पारस्परिक निर्भरता क्या है?पारस्परिक निर्भरता के प्रतिमान

पारस्परिक निर्भरता के आदर्श 

आज के वैश्वीकरण के दौर में बढ़ती लागत व प्रतिस्पर्द्धा के कारण एक उद्योग अपनी उच्चतम क्षमता व एक संगठन के कर्मचारी अपने समूह के महत्व को समझ व पहचान रहे हैं। एक संगठन की अर्थ क्षमता व नीति विषय तथ्य दोनों ही विभिन्न समूहों या संगठनों के सदस्यों के मध्य वार्तालाप वाद-संवाद के महत्व को स्पष्ट करते हैं। किसी भी संगठन समूहों को कार्यक्षमता व नीति सम्बन्धी समस्याएँ जो कि विभिन्न सामाजिक महत्व सम्बन्धी तत्त्वों से सम्बद्ध होती हैं, व्यक्तियों के विचारों व व्यवहार को प्रभावित करती हैं। जब किसी संगठन/ समूह के सदस्य एक-दूसरे से वाद-संवाद / वार्तालाप करते समय परस्पर निर्भरता की भावना रखते हैं तो यह प्रभाव और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।

पारस्परिक निर्भरता के निम्न दो प्रकार होते हैं-

 (1) न्यूनतम निर्भरता (Minimum Inter-dependence )-

 न्यूनतम निर्भरता का तात्पर्य कर्तव्यों के समूह का एक ही स्थान पर रहना है। इसे एक-दूसरे पर न्यूनतम आश्रित होते हुए सामूहिक निर्भरता भी कहा है। जाता है।

(2) अधिकतम निर्भरता (Maximum Inter-dependence )-

अधिकतम निर्भरता का तात्पर्य एक समूह के सदस्यों का एक-दूसरे के सम्मुख रहते हुए व समान विचारधारा रखते हुए, एक-दूसरे के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वार्तालाप करने से है। इसे एक सम्मुख समूह निर्भरता भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत समूह के सदस्य एक-दूसरे पर दो प्रकार से निर्भर होते हैं--

(i) सामाजिक परस्पर निर्भरता 

(ii ) कार्य परम्पर-निर्भरता।

(i) सामाजिक परस्पर-निर्भरता-

 सामाजिक परस्पर निर्भरता में एक समूह के सदस्य दूसरे सदस्यों पर सम्बन्ध/सामाजिक व मानसिक पुरस्कार व सकारात्मक सामाजिक पहचान के लिए एक-दूसरे पर निर्भर या विश्वास करते हैं।

(ii) कार्य परस्पर निर्भरता-

कार्य परस्पर निर्भरता के अन्तर्गत समूह के सदस्य एक-दूसरे पर भौतिक श्रेष्ठता अर्जित करने के लिए निर्भर या विश्वास करते हैं। भौतिक श्रेष्ठता अर्जित करने की दृष्टि से समूह के सदस्य एक-दूसरे के साथ कार्य करते हैं।

मतों का पारस्परिक निर्भरता प्रतिमान

मतों पर आधारित प्रतिमान परस्पर निर्भरता की निम्न दो घटनाओं पर निर्भर रहता है-

(1) कृत्रिम घटनाएँ (Pseudo Events),

(2) भावी घटनाएँ (Future Events)।

 (1) कृत्रिम घटनाएँ (Pseudo Events)-

कृत्रिम घटनाओं से अभिप्राय किसी/संगठन/समूह अथवा व्यक्ति द्वारा प्रसारित सूचनाओं के माध्यम से भविष्य की सम्भावित घटनाओं को निश्चित आकार-प्रकार प्रदान करने सम्बन्धी अनुकूल परिस्थितियों को जन्म देने से है। अर्थात् किसी व्यक्ति अथवा संस्था द्वारा सूचनाओं के द्वारा उद्देश्यों के अनुरूप इस प्रकार की परिस्थिति को जन्म देना जो छ घटनाओं सम्बन्धी प्रक्षेपण में सहयोगी हो उन्हें कृत्रिम घटनाएँ (Pseudo Events) कहा जाता है। वर्तमान में मीडिया में इसका प्रचलन बढ़ा है।

(2) भावी घटनाएँ (Future Events )-

भावी घटनाओं से अभिप्राय कृत्रिम घटनाओं के आधार पर आगामी समय में घटने वाली घटनाओं के प्रक्षेपण से है। इसका अभिप्राय यह नहीं कि प्रक्षेपित घटनाएँ ही घटें, क्योंकि प्रक्षेपण व यथार्थता में अन्तर होता है, परन्तु जब भावी घटनाओं का प्रक्षेपण, वर्तमान वास्तविक परिस्थितियों के आधार पर किया जाता है जोकि कृत्रिम घटनाओं के कारण पैदा होती है तो यह स्थिति कृत्रिम व भावी घटनाओं को पारस्परिक निर्भरता को भी जन्म देती है।

पॉल ई. लेजर्सफेल्ड (Paul E. Lazarsfeld) द्वारा प्रतिपादित मतों के पारस्परिक निर्भरता प्रतिमान के अन्तर्गत कृत्रिम व भावी घटनाओं के पारस्परिक प्रभाव का मापन किया जाता है इसे निम्न उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है-

एक चुनाव में दो प्रतिष्ठित राजनैतिक पार्टियाँ X व Y के दो उम्मीदवार क्रमश: 'A' व 'B' हैं (यद्यपि एक चुनाव में एक से अधिक राजनैतिक पार्टियाँ व उम्मीदवार होते हैं, परन्तु सुविधा की दृष्टि से यहाँ दो राजनैतिक पार्टी व दो उम्मीदवार लिए गए हैं) ये दोनों उम्मीदवार A व B मतदाताओं को अपनी-अपनी ओर रिझाने का भरपूर प्रयास करेंगे और वे तरह-तरह की सूचनाओं के माध्यम से इस प्रकार की परिस्थितियाँ निर्मित करने की चेष्टा करेंगे ताकि समस्त पूर्वानुमान व भविष्यवाणियाँ उनके अनुकूल हो जावें। इसके लिए ये दोनों चुनावी उम्मीदवार पूरे चुनाव के समय एक-दूसरे के क्रिया-कलापों व उनके द्वारा व्यक्त की जा रही प्रतिक्रियाओं पर नजर व सूक्ष्म अध्ययन द्वारा अपनी चुनाव जीतने सम्बन्धी रणनीति व व्यूहरचना बनायेंगे।

यदि इस चुनाव का सर्वेक्षण किया जाये तो सम्पूर्ण चुनावो घटना के सम्बन्ध में मतदाताओं के निम्न स्वरूप सामने होंगे 

(i) प्रथम स्वरूप-

 इस स्वरूप में ऐसे मतदाता आते हैं जिनकी कथनी-करनी में अन्तर होता है अर्थात् इस प्रकार के मतदाता अपने मत के सम्बन्ध में व्यक्तियों व सर्वेक्षणकर्ता को निरन्तर भ्रमित करते हैं।

(ii) द्वितीय स्वरूप-

 इस स्वरूप के अन्तर्गत वे मतदाता आते हैं जो अपने मत के सम्बन्ध में अन्त में निर्णय लेते हैं अर्थात् सर्वेक्षण कर्ता के प्रश्नों का उत्तर देना उचित नहीं समझते।

 (iii) तृतीय स्वरूप-

इस स्वरूप के अन्तर्गत ऐसे मतदाता आते हैं जो अपने मत सम्बन्धी दृष्टिकोण व झुकाव को अन्तिम समय में बदल देते हैं।

 परन्तु लेजर्सफेल्ड के अनुसार- चुनाव निष्कर्ष सामान्यतः दो प्रकार के प्रभावों की सम्भावना को जन्म देते हैं-

(अ) बैण्डवेगन प्रभाव (Bandwagon Effect)-

 चुनावी सर्वेक्षण के अनुसार पूर्व अनुमानित जीतने बाले उम्मीदवार 'A' के मतदाताओं की संख्या बढ़ने के फलस्वरूप कुछ मतदाता 'A' को ही अपना मतदान करेंगे इसे हम बैण्डवेगन प्रभाव कहेंगे यह प्रभाव ही उम्मीदवार 'A' को अधिकाधिक विजय दिलायेगा। अन्य शब्दों में । "चुनाव प्रक्रिया के समय पूर्व चुनावी सर्वेक्षण के कारण यदि 'A' उम्मीदवार के सम्बन्ध में मतदाताओं के बीच यह धारणा विकसित हो जावे कि 'A' उम्मीदवार ही जीतेगा तो अधिकाधिक लोग इसी उम्मीदवार को अपना मत देकर उसे विजयी बनायेंगे। "

(ब) अण्डरडॉग प्रभाव (Underdog Effect)- 

उम्मीदवार 'B' जिसके सम्बन्ध में आम धारणा थी. कि वह एक समर्थ, सर्वश्रेष्ठ व सुयोग्य उम्मीदवार है और इन विशेषताओं के चलते ऐसी सम्भावना थी कि वह चुनाव अवश्य जीतेगा, परन्तु संयोगवश वह केवल मतदाताओं की सहानुभूति ही प्राप्त कर पाता है और चुनाव प्रक्रिया के अन्तिम दौर में बैण्डवेगन प्रभाव के कारण चुनाव हार जाता है। इसे हम अण्डरडॉग प्रभाव कहते हैं।

 नेतृत्व (Leadership)-

एक दक्ष/प्रवीण व प्रभावी नेता सदैव सामाजिक पारस्परिक निर्भरता को कायम रखने के साथ-साथ कार्य करने की कुशलता दक्षता / क्षमता को बढ़ाता है। एक नेता किसी संगठन या समूह के उद्देश्यों की प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। एक नेता संगठन निर्माता भी होता है और संगठन विनाशी भी |

लेपियर एवं फ्रन्स वर्था के अनुसार- "नेतृत्व एक व्यवहार है जिसमें नेता का व्यवहार लोगों पर उनके व्यवहार को अपेक्षा अधिक प्रभावकारी होता है जो नेता पर पड़ता है।"


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