यह तो सभी जानते है कि राम, लक्षमण,भरत,शत्रुघ्न चारों महाराज दशरथ के पुत्र थे |रजा दशरथ के तीन रानीयां थीं | कौशिल्या,कैकेयी,और सुमित्रा | भरत कैकेयी के पुत्र थे |कैकेयी के कहने पर राम वन भेजे गये |रामचंद्र के वन जाने के पश्चात दशरथ की म्रत्यु हो गयी | उसी समय भरत बुलाये गये |भरत उस समय अपने नाना के यंहा थे |
भरत उन लोगों में नहीं थे जो तनिक बात से विचलित हो जाते हैं किन्तु जब उन्होंने सुना कि राम को वन भेजने में मेरी माता का हाँथ है तब उनका कलेजा तिलमिला उठा | उन्होंने यह सोचा कि लोग सोंचेगे कि सिंहासन के लालच नें भरत भी इसमें मिले रहे होंगे, यद्दपि उनकी यह शंका निर्मूल थी |
दशरथ के अंतिम संस्कार से सम्बंधित कार्य होने के बाद लोगों ने उनसे अनुरोध किया कि राजा दशरथ की प्राण त्यागते समय यही आज्ञा थी कि आप अयोध्या के राजा बनें | इसलिए राज-काज संभालिये और प्रजा का इस प्रकार पालन कीजिये कि वे सुखी हों |
मुनियों ने,विद्वानों नें,रानियों नें उन्हें बहुत समझाया |परन्तु भरत नैतिक द्रष्टि से इसे बहुत अनुचित समझते थे|पुराने नियमों के अनुसार सिंहासन का अधिकार सबसे बड़े पुत्र का होता है| राम सबसे बड़े थे |उन्हें वन में भेजकर दूसरा उनका सिंहासन हड़प ले यह कैसे हो सकता था ?सब लोगों ने यह भी समझाया कि यह तो पिता की आज्ञा है इसका पालन कीजिये|ऐसी अवस्था में सिंहासन पर बैठाना अन्याय नहीं समझना चाहिए |किन्तु भरत ने उन लोगों की बातें नहीं मानी |
बड़े अनुनय विनय के साथ उन्होंने लोगों से प्रार्थना की कि मुझे राम से भेंट करने की आज्ञा दी जाए और उन लोगों से आज्ञा प्राप्त करके रामचन्द्र से भेंट करने वन में गए |
अनेक वनों में घूमते, लोगों से पूछते, नदियों को पार करके उस पहाड़ पर पहुँचे जहाँ रामचन्द्र जी थे |राम को जब यह समाचार मिला तब सब कुछ छोड़ कर वे सामने पहुंचे,भरत उनके चरणों में गिर गए |भरत के साथ और सब लोग भी थे उनकी माताएं भी थी |भरत ने जिस जिस प्रकार राम से विनती की सारा दोष अपने सर पर मढ़कर जिस ढंग से क्षमा याचना की वह ऐसा उदहारण है जिसकी तुलना का पूरे संसार में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता | राम ने कहा,पिताजी की आज्ञा से तुम राज्य पर शासन करो | भरत ने राज्य को स्वीकार नहीं किया और कहा, आपका राज्य है, नियम से, विधान से आपको मिलाना चाहिए, मेरा कोई अधिकार नहीं है | तुलसीदास ने अपने 'रामचरितमानस' में इसका बहुत मार्मिक वर्णन किया है |
भरत की अनुनय-विनय के साथ लोगों ने भी रामचंद्र को बहुत समझाया, किन्तु वह विचलित नहीं हुए | उन्होंने कहा कि मुझे तो जितने वर्षों के लिए आज्ञा मिली है उतने वर्ष रहना ही है | उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं हो सकती | अंत में जब राम किसी प्रकार नहीं माने तब भरत ने यह आज्ञा माँगी कि आपके नाम पर राज्य करूँगा आपकी खड़ाऊं सिंहासन पर बैठेंगीं | राज्य आपका ही रहेगा मैं आपका प्रतिनिधि ही रहूँगा |
भरत इसी रूप में अयोध्या लौट आये| वहां उन्होंने सिंहासन पर राम की खड़ाऊ रखी और अपना रहन-सहन एक तपस्वी के सामान रखकर 14 वर्षों तक राज-काज संभाला | इतने दिनों तक उन्होंने बड़े विवेक से, न्याय से और धर्म से राज्य किया |