निर्गुण ब्रम्ह
अंनत कोटि ब्रम्हांड में फैली ब्रम्ह शक्ति जो सृजन,नियंत्रण एवं संहार का प्रमुख कारण है जिसकी व्याख्या महाराज तुलसी महोदय ने की है वो अपने निम्न भावों में प्रकट करते है -
आनन रहित सकल रस भोगी ! बिनु बानी बकता बडजोगी !!
(बाल कांड दो.117 चौ.3)
वह ब्रम्ह बिना पैर के ही चलता है ,बिना कान के ही सुनता है ,बिना हाँथ के नाना प्रकार के काम करता है बिना मुंह के सारे रसों का आनंद लेता है और विना वाणी के बहुत अच्छा वक्ता है !
शक्ति एवं बल दो प्रकार का होता है ! एक है भौतिक बल एवं दूसरा आध्यात्मिक बल |
भौतिक संरचनाओं की शक्ति भौतिक शक्ति या भौतिक बल कहलाती है जो भौतिक संरचनाओं की शक्ति व बल के समानुपातिक होता है अर्थात जिस प्रकार की भौतिक संरचना j जितनी मजबूत भौतिक संरचना उतना ही अधिक शक्ति या बल | किन्तु मानस में स्पष्ट किया है की ब्रह्मा राम की शक्ति पराभौतिक शक्ति है जो बिना भौतिक संरचना या कारक के कार्य कर सकती है |उदहारण स्वरुप गुरुत्वाकर्षण शक्ति या बल पृथ्वी की संरचना के ऊपर भी शक्ति या बल कार्य करता है जिसे गुरुत्वाकर्षण बल कहते हैं|जहाँ कोई संरचना के परे उपस्थिति का भास होता है और कार्य संपन्न हो जाते हैं उसी प्रकार आध्यात्मिक बल, तथा अन्य उर्जा प्रदत्त बल,शब्द शक्ति, वाक्य शक्ति आदि जहाँ ऊर्जा का स्वरुप बिना संरचना के है और वह किसी बड़े कार्य को बिना कारक के पूर्ण कर देता है |
धार्मिक ग्रंथों में इसलिए बल शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक बल के लिए किया जाता है | "जाके बल लवलेश ते जितेहूँ चराचर झारि" और वह बल जिसको बिना भौतिक संरचना के स्पर्श के प्रतिरोपित किया जा सके और परिणाम सदैव आशानुकूल हो | जबकि अन्य प्रकार की शक्तियों का परिणाम भौतिक संरचनाओं और भौतिक शक्ति नियमों से नियंत्रित होता है और स्पर्श की क्रिया आवश्यक है |
बिना पैरों के हवा, पानी व् ताप चलता है इनके कोई पैर नही होते लेकिन इनकी गति बहुत अधिक होति है | इन्हीं बलों द्वारा बिना हांथों के कितने ही भारी पदार्थों को हटा देते है | जला देतें हैं | अधिक ताप होने पर बादल को संश्लेषण का कार्य होता है एवं वर्षा भी उसका ज्वलंत उदहारण | ऋतू परिवर्तन के के लक्षण बिना वाणी के सब कुछ कह देतें है और उनके व्यवहार परिवर्तन से सभी को सब कुछ पता चल जाता है | "मूक होई बाचाल पंगु चढ़ई गिरिवर गहन " उर्जा प्राप्त करके गूंगा भी बोलने लगता है |
तन बिनु परस नयन बिनु देखा । ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ।।
(बाल काण्ड दो 117 चौ.04)
वह बिना शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना आँखों के देखता है और बिना नाक के सब गन्धों को ग्रहण करता है (सूँघता है)।
जिनका आदि और अन्त किसी ने नहीं जाना। वेदों ने अपनी बुद्धि से अनुमान करके नीचे लिखे अनुसार गाया है। वह ब्रह्म बिना पैर के चलता है. बिना कान के सुनता है, बिना हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिह्वा) के सारे (छ) रसों का आनन्द लेता है और बिना वाणी के बहुत योग्य वक्ता है। वह बिना शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना आँखों के देखता है और बिना ही नाक के सब गन्धों को ग्रहण करता है सूँघता है। उस ब्रहा की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती।
ऊर्जा के प्रारम्भ और अन्त का ज्ञान किसी को नहीं है। ऊर्जा / इलेक्ट्रॉन बिन पैर के चलता है। संवेदनशीलता के कारण ऊर्जा विभव में अन्तर के कारण उत्पन्न होने वाली तरंग दैर्ध्य के माध्यम से होने वाली आवाज को सुन सकता है। ऊर्जा बिना किसी सहायक संरचना के (हाथ के) नाना प्रकार की क्रियाओं को संपादित करता है। केवल ऊर्जा को रूपान्तरित करके (सेसर्स / पी. एच. मीटर) संवेदकों के माध्यम से सभी प्रकार के रसों का स्वाद जाना जा सकता है। बिना वाणी के ऊर्जा तरंग दैर्ध्य प्रसारण / विचलन से ध्वनि उत्पन्न की जा सकती है। जैसे समस्त वाद्य यंत्रों में विभिन्न स्वर / व्यंजन निकलते हैं। बिना शरीर के स्पर्श का कारण है ऊर्जा का प्रवाह और तदुपरान्त उसके द्वारा किए जाने वाले कार्य बिना नेत्रों के 1 बायोमेट्रिक मशीनों / यंत्रों से देखा / पहचाना जाता है। विभिन्न घाण यंत्रों के माध्यम से, अस्थाई रासायनिक परिवर्तन के माध्यम से घ्राण गंध स्वीकार की जाती है। इसी प्रकार के अनेकों अनेक कार्य ऊर्जा के माध्यम से प्रतिपादित किए जाते हैं। जिसका आदि और अंत कोई नहीं जानता। वेदों ने अपनी बुद्धि अनुसार उसे व्याख्यायित किया है। ब्रह्म बिना पैर के चलता है, बिना कान के सुनता है, बिना हाथ के नाना प्रकार के काम करता है बिना जीभ के रसों का आनन्द लेता है व बिना वाणी के योग्य वक्ता है। वह बिना शरीर के स्पर्श करता है, बिना आंखों के देखता है और बिना नाक के सब गन्धों को ग्रहण करता है। इस प्रकार वह सब 'अलौकिक कार्य करता है।
पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी ।।
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा ।।
(बाल काण्ड दो. 110 चौ.01)
हे प्रभु ! फिर आप उस तत्त्व को समझाकर कहिये, जिसकी अनुभूति में ज्ञानी मुनिगण सदा मग्न रहते हैं। फिर भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य का विभाग सहित वर्णन कीजिये। पार्वतीजी ने उस तत्व के प्रति जानने की उत्सुकता प्रगट की और पूछा कि ज्ञानी मुनिगण जिस तत्व के विज्ञान को जानना चाहते हैं। यह भी अपेक्षा की है कि भक्ति, विज्ञान, ज्ञान और वैराग्य का वर्णन उनके विभाग सहित करें। इससे स्पष्ट होता है कि ज्ञानी मुनि वृद्ध ब्रहा तत्व का निरूपण भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य के स्तर पर करते हैं और स्पष्ट करते हैं कि यह चारों मार्ग ब्रह्म तत्व तक पहुँचाने जानने में सहायक है। जिसका वर्णन क्रमशः किया गया है।
जेहि जानें जग जाइ हेराई | जागें जथा सपन भ्रम जाई ।।
(बाल काण्ड दो 111 चौ.01)
जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जिस तरह जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है। इस ब्रह्म तत्व को जान लेने पर जैसे संसार से पर्दा उठ गया क्योंकि यह ज्ञात हो जाएगा कि यह जगत एक की ही प्रतिकृति है और कहीं कुछ भी नहीं है। जिससे यह भ्रम भी समाप्त हो गया कि संसार बहुत बड़ा है बल्कि यह ज्ञात हो गया कि सब कुछ में एक ही है और सब कुछ एक ही है।
अर्थात जैसे ही पता चलता है कि ऊर्जा के कारण और ऊर्जा से ही समस्त संसार का निर्माण हुआ है तो सारे संसार का सार पता चल जाता है और ऊर्जा स्रोत राम एवं ऊर्जा की अत्यन्त रोचक कहानी मन को प्रसन्न करती है। जिससे संसार के सृजन, पालन व संहार के समस्त भ्रम नष्ट हो जाते हैं।
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई ।।
(बाल काण्ड दो. 116 चौ.03)
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू । मायाधीस ग्यान गुन धामू ।।
जासु सत्यता ते जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया ।।
(बाल काण्ड दोहा 116 चौ.04)
जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा ।।
(बाल काण्ड दो. 241 चौ.02)
इन सबका जो परम प्रकाशक है। (अर्थात् जिससे सब में प्रकाश होता है). वही अनादि ब्रह्म अवध जहाँ मृत्यु न हो जो सनातन शक्ति का स्वामी हैं। यह जगत् प्रकाश्य है और श्रीरामजी (ज्ञान मूर्ति) इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। माया अर्थात् संसार में होने वाले भौतिक परिवर्तन एवं रासायनिक परिवर्तन हैं। ऊर्जा द्वारा क्रियाओं से बने उत्पाद व उनके परिणाम स्वरूप संसार में जड़, अचेतन, चेतन व जीव निर्माण एवं उनके द्वारा की जाने वाली क्रियाओं को भी माया कहते हैं और इस प्रक्रिया को केवल ऊर्जा से संचालित किया जाता है तो उन सभी ऊर्जाधारकों की प्रेरक सत्ता व निकली ऊर्जा के स्वामी ही प्रभु ज्ञान रूपी श्रीराम हैं। जिनकी सत्ता से मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य-सी भासित होती है। योगियों को वे शान्त, शुद्ध, सम और स्वतः प्रकाश परम तत्त्व के रूप में दिखते हैं।
ऊर्जा की शक्ति से ही संसार की सत्यता का आभास होता है। प्रभु ही समस्त संसार को प्रकाश देते हैं। ऐसा मानते हैं कि उन्होंने ही संसार का सृजन किया है। और उन्हीं की सत्ता के कारण ऊर्जा से संचालित होने वाली क्रियायें संपन्न होती है और भगवान ही भगवाना में बदल जाते है तथा दोनों भगवाना में बहुत अधिक अंतर है। एक है पंच भौतिक शरीर जीव मात्र, और दूसरा है परब्रह्म परमात्मा चिन्मय दिव्य शरीर जिसकी ऊर्जा के अंश मात्र से समस्त ब्रह्मांडों का कार्य चलता है और सृजन, संचालन व परिवर्तन (संहार) होता है। इसी दिव्य प्रकाश पुंज से ज्ञान रूपी प्रकाश भी उत्सर्जित होता है जिससे जीवन में कभी ज्ञान का नाश नहीं होता। परब्रह्म अत्यन्त कृपालु है सभी पर कृपा करते हैं और इस अहैतुकी कृ पा के कारण उन्होंने भक्तों के श्राप / नारद के श्राप को भी अंगीकार कर पत्नी वियोग सहा ऐसे परब्रह्म भगवाना ने सांख्य शास्त्र का प्रवचन किया और संसार के कल्याण के लिए प्रकट किया। उन्होंने तात्विक विचारों से भी तत्वों को अलग अलग समझाकर बताया तथा इस विद्या में वह अत्यन्त निपुण है। भक्तवत्सल होने के कारण और करुणा / दया के सागर होने के कारण भक्तों के कल्याण के लिए आपने अपने आप को प्रकट किया तथा सभी देवताओं एवं पृथ्वी को राक्षसों से मुक्त करने के लिए वचन देकर वह अंतर्ध्यान हो गए। क्योंकि जैसा वेदों में भी बताया है कि प्रभु को गरीब लोग अत्यन्त प्रिय हैं तो आप दया से द्रवित हो प्रकट हो जावें और हम लोगों को असुरों से मुक्त करायें। जब परब्रह्म रामजी ने जाना कि सब लोग दुःखी एवं आते हैं तो वह दया करने वाले एवं अच्छे चित्त को बनाने वाले होने के कारण उन्होंने कृपा की। वह धर्म की धुरी है और सूर्यकुल के सूर्य हैं जो राजा है और स्वतः ही खुद के मालिक हैं परब्रह्म शरणागत की रक्षा करने वाले हैं तथा समस्त चर-अचर के स्वामी तथा सचराचर के रूप में संसार में व्याप्त है वह मनुष्य रूप में भी अवतरित हुए हैं।
योगियों ने इन्हें परम तत्व निरूपित किया है। परम तत्व से आशय है कि वह तत्व जो सभी अवयवों एवं सचराचर में पाया जाय। यदि विज्ञान की दृष्टि से देखें तो परमाणु ही ऐसा अवयव है जो संसार के सभी जड़, चेतन, अचेतन एवं जीव में पाया जाता है और यदि परमाणु के अन्दर झाँका जाय तो ज्ञात होता है कि किसी परमाणु के तीन भागों में इलेक्ट्रॉन सभी परमाणुओं में मिलता है और यही ऊर्जा विनिमय के साथ रासायनिक क्रियाओं में भाग लेता है। इसे क्रिया का आवश्यक अवयव कह सकते है।।
और योगी जन इसकी तुलना प्रकाश से करते हैं और विशेषता बताते हैं कि यह सहज प्रकाश है, शांत और शुद्ध है यदि प्रकाश का वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो ध्यान में आता है कि यह बहुत प्रकार की तरंग दैर्ध्यवाली विभिन्न रंगों वाली किरणों का मिश्रण है जिनमें से कुछ किरणें स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी हैं किन्तु यह प्रकाश शांत प्रकृति का है अर्थात् प्रकाश किरणों के संतुलन में दृश्य किरणों व अदृश्य किरणों में समायोजित है और सब रंग इस अनुपात में हैं कि वह कल्याणकारी श्वेत धवल रंग का दृश्य बनाते हैं। जो विश्व कल्याण का पथ प्रदर्शक संसार का प्रकाशक एवं आधार है।
नेति नेति जेहि बेद निरुपा निजानंद निरूपाधि अनूपा।।
संभु बिरंचि बिष्णु भगवाना। उपजहिं जासु अंस ते नाना ।।
(बाल काण्ड दो. 143 चौ.03)
जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छिउमा ब्रह्मानी ।।
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई ।।
(बाल काण्ड दो. 147 चौ.02)
बाम भाग सोमति अनुकूला। आदिशक्ति छबिनिधि जगमूला ।।
(बाल काण्ड दो. 147 चौ.01)
जिन्हें वेद 'नेति नेति (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनन्द स्वरूप, उदाधिरहित और अनुपम हैं एवं जिनके अंश से अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान् प्रकट होते हैं। जिनके अंश से गुणों की खान अगणित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी (त्रिदेवों की शक्तियाँ) उत्पन्न होती हैं तथा जिनकी भौंह के इशारे से ही जगत् की रचना हो जाती है, वही (भगवान् की स्वरूपा-शक्ति) श्री सीताजी जब श्रीरामचन्द्रजी के बायीं ओर स्थित होती है। तभी यह संसार निर्मित होता है।
वह अखण्ड, निर्गुण, अनंत और अनादि है और परमार्थवादी उसका चिंतन करते हैं। उनके अंश से शिव, ब्रह्मा, विष्णु और पंचभूत भूमि, गगन, वायु, अग्नि, नीर और इन्हें घेरे हुए आवरण "भगवाना" उपजते हैं।
अर्थात एक ही ऊर्जा के रूपान्तरण से भिन्न-भिन्न कार्य करने वाले बल जो सृजन, पालन व निर्माण में कार्य करते हैं, उत्पन्न होते हैं।
शिव, ब्रह्मा, विष्णु एवं भगवाना यह भी जिसके असमात्र से अवतरित होते है। और उसी अंशमात्र से समस्त गुणों की स्रोत या खान अनगिनत लक्ष्मी, पार्वती, ब्रह्मणियाँ उत्पन्न होती हैं वही एक मात्र ऊर्जाधारक ही सभी के जनक हैं।
यह पंक्तियाँ स्पष्ट करती हैं कि जगताधार, सचराचर के जनक एक ही परमात्मा हैं जिसके अंशमात्र से संसार की उत्पत्ति, संचालन एवं संवाहन का कार्य करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश और पंचभूत जल, वायु, अग्नि, आकाश, पृथ्वीधारी के संयोग से शरीर (भगवाना) की उत्पत्ति होती है और उसी ब्रह्म के द्वारा समस्त कार्यों को सम्पन्न करने की गुणों की खान बाह्य शक्तियों के रूप में अगणित लक्ष्मी, पार्वती एवं ब्रह्माणियों की उत्पत्ति की जाती है जिन शक्तियों का उपयोग कर वह ब्रह्मा, विष्णु महेश एवं विभिन्न शरीर धारियों को सम्बन्धित कार्य करने की शक्ति प्रदान करते हैं। ऐसे प्रभु ब्रह्म ही संसार के कार्यों के कारण एवं उन्हें सम्पन्न करने वाले हैं।
यदि सूक्ष्म विज्ञान एवं भौतिकीय विज्ञान एवं अणुवीय रसायन विज्ञान की दृष्टि से देखें तो पता चलता है कि संसार के समस्त पदार्थ छोटे-छोटे कणों से मिलकर बने हैं। इन कणों को अणु कहते हैं। यह अणु परमाणुओं से मिलकर बने होते हैं और परमाणु के तीन अवयव इलेक्ट्रॉन, प्रोटान और न्यूट्रान से बने होते हैं। इनमें कल्पना करें कि यह गोल है। दो गोलों में अन्दर वाले केन्द्रक में धनात्मक आवेश का प्रोटान एवं आवेश विहीन न्यूट्रान स्थिर रहते हैं। और इनके बाहर ऋणात्मक आवेश के इलेक्ट्रॉन दो-दो के जोड़ों में विपरीत दिशा में घूमते रहते हैं जब दो परमाणु आपस में पास आते हैं तो इन्हीं इलेक्ट्रॉन के आदान-प्रदान से ये परमाणुओं के मिलन से नये बंध बनते हैं या क्रिया के द्वारा क्रियाओं का परिणाम है। अर्थात् ऐसी ही रासायनिक क्रियायें इलेक्ट्रॉन धारक की इच्छानुसार इलेक्ट्रॉन देकर संसार को चलाती हैं।
ब्रह्म के बायें भाग में सदा अनुकूल रहने वाली, शोभा की राशि जगत् की मूल कारणरूपा आदिशक्ति श्री जानकीजी सुशोभित है।
जिनके अंश से गुणों की खान अगणित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी (त्रिदेवों की शक्तियों) उत्पन्न होती है तथा जिनकी मौह के इशारे से ही जगत की रचना हो जाती है, वही (भगवान की स्वरूपा शक्ति) श्री सीताजी श्रीरामचन्द्रजी के बायीं और स्थित है।
उनके बायें हिस्से में आदिशक्ति, शोभा की राशि एवं जगत की आधार शोभित है जिनके अंश से गुणों की खान अगणित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी उत्पन्न होती है जिनके भौंह के इशारे से ही जगत की रचना हो जाती है वही सीताजी श्रीराम की बामांगी हैं।
धर्म का अर्थ सात्विक आणविक संतुलन से है और इसीलिए धरम की हानि अर्थात् सहज असंतुलन का आ जाना या जिस संख्या या अनुपात में परागमन होता है। ऐसी अवस्था में मूलकण में ऊर्जा संतुलन लड़खड़ा जाता है अर्थात ऊर्जा संतुलन को विनष्ट करने वाली ताकतें अधिक हो जाती हैं तभी रासायनिक क्रिया प्रारम्भ हो जाती हैं और विभिन्न प्रकार के कण / उत्पाद ऊर्जा विभवांतर को समाप्त करने के लिए विभिन्न उत्पाद बना लेते हैं और मूलकण / धर्म की रक्षा करते हैं। रासायनिक क्रिया के अन्त में बनी यह परिणामी अवस्था (State of Equilibrium) है। यदि परमाणु को काल्पनिक रूप से अर्द्धभाग में काटा जाए तो बायें हिस्से में ऊर्जा इलेक्ट्रॉन के बादल पाये जाते हैं क्योंकि इलेक्ट्रॉन परमाणु का बाह्य भाग बनाते हैं और यही ऊर्जा का मूल स्रोत (आदि शक्ति) है। इस संसार के चेतन का एक मात्र कारण भी यही ऊर्जा है और उसी मूल कण के अंश से विभिन्न शक्तियों (उमा, ब्रह्माणी, लक्ष्मी) का जन्म होता है।
कर दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता ।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ।।
करूना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।
(बाल काण्ड छंद 191)
बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई ।।
जाके सुमिरन तें रिपु नासा नाम सत्रुहन बेद प्रकासा ।।
(बाल काण्ड दो. 196 चौ.04)
दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी-हे अनन्त में किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुमको माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संत जन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं। जो संसार का भरण-पोषण करते हैं, उन (आपके दूसरे पुत्र) का नाम 'भरत' होगा। जिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता है, उनका वेदों में प्रसिद्ध 'शत्रुघ्न' नाम है।
आनन्द के समुद्र, सुख की राशि का नाम राम है।
क्योंकि पूरा संसार पदार्थ / सम्पदा प्राप्त करने से ही सुखी होता है और ऊर्जा की सहज उपलब्धता से ही सम्पूर्ण लोक में विश्राम का भाव स्थायी रूप लेता है। और पदार्थ बनाने एवं ऊर्जा को मुक्त करने की शक्ति श्रीराम में है, जो विश्व का भरण-पोषण करे उसका नाम भरत होगा।
जो शुभ लक्षणों के धाम, श्रीरामजी के प्यारे और जगत् के आधार हैं।
बिना न्यूट्रान के परमाणु की स्थिरता में ही प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। न्यूट्रान ही प्रोटान और इलेक्ट्रॉन को संतुलित करने में काम आता है।
अगनित रबि ससि सिव चतुरानन । बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन ।।
(बाल काण्ड दो. 201 चौ.01)
अगणित सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुत-से पर्वत, नदियों, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव देखे।
जैसे घर ईंटों से बनता है उसी प्रकार जीवों का शरीर कोशिकाओं से मिलकर बना होता है। प्रत्येक कोष में अगणित ऊर्जा संरक्षित यौगिक पाये जाते हैं जो अनवरत् ऊर्जा देने में सूर्य के समान सक्षम हैं। उसी प्रकार कोष के अन्दर चन्द्रमा के समान ऊर्जा ग्राह्यता की क्षमता वाले अनगिनत कार्बनिक यौगिक पाये जाते हैं। जो कोश में अतिरिक्त ऊर्जा को संग्रहीत कर लेते हैं। जैसे सूर्य में अनवरत् ऑक्सीकरण की क्रिया चलती रहती है और ऊर्जा निकलती रहती है उसी प्रकार प्रत्येक कोश में अनगिनत शिव के समान ऑक्सीकरण करने वाले ऑक्सीकारक यौगिक पाये जाते हैं साथ ही मिलते हैं अनगिनत ब्रह्मा के समान चतुरानन चतुर्सयोजी कार्बन / कार्बनिक यौगिक भी सदैव ब्रह्मा के समान सृजन कार्य में लगे रहते हैं। कोश में मिलते हैं बहुत सारे पर्वतों के समान उठे हुए अन्य कोश के मायटोकांड्रिया, क्लोरोप्लास्ट इत्यादि तथा पृथ्वी के समान क्षेत्र और जंगल के समान अन्य संरचनाएँ।
व्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप। भगत हेतु नाना विधि करत चरित्र अनूप ||
(बाल काण्ड दो. 205)
जो व्यापक, निरवयव, इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण है जिनका नाम व रूप भी नहीं है वहीं भगवान भक्तो के लिए नाना प्रकार के अनुपम चरित्र करते हैं।
ऊर्जा धारक व ऊर्जा का कोई नाम और रूप नहीं है वह संसार के समस्त धारियों में व्याप्त है और भक्त (चाहने वाली धारिता या कम ऊर्जा वाले) के हित के लिए यह ऊर्जा अधिक ऊर्जा से उस कम ऊर्जा वाले परमाणु पर चली जाती है, चलती जाती है और परिणामतः बहुत प्रकार के पदार्थ / जीव जन्म लेते हैं। इसी अनवरत क्रिया की कृपा के कारण ही इस संसार में समस्त कार्य होते हैं और रासायनिक क्रियायें होती है और संसार में सभी गतिविधियाँ होती हैं। पौधों में होने वाली प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया चाहने वाले भक्त पौधे पर कृपा, ऊर्जा का अवतरण ग्लूकोज के रूप में संभव होता है।
पूँछेहू मोहि कि रहो कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावाँ ठाउँ ।।
(अयोध्या काण्ड दो. 127)
आपने मुझसे पूछा कि कहाँ रहूँ मुझे संकोच पूछने में हो रहा है कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिए। तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊँ।
जैसा पूर्व में भी कहा गया है कि ऊर्जा धारक द्रव्यमान से ही सम्पूर्ण संसार बना है / बनता है, इसीलिए वह सर्वव्यापी है और कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ द्रव्यमान / ऊर्जा न हो। अर्थात ऊर्जाधारक द्रव्यमान सदैव सम्पूर्ण संसार में पाया जाता है अतः ऐसा कोई भी स्थान नहीं हैं जहाँ पर ऊर्जा एवं द्रव्यमान पदार्थ उपस्थित न हो। इसीलिए ब्रह्मकण को व्यापक और विश्वरूप माना गया है। श्रीराम ऊर्जा धारक हैं, जिससे स्पष्ट है कि पूरे संसार में केवल पदार्थ और ऊर्जा ही है अन्य कुछ नहीं। इसीलिए मुनि ने कहा कि मुझे कृपया यह बतायें कि आप कहाँ नहीं है अर्थात् सर्वत्र है और इसीलिए मैं कौन-सा स्थान आपके लिए बता दूँ। जहाँ आप वनवास काल में रह सकें।
सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं ।
सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं ।।
(अयोध्याकाण्ड दो 140 चौ. 1)
जोगवहिं प्रभु सिय लखनहिं कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसे ।।
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहिं । ।
(अयोध्या काण्ड दो 141 चौ.01)
सीताजी और लक्ष्मणजी को जिस प्रकार सुख मिले, श्रीरघुनाथजी वही करते और वही कहते हैं। प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी की कैसी संभाल रखते हैं, जैसे पलकें नेत्रों के गोलकों की। इधर लक्ष्मणजी श्रीसीताजी और श्रीरामचन्द्रजी की ऐसी सेवा करते हैं जैसे अज्ञानी मनुष्य शरीर की करते हैं।
सीताजी और लक्ष्मणजी को जिस प्रकार सुख मिले, श्री रघुनाथजी वही करते और वही कहते हैं। श्रीराम दोनों को ऐसे संभालते हैं जैसे पलकें नेत्रों के गोलकों को और लक्ष्मण सीता तथा रघुवीर की ऐसी सेवा करते हैं। जैसे अविवेकी मनुष्य शरीर की।
परमाणु- प्रोटान, न्यूट्रान और इलेक्ट्रॉन को बनाये रखने के लिए पूरी तरह प्रयास करता है जिससे परमाणु का स्थायित्व बना रहे। लेकिन विपरीत परिस्थितियों में जब इलेक्ट्रॉन क्षेत्र शून्य हो जाता है तब प्रोटान अपने पास स्थित ऋणात्मक आवेश को स्वतंत्र करता है और पूर्ण विपरीत परिस्थितियों में जब प्रोटान के ऋणात्मक आवेश समाप्त हो जाते हैं तब न्यूट्रान अपने ऋणात्मक आवेशित अंश को स्वतंत्र कर इलेक्ट्रॉन क्षेत्र को बनाने व प्रोटान की संरचना व विन्यास को बचाए रखने के लिए अपने आप को आवेशित कणों में विभक्त कर देता है और स्वतः नष्ट हो जाता है। ऊर्जा धारक श्रीराम है। ऊर्जा उन्हीं में धारित है। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में ऊर्जा परमाणु में धारित है। परमाणु में इलेक्ट्रॉन (ऋणात्मक आवेशित ऊर्जा) के साथ-साथ प्रोटान तथा न्यूट्रान भी हैं। प्रोटान (धनात्मक आवेशों) सामान्य परिस्थितियों में परमाणु को बनाये रखने का कार्य करता है। न्यूट्रान को भी परमाणु में स्थान प्राप्त रहता है। अर्थात् प्रोटान के कारण इलेक्ट्रॉन व न्यूट्रॉन परमाणु में सुख प्राप्त करते हैं। इसकी तुलना आँखों की दो पलकों से की गई है जैसे पलकें आंख को पूर्ण रूप से सुरक्षा प्रदान करती हैं।
लखन / वैराग्य / न्यूट्रान परमाणु में उपस्थित प्रोटान व इलेक्ट्रॉन की ऐसी सेवा करते हैं, जैसे सामान्य मानव अपने शरीर की अर्थात सम्पूर्ण जीवन शरीर रक्षा में ही लगाए रहते हैं। आधुनिक विज्ञान के मतानुसार जब विपरीत अवस्था में परमाणु के सभी इलेक्ट्रॉन खर्च हो जाते हैं तो प्रोटान के ऋणात्मक आवेश इलेक्ट्रॉन का स्थान लेते हैं। उस समय प्रोटान नष्ट हो सकता है। उसे बचाने के लिए न्यूट्रान आगे आकर प्रोटान को ऋणात्मक आवेश प्रदान करता है और परमाणु को बचाने का भरसक प्रयास करता है। अर्थात् इलेक्ट्रॉन स्वरूप ही परमाणु के आकार विन्यास की रक्षा करता है और परमाणु को बचाये रखने का प्रयास करता है।
तुलसीदासजी ने इन तीनों के विषय में लिखा है कि "भक्ति ज्ञान वैराग्य जिमि तीनहुँ घरे शरीर ।" अर्थात् इसके दो प्रकार से अर्थ निकाले जा सकते हैं। प्रथम सीताजी को भक्ति, रामजी को ज्ञान का प्रतीक एवं लक्ष्मणजी को वैराग्य का प्रतीक माना है और इन प्रतीकों को यदि एक ही शरीर में देखा जाय तो ज्ञान मस्तिष्क में शरीर का सबसे श्रेष्ठ व ऊपरी भाग है। उसके बाद भक्ति हृदय में स्थित है और शरीर के संचालन में मस्तिष्क के बाद दूसरे स्थान पर है, तीसरे स्थान पर उदर के मध्य में पाचन तंत्र है जो वैराग्य का प्रतीक है।
यदि इन तीनों की क्रिया विधि देखें तो ज्ञात होता है कि मस्तिष्क से निकलने वाली तंत्रिकाएँ ही शरीर की समस्त कार्य पद्धतियों को नियंत्रित करती हैं। इन्हीं के नियमन के अन्तर्गत हृदय स्थल से रक्त परिवहन का कार्य सम्पन्न होता है जिसमें श्वसन से प्राण वायु, पाचन तंत्र से आवश्यक भोज्य तत्व एवं आवश्यक हारमोन्स पूर्ण शरीर में पहुँचाए जाते हैं। रक्त के अन्दर निष्काम भाव से ऑक्सीजन का अवशोषण हीमोग्लोबिन के द्वारा किया जाता है और जहाँ ऑक्सीजन की आवश्यकता हो बंधन तोडकर आक्सीजन को मुक्त कर देते हैं जो निष्काम कर्म का उत्तम उदाहरण है। पाचन तंत्र वैराग्य भाव से जो कुछ भी प्राणी के द्वारा ग्रहण किया जाता है उसका शरीर के हित में पाचन कर रक्त तक पहुँचाने का कार्य करता है। जिसे स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है कि भोजन में क्या खाया गया है। लेकिन वह अपनी पूर्ण निष्ठा से कार्य करते हुए हृदय स्थल व मस्तिष्क की लगातार भोज्य पाचक तत्वों को पहुँचाकर लगातार सेवा करता है। कहा गया है, प्रभु श्रीराम जो शरीर में मस्तिष्क रूप में स्थित है वह हृदय व पाचन तंत्र को सदैव संरक्षित करते हैं।
आगें राम अनुज पुनि पाछे । मुनि बर बेष बने अति काछे ।।
उमय बीच श्री सोहइ कैसी ब्रह्म जीव बिच माया जैसी ।।
(अरण्य काण्ड दो.6 चौ. 1,2)
आगे श्रीरामजी हैं और उनके पीछे छोटे भाई लक्ष्मणजी हैं। दोनों ही मुनियों का सुन्दर वेष बनाये अत्यन्त सुशोभित है। दोनों के बीच में श्री जानकी जी कैसी सुशोभित है, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच माया हो।
आगे-आगे राम हैं उनके बाद सीताजी फिर लक्ष्मण यहाँ तीन दृश्य प्रस्तुत हो रहे हैं। शरीर की संरचना परमाणु की संचरना और विकास की प्रक्रिया। शरीर की संरचना के आधार पर यदि व्याख्या करें तो शरीर के सबसे ऊपर सिर है जिसमें मस्तिष्क स्थित है। मस्तिष्क ही ज्ञान का विश्लेषक है। शरीर की सभी ज्ञानेन्द्रियों अपने द्वारा एकत्र ज्ञान को मस्तिष्क में भेजती है जहाँ पर प्राप्त ज्ञान का विश्लेषण किया जाता है और शरीर हित में निर्णय लिए जाते हैं। आशय है कि पार्श्व तंत्रिका तंत्र से केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में सूचनाएँ आती हैं और विश्लेषित होती हैं।
परमाणु संरचना के आधार पर तीनों के सम्बन्ध कुछ इस प्रकार हैं। मुख में अग्नि है और उसके अन्दर जिव्हा में जल है। यहीं तेज और जल के विक्षोम की सतत् क्रियाओं से संसार की उत्पत्ति, संचालन व संहार होता है। तेजी से विघटन होता है, विघटित तत्व जल की उपस्थिति में पुनः प्रक्रिया करते हैं और नवीन पदार्थों का निर्माण होता है। यह विघटन और संघनन ऊर्जा आधारित है जिसका वर्णन अन्यत्र किया जा चुका है।
विकास की प्रक्रिया द्वारा चिंतन करने पर ज्ञात होता है कि रामरूपी ब्रह्म के पीछे लक्ष्मण रूपी जीव चलता रहता है और सीतारूपी माया इसके बीच में आती हैं। ब्रह्म जीवोत्पत्ति करने का कार्य करता है इस सृजन में विभिन्न भौतिक पदार्थों की आवश्यकता होती है। यह पदार्थ तीन प्रकार के होते हैं तत्व, यौगिक एवं मिश्रण ( यौगिक का अर्थ है जब दो या दो अधिक तत्व रासायनिक क्रिया करते हैं। तो ऐसा नया पदार्थ बनता है जो अपने पूर्व घटकों में पुनः विभाजित नहीं हो सकता)। अर्थात् ब्रह्म द्वारा जीव को बनाने में विभिन्न पदार्थों को मिलाना होता है और यह सब रासायनिक क्रियाओं द्वारा एक निश्चित प्रक्रिया से बनता है और इन प्रक्रियाओं को "माया" कहा जाता है जो दो ऊर्जा स्रोत राम के "म" एवं शक्ति स्रोत सीय के "य" के बीच परस्पर सहयोग से "मय" व इनके बीच बन्धन से "माया" बनती है। इस माया के परिणामस्वरूप जीव की उत्पत्ति होती है इसीलिए विकासवाद में ब्रह्म और जीव के बीच रासायनिक क्रियाओं और उनके परिणाम "माया" का वर्णन किया गया है।
इन तीनों प्रकार से विचार करने पर स्पष्ट होता है तुलसी ने ज्ञान और विज्ञान को इन पंक्तियों में पिरोया है और "माया" से निर्माण की कहानी को बल दिया है।
पुनि सर्बग्य सर्व उर बासी सर्वरूप सब रहित उदासी।।
(सुन्दरकाण्ड दो 49 थी 2)
सब कुछ जानने वाले, सबके ह्रदय में बसने वाले, सर्वरूप, सब से रहित और उदासीन है।
परमाणु के आधुनिक विश्लेषण से भी यह पता चलता है कि इसके तीन मूल अवयवों में इलेक्ट्रॉन, प्रोटान एवं न्यूट्रान होते हैं। न्यूट्रान की विशेषता है कि वह ऋणात्मक और धनात्मक दोनों आवेशों को संतुलन के साथ रखता है अर्थात् उसे दोनों धाराओं का पूर्ण ज्ञान है। यह सभी परमाणुओं के केन्द्र में रहता है अर्थात उर- हृदय में रहता है। सभी कणों की सभी अवस्थाओं में पाया जाता है, किन्तु ऋणात्मक एवं धनात्मक आवेश में पूर्ण संतुलन बनाए हुए व्यवहार में उदासीन रहता है।
को ब्रह्म निर्गुन ध्याव । अव्यक्त जेहि श्रुति गाव।।
(लंकाकाण्ड छ.07)
कोई उन निर्गुण ब्रह्म का ध्यान करते हैं जिन्हें वेद अव्यक्त (निराकार) कहते हैं। गैसीय अवस्था में सभी पदार्थ निराकार अव्यक्त भाव में रहते हैं। इसी प्रकार ऊर्जा का स्वरूप सदैव निराकार, अव्यक्त रहता है।
अकल अनीह अनाम अरूपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा।।
मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी ।।
सो तँ ताहि तोहि नहिं भेदा बारि बीचि जिमि गावहि वेदा ।।
(उत्तरकाण्ड दो. 110 चौ.02.03 )
ब्रह्म के लिए अजन्मा, अद्वैत, निर्गुण और हृदय का स्वामी है। वह इच्छा रहित, नाम रहित, रूप रहित, अनुभव से जानने योग्य अखण्ड और उपमा रहित हैं। वह मन और इंद्रियों से परे, निर्मल, विनाश रहित, निर्विकार, सीमा रहित और सुख की राशि हैं। वेद ऐसा गाते हैं कि वही तू है (तत्वमसि), जल और लहर की भाति उसमें और तुझमें कोई भेद नहीं है।
उपरोक्त पंक्तियां स्पष्ट करती है कि इनमें वर्णित जितने भी गुण हैं, वे सभी इलेक्ट्रॉन / ऊर्जा में पाये जाते हैं जो पदार्थ के सृजन तथा कार्य के संचालन का आधार हैं।
अगुन अखंड अनन्त अनादी जेहि चिंतहिं परमारथवादी ।
निर्गुण ब्रह्म अखण्ड है अर्थात् इसके खण्ड नहीं किए जा सकते। स्वाभाविक रूप से हमें ऐसे ज्ञात छोटे से छोटे भौतिक संरचना पर ध्यान देना होगा जो विभाजित न की जा सके या अविभाज्य हो तो परमाणु पर ध्यान जाता है, जो संरचना की दृष्टि से सूक्ष्मतम अस्थिर कण है। यह स्वतंत्र रूप में नहीं रहता लेकिन आवेश के आधार पर इसको मूलतः तीन भागों में बाँटा जा सकता है। एक भाग आवेश हीन, किन्तु भार सहित है जिसे न्यूट्रान कहते और दूसरा धनात्मक आवेश का भारीय भाग है जिसे प्रोटान कहते हैं। दोनों परमाणु के केन्द्र में रहते हैं और परमाणु केन्द्रक कहलाते हैं। तीसरा भाग धनात्मक आवेश की प्रतिक्रिया के कारण ऋणात्मक आवेश का होता है जो धनात्मक आवेशीय पिंड प्रोटान के चारों ओर चक्कर लगाता रहता है इसे इलेक्ट्रॉन कहते हैं। यह परमाणु के आकार क्षेत्रफल (Shape & Size) को निर्धारित करता है स्वाभाविक रूप से परमाणु के बाह्यतम क्षेत्र में होने के कारण यह अन्य परमाणुओं के बाह्यतम क्षेत्र के सम्पर्क में आता है और दोनों बाह्यतम क्षेत्र के आवेशों में अन्तर होने पर (विभवान्तर की दशा में) आपस में संयोग करते हैं। इस संयोग से नये परमाणुओं का जन्म होता है यह तीसरा नया उत्पन्न परमाणु अन्य परमाणु के सम्पर्क में आने पर पुनः संयोग की क्रिया करता है जिससे पुनः नये परमाणु का जन्म होगा। यह अनवरत प्रक्रिया ही "निर्गुण ब्रह्म की माया रासायनिक क्रिया कहलाती है।
इलेक्ट्रॉन, परमाणु का सूक्ष्मतम कण होने के कारण माया के रूप में संसार को गतिशील बनाता है अतः इसे निर्गुण ब्रह्मकण मान सकते हैं।
भव भव बिभव पराभव कारिनि बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि ।।
(बाल काण्ड दो. 234 चौ.04)
आपका न आदि है, न मध्य है और न अन्त है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतन्त्र रूप से विहार करने वाली हैं।
इस शक्ति के न प्रारम्भ का पता है न मध्य और न ही आदि का। क्योंकि भौतिक शास्त्र के नियमों से भी न ऊर्जा को उत्पन्न किया जा सकता और न ही इसे नष्ट कर सकते हैं। इसका केवल रूपान्तरण होता है और मध्य भी इसलिए ज्ञात नहीं क्यों कि रूपांतरण एक अनवरत प्रक्रिया है।
इसी ऊर्जा से संसार की समस्त क्रियायें सम्पन्न होती हैं। परिणामस्वरूप ही अणु का / शरीर की उत्पत्ति, पालन तथा ऊर्जा द्वारा विनष्टीकरण भी होता है। यह ऊर्जा स्वतः में स्वतंत्र होती है संसार इसी के आकर्षण में मुग्ध रहता है। ऊर्जा सदैव स्वनियंत्रित होती है। विश्व में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में भ्रमण करती है, समस्त संसार इसकी दया पर आश्रित है, क्योंकि संसार में सभी कार्य ऊर्जा से ही होते. है। । ऊर्जा से ही विश्व में पदार्थों और जीवो का सृजन, पालन व संहार होता है।
छिति जल पावक गगन समीरा पंच रचित अति अधम सरीरा ।।
(किष्किन्धाकाण्ड दो. 10 चौ. 2)
पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु (भगवान) इन पाँच तत्वों / अवयवों से यह अत्यन्त अधम शरीर बना है।
अर्थात यह शरीर भगवान से ही निर्मित है (भू भूमि, ग = गगन, व= वायु, अ = अग्नि और न = , नीर)। इसलिए कहते हैं आत्मा परमात्मा का अंश है और यही पांचों तत्व / अवयव (बायोजियोकेमिकल सायकल) जैव- मृदा रसायन चक्र के कारण एक अवस्था से दूसरी अवस्था में और एक रूप से दूसरे स्वरूप में रूपांतरित होते रहते हैं और यह क्रमिक अनवरत् चक्र अबाध गति से चलता रहता है।
ब्रह्माण्ड के समस्त जड़, चेतन एवं जीव में भगवान का ही वास होता है। श्रीराम मनुष्य शरीर को धारण किए हैं जबकि वह अखिल ब्रह्माण्ड के नियंत्रक स्वामी है, क्योंकि वही ऊर्जा रूप में समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है और समस्त क्रियाओं के एकमात्र संचालक एवं नियंत्रक है। क्योंकि इन्हीं पंच तत्वों से मिलकर शरीर बना हुआ है। पृथक रहने पर यह तत्व जड़ प्रतीत होते हैं और इन्हीं के मिलन से शरीर का निर्माण होता है तब यह चेतन और सजीव हो जाते हैं। यह मिलन तभी संभव होता है जब वह चारों ओर एक आवरण से ढँक जाते हैं, जिसे भगवाना कहते हैं। उनमें अंतः क्रिया प्रारम्भ हो जाती है जिसे प्रपंच कहते हैं अर्थात् प्र=प्रक्रिया, पंच=पांच की इन पांच अवयवों की क्रिया एवं ऊर्जा की मदद से लगातार रासायनिक क्रियायें होती हैं और जीव का जीवन संचालित होता है।
यदि विज्ञान की दृष्टि से देखें तो पता चलता है कि वायु (ऑक्सीजन) जल, तापक्रम इस शरीर की भौतिक अवस्थाओं को संचालित करते हैं गगन या आकाश इन क्रिया कारकों को कार्य करने के लिए उनकी गति को बनाने के लिए खाली स्थान प्रदत्त करता है और पृथ्वी शरीर में आवश्यक धातु व अधातु पदार्थों की पूर्ति करती है तो इस प्रक्रिया से शरीर का निर्माण, श्वसन, पाचन, उत्सर्जन, प्रजनन आदि क्रियायें संपादित होती हैं।
तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी।।
अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय ।।
(लंकाकाण्ड दो. 109 चौ. 3)
आप समरूप ब्रह्म अविनाशी है सदैव एक समान रहते हुए क्रिया रूप में नित्य, एक रस, स्वभाव से उदासीन रहते हैं। अखण्ड, निर्गुण, अजन्मा, निर्विकार अजेय, अमोध शक्ति और दयामय हैं।
ऊर्जाधारक परमाणु के तीन अवयवों में से दो अवयवों का वर्णन किया गया। है। न्यूट्रान का वर्णन प्रथम पंक्ति में और इलेक्ट्रॉन को दूसरी पंक्ति में वर्णित किया गया है। न्यूट्रान समस्त परमाणुओं में केन्द्र का अवयव है जिसमें ऋणात्मक और धनात्मक आवेश संतुलन में रहते हैं जिससे वह एक उदास (Neutral) अवयव जैसे कार्य करता है। इलेक्ट्रॉन को अखण्ड, निर्गुन, अजन्मा, पाप या भेदभाव न करने वाला, निर्विकार, अजेय, अमोध शक्तिधारी और दयामय बताया है क्योंकि यदि उपरोक्त गुणों को इलेक्ट्रॉन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो वह सटीक उतरता है।
अर्थात् निराकार ब्रह्म समस्त ब्रह्माण्डों में फैली हुई शक्ति ऊर्जा है जो समस्त प्रकार से सृजन, संचालन व संहार करते हुए "यत पिंड तत् ब्रह्माण्ड" की उक्ति को चरितार्थ करती है।