखने वाला, भूमि अर्थात् आवेशित कणों को धारित करने वाली संरचनात्मक इकाई परमाणु और अणु, भूसुर अर्थात् कणों का सदुपयोग कर सृजन करने वाला बल, सुरभि अर्थात् प्रक्रिया का संरचनात्मक परिणाम और सुर अर्थात् प्राकृतिक लय है और इन सभी के कल्याण का कार्य परमाणु के अन्दर पाये जाने वाले अवयव इलेक्ट्रॉन द्वारा निस्तारित ऊर्जा करती है जो सदैव कृपा ही करती है। ब्रह्मस्वरूप रामजी इस ऊर्जा से रासायनिक क्रिया (माया) को पूर्ण करते जिसे समझने पर सांसारिक जटिलता का ज्ञान होता है।

ब्राह्मण, गौ, देवता और संतों के लिये भगवान् ने मनुष्य का अवतार लिया। वे (अज्ञानमयी, मलिना) माया और उसके गुण (सत्. रज, तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इन्द्रियों से परे हैं। उनका (दिव्य) शरीर अपनी इच्छा से ही बना है (किसी कर्मबन्धन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं)।

ब्राह्मण, गो. देवता और संतों के लिए मनुष्य अवतार लिया। उनका शरीर अपनी इच्छा से ही बना है।

ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद ।

सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद।।

(बाल काण्ड दो. 198)

जो सर्वव्यापक, निरंजन (मायारहित), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मा ब्रह्म हैं. वही प्रेम और भक्ति के वश कौसल्याजी की गोद में खेल रहे हैं। 

जो सर्वव्यापक, माया रहित, निर्गुण, विनोद रहित और अजन्मा ब्रह्म हैं वही प्रेम के कारण, भक्ति के वशीभूत कौशल्या (कुशलता) के गोद में है।

 जय गजबदन षडानन माता जगत जननि दामिनि दुति गाता ।।

(बाल काण्ड दो. 234 चौ.03)

 नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना ।।

(बाल काण्ड दो 234 चौ.04)

हे हाथी के मुखवाले गणेशजी और छः मुखवाले स्वामिकार्तिकजी की माता हे जगज्जननी है बिजली की सी कान्तियुक्त शरीरवाली । आपकी जय हो। आपका न आदि है, न मध्य है और न अन्त है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते।

गौरी पूजन के समय सीताजी कहती है कि आप छः मुख वाले कार्तिकेय की जननी हैं। वे बिजली के समान कार्तियुक्त है। वैज्ञानिक दृष्टि से भौतिक स्वरूप में प्रकाश ही पौधों में प्रकाश संश्लेषण को प्रारम्भ करता है जिससे हरितकण धारी। पौधे कार्बन डाय ऑक्साइड व पानी को जोड़कर प्रकाश की उपस्थिति में ग्लूकोज का संश्लेषण करते हैं। ग्लूकोज छः कार्बन एवं छः ऑक्सीजन युक्त अणु है जिसे क्षणानन रूपी कार्तिकेय की उपमा दी जा सकती है इसीलिए प्रकाश की कान्ति व विश्व का आधारभूत भोजन ग्लूकोज को बनाने वाली शक्ति को दामिनी व जगत जननी की उपाधि सर्वथा उचित है। यही क्रिया संसार के समस्त जीव जगत के भोजन का आधार है जिससे समस्त प्राणियों का उदर पोषण होता हैं।

राम ब्रह्म परमारथ रूपा अबिगत अलख अनादि अनूपा।।

सकल बिकार रहित गतभेदा । कहि नित नेति निरूपहिं बेदा । ।

(अयोध्या काण्ड दो.92 चौ.04)

श्रीरामजी परमार्थ स्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आने वाले) अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले), अनादि (आदि रहित), अनुपम (उपमारहित), सब विकारों से रहित और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य 'नेति नेति'' कहकर निरूपण करते हैं।

श्रीराम परब्रह्म है और जो ब्रह्म है वह सृजन करेगा। सृजन स्वयं का नहीं किया जाता, सृजन दूसरे का होता है। अतः वह ब्रह्म परमार्थी है, परोपकारी है इसे स्थूल दृष्टि से नहीं देखा जा सकता इसीलिए उसे जाना भी नहीं जा सकता। वह आदि रहित है और अन्य है समस्त राग द्वेष से मुक्त है और भेदरहित है। वही ब्रह्म है और वैज्ञानिक अणिमा दृष्टि से वह ऊर्जा है क्योंकि ऊर्जा भी उपर्युक्त सभी गुणों को धारण करती है।

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्  | 

रामख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरि वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् ।।

(सुन्दरकाण्ड श्लोक 01) 

शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरन्तर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्यरूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि, राम कहलाने वाले जगदीश्वर मैं आपकी वन्दना करता हूँ।

एक कहहिं ए सहज सुहाए। आपु प्रगट भए बिधि न बनाएँ ।।

 (अयोध्या काण्ड दो. 119 चौ.01).

कोई एक कहते हैं कि ये स्वभाव से सुन्दर हैं और अपने आप प्रकट हुए हैं। ब्रह्मा ने इन्हें नहीं बनाया है।

 कार्बन के शुद्धतम रूप हीरे की उत्पत्ति पृथ्वी के अन्दर होने वाली अति उष्मीय एवं अति दबाव वाली पृथ्वीकारी गतिविधियों से होता है।

 जब पृथ्वी में अत्यधिक ताप के साथ बहुत अधिक दाब होता है, दबाव बढ़ने से अन्य मिश्रित तत्वों और गैसों का कार्बन से अलग होने का क्रम प्रारम्भ हो जाता है जो वर्षों के उस अवस्था में रहने पर केवल कार्बन हीरे के रूप में बचता है अर्थात लगातार तप के ताप से इन्द्रियों में दबाव डालकर अनवरत साधना से प्रभु राम की प्राप्ति होती है।

उभय बीच सिय सोहति कैसें ब्रह्म जीव बिच माया जैसे ।।

(अयोध्या काण्ड दो. 122 चौ.01) 

प्रभु पद रेख बीच बिच सीता । धरति चरन मग चलति सभीता ||

सीय राम पद अंक बराएँ। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ ।|

(अयोध्या काण्ड दो. 122 चौ.03)

तपस्वियों के वेष में आगे श्रीराम और पीछे लक्ष्मण हैं। दोनों के बीच सीताजी वैसी ही सुन्दर लगती हैं जैसे जीव और ब्रह्म के बीच माया। श्रीराम के चरणों के बीच सीताजी चलती हैं और दोनों से अलग दाहिने तरफ लक्ष्मणजी चलते हैं।

 भौतिक विज्ञान में किसी भी तत्व का सूक्ष्मतम कण परमाणु है। यह तीन भागों से मिलकर बना होता है। एक धनात्मक आवेश से आवेशित होता है और यही परमाणु का केन्द्र है जहाँ पर आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से प्रोटान तथा न्यूट्रान का क्षेत्र अर्थात् परमाणु केन्द्र है। ऋणात्मक कणों का घेरा इसे घेरे रहता है। मानस के अनुसार राम (प्रोटान धारी धनात्मक शक्तिकण) आगे है और न्यूट्रान (धनात्मक एवं ऋणात्मक शक्ति के बराबर की उपस्थिति का केन्द्र) पीछे है। यह दोनों अनवरत कर्म (तप) की अवस्था में रहते है। इन दोनों के बीच माया (क्रियात्मक ऊर्जा स्वरूप है जो सृजन कारक ऊर्जा ब्रह्मा एवं विषय (Subject) जीव के बीच कर्म हेतु उपस्थित है। कर्म / तप राम, लक्ष्मण, सीता (परमाणु-प्रोटान, न्यूट्रान, इलेक्ट्रॉन) अलग-अलग वलयों में सतत् कार्य करते हैं और एक दूसरे के मार्ग में नहीं आते।

ज्ञान भक्ति वैराग्य जिमि तीनहु घरे शरीर । 

आगे राम अनुज पुनि पाछे मुनि बर बेष बने अति काछे ।।

 उभय बीच श्री सोहइ कैसी ब्रह्म जीव बिच माया जैसी।।

(अरण्य काण्ड दो6 चौ.1.2)

आगे श्रीरामजी हैं और उनके पीछे छोटे भाई लक्ष्मणजी हैं। दोनों ही मुनियों का सुन्दर वेष बनाये अत्यन्त सुशोभित है। दोनों के बीच में श्री जानकी जी कैसी सुशोभित हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच माया हो ।

आगे राम है उनके बाद सीताजी फिर लक्ष्मण। यहाँ तीन दृश्य प्रस्तुत हो रहे हैं। शरीर की संरचना, परमाणु की संरचना और विकास की प्रक्रिया। शरीर की संरचना के आधार पर यदि व्याख्या करें तो शरीर के सबसे ऊपर सिर है जिसमें मस्तिष्क स्थित है। मस्तिष्क ही ज्ञान का विश्लेषक है। शरीर की सभी ज्ञानेन्द्रियाँ अपने द्वारा एकत्र ज्ञान को मस्तिष्क में भेजती हैं जहाँ पर प्राप्त ज्ञान का विश्लेषण किया जाता है और शरीर हित में निर्णय लिए जाते हैं आशय है कि पार्श्व तंत्रिका तंत्र से केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में सूचनाएँ आती हैं और विश्लेषित होती हैं।

आनन अनल अंबुपति जीहा । उत्पतिपालन प्रलय समीहा ।। 

परमाणु संरचना के आधार पर तीनों के सम्बन्ध कुछ इस प्रकार हैं, मुख में अग्नि है और उसके अन्दर जिव्हा में जल है और यही तेज और जल के विक्षोभ की सतत् क्रियाओं से संसार की उत्पत्ति, संचालन व संहार होता है। तेज से विघटन होता है, विघटित तत्व जल की उपस्थिति में पुनः प्रक्रिया करते हैं और नवीन पदार्थों का निर्माण होता है। यह विघटन और संघनन ऊर्जा आधारित है। जिसका वर्णन अन्यत्र किया जा चुका है। 

विकास की प्रक्रिया द्वारा चिंतन करने पर ज्ञात होता है कि रामरूपी ब्रह्म पीछे लक्ष्मण रूपी जीव चलता रहता है। सीतारूपी माया इसके बीच में आती है 1 ब्रह्म जीवोत्पत्ति करने का कार्य करता है। इस सृजन में विभिन्न भौतिक पदार्थ की आवश्यकता होती है यह पदार्थ तीन प्रकार के होते हैं। तत्व, योगिक एवं यौगिक का अर्थ है जब दो या दो से अधिक तत्व रासायनिक क्रिया करते है ऐसा नया पदार्थ बनता है जो अपने पूर्व घटकों में पुनः विभाजित नहीं हो सकता। अर्थात् ब्रह्म द्वारा जीव को बनाने में विभिन्न पदार्थों को मिलाया जाता है और सब रासायनिक क्रियाओं द्वारा एक निश्चित प्रक्रिया से बनता है और इन प्रक्रियाज को "माया" कहा जाता है जो दो ऊर्जा स्रोत राम के "म" एवं शक्ति स्रोत सीद के "य" के बीच परस्पर सहयोग से "मय" व इनके बीच बन्धन से "माया" बनते है। इस माया के परिणामस्वरूप जीव की उत्पत्ति होती है इसीलिए विकासदर में ब्रह्म और जीव के बीच रासायनिक क्रियाओं और उनके परिणाम "माया" का वर्णन किया गया है।

इन तीनों प्रकार से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि तुलसी ने ज्ञान और विज्ञान को इन पंक्तियों में पिरोया है और "माया" से निर्माण की कहानी को बल दिया है।

श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।

जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की ।।

(अयोध्या काण्ड छ:)

राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।

अबिगत अलख अपार नेति नेति निगम कह।। 

(अयोध्या काण्ड सो. 126)

 आप वेद की मर्यादा के रक्षक जगदीश्वर एवं जानकी जी माया हैं। आपका स्वरूप वाणी से अगोचर, बुद्धि से परे अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। वेद जिसका नेति नेति कहकर वर्णन करते हैं।

जो आपकी कृपा रुख पाकर जगत का सृजन, पालन और संहार करती हैं। अव्यमान ऊर्जा का धारक भी होता है जो समस्त क्रियाओं का नियंत्रण करता है। माया ऊर्जा की चाह के कारण होने वाली क्रिया द्रव्यमान में विभवांतरण (रुख) कारण रासायनिक क्रियायें सम्पन्न होती है जिनसे तीनों प्रक्रियाएँ सृजन, पालन और प्रलय होते हैं।

ऊर्जा धारक दव्यमान का स्वरूप जानना अत्यन्त कठिन है। ऐसा लगता है कि वह अदृश्य है और आंखों से दिखाई नहीं पड़ते शब्द व्यक्त नहीं कर पाते हैं. क्योंकि स्वरूप सामान्यरूप से बुद्धि को समझ नहीं आता हैं।

जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे।।

 ते न जानहिं मरमु तुम्हारा औरु तुम्हहिं को जाननिहारा।। 

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।।

 तुमरिहि कृपाँ तुम्हहिं रघुनंदन । जानहिं भगत भगत उर चंदन ।।

चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी ।।

(अयोध्या काण्ड दो 126 चौ.1.2.3)

 जगत दृश्य और आप उसके देखने वाले हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को नचाने वाले हैं। वे भी आपका मर्म नहीं जानते। तब और कौन आपको जानने वाला है। वही आपको जानता है जिसे आप बताते हैं। जानने वाला जानते ही स्वयं आपमय हो जाता है। आपकी देह चिदानन्द है और सब विकारों से रहित है।

यह संसार आपके दृश्य / विषय (Subject) है और आप इसको देखते है। यहाँ देखने का अर्थ बहुत व्यापक है जिसमें पूरे संसार का निर्माण, उसका सतत् संचालन तथा आवश्यकतानुसार संहार शामिल है। क्योंकि ऊर्जा धारक द्रव्यमान से ही संसार का निर्माण, परिपालन व संहार होता है और इसी क्रम में बनाने वाला ब्रह्मा (कार्बन के सहयोग से). पालनकर्त्ता विष्णु (कार्बनिक यौगिक जो भोजन, पोषण व पालन करता है) ऑक्सीकारक / संहारक / पुनर्जन्म दायक शिव (कार्बन ऑक्सीकरण) भी उसी ऊर्जाधारक द्रव्यमान से आवश्यकता के आधार पर कार्य करते हैं और उसी एक कण से उत्पन्न होकर कार्य को लय में करते हैं जिसे नृत्य करना कहते हैं। उन नृत्य करने वालों को भी यह ज्ञात नहीं रहता कि वह कैसे, कब और कहाँ होंगे और क्या कार्य करेंगे, क्योंकि द्रव्यमान और पड़ोसी द्रव्यमान धारक की आपसी विभवधारिता पर क्रिया निर्भर करती है जिसका ज्ञान द्रव्यमान धारक और ऊर्जाधारक को ही रहता है और वही जान पाता है कि कब उस द्रव्यमान को कितनी ऊर्जा किस द्रव्यमान धारक को देनी है। यदि शरीर में होने वाले दीर्घकालिक परिवर्तनों और शरीर में होने वाली नित्य प्रक्रिया चयापचय को देखे तो ज्ञात होता है कि भोजन ग्रहण करने के बाद उसका पाचन, उपयुक्त पदार्थों का परिवहन एवं अवशोषण भी अनवरत लयबद्ध होता है।

सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम ।

मन हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्रीराम ।।

 (अरण्य काण्ड दो.08)

 हे नीले मेघ के समान श्याम शरीर वाले सगुणरूप श्रीरामजी ! सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु निरन्तर मेरे हृदय में निवास कीजिये |

जदपि विरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरंतर बासी।। 

तदपि अनुज श्री सहित खरारी । बसहुं मनसि मम काननचारी ।।

(अरण्य काण्ड दो 10 चौ.9) 

यद्यपि आप निर्मल, व्यापक, अविनाशी और सबके हृदय में निरन्तर निवास करने वाले हैं, तथापि हे खरारि श्रीराम ! लक्ष्मणजी और सीताजी सहित वन में विचरने वाले आप इसी रूप में मेरे हृदय में निवास कीजिये।

जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी सगुन अगुन उर अंतरजामी।।

(अरण्य काण्ड दो. 10 चौ. 10)

हे स्वामी ! आपको जो सगुण, निर्गुण और अन्तर्यामी जानते हो, वे जाना करें। 

तात राम कहुँ नर जनि मानहु निर्गुन ब्रह्मअजित अज जानहु ।।

(किष्किन्धाकाण्ड दो. 25 चौ.6)

 हे तात् श्रीराम को मनुष्य न मानो उन्हें निर्गुण ब्रह्म अजेय और अजन्मा समझो। अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में जामवन्त हनुमानजी से कहते हैं कि प्रभु राम गुणों से परे, संसार में अजेय, जन्म न लेने वाले हैं ऐसा मानो। यदि इन लक्षणों सहित निर्गुण स्वरूप की कल्पना करें तो वह केवल ऊर्जा ही हो सकती है क्योंकि ऊर्जा को न तो उत्पन्न किया जा सकता है न ही नष्ट। उसका कोई स्वरूप भी नहीं होता है।

निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ सुर गो द्विज महि लागि । 

सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ।।

 (किष्किन्धाकाण्ड दो. 26 )


देवता, पृथ्वी, गौ और ब्राह्मणों के लिये प्रभु अपनी इच्छा से अवतार लेते हैं। वहाँ सगुणोपासक सब प्रकार के मोक्षों को त्यागकर उनकी सेवा में साथ रहते हैं।

 प्रभु अपनी इच्छा से देवता, ब्राह्मण, पृथ्वी और गौ के लिए अवतरित हुए हैं। वहां सगुणोपासक (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सार्षिप्य और सायुज्य) सब प्रकार के मोक्ष नहीं लेते।

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् । 

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ।।

(सुन्दरकाण्ड श्लोक 03)

 अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रुपी वन के लिये अग्निरूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी श्रीरघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्रीहनुमानजी को मैं प्रणाम हूँ।

अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत के समान कान्तियुक्त शरीर वाले ज्ञानियों में अग्रगण्य है। दैत्यरूपी वन कार्बन डायऑक्साइड को ध्वंस करने के लिए अग्निरूप ज्ञानियों में ऑक्सीजन अग्रगण्य हैं। अर्थात् पवनपुत्र की शक्ति की तुलना नहीं की जा सकती। उदाहरणार्थ स्थापित है कि तूफान कितना शक्तिशाली विनाशशील हो जाता है, चाहे वह स्थल-धरती पर हो या जल में वही ऑक्सीजन 1 आग को प्रज्ज्वलित करने में सहायक होती है क्योंकि जलती हुई वस्तु को यदि अधिक ऑक्सीजन मिले तो वह शीघ्र जल जाती है। साथ ही ऑक्सीजन में ऑक्सीकरण की शक्ति होती है जो चयनित Selective होती है और इसे ही ज्ञान में अग्रगण्यता / आगे होना कहते हैं। क्योंकि इसी ज्ञान / विशेषता के कारण श्वसन में ली गई वायु से ऑक्सीजन शरीर की लाल रक्तकणिकाओं और हीमोग्लोबिन के साथ जुड़कर ऑक्सीहीमोग्लोबिन बनाकर पूरे शरीर में विचरण करती है और आवश्यकतानुसार भोज्य पदार्थों ग्लूकोज, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं वसा का छोटे अणुओं में विभाजन कर ऊर्जा निस्तारित करते हैं और शरीर को बनाने वाले शरीर संरचना के पदार्थों (बिल्डिंग मटेरियल) को तैयार करते हैं अनावश्यक वायु भाग को उच्छवास से बाहर कर देती है।

मोहि भाव कोसल भूप | श्रीराम सगुन सरूप ||

(लंकाकाण्ड छ:.07) 

परन्तु हे रामजी ! मुझे तो आपका यह सगुण कोसलराज स्वरूप ही प्रिय लगता है। 

अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ ।

प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहियात न जाइ ||

 (लंकाकाण्ड दो. 15 (ख))

 हे प्राणपति सुनिये ऐसा विचार कर प्रभु से बैर छोड़कर श्री रघुवीर के चरणों में प्रेम कीजिये, जिससे मेरा सुहाग न जाय।

सुनु सर्वग्य सकल उर बासी बुधि बल तेज धर्म गुन रासी ।।

(लंकाकाण्ड दो 16 चौ. 2)

हे सर्वज्ञ ! हे सबके हृदय में बसने वाले हे बुद्धि बल, तेज, धर्म और गुणों की राशि !!

सब के हृदय में निवास करने वाले एवं सर्वज्ञाता बुद्धि, बल तेज धर्म एवं गुण की राशि हैं ऐसे भगवान को प्रणाम"। इस संसार को गतिशीलता के आधार पर दो भागों में बाँटा जा सकता है। अगतिशील हिस्सा जड़ व चलने वाला गतिचारी जीव सब अर्थात् सचराचर इस संसार में पाये जाने वाले जड़ एवं जीव, चेतन, चर, अचर सभी के हृदय में निवास करना अर्थात् सभी के उन मार्मिक स्थलों में निवास करते हुए पूरे शरीर को संचालित करने का काम करने वाले अवयव से है क्योंकि हृदय का कार्य शरीर के सबसे अधिक संवेदनशील अंग का है जो अनवरत जीवन भर अथक धड़कता है और शरीर में रक्त के माध्यम से अवशोषित एवं एसिमिलेट भोजन के साथ-साथ फेफड़ों के द्वारा ली गई हवा से रक्त में पाये जाने वाले हीमोग्लोबिन नामक प्रोटीन से सामंजस्य बनाकर रक्त वाहिकाओं के माध्यम से सम्पूर्ण शरीर में भोजन एवं शुद्ध ऑक्सीजन प्रदाय करता है शरीर की समस्त कोशाओं से अशुद्धता एवं कार्बन डायऑक्साइड गैस को शरीर से बाहर निकालने में मदद करता है। हृदय अवरुद्ध हो जाने से जीवन लीला समाप्त हो जाती है। यही नहीं यह पूरी प्रक्रिया शरीर को संचालित करने के लिए तेज अर्थात् ऊर्जा, बल अर्थात् शक्ति, बुद्धि अर्थात, संवेदनात्मक संचालन, संवाहन एवं उत्सर्जन प्रक्रिया का शरीर के हित में चयन करता है प्रकृति प्रदत्त गुणों (धर्म) को बनाए रखने एवं क्रियाओं के संचालन की शक्ति हेतु ऊर्जा प्रदान करना व शरीर संरचना बनाये रखने में मदद करना आदि समस्त गुणों को बनाये रखने के सभी धर्म का चतुरता से पालन करने में सक्षम है वायु जो शरीर के सभी अंगों में आकार बनाने में मदद करती है और आंशिक रूप से गतिवान बनाने में सहायक है।

तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्वग्य सुजान । 

सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहुं भगवान।

तब गुरुजी से बताया कि माया से धनी, समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी व्यापक रूप से सचराचर में व्याप्त प्रभु श्रीराम ने अपने भक्तों के कल्याण के लिए अपनी इच्छा एवं स्वत की तंत्र व्यवस्था से रघुकुल भूषण अवतरित हुए। जो समस्त इन्द्रियों, तीनों गुणों (सत, रज, तम) एवं माया से परे हैं।

प्रगटे राम कृतग्य कृपाला रूप शील निधि तेज बिसाला ।

सहज प्रकाश रूप भगवाना नहिँ तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ।।

और श्रीरामजी के इस प्रकाश से आत्मज्ञान पुष्ट हो जाता है जिससे सम्पूर्ण मानव जीवन विज्ञान निधि बना रहता है। यही रामजी जो अनादि भी है और अवध के स्वामी भी हैं। अवध का आशय ही है बध न होना 'मृत्यु को प्राप्त न होना अर्थात् अनादि होना" जब मृत्यु नहीं तो जन्म नहीं और रामजी सम्पूर्ण संसार को प्रकाशित करते हैं क्योंकि पूर्व में भी कहा गया है ज्ञान ही प्रकाश है और तत्वज्ञानी पुरुष आजीवन प्रकाश पुंज बने रहते हैं।

सब कर परम प्रकाशक जोई। राम अनादि अबधपति सोई । 

और श्रीरामजी ही सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करते हैं। वह समस्त गुणों के धाम हैं और संसार की माया के अधिपति हैं। अर्थात् संसार में जो माया है या जो माया हो रही है वह प्रभु श्रीराम के नियंत्रण में हो रही है।

रामजी सम्पूर्ण ज्ञान के आधार चिन्मय हैं, वे दीप्यमान हैं। वह अविनाशी हैं सभी हृदय में निवास करते है क्योंकि सभी उनके बनाए हुए हैं और सबसे रहित भी हैं क्योंकि वह स्वतंत्र हैं और किसी से लिप्त नहीं हैं। ब्रह्म बिना इच्छाधारी (अनीह), बिना रूप और नाम के, अजन्मा, सद, चित्त आनन्द वाले और परमधाम हैं। वह व्यापक विश्वरूप हैं। दिव्य शरीरधारी है।

अवतरेउ अपने भगत हित निज तंत्र नित रघुकुल मनी । 

प्रभु अपने भक्त के कल्याण के लिए उसी प्रकार कृपा करते हैं जैसे हरितकण धारी पौधे सूर्य प्रकाश की कृपा से अपना भोजन बना पाते हैं और निर्गुण, सौर्य ऊर्जा से ग्लूकोज जैसा मीठा गुणकारी पदार्थ बनाते हैं। इस पुंज समूह का अध्ययन करने से स्पष्ट होगा कि यह बिना किसी आकर्षण के सूर्य से पृथ्वी तक आता है। विभवान्तर के बिना भी यह गति करता है, क्रिया करता है, ऊर्जा को उत्तेजित करता है, उत्पाद बनाता है और अनवरत यह प्रक्रिया चलती है क्योंकि यह सूर्य का उत्पाद है और निरन्तर इसका उत्सर्जन सूर्य के द्वारा किया जाता है। इस ऊर्जा का कभी विनाश नहीं होता। इसको उत्पन्न नहीं किया जा सकता। केवल इसका रूपान्तरण होता है। यह इन्द्रियों के परे है संरचनात्मक प्रकृति का होने के कारण सदैव पुण्यात्मा की तरह कार्य करता है। ऊर्जा प्राप्त कर जीव आनंदित होता है।

जब जब होई धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी ।।

(बाल काण्ड दो. 120 चौ.03)

 करहिं अनीति जाइ नहि बरनी सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।।

तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

(बाल काण्ड दो 120 चौ.04)

जब-जब धर्म का नाश होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं। वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गौ, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब ये कृपानिधान भाँति-भाँति के अवतार धारण कर सज्जनों के कष्ट हरते हैं।

सर्व स्वीकार्य है कि जब-जब धर्म की हानि होती है अर्थात् प्रकृति का ह्रास होता है या प्रकृति के स्वभाव के विपरीत प्रकृति का कोई अवयव चाहे वह पदार्थ हो. जीव हो, मनुष्य हो या इनके समूह हों (असुर हो तब उससे प्रभावित पीडित पक्ष को न्याय दिलाने के लिए या प्राकृतिक प्रकृति को उसके मूल में स्थापित करने के लिए भगवान का अवतार होता है। जिस कारक के कारण आसुरीवृत्ति / प्रकृति विरोधी वृत्ति बढ़ती है। उसके नियंत्रण के लिए जिस रूप / स्वरूप / शरीर की आवश्यकता होती है, उसी आवश्यकतानुरूप शरीर को धारण कर प्रभु प्रकट होते है एवं पीडित सज्जन / सज्जनों के दुःख / पीड़ा को समाप्त करते हैं और उन 'कारकों को यथोचित दण्ड देते हैं।

मानस में गोस्वामीजी ने पहले विभिन्न कारकों / असुरों की उपस्थिति / जन्म का वर्णन किया है तदुपरान्त भगवान के अलग-अलग भगवाना के प्राकट्य को विस्तार से बताया है।

अब इस प्रक्रिया को देखने से ज्ञात होता है कि जब प्रभु के जन्म / वेष रखने के कारण अलग हैं और शरीर भी भिन्न हैं तो इस तरह शरीर धारण करने की प्रक्रिया भी स्वाभाविक है भिन्न होगी लेकिन इन सब विषयों की जानकारी कैसे प्राप्त हो इसके लिए संकेत मिलता है।

"इति धारयति सो धर्मः" परमाणु / अणु / पदार्थ की भौतिक एवं रासायनिक संरचना और स्थायित्व ही उस कण का धर्म है। जब किसी कारक या कारण से यह स्थायित्व टूटता है तो इसे धर्म की हानि होना कहते हैं। यह स्थायित्व जिस कारक या कारण से नष्ट होता है उसे असुर, अधम या अभिमानी की श्रेणी में रखा जाता है, इसीलिए स्थायित्व की हानि को धर्म की हानि होना कहा जाता है यह पुनः प्राप्त हो जाता है. यह हानि स्थायी भाव नहीं है। जैसे ही स्थायित्व विचलित होता है अर्थात् कुछ ऊर्जा निकलती है और किसी अन्य परमाणु या अणु के द्वारा सोख ली जाती है तो उसी समय पड़ोस से / वातावरण से अन्य ऊर्जा दाता परमाणु/ अणु पहुंचकर उसे पुन ऊर्जा प्रदान कर देते हैं। इसे ही विविध शरीर से ऊर्जाधारक का शरीर धारण करना या ऊर्जा प्रदाय कर स्थायित्व धर्म नष्ट हुए अणु/ परमाणु सज्जन को ऊर्जा की प्रतिपूर्ति कर उसका स्थायित्व वापस उपलब्ध करा देते हैं। इस प्रकार ऊर्जा विचलन करने वाले कारकों को नष्ट कर पुनः स्थायित्व प्रदान करती है या धर्म की स्थापना करती है तथा इस प्रक्रिया में नये परमाणुओं/अणुओं/पदार्थों का निर्माण होता है संसार में नया सृजन एवं विस्तार होता है और ऊर्जाधारक की उत्पत्ति एवं ऊर्जा के निष्पादन का यही कारण होता है |

यदि मूल ऊर्जा को रामस्वरूप मानें तो पता चलता है कि ऊर्जा जन्म या ऊर्जा प्राकट्य के अनेक कारण हैं। जितने प्रकार की रासायनिक क्रियायें उतने प्रकार के जन्म के कारण। जितने कारक, अवस्थायें या कारण हैं उतने प्रकार से जन्म की कथा होती है।

भए निसाचर जाइ तेइ महावीर बलवान।

कुंभकरन रावन सुभट सुर विजई जग जान ||

(बाल काण्ड दोहा 122) 

वे ही (दोनों) जाकर देवताओं को जीतने वाले बड़े योद्धा, रावण और कुम्भकर्ण नामक बड़े बलवान् और महावीर राक्षस हुए, जिन्हें सारा जगत् जानता है।

बिस्वरूप रघुबंस मनि करहुँ बचन बिश्वासु |

 लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु ।।

 (लंकाकाण्ड दो. 14)

मेरे इन वचनों पर विश्वास कीजिये कि वे रघुकुल के शिरोमणि श्रीरामचन्द्रजी विश्वरूप हैं- वेद जिनके अंग-अंग लोकों की कल्पना करते हैं।

पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अंग अंग विश्रामा ।।

 भृकुटि बिलास भयंकर काला नयन दिवाकर कच घन माला ।। 

(लंकाकाण्ड दो. 14 चौ. 1)

पाताल चरण है. ब्रह्मलोक सिर है, अन्य लोकों का विश्राम जिनके अन्य भिन्न-भिन्न अंगों पर है। भयंकर काल जिनका भृकुटि संचालन है। सूर्य नेत्र है,बादलों का समूह बाल है।

जासु धान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा।।

 श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मरुत स्वास निगम निज बानी ।।

(लंकाकाण्ड दो. 14 चौ. 2)

अश्विनी कुमार जिनकी नासिका हैं, रात और दिन जिनके अपार निमेष हैं। दसों दिशाएँ कान है, वेद ऐसा कहते हैं। वायु श्वास है और वेद जिनकी अपनी वाणी है।

 अधर लोभ जम दसन कराला माया हास बाहु दिगपाला।।

 आनन अनल अंबुपति जीहा। उत्पति पालन प्रलय समीहा ।।

(लंकाकाण्ड दो. 14 चौ.3)

 लोभ जिनका अधर है, यमराज भयानक दाँत है। माया हँसी है, दिकपाल भुजाएँ हैं अग्नि मुख है, वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकी चेष्टाएँ हैं।

अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान ।

मनुज बास सचराचर रूप राम भगवान ।।

 (लंकाकाण्ड दो. 15 (क)) 

शिव जिनका अहंकार हैं, ब्रह्मा बुद्धि हैं, चन्द्रमा मन हैं और महान् ही चित्त हैं। वही चराचररूप भगवान् श्रीरामजी मनुष्य रूप में निवास कर रहे हैं।


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