निर्देशन का अर्थ,परिभाषा,प्रकृति एवं आवश्यकता - b.ed,m.ed,d.el.ed

निर्देशन, मानव एक विवेकशील प्राणी है। इस विवेकशीलता के कारण वह अन्य प्राणियों से भिन्न है। मानव अपने बुद्धिबल के आधार पर अपने व्यक्तिगत तथा सामाजिक पक्षों के विकास के प्रति सचेत रहा है तथा इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये वह अपने पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील रहा है। वह अपनी सीमाओं से अवगत होते हुये पर्यावरण के साथ समन्वय स्थापित करके आज वह अन्य प्राणियों को पीछे छोड़ते हुये स्वयं प्रकृति का विलक्षण प्राणी बन गया है।
 
इस प्रयास में उसको अनेक कठिनाइयों एवं समस्याओं से जूझना पड़ा है। इन कठिनाइयों पर विजय पाने के लिये वह बुजुर्गों के परामर्श पर निर्भर रहा है। इससे स्पष्ट है कि निर्देशन की यह प्रवृत्ति आदि काल से अव्यवस्थित तथा अनौपचारिक रूप में चलती रहती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो बाल्यावस्था में मानव की समस्त क्रियाएँ वयस्क प्राणी की सहायता से सम्पन्न होती हैं; किन्तु बाल्यावस्था पार करते ही वह अनेक प्रश्नों, जिज्ञासाओं तथा समस्याओं में उलझ जाता है। व्यक्तिगत भिन्नताओं के कारण सभी को इन जिज्ञासाओं और समस्याओं की अनुभूति एक समान नहीं होती है। कुछ का समाधान ढूँढ़ने में व्यक्ति स्वयं सक्षम होता है किन्तु कुछ जटिल एवं गम्भीर समस्याओं के समाधान के लिये वह औपचारिक या अनौपचारिक साधनों पर निर्भर रहता है। आज के जटिल जीवन में जटिल समस्याओं के समाधान में सहायता देना एक साधारण व्यक्ति के लिये दुष्कर कार्य है। अतः आज औपचारिक निर्देशन की आवश्यकता पहले की  अपेक्षा अधिक अनुभव की जाने लगी है।

आज भौतिकवादी काल में औद्योगिक क्रान्ति तथा संयुक्त परिवार के विघटन के कारण मानव अधिक तनावयुक्त जीवन व्यतीत कर रहा है। उसको जीवन के प्रत्येक स्तर पर अनुभवी व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता अनुभव होती है। अनुभवी व्यक्ति द्वारा दी जाने वाली सहायता ही निर्देशन कहलाती है। निर्देशन अतीत काल से चली आ रही प्रक्रिया है। समय के साथ इसका स्वरूप बदलता रहता है।

निर्देशन का अर्थ है दिशा दिखाना अर्थात् निर्देश देना। किन्तु यहाँ निर्देश आदेश से भिन्न है। आदेश में अधिकार होता है और निर्देशन सलाह। अतः निर्देशन से आशय किसी बालक या व्यक्ति को दी जाने वाली सलाह या सहायता से है। यह सहायता नैतिक, आध्यात्मिक तथा व्यावसायिक क्षेत्र में बड़ों के द्वारा छोटों को दी जाती है। भारत में निर्देशन की परम्परा अति प्राचीन है। यहाँ ब्राह्मण, पुरोहित, ऋषि, गुरुजन आदि समाज के सदस्यों तथा छात्रों को निर्देशन सहायता उपलब्ध करवाते थे। अतः यहाँ निर्देशन के स्वरूप को समझना आवश्यक है।

निर्देशन का अर्थ एवं परिभाषाएँ

निर्देशन किसी को निर्देश देना नहीं है। निर्देश में व्यक्ति अन्य व्यक्तियों पर अपने विचारों को थोपने का प्रयास करता है। स्पष्ट है कि निर्देश शब्द निर्देशन से भिन्न है। निर्देशन एक क्रिया है जिसमें दोनों पक्ष अर्थात् निर्देशन देने वाला और निर्देशन प्राप्त करने वाला सक्रिय रहते हैं। निर्देशन ऐसी सहायता है जिससे व्यक्ति स्वयं अपने निर्णय लेते हुये अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सफल हो सके। निर्देशन में समस्या का समाधान नहीं किया जाता है। अपितु व्यक्ति को स्वयं समाधान करने योग्य बनाया जाता है। निर्देशन का कार्य व्यक्ति में अन्तर्निहित क्षमताओं, शक्तियों और योग्यताओं का ज्ञान कराना है। निर्देशन के अर्थ को समझने के लिये यहाँ कुछ विद्वानों द्वारा निर्देशन से सम्बन्धित दी गयी परिभाषाओं पर विचार करना उपयुक्त होगा।

क्रो एवं क्रो के अनुसार- "निर्देशन का अर्थ निर्देश देना नहीं इसमें एक व्यक्ति का दृष्टिकोण दूसरे व्यक्ति पर थोपना नहीं। यह व्यक्ति के लिये वे निर्णय लेना नहीं जो उसे स्वयं लेने चाहिये। दूसरे के जीवन का बोझ ढोना नहीं है अपितु योग्य एवं सुप्रशिक्षित पुरुष या महिला द्वारा किसी भी आयु के व्यक्ति को दी जाने वाली ऐसी सहायता है कि वह अपनी जीवन क्रियाओं को स्वयं गठित कर सके, अपने दृष्टिकोण को विकसित कर सके, अपने निर्णय स्वयं ले सके और अपना भार स्वयं वहन कर सके।"

गुड के अनुसार- " निर्देशन व्यक्ति के दृष्टिकोणों एवं उसके बाद के व्यवहार को प्रभावित करने के उद्देश्य से स्थापित गतिशील परस्पर सम्बन्धो का एक प्रक्रम है।"

स्टूप एवं वालक्विस्ट के अनुसार- "निर्देशन व्यक्ति के अपने लिये एवं समाज के लिये अधिकतम लाभदायक दिशा में उसकी सम्भावित अधिकतम क्षमता तथा विकास में सहायता प्रदान करने वाला निरन्तर चलने वाला प्रक्रम है।"

जोन्स के अनुसार- "निर्देशन से आशय संकेत करना, प्रदर्शन करना तथा पथ प्रदर्शन करना है। इसका अर्थ सहायता देने से अधिक व्यापक है।" 

शर्ले हैमरिन के अनुसार- "व्यक्ति को स्वयं को पहचानने में सहायता करना ताकि वह जीवन में प्रगति कर सके. निर्देशन कहलाता है।"

डेविड पी. टिडमैन के अनुसार- "निर्देशन का लक्ष्य लोगों को उद्देश्यपूर्ण बनाने में, न कि केवल उद्देश्यपूर्ण क्रिया में सहायता देना है।"

दूसरे शब्दों में व्यक्ति को ऐसा निर्देशन दिया जाये कि वह अपने जीवन को लक्ष्य और उद्देश्य को भलीभाँति समझ सके और फिर उनकी प्राप्ति के लिये प्रयास करे। 

लीफीयर, टसेल और विजिल के अनुसार- "निर्देशन एक शैक्षिक सेवा है जो विद्यालय में प्राप्त दीक्षा का अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली उपयोग करने में विद्यार्थियों की सहायतार्थ आयोजित की जाती है।

रिन्कल और गिलक्रिस्ट के अनुसार- "निर्देशन का अर्थ ऐसी सहायता करने से है जिससे छात्र उपयुक्त तथा प्राप्त होने योग्य उद्देश्यों को निर्धारण करने तथा उन्हें उपलब्ध करने हेतु अपेक्षित योग्यताः को विकसित कर सके और अभिप्रेरित कर सके |

ट्रैक्सलर के अनुसार- "निर्देशन वह गतिविधि है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यताओं तथा रुचियों को समझने, उन्हें यथासम्भव विकसित करने, उन्हें जीवन लक्ष्यों से जोड़ने तथा अन्ततः अपनी सामाजिक व्यवस्था के वांछनीय सदस्य की हैसियत से एक पूर्ण एवं परिपक्व आत्म-निर्देशन की अवस्था तक पहुँचने में सहायक है।

बर्नार्ड के अनुसार- "निर्देशन के अन्तर्गत वे सभी क्रियाएँ आ जाती है जो व्यक्ति के आत्म-ज्ञान में सहायक होती है।"

 जी. ई. स्मिथ के अनुसार- "निर्देशन प्रक्रिया सेवाओं के उस समूह से सम्बन्धित है जो व्यक्तियों को विभिन्न क्षेत्रों में सन्तोषजनक अवस्थापन के लिये आवश्यक पर्याप्त चयन, योजना एवं व्याख्या के लिये अपेक्षित अवस्थाओं एवं ज्ञान को प्राप्त करने में सहायता प्रदान करती है।"

स्टीफेलरी, बफर्ड, स्टीवर्ट के अनुसार-"निर्देशन समस्या समाधान हेतु चयन एवं समायोजन निर्धारण हेतु एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को दी गयी सहायता है। निर्देशन का लक्ष्य ग्रहणकर्ता में अपनी स्वतंत्रता तथा अपने प्रति उत्तरदायित्व की भावना का विकास है। यह एक सार्वभौमिक सेवा है जो केवल परिवार या विद्यालय तक सीमित नहीं है। यह जीवन के सभी पक्षों-घर, व्यापार, उद्योग, शासन, सामाजिक जीवन, चिकित्सालय, कारागार में व्याप्त है। वास्तव में इसका अस्तित्व उन सभी स्थानों में हैं. जहाँ व्यक्ति हैं और जो सहायता के इच्छुक हैं और जहाँ ऐसे लोग हैं जो सहायता दे सकते हैं।"

मैथ्यूसन के अनुसार- "निर्देशन के शैक्षिक और विकासात्मक पक्षों पर बल देते हुये अधिगम की प्रक्रिया के सम्बन्ध में इसको महत्त्वपूर्ण बताया है |"

जे. एम. विवर के अनुसार- "निर्देशन एक ऐसा प्रक्रम है जो व्यक्ति में अपनी समस्याओं को हल करने में स्वयं निर्देशन की क्षमता का विकास करता है।" 

प्रोक्टर के अनुसार- 'निर्देशन एक सेवा है जिसका निर्माण व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को विद्यालय या विद्यालय के बाहर के वातावरण के साथ समायोजन स्थापन में सहायता देने के लिये होता है।"

निर्देशन की विशेषताएँ 

निर्देशन की निम्नलिखित विशेषताएं उभर कर आती हैं-

1. निर्देश का उद्देश्य व्यक्ति के आधारभूत लक्ष्यों, ज्ञान, कौशल तथा व्यक्तित्व का विकास करना है।

2. निर्देशन एक संगठित प्रक्रिया है और विशिष्ट कर्मचारियों सहित इसकी एक प्रणाली या पद्धति होती है।

3. निर्देशन द्वारा व्यक्ति को समायोजन के लिये तैयार किया जाता है।

4. निर्देशन व्यक्ति को स्वनिर्देशन के लिये प्रेरित करती है ताकि वह अपनी शक्तियों को पहचानकर स्वयं उद्देश्य प्राप्ति का निर्णय ले सके।

5. निर्देशन जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है।

6. निर्देशन की प्रक्रिया समग्र जीवन से सम्बन्धित है।

7. निर्देशन व्यक्ति के सर्वांगीण विकास पर बल देता है।

8. निर्देशन समस्या का हल नहीं करता है अपितु व्यक्ति को स्वयं समस्या हल करने के लिये अभिप्रेरित करता है।

9. निर्देशन व्यक्ति की स्वयं को समझने में सहायता करता है। 

10. निर्देशन व्यक्ति में स्वाधीनता की प्रवृत्ति तथा अपने प्रति उत्तरदायी बनने की योग्यता में वृद्धि करता है।

निर्देशन की प्रकृति 

अन्य विषयों की भाँति निर्देशन की प्रकृति का आधार दर्शन ही है। सहायता करना मानव का स्वभाव है। मानव के इस स्वभाव ने ही निर्देशन को जन्म दिया है। निर्देशन अन्य व्यक्तियों की कठिनाई अथवा समस्या को हल करने में दी जाने वाली सहायता है। इसी आधार पर जॉन डीवी का कथन है कि "मनोवैज्ञानिकों द्वारा खोजी गयी वैयक्तिक भेदों पर ही दर्शन की आधारभूत अवधारणा आधारित है. सत्य प्रतीत होता है। वैयक्तिक विभिन्नता का जन्म वंशानुगत और सामाजिक वातावरण के प्रभाव से होता है। इसीलिये निर्देशन की प्रकृति इन वैयक्तिक विभाओं से प्रभावित होती है।

निर्देशन की प्रकृति को निम्न बिन्दु स्पष्ट करते हैं-

1. निर्देशन एक सतत प्रक्रिया है -निर्देश एक प्रक्रिया है, जो जीवन की प्रत्येक अवस्था में निरन्तर चलती रहती है। इसका उद्देश्य व्यक्ति की व्यक्तिगत तथा सामाजिक समायोजन में सहायता करना है। 

2. निर्देशन स्वयं में शिक्षा है - निर्देशन का उद्देश्य व्यक्ति को स्वयं समझने के लिये शिक्षित करना है तथा उसकी क्षमताओं का ऐसा खुलासा करना है कि वह स्वयं को समायोजित तथा समुदाय का एक व्यवहारवादी सदस्य सिद्ध कर सके। इस प्रकार निर्देशन एक महत्त्वपूर्ण शैक्षिक प्रक्रिया है।

 3. वैयक्तिक सहायता - निर्देशन एक व्यक्तिगत सहायता है. भले ही, निर्देशन समूह में दिया जा रहा हो। निर्देशन में सहायता का केन्द्र बिन्दु व्यक्ति होता है।

4. निर्देशन का व्यापक क्षेत्र -निर्देशन में लिंग और आयु के आधार पर विभेद नहीं होता है। निर्देशन स्त्री-पुरुष दोनों तथा विभिन्न आयु वाले व्यक्तियों को सही दिशा दिखाकर उनकी समस्या समाधान में सहायता करना है।

 5. आत्म-निर्देशन की योग्यता का विकास -निर्देशन प्रक्रिया व्यक्ति में स्वनिर्देश की शक्ति की योग्यता का विकास करके उसको निर्देशन हेतु आत्म-निर्भर बनाती है।

6. व्यक्ति केन्द्रित सेवा - व्यक्ति को विकास का आधार मानकर निर्देशन का केन्द्र व्यक्ति विशेष होता है। इसलिये निर्देशन को व्यक्ति केन्द्रित सेवा कहते हैं। 

7. प्रशिक्षित कार्य- निर्देशन एक कौशल युक्त प्रक्रिया कहलाती है क्योंकि निर्देश देने के लिये आवश्यक सभी तकनीकों में प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता होती है।

8. निर्देशन थोपा नहीं जाता- निर्देशन में व्यक्ति स्वतंत्र होता है कि वह उपबोधक के परामर्श को स्वीकार करे अथवा नहीं करे। इसमें कोई भी निर्णय थोपा नहीं जाता है।

9. निर्देशन अनुदेशन से भिन्न- निर्देशन में अनुदेशन की भाँति छात्रों में कौशल के विकास तथा विषय-वस्तु के एकाधिकार पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया जाता है।

10. क्षमताओं का विकास- निर्देशन में व्यक्ति की सहायता स्वयं की क्षमताओं से परिचित होने और उनको विकसित करने के लिये की जाती है। 

11. निर्देशन एक सहकारी प्रक्रिया-निर्देशन एक सहकारी प्रक्रिया है जिसमें सभी संस्थाओं का सहयोग आवश्यक है। विद्यालय स्तर पर आवश्यक है कि सभी संस्थाओं के सदस्य निर्देशन में सहयोग करे। इसमें माता-पिता, अभिभावक, शिक्षक, प्रधानाध्यापक. उपबोधक मनोवैज्ञानिक आदि की भूमिका महत्वपूर्ण है। 

संक्षेप में निर्देशन की प्रकृति से आशय है कि यह व्यक्ति को आत्मबोध कराने वाली निरन्तर चलने वाली, समायोजन में सहायक, व्यक्ति विशेष पर ध्यान केन्द्रित करने वाली सहकारिता पर आधारित प्रक्रिया है।

निर्देशन का क्षेत्र 

निर्देशन का केन्द्र बिन्दु व्यक्ति होने से इसके क्षेत्र के विषय में बड़ी भ्रान्ति है। निर्देशन का विषय क्षेत्र बड़ा व्यापक है। निर्देशन के क्षेत्र को अग्र रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट किया गया है-

निर्देशन का अर्थ,

रेखाचित्र को देखने से स्पष्ट है कि निर्देशन का क्षेत्र व्यक्ति तथा उसके वातावरण के मध्य स्थापित सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाली समस्याओं के निदान एवं समाधान के लिये दी जाने वाली सहायता से सम्बन्धित है। वैसे तो निर्देशन का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है क्योंकि इसके अन्तर्गत व्यक्ति के जीवन से सम्बन्धित विविध क्षेत्रों में उत्पन्न समस्याओं के समाधान का प्रावधान है, जैसे-शिक्षा के क्षेत्र में विद्यालय चयन, विषय- चयन, छात्रों के साथ समायोजन, पाठ्य सहगामी क्रियाओं का चयन, व्यवसाय के सम्बन्ध में चयन, व्यवसाय में प्रगति, व्यवसाय की परिस्थितियों तथा कार्य-प्रणाली का ज्ञान, व्यवसाय के अन्य सहयोगियों के साथ ताल-मेल, व्यक्तिगत जीवन की समस्याएँ आदि। इन सभी में व्यक्ति को समस्याओं का सामना करना पड़ता है और निर्देशन द्वारा इनके समाधान हेतु सेवाएँ प्रदान की जाती हैं।

निर्देशन के क्षेत्र में वे सभी तकनीक भी सम्मिलित है जिनका उपयोग व्यक्ति तथा उससे सम्बन्धित सभी क्षेत्रों की सूचनाओं का संग्रह करने के लिये किया जाता है। इन तकनीकों में अमानीकृत तथा मानीकृत दो प्रकार की तकनीकें सम्मिलित हैं। अमानीकृत में प्रश्नावली, साक्षात्कार, प्रेक्षण, व्यक्ति वृत्त अध्ययन, क्रम निर्धारण, आत्मकथा, संचयी अभिलेख पत्र, समाजमिति आदि सम्मिलित हैं। प्रमापीकृत में अभिरुचि, बुद्धि, उपलब्धि, रुचि, व्यक्तित्व परीक्षण सम्मिलित हैं।

निर्देशन के क्षेत्र में परामर्श का महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। इसमें प्रयुक्त परामर्श की विधियों का अध्ययन भी सम्मिलित है। निर्देशन में सूचना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। शैक्षिक एवं व्यावसायिक सूचनाओं के स्रोत, सूचना प्राप्त करने की विधियाँ आदि भी निर्देशन के क्षेत्र में सम्मिलित हैं।

 यहाँ रेखाचित्र के आधार पर विद्यालय में निर्देशन के क्षेत्र के बारे में विचार प्रस्तुत है। विद्यालय में व्यक्ति का सम्बन्ध तीन प्रकार की परिस्थितियों के साथ होता है- 

1. विद्यालयों में व्यक्ति का व्यक्तिगत एवं सामाजिक सम्बन्ध:

(अ) 'स्व' का ज्ञान और व्यक्तिगत गुणों का परस्पर तथा व्यवहार से सम्बन्ध।

(आ) अन्य व्यक्तियों का और उनके साथ सम्बन्धों का ज्ञान।

2. व्यक्ति का पाठ्यक्रम के साथ सम्बन्ध:

(अ) व्यक्ति की शैक्षिक निष्पत्ति और प्रगति ।

(आ) शैक्षिक एवं पाठ्य सहगामी क्रियाओं के द्वारा व्यक्तिगत विकास।

3. व्यक्ति का शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसरों के साथ सम्बन्ध:

(अ) अग्रिम शैक्षिक एवं व्यावसायिक माँगों की पूर्ति की तैयारी। 

(आ) उचित शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसरों से लाभान्वित होना।

निर्देशन प्रक्रिया के प्रमुख अंग 

1. मूल्यांकन- छात्र के गुणों का वस्तुनिष्ठ एवं विश्वसनीय ज्ञान प्राप्त करने के लिये उनका निरन्तर मूल्यांकन करना आवश्यक है।

2. समायोजन-

(अ) तात्कालिक शैक्षिक व्यक्तिगत और सामाजिक समस्यात्मक परिस्थिति के साथ समायोजन हेतु छात्रों को सहायता देना।

(आ) व्यक्तिगत कमियों का उपचार करना।

(इ) विद्यालय में उचित समूह या कार्यक्रम के साथ व्यक्ति को सम्बन्धित करना। 

(ई) जीवन की यथार्थताओं को पहचानने और उनके योग्य होने में व्यक्ति की सहायता करना।

3. नवीनीकरण- छात्रों को नवीन विद्यालय या व्यवसाय की दशाओं का ज्ञान कराना ताकि वह नवीन स्थान पर कुसमायोजन से ग्रसित न हो जाये।

4. विकास - व्यक्ति की योग्यताओं को विकसित करना ताकि वह स्वयं तथा अपने परिवेश को समझकर दोनों के मध्य सन्तोषप्रद सम्बन्ध स्थापित कर अपना विकास कर सके।

निर्देशन के सिद्धान्त

निर्देशन का अर्थ स्पष्ट होने के बाद निर्देशन के सिद्धान्तों को समझ लेना निर्देशन कर्मचारियों के लिये अति आवश्यक है, क्योंकि इन सिद्धान्तों का ज्ञान निर्देशन के क्रियात्मक या व्यावहारिक कार्य में अधिक सहायक होता है। निर्देशन कार्यक्रम का संगठन यदि इन सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुये किया जाये तो ऐसा संगठन अधिक प्रभावशाली सिद्ध होगा। किन्तु यहाँ यह स्पष्टीकरण करना उपयुक्त होगा कि निर्देशन के सिद्धान्तों के बारे में विभिन्न विद्वान एकमत नहीं है। जोन्स ने निर्देशन के पाँच सिद्धान्त, क्रो और क्रो ने चौदह तथा हम्फ्रीज और ट्रैक्सलर ने सात सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। किन्तु यहाँ ऐसे सिद्धान्तों पर विचार करना उपयुक्त होगा जिनके बारे में सभी विद्वान् एकमत हैं। 

1. निर्देशन समस्त छात्रों के लिये - सभी नवयुवकों को निर्देशन सहायता की आवश्यकता होती है। किन्तु इस सम्बन्ध में एक गलत धारणा प्रचलित है कि निर्देशन सहायता केवल उनको चाहिये जो कुसमायोजित होते हैं। विद्यालयों में समय, स्थान, कर्मचारी एवं बजट आदि की व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण अधिकांश विद्यालय निर्देशन सेवा को उन छात्रों के लिये सीमित कर देते हैं जो बीच में अध्ययन छोड़ देते हैं, जो कक्षा में उत्पाद मचाते हैं या जो परामर्श प्राप्त करने की प्रार्थना करते हैं। उपर्युक्त बाधाओं को ध्यान में रखते हुये समस्त छात्रों को परामर्श देने के लिये सामूहिक विधियों का प्रयोग तर्कसंगत प्रतीत होता है। वैसे भी जनतन्त्रात्मक शिक्षा प्रणाली में सभी छात्रों को निर्देशन सहायता प्रदान करने का अधिकार समान रूप से प्राप्त होना चाहिये।

2. निर्देशन जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है- जिस प्रकार निर्देशन सहायता समस्त छात्रों के लिये सुलभ होनी चाहिये उसी प्रकार निर्देशन प्रक्रिया किसी विशेष आयु के लोगों तक सीमित नहीं की जा सकती। यह जीवन-भर चलती रहनी चाहिये। युवक को निर्देशन सहायता की आवश्यकता अपने समस्त जीवन स्तरों पर अनुभव होती है। छात्र जीवन के बाद जब युवक किसी व्यवसाय में नियुक्ति पाता है तो उस व्यवसाय में उत्तम समायोजन एवं प्रगति के लिये उचित परामर्श की आवश्यकता अनुभव करता है। इसी प्रकार जब वह गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है तो सामाजिक समायोजन एवं वैवाहिक जीवन को सफल एवं सुखद बनाने के लिये निर्देशन सहायता चाहिये। वृद्धावस्था में जब व्यक्ति के पास समय की अधिकता होती है तो उस समय का सदुपयोग करने के लिये निर्देशन सहायता चाहिये। छात्र जीवन में भी किसी एक समस्या का समाधान प्राप्त हो जाने के बाद पुनः अनेक नयी समस्याएँ आती रहती है और निर्देशन की आवश्यकता निरन्तर विद्यमान रहती है। 

3. निर्देशन छात्र विकास के सभी क्षेत्रों से सम्बन्धित होना चाहिये - निर्देशन छात्र के सर्वांगीण विकास से सम्बन्धित होता है। अतः इसको छात्र के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और भावात्मक वृद्धि पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिये। अब तक निर्देशन के सम्बन्ध में विद्वान में मिथ्या धारणा पनपती रही है कि निर्देशन केवल व्यक्ति को व्यावसायिक ज्ञान देने तक ही सीमित है। यद्यपि व्यावसायिक सूचना, योजना और नियुक्ति निर्देशन कार्यक्रम में महत्त्वपूर्ण सेवा के रूप में रहे हैं और भविष्य में भी रहेंगे किन्तु अन्य सेवायें भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है।

सुपर ने निर्देशन के सम्बन्ध में व्याप्त उपर्युक्त संकुचित धारणा के बारे में विद्वानों को सचेत करते हुये लिखा है कि सीखने एवं विकास के मनोविज्ञान ने यह तथ्य प्रकाश में लाया है कि निर्देशन युवक और जीविका में मेल स्थापित करने तक ही सीमित नहीं हैं और न यह व्यक्तियों की अपनी योग्यताओं एवं रुचियों के समझने में सहायता प्रदान करने की प्रक्रिया है और न व्यक्तिगत विशेषताओं को शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसरों में सम्बन्धित करके निर्णय लेने की प्रक्रिया है। यह तो व्यक्तिगत विकास में निर्देशित करने से सम्बन्धित है। अतः यह स्पष्ट है कि व्यक्ति की समस्याओं पर विचार करते समय निर्देशक को उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ध्यान में रखना चाहिये क्योंकि व्यक्तित्व तो एक संश्लिष्ट इकाई के रूप में होता है। उसको टुकड़ों में विभक्त नहीं किया जा सकता ।

4. निर्देशन आत्म-बोध और आत्म-विकास को विकसित करता है - उत्तम निर्देशन वह है जिसमें व्यक्ति के आत्म-बोध, आत्म-निर्देशन और स्व-विकास का लक्ष्य रखा जाता है। अतः निर्देशक को छात्र को अपना व्यवहार समझने और सुविधानुसार परिवर्तन लाने में सहायता प्रदान करनी चाहिये। परामर्शदाता को अपने निर्णय छात्र पर थोपने नहीं चाहिये बल्कि छात्र को स्वयं को समझने और आत्म-निर्देशित होने के लिये परामर्शदाता द्वारा प्रोत्साहित करना चाहिये ताकि वह स्वयं निर्णय ले सके और निर्णय के अनुसार अपना कार्य प्रारम्भ कर सके।

5. निर्देशन छात्र, अभिभावक, अध्यापक, प्रशासक और परामर्शदाता का सहकारी कार्य होना चाहिये -निर्देशन किसी विशिष्ट कर्मचारी का ही कार्य नहीं समझना चाहिये, बल्कि यह तो छात्र, अभिभावक, अध्यापक, प्रशासक और परामर्शदाता का सामूहिक कार्य होता है। यह ठीक है कि निर्देशन सेवाओं के कुशल संचालन एवं व्यावसायिक नेतृत्व के लिये परामर्शदाता पर निर्भर रहना पड़ता है किन्तु वह छात्रों की समस्याओं पर विचार करने से अभिभावक, अध्यापक एवं प्रधानाध्यापक को मुक्त नहीं करता है।

6. निर्देशन को सम्पूर्ण शैक्षिक प्रक्रिया का एक अंग समझना चाहिये - ट्रेक्सलर ने ठीक ही लिखा है कि निर्देशन स्वयं में पूर्ण प्रक्रिया है। जिस प्रकार व्यक्ति का जीवन एक इकाई के रूप में होता है उसी प्रकार निर्देशन का सम्पूर्ण कार्य एक इकाई के समान है। कोई भी विद्यालय निर्देशन के कुछ चुने हुये अंगों को ही अपने यहाँ प्रारम्भ नहीं कर सकता है क्योंकि जैसे व्यक्ति के व्यक्तित्व के टुकड़े नहीं किये जा सकते वैसे ही निर्देशन के टुकड़े करना भी सम्भव नहीं है। अतः निर्देशन को केवल शिक्षण-कार्य से ही नहीं जोड़ना चाहिये बल्कि इसका सम्बन्ध तो विद्यालय की पाठ्य सहगामी क्रियाओं, अनुशासन, उपस्थिति और मूल्यांकन समीक्षा आदि सभी पक्षों से स्थापित करना चाहिये। सामाजिक स्रोतों का अधिकतम लाभ उठाना निर्देशन का लक्ष्य होना चाहिये। सामान्यतः विद्यालय में अध्यापकगण निर्देशन को शिक्षण या अन्य कार्यों से पृथक् मानते हैं। इस प्रकार की धारणा में सुधार करना चाहिए और शिक्षण-प्रशिक्षण में ही ऐसा प्रावधान रहे कि वे निर्देशन को शिक्षा प्रक्रिया का एक आवश्यक अंग समझें।

7. निर्देशन को समाज और व्यक्ति दोनों के प्रति उत्तरदायी होना चाहिये - मानव एक सामाजिक प्राणी है। इसी कारण शिक्षाविदों ने शिक्षा का एक उद्देश्य छात्र में सामाजिकता की भावना का विकास करना माना है। निर्देशन को अपना ध्यान केवल व्यक्ति पर ही केन्द्रित नहीं करना चाहिये। बल्कि उस समाज के प्रति भी उत्तरदायी होना चाहिये। जनतन्त्रात्मक समाज में व्यक्तियों को एक-दूसरे के प्रति उत्तरदायित्वों के बारे में सचेत रहना चाहिये। तभी इस प्रकार का समाज अपने अस्तित्व को सुरक्षित बनाये रख सकता है। इस विवरण से स्पष्ट है कि निर्देशन को नवयुवकों में ऐसी आत्म-निर्भरता का विकास करने में सहायता करनी चाहिये जो छात्रों को एक-दूसरे के प्रति उत्तरदायित्वों का ज्ञान कराये।

8. निर्देशन कार्यक्रम में अधिकांश व्यक्तियों को सामान्य व्यक्ति मानना चाहिये - निर्देशन कार्यक्रम के संचालकों में मिथ्या धारणा व्याप्त है कि निर्देशन सहायता की आवश्यकता केवल ऐसे व्यक्तियों को होती है जो बौद्धिक या शारीरिक रूप से पिछड़े हों या संवेगात्मक विकास कम हुआ हो। यह ठीक है कि ऐसे छात्रों को निर्देशन की विशिष्ट सुविधाएँ प्रदान की जायें। किन्तु सामान्य छात्र निर्देशन सहायता प्रदान करने से वंचित नहीं करने चाहिये। उन पर यह प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये कि निर्देशन केवल समस्यात्मक बालकों के लिये है। निर्देशन कर्मचारियों को सभी छात्रों के प्रति समता का दृष्टिकोण रखना चाहिये।

9. लचीलापन -व्यक्ति की समस्याओं में परिवर्तन आयु और परिवेश में परिवर्तन के अनुसार होना स्वाभाविक है। अतः निर्देशन में आवश्यकतानुसार परिवर्तन के लिये लचीलापन होना चाहिये। निर्देश कार्यक्रम रूढ़ि पर आधारित नहीं होना चाहिये।

 10. वस्तुनिष्ठता - निर्देशन पक्षपात रहित होना चाहिये। व्यक्ति और उसकी समस्या से सम्बन्धित आँकड़े वस्तुनिष्ठ तरीकों से एकत्र करने चाहिये।।

निर्देशन का महत्त्व 

निर्देशन का मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसको जीवन पर्यन्त निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है। निर्देशन की प्रक्रिया उसके जीवन की समस्याओं के समाधान के लिये उसको सक्षम बनाकर व्यक्ति के जीवन को सुगम व सरल बनाने में सहायता करती है। प्राचीन काल में भी निर्देशन की परम्परा का प्रचलन था लेकिन उसका रूप भिन्न था। उस समय आदेशात्मक निर्देशन का प्रचलन था जिसमें परिवार को मुखिया, धर्मगुरु, जाति का मुखिया बिना व्यक्ति की क्षमताओं के ज्ञान के निर्देशन दिया करते थे जो निर्देशन की अपेक्षा निर्देश हुआ करता था। उस समय जीवन सादा और सरल था लेकिन वर्तमान समय में जीवन इतना जटिल हो गया है कि व्यक्ति के सामने अनेक समस्याएँ प्रतिपल मुँह फाड़े दिखायी पड़ती है। इसीलिये व्यक्ति के लिये आज निर्देशन का महत्त्व अधिक बढ़ गया है। निम्नलिखित बिन्दु निर्देशन के महत्व को स्पष्ट करते हैं-

1. वैयक्तिक भिन्नता

मनोवैज्ञानिक ज्ञान की वृद्धि में आज वैयक्तिक भिन्नताओं के प्रति विद्वानों को सचेत किया है। विश्व में कोई दो व्यक्ति मनो- शारीरिक गुणों में समान नहीं होते है। इस भिन्नता के परिणामस्वरूप व्यक्ति को पृथक्-पृथक् क्षेत्र में विविध प्रकार की समस्याओं का सामना करता है। इन वैयक्तिक भिन्नताओं के कारण निर्देश का महत्त्व बढ़ गया है।

2. परिवर्तित शिक्षा प्रणाली 

स्वाधीन भारत में नये समाज के निर्माण के लिए शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन लाने के उद्देश्य मुदालियर आयोग और कोठारी आयोग का गठन किया गया। इन आयोगों के सुझाव पर शिक्षा में व्यावसायिक पक्ष के विकास पर अधिक बल दिया गया। इसके लिये 10+2+3 शिक्षा प्रणाली प्रारम्भ की गयी और पाठ्यक्रम में व्यापक परिवर्तन किये गये। इन परिवर्तनों में निदेशन के महत्त्व में अभिवृद्धि की है।

3. अपव्यय व अवरोधन 

हमारे देश के शिक्षा जगत् से सम्बन्धित बड़ी समस्या अपव्यय और अवरोधन की है जिसके कारण अनिवार्य शिक्षा का लक्ष्य पूर्ण नहीं हो पा रहा है। अपव्यय और अवरोधन के कारणों का पता लगाकर निर्देशन द्वारा इस समस्या को हल किया जा सकता है। 

4. व्यवसायों में विविधता 

आज के वैज्ञानिक और औद्योगिक युग में व्यवसायों की विविधता के साथ ही किसी विशिष्ट कार्य में योग्यता की माँग में भी वृद्धि हो रही है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति व्यवसाय चयन तथा उसमें प्रवेश के लिये आवश्यक प्रशिक्षण की समस्या का सामना करता है। ऐसी परिस्थिति में निर्देशन की उपादेयता का पता चलता है।

5. समाज की जटिल प्रकृति 

पूर्व में समाज सरल प्रकृति का होता था लेकिन वर्तमान औद्योगीकरण ने परिवार और समाज को इतना जटिल बना दिया है कि परिवार बिखर रहे हैं और सामाजिक बन्धन शिथिल होते जा रहे हैं। इस प्रकार के जटिल समाज में व्यक्ति समायोजन सम्बन्धी अनेक समस्याओं से जूझ रहा है। इन समस्याओं के समाधान में निर्देश की सहायता का महत्त्व लोगों को अनुभव हो रहा है। 

6. शिक्षा का व्यवसायीकरण 

भारत में शिक्षा और रोजगार में समन्वय के अभाव में ऐसी शिक्षा का प्रसार अधिक हुआ है जो छात्रों के मानसिक और सामाजिक विकास में तो सहायक है लेकिन जीविकोपार्जन में सहायक नहीं है। वर्तमान में शिक्षा को रोजगार परक बनाने के अधिक प्रयास हो रहे हैं ताकि व्यक्ति रोजगार चयन करने के बाद उसके लिये समुचित प्रशिक्षण प्राप्त कर सके। इस अवसर पर व्यक्ति को निर्देशन के महत्त्व का ज्ञान होता है क्योंकि निर्देशन ही इस अवसर पर उसकी सहायता कर सकता है। 

7. अवसाद का बढ़ता प्रभाव 

आज कल छात्रों में अवसाद इतना बढ़ रहा है कि अनेक छात्र आत्महत्या करने का प्रयास करते हैं। अवसाद बढ़ने का मुख्य कारण प्रतियोगिता है। साथ ही माता-पिता की अपने बच्चों से उच्च आकाक्षाएँ एवं समाज में प्रतिष्ठा आदि कारक भी अवसाद में वृद्धि करते हैं। अवसादग्रस्त बालक का उपचार निर्देशन में ही निहित है।

 8. जीवन अधिक व्ययशील 

मानव की इस भौतिकवादी युग में आवश्यकताएँ इतनी बढ़ गयी हैं कि आय से अधिक खर्च में वृद्धि हो रही है जिससे परिवार के सामने आर्थिक संकट पैदा हो जाता है। सामाजिक प्रतिष्ठा की झूठी शान में व्यक्ति ऋणों तले दबने लगता है। ऐसे लोगों को निर्देश द्वारा जीवन जीने की कला में प्रशिक्षित किया जा सकता है।

9. अवकाश का उपयोग

आज के व्यस्त जीवन में अवकाश के समय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्यस्ततम समय में व्यक्ति अवकाश के क्षणों का भरपूर आनन्द उठाना चाहता है। अवकाश के समय का सदुपयोग करने का उचित परामर्श निर्देशन में ही निहित है।

10.वैयक्तिक आवश्यकताएँ

निर्देश व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सहायता करता है। व्यक्ति को उसकी क्षमताओं का ज्ञान कराकर उनके विकास में निर्देशन सहायक होता है। उसमें आत्मविश्वास पैदा कर उसको उचित जीविका का चयन करने और उसमे निरन्तर प्रगति करने का साहस पैदा करती है। व्यक्ति के पारिवारिक जीवन को सुखमय बनाने में निर्देशन का सहयोग महत्त्वपूर्ण है |

11. सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन

समाज में हो रहे परिवर्तन से समाज में प्राचीन मूल्यों के स्थान पर नये मूल्यों की स्थापना हो रही है। ऐसी परिस्थिति में युवकों का जीवन द्वन्द्वमय हो रहा है। ऐसी परिस्थिति में उचित मूल्यों को जीवन में धारण करने में नवयुवकों की सहायता करने में निर्देशन की उपादेयता स्पष्ट है।

12. भावात्मक समस्याएँ

व्यक्ति जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों के कारण विविध भावात्मक समस्याओं से ग्रसित रहते हैं। इसी प्रकार पारिवारिक वातावरण अनेक बच्चों को भावात्मक समायोजन की समस्या से विचलित करता है। ऐसी परिस्थिति में निर्देशन ही उनमें भावात्मक स्थिरता पैदा करने में सहायक होता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि व्यक्ति, परिवार, समाज और व्यावसायिक दृष्टि से निर्देशन का सभी क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण स्थान है।

निर्देशन की आवश्यकता

वर्तमान युग में वैज्ञानिक प्रगति, यांत्रिक विकास और भूमण्डलीकरण के कारण जीवन में मापदण्डों, मूल्यों और आवश्यकताओं में तेजी के साथ हो रहे परिवर्तनों के मानव जीवन को अत्यधिक जटिल बना दिया है। परिणामस्वरूप मानव जीवन के विविध पक्षों यथा वैयक्तिक, शैक्षिक, व्यावसायिक, सामाजिक आदि सभी में समस्याएं पैदा हो रही हैं, जिनके समाधान के लिये निर्देशन आवश्यक है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यहाँ भी राजनैतिक, सामाजिक और औद्योगिक क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए है जो मानव जीवन में अनेक समस्याएँ पैदा कर रहे हैं। भारत में निर्देशन की आवश्यकता के बारे में ठीक ही लिखा है- निर्देशन की आवश्यकता सभी युगों में रही है, पर आज भारत में जो दशायें पैदा हो रही है. उन्होंने निर्देशन की आवश्यकता को पर्याप्त रूप से बलवती बना दिया है। निर्देशन की आवश्यकता को निम्नलिखित दृष्टियों से अनुभव किया जाता है-

1. सामाजिक दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता 

समाज की सुरक्षा और प्रगति के लिये आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति ऐसे स्थान पर रखा जाये जहाँ से वह समाज के कल्याण तथा प्रगति में अधिकतम योगदान कर सके अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाये कि वह एक योग्य एवं क्रियाशील नागरिक बन जाये। आज का समाज अनेक नवीन परिस्थितियों से होकर गुजर रहा है-संयुक्त परिवार प्रणाली विघटित होती जा रही है, विभिन्न देशों की संस्कृति के साथ सम्पर्क बढ़ रहा है. नवीन उद्योगों की स्थापना हो रही है। इस बदलते हुये सामाजिक परिवेश में व्यक्ति के विकास को सही दिशा देने में निर्देशन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ हम सामाजिक दृष्टि से आवश्यक अन्य आधारों के सन्दर्भ में निर्देशन की आवश्यकता पर विचार करेंगे।

(अ) परिवर्तित पारिवारिक दशाएँ- प्राचीन काल में बच्चे का घर या परिवार में रहकर ही व्यावसायिक प्रशिक्षण हो जाता था। कृषक उस समय किसी एक क्रिया में दक्ष न होकर विभिन्न क्रियाओं में दक्षता प्राप्त करता था। धीरे-धीरे परिवार के वातावरण में परिवर्तन आया। प्रशिक्षण का दायित्व अब परिवार पर न रहकर विद्यालय पर आ गया। प्रशिक्षण का दायित्व विद्यालय पर आ जाने से विभिन्न प्रकार के वातावरण में पले विविध छात्रों को प्रशिक्षण देना विद्यालयों को कठिन हो गया क्योंकि विद्यालय समस्त छात्रों की पारिवारिक स्थिति, उनकी क्षमताओं. योग्यताओं आदि से अनभिज्ञ थे। अतएव छात्रों को उनकी योग्यता एवं क्षमता के अनुकूल प्रशिक्षण देने के लिये निर्देशन सहायता की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी।

(ब) उद्योग एवं श्रम की परिवर्तित दशाएँ - पहले लोग अपने परम्परागत व्यवसायों को अपना लेते थे। उदाहरणार्थ-एक लुहार का कार्य उसके बच्चे भी स्वतः ही अपना लेते थे किन्तु अब परिस्थितियाँ बदल गयी है। व्यवसायों की संख्या विविधता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। व्यवसायों में विशिष्टीकरण विशेष रूप से हो रहा है, विभिन व्यवसायों में कार्य प्रणाली विभिन्न प्रकार की होती है। इन प्रणालियों को सीखना तथा उनका प्रशिक्षण आवश्यक है। किन्तु प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक प्रणाली के अनुसार कार्य नहीं कर सकता है। अतः उपयुक्त प्रणाली का उपयुक्त व्यक्ति के लिये चयन निर्देशन द्वारा ही सम्भव है।

(स) जनसंख्या में परिवर्तन - भारत में जनसंख्या तीव्र गति से बद रही है। सन् 1931 से हमारे देश की जनसंख्या करीब 2755 लाख थी। यही जनसंख्या 1951 में बढ़कर 3569 लाख हुई तथा 1981 में यह जनसंख्या 68.51 करोड़ हो गयी। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ जनसंख्या की प्रकृति में भी परिवर्तन हो गया है। अब व्यक्ति ग्रामों से नगरों की ओर दौड़ रहे हैं। परिणामस्वरूप शहरों में आबादी बढ़ती जा रही है जिससे नगरों का जीवन अत्यन्त भीड़ - युक्त, जटिल तथा क्लिष्ट हो गया है। अतः जनसंख्या वृद्धि ने तथा उनकी परिवर्तित प्रकृति ने निर्देशन की आवश्यकता को और बढ़ा दिया है।

(द) सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन- देश में हो रहे परिवर्तनों के साथ यहाँ का सम्पूर्ण समाज भी बदल रहा है इसके साथ ही पूर्व स्थापित समााजिक मूल्यों के प्रति वर्तमान नवयुवकों की निष्ठा कम होती जा रही है और नवीन मूल्यों की स्थापना के प्रति उत्साह बढ़ रह है। प्राचीन मूल्यों में आध्यात्मिक शान्ति पर विशेष बल दिया जाता था, किन्तु आज भौतिकवाद बढ़ रह है। शारीरिक सुख व आराम प्राप्त करना ही युवकों का लक्ष्य है। भारत में जाति प्रथा के प्रति व्याप्त संकुचित धारणा में परिवर्तन आता जा रहा है और अन्तर्जातीय विवाह में लोगों की रुचि बढ़ती जा रही है। इन समस्त परिवर्तित परिस्थितियों में मनुष्य अपने को किंकर्तव्यविमूढ़-सा पाता है। एक ओर प्राचीन मूल्यों में आस्था कम हो रही है तो दूसरी ओर नवीन मूल्य निर्धारित नहीं हो पा रहे हैं। ऐसी विकट परिस्थिति में युवकों द्वारा निर्देशन सहायता की माँग करना स्वाभाविक है।

(य) धार्मिक तथा नैतिक मूल्यों में परिवर्तन - सामाजिक, आर्थिक एवं औद्योगिक परिवर्तनों का प्रभाव निश्चित रूप में हमारे नैतिक तथा धार्मिक स्तर पर पड़ा है। धार्मिक रीति-रिवाज बदलने से कट्टरपंथी कम ही दृष्टिगत होते हैं। इसके साथ ही देश में व्यभिचार बढ़ता जा रहा है। नैतिक दृष्टि से कोई भी व्यक्ति अपने उत्तरदायित्व का पालन ईमानदारी से नहीं करता है। रिश्वत का बोलबाला है। मदिरा का सेवन, जुआ खेलना, धूम्रपान उच्च जीवन-स्तर के मानदण्ड हो गये हैं। ऐसी परिस्थितियों से नवयुवकों को बचाने के लिये हम निर्देशन सहायता की उपेक्षा नहीं कर सकते है।

(र) उचित नियोजन की आवश्यकता- यदि व्यक्ति को अपनी योग्यताओं एवं क्षमताओं के अनुसार कार्य मिलता है तो इससे उसको व्यक्तिगत संतोष के साथ-साथ उत्पादन क्षमता में विकास के लिये प्रोत्साहन भी प्राप्त होता है। इस कार्य में निर्देशक अधिक सहायक सिद्ध हो सकता है।

2. राजनीतिक दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता 

राजनीतिक दृष्टिकोण से भी देश में इस समय निर्देशन की बड़ी आवश्यकता है। राजनीतिक क्षेत्र में निर्देशन की आवश्यकता अग्रांकित बिन्दुओं से स्पष्ट होती है-

(अ) स्वदेश-रक्षा- स्वदेश रक्षा की दृष्टि से इस समय देश में निर्देशन की अत्यन्त आवश्यकता है। भारत अब तक पंचशील के सिद्धान्तों का अनुयायी रहा है किन्तु चीन और उसके पश्चात् पाकिस्तान के बर्बर आक्रमणों ने भारत को अपनी सुरक्षा को दृढ़ करने को मजबूर कर दिया। सुरक्षा की मजबूती केवल सेना तथा युद्ध सामग्री को जुटा लेने से नहीं होती। जरूरत है योग्य सैनिकों तथा अफसरों का चयन करना ऐसे सैनिकों का चयन करना, जिनका मनोबल ऊँचा हो और जो आवश्यकता पड़ने पर अपना बलिदान भी दें। इसके लिये उपयुक्त चयन विधि का विकास करना जरूरी है, उचित व्यक्तियों की तलाश करना जरूरी है। इन सबको केवल निर्देशन ही कर सकता है।

(आ) प्रजातन्त्र की रक्षा - भारत इस समय विश्व के प्रजातन्त्र देशों में सबसे बड़ा देश है। यदि भारत में प्रजातन्त्र खतरे में पड़ जाता है तो यह समझना चाहिये कि सम्पूर्ण विश्व का प्रजातन्त्र खतरे में पड़ गया है। अतः हमें अपने प्रजातन्त्र की रक्षा करनी है। इसके लिये हमें अपने अधिकारों व कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। हमें अपनी बुद्धि तथा विवेक से उचित प्रतिनिधियों का चयन करने की आवश्यकता है. अपने कर्तव्य व अधिकारों के ज्ञान, उचित प्रतिनिधियों का चयन, देश के प्रति हमारे दायित्व आदि की दृष्टि से भी निर्देशन की आवश्यकता बढ़ जाती है।

(इ) धर्म-निरपेक्षता- भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है। यहाँ सभी धर्मों को समान रूप से मान्यता प्राप्त है। ऐसे धर्म निरपेक्ष राष्ट्र में अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति आचरण निश्चित करने में निर्देशन सहायक होता है। 

3. शैक्षिक दृष्टि से निर्देशन की आवश्यकता

 "शिक्षा सबके लिये और सब शिक्षा के लिये है।" इस विचार के अनुसार प्रत्येक बालक को शिक्षा प्रदान की जानी चाहिये। शिक्षा किसी विशिष्ट समूह के लिये नहीं है। भारत सरकार ने भी संविधान में यह प्रावधान रखा है कि शिक्षा के सभी के लिये अनिवार्य हो। किन्तु अनिवार्य शिक्षा से तात्पर्य है कि प्रत्येक बालक को उसकी योग्यता एवं बुद्धि के आधार पर शिक्षित किया जाये। यह कार्य निर्देशन द्वारा ही सम्भव है। शैक्षिक दृष्टि से निर्देशन की आवश्यकता निम्न आधारों पर अनुभव की जाती है।

 (अ) पाठ्यक्रम का चयन - आर्थिक एवं औद्योगिक विविधता के परिणामस्वरूप पाठ्यक्रम में विविधता का होना आवश्यक था। इसी आधार पर मुदालियर आयोग ने अपने प्रतिवेदन में विविध पाठ्यक्रम को अपनाने की संस्तुति की। इस संस्तुति को स्वीकार करते हुये विद्यालयों में कृषि विज्ञान, तकनीकी, वाणिज्य, मानवीय गृहविज्ञान, ललित कलाओं आदि के पाठ्यक्रम प्रारम्भ किये। इसने छात्रों के समक्ष उपयुक्त पाठ्यक्रम के चयन की समस्या खड़ी कर दी। इस कार्य में निर्देशन अधिक सहायक हो सकता है।

(आ) अपव्यय व अवरोधन- भारतीय शिक्षा जगत् की एक बहुत बड़ी समस्या अपव्यय से सम्बन्धित है। यहाँ अनेक छात्र शिक्षा स्तर को पूर्ण किये बिना ही विद्यालय छोड़ देते हैं। इस प्रकार उस बालक की शिक्षा पर हुआ व्यय व्यर्थ हो जाता है। श्री के. जी. सैयदैन ने अपव्यय की समस्या को स्पष्ट करने के लिये कुछ आँकड़े प्रस्तुत किये हैं। सन् 1952-53 में कक्षा 1 में शिक्षा प्राप्त करने वाले 100 छात्रों में से सन् 1955-56 तक कक्षा 4 में केवल 43 छात्र ही पहुँच पाये। इस प्रकार 57 प्रतिशत छात्रों पर धन अपव्यय हुआ। इसी प्रकार की समस्या अवरोधन की है। एक कक्षा में अनेक छात्र कई वर्ष तक अनुत्तीर्ण होते रहते है। बोर्ड तथा विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में तो अनुत्तीर्ण छात्रों की समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। गलत पाठ्यक्रम के चयन, गन्दे छात्रों की संगति या पारिवारिक कारण अपव्यय या अवरोधन की समस्या को उत्पन्न करते हैं। निर्देशन सेवा इन कारणों का निदान करके इस समस्या के समाधान में अधिक योगदान कर सकती है।

(इ) विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि - स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सरकार द्वारा शिक्षा प्रसार के लिये उठाये गये कदमों के परिणामस्वरूप विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हुई। कोठारी आयोग ने तो सन् 1985 तक कितनी वृद्धि होगी उसका अनुमान लगाकर विवरण दिया है। छात्रों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ कक्षा में पंजीकृत छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नता सम्बन्धी विविधता में भी वृद्धि होगी। यह विविधता शिक्षकों एवं प्रधानाचार्य के लिये एक चुनौती रूप में होगी, क्योंकि उधर राष्ट्र की प्रगति के लिये आवश्यक है कि छात्रों को उनकी योग्यता, बुद्धि क्षमता आदि के आधार पर शिक्षित एवं व्यवसाय के लिये प्रशिक्षित करके एक कुशल एवं उपयोगी उत्पादक नागरिक बनाया जाये। यह कार्य निर्देशन सेवा द्वारा ही सम्भव हो सकता है।

(ई) अनुशासनहीनता - छात्रों में बढ़ते हुये असन्तोष तथा अनुशासनहीनता राष्ट्रव्यापी समस्या हो गयी है। आये दिन हड़ताल करना, सार्वजनिक सम्पत्ति की तोड़-फोड़ करना एक सामान्य बात है। इस अनुशासनहीनता का प्रमुख कारण यह है कि वर्तमान शिक्षा छात्रों की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में असफल रही है। इसके साथ ही उनकी समस्याओं के समाधान के लिये विद्यालयों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जहाँ वे उचित परामर्श प्राप्त करके लाभान्वित हो सकें। निर्देशन सहायता बढ़ती हुयी अनुशासनहीनता को कम कर सकती है।

(उ) सामान्य शिक्षा के क्षेत्र में वृद्धि - हम ऊपर देख चुके है कि समस्त आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक वातावरण बदल गया है। इस परिवर्तित वातावरण के साथ शिक्षा क्षेत्र में भी परिवर्तन आ गये है। समाज की आवश्यकताएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु नये नये व्यवसाय अस्तित्व में आ रहे हैं, अतएव नये-नये पाठ्य विषयों की संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। पाठ्य विषयों का अध्ययन छात्र के लिए कुछ विशेष व्यवसायों में प्रवेश पाने में सहायक होता है। इनमें सफलता हेतु भिन्न-भिन्न बौद्धिक स्तर, मानसिक योग्यता, रुचि तथा क्षमता आदि की आवश्यकता पड़ती है। अतः यह आवश्यक है कि माध्यमिक शिक्षा के द्वार पर पहुँचे हुये छात्र को उचित निर्देशन प्रदान किया जाये जिससे वह ऐसे विषय का चयन कर सके जो उसकी योग्यता के अनुकूल हो।

4. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से निर्देशन की आवश्यकताएँ 

प्रत्येक मानव का व्यवहार मूल प्रवृत्ति एवं मनोभावों द्वारा प्रभावित है। उसकी मनोशारीरिक आवश्यकताएँ होती है। इन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि एवं मनोभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व को निश्चित करते हैं। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि व्यक्तित्व पर आनुवंशिकता के साथ-साथ परिवेश का भी प्रभाव पड़ता है। निर्देशन सहायता द्वारा यह निश्चित होता है। कि किसी बालक के व्यक्तित्व के विकास के लिये कैसा परिवेश चाहिये।

(अ) वैयक्तिक भिन्नताओं का महत्व 

यह तथ्य सत्य है कि व्यक्ति एक-दूसरे से मानसिक, संवेगात्मक तथा गतिवाही आदि दशाओं में भिन्न होते हैं। इसी कारण व्यक्तियों के विकास तथा सीखने में भी भिन्नता होती है। प्रत्येक व्यक्ति के विकास का क्रम विभिन्न होता है तथा उनके सीखने की योग्यता तथा अवसर विभिन्न होते हैं। यह वैयक्तिक विभिन्नता वंशानुक्रम तथा वातावरण के प्रभाव से पनपती है। एक बालक कुछ लक्षणों को लेकर उत्पन्न होता है तो उसकी व्यक्तिगत योग्यता को निर्धारित करते हैं। यह गुण वंशानुक्रम से प्राप्त होते हैं इसीलिये बालकों में भिन्नता होती है। इसी प्रकार प्रत्येक बालक के पालन पोषण से सम्बन्धित वातावरण दूसरों से भिन्न होता है। अतएव जो गुण वह अर्जित करता है वह भी दूसरों से भिन्न होते हैं। यह वैयक्तिक भेद बुद्धि, शारीरिक विकास, ज्ञानोपार्जन, व्यक्तित्व सुझाव, संवेगात्मक गतिवाही योग्यता आदि सभी आधारों पर विद्यमान रहते हैं।

वैयक्तिक विभिन्नता एक ऐसा तथ्य है जिसकी अवहेलना हम नहीं कर सकते हैं। शिक्षा बालकों के वैभिन्न्य के आधार पर ही दी जानी चाहिये। इस कार्य में निर्देशन सेवा अधिक सहायक होती है। यह सेवा छात्रों की इन विभिन्नताओं का पता लगाकर उनकी योग्यताओं, रुचियों एवं क्षमताओं के अनुरूप शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसरों का परामर्श देती है।

(आ) सन्तोषप्रद समायोजन 

सन्तोषप्रद समायोजन व्यक्ति की कार्य कुशलता, मानसिक दशा एवं सामाजिक प्रवीणता को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख कारक है। सामाजिक, शैक्षिक या व्यावसायिक कुसमायोजन राष्ट्र के लिये घातक होता है। व्यक्ति सन्तोषजनक समायोजन उसी दशा में प्राप्त कर पाता है जबकि उसको अपनी रुचि एवं योग्यता के अनुरूप व्यवसाय. विद्यालय या सामाजिक समूह प्राप्त हो। निर्देशन सेवा इस कार्य में छात्रों की विभिन्न विशेषताओं का मूल्यांकन करके उनके अनुरूप ही नियोजन दिलवाने में अधिक सहायक हो सकती है।

(इ) भावात्मक समस्याएँ

भावात्मक समस्याएँ व्यक्ति के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों के कारण जन्म लेती हैं ये भावात्मक समस्याएँ व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करके उसकी मानसिक शान्ति में विघ्न पैदा करती है। निर्देशन सहायता द्वारा भावात्मक नियन्त्रण में सहायता मिलती है। इसके साथ ही निर्देशक उन कठिनाइयों का पता लगा सकता है जो भावात्मक अस्थिरता को जन्म देती है।

(ई) अवकाश-काल का सदुपयोग

विभिन्न वैज्ञानिक यन्त्रों के फलस्वरूप मनुष्य के पास अवकाश का अधिक समय बचा रहता है। वह अपने कार्यों को यन्त्रों के माध्यम से सम्पन्न कर समय बचा लेता है। इस बचे हुये समय को किस प्रकार उपयोग में लाया जाये, यह समस्या आज भी हमारे सम्मुख खड़ी हुयी है। समय बरबाद करना मनुष्य तथा समाज दोनों के अहित में है और समय का सदुपयोग करना समाज तथा व्यक्ति दोनों के लिये हितकर है। अवकाश के समय को विभिन्न उपयोगी कार्यों में व्यय किया जा सकता है। उदाहरणार्थ-अवकाश के समय में समाज सेवा का कार्य, सुनागरिकता सम्बन्धी विभिन्न कार्य तथा अन्य उपयोगी क्रियाएँ की जाती है। मनुष्य अवकाश काल में सिर्फ विश्राम करना जानता है, पर विश्राम के अतिरिक्त अन्य प्रकार के मनोरंजन का उसे ज्ञान नहीं है। यह ज्ञात कराना निर्देशन का काम है।

(उ) व्यक्तित्व का विकास 

व्यक्तित्व शब्द की परिभाषा व्यापक है। इसके अन्तर्गत मनोशारीरिक विशेषताएँ एवं अर्जित गुण आदि सभी सम्मिलित किये जाते हैं। प्रत्येक बालक के व्यक्तित्व का समुचित विकास करना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। किन्तु इस उद्देश्य की प्राप्ति में निर्देशन सेवा शिक्षा की सहायक रहती है। निर्देशन व्यक्ति को आनुवंशिकता से प्राप्त गुणों को प्रकाश में लाकर उनके विकास के लिये उचित परिवेश का निर्माण कर अपनी महत्त्वपूर्ण सेवा प्रदान करता है।

निर्देशन के कार्य

बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में निर्देशन को एक महत्त्वपूर्ण आन्दोलन का रूप दिया गया। प्रारम्भ में व्यावसायिक निर्देशन को ही आन्दोलन में प्राथमिकता दी गयी। धीरे-धीरे निर्देशन का क्षेत्र विस्तृत होता गया और इसमें शैक्षिक, व्यक्तिगत, पारिवारिक, सेक्स, विशिष्ट बालकों के निर्देशन को सम्मिलित कर इसका क्षेत्र व्यापक हो गया। क्षेत्र में विस्तार के साथ ही इसके कार्यों में भी अभिवृद्धि होती गयी। यहाँ निर्देशन के मुख्य कार्यों का विवरण प्रस्तुत हैं-

1. निर्देशन प्रक्रिया का मुख्य आधार वैयक्तिक भिन्नता है। अतः इसका महत्त्वपूर्ण कार्य वैयक्तिक भिन्नता को ज्ञात कर व्यक्तियों को इससे अवगत कराना है। 

2. वैयक्तिक भिन्नता को ज्ञात करने के लिये विभिन्न परीक्षणों का प्रयोग करके परीक्षा परिणाम का विश्लेषण करना।

3. व्यक्ति से सम्बन्धित सूचनाएँ प्राप्त करने के लिये अप्राकृत और प्रमाणीकृत परीक्षणों का प्रयोग करना। परीक्षण के लिये उचित परीक्षणों का चयन करने में सतर्क रहना।

4. शिक्षा सम्बन्धी सूचनाएँ एकत्रित करना तथा छात्रों और अभिभावकों को सूचनाओं से अवगत कराना। 

5. पाठ्यक्रम के बारे में पूर्ण जानकारी रखना ताकि उसके बारे में छात्रों को अवगत कराया जा सके। पाठ्यक्रम और उससे जुड़े हुये व्यावसायिक अवसरों की छात्रों को जानकारी देना।

6. विद्यालय के वातावरण और विद्यालय में होने वाली क्रियाओं से छात्रों को परिचित कराना। 

7. विद्यालय में आयोजित शिक्षण-अभिभावक मीटिंग में निर्देशन सेवा प्रदान करना।

8. व्यवसाय के चयन में आवश्यक शैक्षिक योग्यता, पूर्व प्रशिक्षण तथा चयन की विधि का छात्रों को ज्ञान कराना। 9. व्यवसाय में पदस्थापन के बाद अनुगामी अध्ययन करके समायोजन सम्बन्धी समस्या के समाधान और आगे प्रगति में सहायता प्रदान करना।

10. पारिवारिक कलह, विद्यालय तथा व्यवसाय में कुसमायोजन के कारण पैदा अवसाद की स्थिति में निर्देशन सहायता द्वारा व्यक्ति को अवसाद से मुक्त करना। 

11. विशिष्ट बालक सामान्य कक्षा शिक्षण में जिस समस्या से ग्रसित रहते हैं उसके समाधान में सहायता देना।

12. विभिन्न समस्याओं से जूझते ऐसे व्यक्तियों का अनुगामी अध्ययन करना जिनको निर्देशन सहायता उपलब्ध करवायी गयी है।

13. पाठ्यक्रम निर्माण में सहायता प्रदान करना।

14. शिक्षकों तथा अभिभावकों को निर्देशन तथा उसकी क्रियाविधि का ज्ञान कराना। 

15 परामर्श प्रदान करने की सुगम व्यवस्था करना।

16. निर्देशन के क्षेत्र में शोध कार्य को प्रोत्साहन देना।

निर्देशन के कार्यों का वर्णन जेरान तथा रिक्सियो: ने अपनी पुस्तक 'organization and admin- istration of guidance' में किया है। उनके अनुसार निर्देशन के निम्नलिखित आठ कार्य है- 

1. व्यक्ति को अपनी योग्यताओं, रुचियों, अभिरुचियों तथा अभिवृत्तियों की जानकारी प्राप्त करने में सहायता करना।

2. व्यक्ति की सहायता इस उद्देश्य से करना कि वह अपनी मानसिक प्रवृत्तियों को समझे, स्वीकार करे और उन्हें काम में लाये।

 3. अपनी मानसिक क्षमताओं के सन्दर्भ में व्यक्ति अपनी आकांक्षाओं को जान सके इस कार्य में उसकी सहायता करना।

4. व्यक्ति को ऐसे अवसर उपलब्ध कराना जिससे कि वह अपने कार्यक्षेत्र एवं शैक्षिक प्रयासो के विषय में और अधिक सीख सकें।

5. वांछित मूल्यों के विकास में व्यक्ति की सहायता करना।

 6. व्यक्ति को ऐसे अनुभव प्राप्त करने में सहायता करना जो कि उसकी निर्णय शक्ति में वृद्धि करते हैं।

7. क्षमता के अनुरूप अच्छा आदमी बनने में उसकी सहायता करना।

8. व्यक्ति को अधिक-से-अधिक आत्म-निर्देशित बनने में सहायता करना।

अतः इस प्रकार अनेक ऐसे कार्य है जो निर्देशन द्वारा सम्पन्न होते हैं।

निर्देशन के उद्देश्य 

निर्देशन का सामान्य उद्देश्य है व्यक्ति द्वारा अपने आपको सही तौर पर जानना और समझना। अधिकतर लोग अपनी योग्यता और क्षमता के विषय में उचित जानकारी नहीं रखते। इसलिये उन्हें जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। निर्देशन के बिना मनुष्य प्रगति नहीं कर सकता। वह न अपने जीवन को सुखमय बना सकता है और न ही उत्तम व्यवसाय का चयन अपनी क्षमता के अनुरूप कर सकता है। निर्देशन चतुर्मुखी विकास की प्रक्रिया है। अमेरिका के शिक्षा विभाग द्वारा निर्देशन का उद्देश्य इस प्रकार बताया गया है—किसी व्यक्ति की प्राकृतिक शक्तियों की खोज करने के लिये विशिष्ट प्रशिक्षण की विभिन्न विधियों से अवगत कराना जिससे व्यक्ति अपने जीवन को अपने तथा समाज के लिये अधिक उपयोगी बना सके। इस दृष्टि से अलग-अलग व्यक्तियों के लिये निर्देशन के उद्देश्य भिन्न है।

1. कौंसिली या उपबोध्य की दृष्टि से

(1) व्यक्ति के प्रयत्नों में सहायता 

व्यक्ति की अपनी क्षमता की सीमा तक उसका विकास तथा व्यक्तिगत जीवन के सभी पहलुओं में सन्तोषजनक व्यवस्थापन तथा समाज को क्षमता के अनुरूप योगदान कर सकना। ऐसा करने में व्यक्ति के प्रयत्नों में सहायता देना।

(2) चयन तथा अनुमूलन

व्यक्ति के सामने उपस्थित समस्याओं के समाधान में सहायक जिससे वह तथ्यों को सही ढंग से समझ सके एवं विवेकपूर्ण चुनाव तथा अनुकूलन कर सके।

(3) सन्तुलित विकास 

व्यक्ति के द्वारा जीवन में अच्छे ढंग से एवं परिपक्व समायोजन की स्थायी प्रवृत्ति के विकास में सहायक होना। व्यक्ति को सन्तुलित शारीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं सामाजिक प्रगति में सहायता देना।

उपबोध्य की दृष्टि से निर्देशन प्रक्रिया उपबोध्य की परिस्थितियों से समायोजन की क्षमता एवं समस्याओं को स्वयं सुलझाने में सहायता करती है। निर्देशन का उद्देश्य उपबोध्य में स्वयं हल खोजने एवं स्वयं व्यवस्था कर सकने की क्षमता पर विकास करना है। परिस्थिति एवं उपबोध्य के व्यक्तित्व की अन्त क्रिया से समायोजन की प्रक्रिया का जन्म होता है। निर्देशन में समायोजन की इस प्रक्रिया का अति महत्त्व है।

2. संस्था की दृष्टि से 

विभिन्न विद्यालयों एवं शिक्षा संस्थाओं में चलने वाला निर्देशन कार्य केवल व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं होता, वह ऐसी सेवाएँ भी प्रदान करता है जिनका उपयोग शिक्षक, विद्यालय प्रशासन तथा शोध के क्षेत्र में होता है। फ्रोलिच  के अनुसार: निर्देशन का उद्देश्य शिक्षा क्षेत्र के कर्मचारियों को निम्न सेवाएँ प्रदान करना है -

(1) निर्देशन कार्यक्रम शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों को समझने में सहायक होता है। 

(2) यह कार्यरत अध्यापकों को व्यवस्थित प्रशिक्षण की सेवाएँ प्रदान करता है। 

(3) अध्यापकों द्वारा सुझाये गये निर्देशन की आवश्यकताओं वाले बालकों को निर्देशन सेवा प्रदान करना।

3. प्रशासक की दृष्टि से

 विद्यालय के प्रशासनिक कार्यों में निर्देशन सेवाओं के द्वारा प्रमुखतः दो उद्देश्यों को पूरा किया जाता  है-

(1) व्यक्तित्व परामर्श

निर्देशन विभाग के पास विद्यार्थियों का व्यक्तिगत लेखा-जोखा तथा उनकी आवश्यकताओं की जानकारी पर्याप्त मात्रा में होती है, अतः निर्देशन विभाग व्यक्तिगत परामर्श द्वारा उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने की व्यवस्था कर सकता है। उनकी कुछ आवश्यकताएँ कक्षा में या सामूहिक शिक्षा पूरी कराने की व्यवस्था कर सकता है।

(2) समाज तथा विद्यालय के मध्य सेतु

निर्देशन विभाग विद्यालय और समाज के बीच सेतु का कार्य करता है। निर्देशन कार्यकर्ता समाज में जाकर छात्रों के परिवारों से सम्पर्क स्थापित करते हैं तथा उद्योगपतियों से रोजगारों से सम्बन्धित आँकड़े इकट्ठे करते हैं। वह समाज में लोगों को विद्यालय के कार्यक्रमों के बारे में बता सकते है।

 निर्देशन सेवाओं एवं शैक्षिक सेवाओं में निरन्तर प्रगति की आवश्यकता होती है. इसलिये निर्देशन सेवाओं का उद्देश्य यह भी है कि निर्देशन एवं शिक्षण सम्बन्धी शोधकार्य करती रहे। विद्यालय के पाठ्यक्रम एवं निर्देशन कार्यक्रम के बारे में लोगों की राय जानना, समाज में रोजगार के अवसरों की जानकारी प्राप्त करना एवं विद्यालय छोड़ने वाले छात्रों के बाद के जीवन का ब्यौरा इकट्ठा करने में शोध कार्य की आवश्यकता पड़ती है।

निर्देशन की आधारभूत मान्यताएँ

निर्देशन के सिद्धान्तों पर विचार करने से पूर्व उसके प्रमुख स्वीकृत आधारों पर विचार कर लेना वांछनीय होगा। ए. जे. जोन्स (A. J. Jones) के अनुसार निर्देशन की पाँच आधारभूत मान्यताएँ है- 

(1) वैयक्तिक भिन्नता - व्यक्तियों की जन्मजात क्षमताओं, योग्यताओं तथा रुचियों की भिन्नताएँ है।

(2) सामान्यता- जन्मजात योग्यताएँ सामान्यतः विशिष्टीकृत नहीं होती है।

(3) सहायता की आवश्यकता— युवकों की अनेक मुश्किलों का सफलतापूर्वक हल बिना सहायता के सम्भव नहीं होता।

(4) विद्यालय महत्त्वपूर्ण - निर्देशन सहायता प्रदान करने में विद्यालय का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

(5) क्षमता का विकास- निर्देशन का उद्देश्य व्यक्ति में स्वयं निर्देशन की क्षमता का विकास करना है, न कि उन्हें निश्चित आदेश देना।

अतः ये पाँच आधारभूत मान्यताएँ निर्देशन के सिद्धान्तों के निर्माण में कार्य करती है।



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