1. प्रश्नावली प्रविधि
व्यक्ति के अध्ययन के निमित्त जिन अमानकीकृत प्रविधियों का उल्लेख किया गया है उनमें से प्रश्नावली प्रविधि का व्यवहार अत्यधिक किया जाता है। वह प्रश्नावली अधिक उपयोगी होती है जिसमें निम्नलिखित बातों का ध्यान रखा जाता है-
1. प्रश्नावली की प्रविधि का उपयोग उस समय किया जाये जब वह सबसे अधिक उपयुक्त हो।
2. प्रश्नावली के सामान्य प्रयोजनों तथा विशिष्ट उद्देश्यों को भली-भाँति स्पष्ट किया जाये।
3. प्रश्नावली के लिये उपयुक्त प्रश्न बनाये जायें।
4. प्रश्नों को उपयुक्त समूह में बाँटा जाये।
5. प्रश्नावली के आकार और रचना को ऐसा बनाया जाये कि वह आकर्षक हो।
6. प्रश्नावली की पर्याप्तता की जाँच कर ली जाये।
अच्छी प्रश्नावली की विशेषतायें
व्यक्ति के अध्ययन में वही प्रश्नावली अच्छी समझी जाती है जिसमें कि निम्न विशेषतायें हो-
1. प्रश्नावली में प्रश्नों की संख्या यथासम्भव कम हो।
2. प्रश्नों के उत्तर 'हाँ' या 'नहीं' में दिये जा सकें।
3. प्रश्न ऐसे हों जिन्हें तत्काल समझा जा सके। दूसरे शब्दों में प्रश्न सरल एवं स्पष्ट हो।
4. प्रश्नावली में ऐसे प्रश्न हों जिनका उत्तर बिना हिचक दिया जा सके।
5. ऐसे प्रश्न न हों जो व्यर्थ की जानकारी प्राप्त करना चाहते हों।
6. प्रश्नावली में ऐसे भी प्रश्न हों जिनके उत्तर एक-दूसरे से सम्बन्धित हों और इस प्रकार उनकी यथार्थता स्पष्ट हो सके।
7. प्रश्नावली में उन्हीं प्रश्नों को रखना चाहिये जो अध्ययन के प्रयोजन के अनुरूप हो।
अतः यह स्पष्ट है कि वही प्रश्नावली अच्छी मानी जाती है जिसके प्रश्न पूर्णतः स्पष्ट हो। यदि प्रश्नावली में अस्पष्ट एवं प्रयोजनहीन प्रश्न होंगे तो उसके अध्ययन में कठिनाई होगी।
प्रश्नावली के प्रकार
प्रश्नावलियाँ दो प्रकार की होती है-
1. बन्द प्रकार (Closed type),
2. मुक्त प्रकार (Open type).
1. बन्द प्रकार (Closed type)- इस प्रकार की प्रश्नावली में प्रश्नों के उत्तर केवल 'हाँ' या 'नहीं' में दिये जाते हैं। अपनी ओर से बन्द प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देते समय कुछ लिखना नहीं होता। बन्द प्रकार की प्रश्नावली में निम्नलिखित गुण होते हैं-
(क) इनका उत्तर देना सरल होता है।
(ख) कम समय लगता है।
(ग) सभी प्रश्नों के उत्तर निश्चित होते हैं, अतः एक प्रकार की वस्तुनिष्ठता पायी जाती है।
(घ) प्रश्नावली के उत्तरों की व्याख्या सरलता से की जा सकती है और इनसे सम्बन्धित तालिका भी बनाना सरल होता है।
2. मुक्त प्रकार (Open type)- मुक्त प्रकार की प्रश्नावली में उत्तर देने वाले के लिये कोई बन्धन नहीं होता और वह स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी राय दे सकता है। फलतः प्रश्नावली में उत्तर देने के लिये पर्याप्त स्थान छोड़ना पड़ता है। अनुभव से यह ज्ञात हुआ है कि मुक्त प्रकार की प्रश्नावली का उत्तर देते समय लोगों को कठिनाई का अनुभव होता है। इसके अतिरिक्त समय भी अधिक लगता है। मुक्त प्रकार की प्रश्नावली में उत्तर की व्याख्या एवं तालिका आदि तैयार करने में कठिनाई होती है।
आलोचना (Criticism):
प्रश्नावली प्रविधि की आलोचना कई बातों को लेकर की जाती है। प्रश्नावली प्रविधि का उपयोग प्रायः वे लोग करते हैं जो कुशल नहीं होते। दूसरे शब्दों में प्रश्नावली प्रविधि का दुरुपयोग अधिक होता है। इसलिये वैज्ञानिक विधि पर बल देने वाले मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्री प्रश्नावली द्वारा एकत्र जानकारी का विरोध करते हैं।
प्रश्नावली प्रविधि की आलोचना इस आधार पर भी की जाती है कि प्रायः इस प्रयोजन एवं उद्देश्य का निर्धारण स्पष्ट रूप से नहीं किया जाता है और यही कारण है कि इनके प्रश्नों में स्पष्टता नहीं होती। तात्पर्य यह है कि प्रश्नावली निर्माण में जितनी सावधानी बरतनी चाहिये उतनी बरती नहीं जाती और इस कारण प्रश्नावली प्रविधि में त्रुटि रह जाती है।
2. उपाख्यानक अभिलेख
आर्थर जे. जोन्स (A.J. Jones) के शब्दों में- किसी घटना का मौके पर ही वर्णन जिसे महत्वपूर्ण समझकर निरीक्षण तथा रिकॉर्ड किया जाये। जब इन रिपोर्टों को एकत्र कर लिया जाता है तो इन्हें उपाख्यात्मक अभिलेख कहा जाता है।
उपाख्यानक अभिलेख का प्रयोग विद्यालयों में अधिकता से किया जाता है। छोटे बच्चों के कार्य एवं व्यवहार अथवा विशेषता का उल्लेख उपाख्यानक अभिलेख में किया जाता है। लुइस के "उपाख्यानक अभिलेख किसी छात्र के जीवन की महत्वपूर्ण घटना की रिपोर्ट है।
विलार्ड ने उपाख्यानक अभिलेख की परिभाषा में लिखा है कि उपाख्यानक अभिलेख एक ऐसी अनुसार,सामान्य व्याख्या है जिसमें कि निरीक्षक की दृष्टि से किसी छात्र से सम्बन्धित महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख होता है।"
इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि उपाख्यानक अभिलेख में महत्वपूर्ण घटनाओं का विवरण होता है। और फिर उनके आधार पर किसी छात्र को उचित निर्देशन दिया जाता है।
उपाख्यानक अभिलेख के प्रकार
उपाख्यानक अभिलेख प्रायः चार प्रकार के होते हैं-
1. प्रथम प्रकार का वह अभिलेख होता है जिसमें किसी छात्र के कार्य एवं व्यवहार का केवल यथार्थ तथा वस्तुनिष्ठ विवरण रहता है। इन विवरणों पर किसी प्रकार की टीका-टिप्पणी नहीं की जाती।
2. दूसरे प्रकार के अभिलेख में विवरण एवं टीका-टिप्पणी साथ-साथ होते हैं।
3. तीसरे प्रकार के उपाख्यानक अभिलेख में विवरण, टीका-टिप्पणी के साथ-साथ समस्या का समाधान भी लिखा जाता है।
4. चौथे प्रकार के उपाख्यानक अभिलेख में विवरण, टीका-टिप्पणी के साथ-साथ भविष्य में उपचार सम्बन्धी सुझाव भी दिये रहते हैं।
उपाख्यानक अभिलेख के चरण
उपाख्यानक अभिलेख के तीन मुख्य चरण हैं-
1. प्रथम चरण में सहयोग प्राप्त करना आवश्यक है। जिस व्यक्ति अथवा छात्र के सम्बन्ध में उपाख्यानक अभिलेख तैयार किया जाये, उसका सहयोग प्राप्त करने की कोशिश होनी चाहिये। बिना सहयोग के छात्र की रुचि एवं अन्य विशेषताओं का समर्थन रूप से विवरण नहीं हो सकता।
2. उपाख्यान अभिलेख का दूसरा चरण इस बात पर बल देता है कि निरीक्षक अथवा अध्यापक उतना ही विवरण लिखे जितना कि आवश्यक है। यह देखा गया है कि कुछ अध्यापक आवश्यकता से अधिक विवरण लिखते हैं। अतः दूसरे चरण में यह ध्यान रखना चाहिये कि निश्चित, आवश्यक एवं महत्वपूर्ण बातों का ही उल्लेख अभिलेख में किया जाये।
3. उपाख्यानक अभिलेख के तीसरे चरण में इससे सम्बन्धित फॉर्म की तैयारी है। इस फॉर्म में प्रायः चार स्तम्भ होते हैं। सर्वप्रथम स्तम्भ में तारीख लिखी जाती है, दूसरे में स्थान, तीसरे में घटना और चौथे में टीका-टिप्पणी होती है। फॉर्म के ऊपर छात्र का नाम एवं कक्षा का उल्लेख होता है। फॉर्म के अन्त में अध्यापक एवं निरीक्षक अपने हस्ताक्षर करता है। इस प्रकार उपाख्यानक अभिलेख इन तीन चरणों के आधार पर विधिवत् तैयार हो जाता है।
4. चौथे चरण में अध्यापक, शिक्षण कार्य के समय घटने वाली घटनाओं को चिन्हों द्वारा अंकित करता है। शिक्षण कार्य पूरा हो जाने पर वह चिन्हों की सहायता से घटना को रिकॉर्ड कर लेता है।
5. पाँचवें चरण में प्रमुख फाइल (Central file) तैयार की जाती है। प्रयास यह किया जाता है कि एक ही स्थान पर छात्र के आलेख उपलब्ध हो जायें।
6. छठा चरण संक्षिप्तीकरण (Summarization) का है। छात्र के अभिलेखों को संक्षेप रूप में लिखा जाता है।
उपाख्यानक अभिलेख से लाभ
उपाख्यानक अभिलेख का शैक्षिक महत्व उससे होने वाले लाभों से स्पष्ट है जो निम्न प्रकार हैं-
1. अध्यापक उपाख्यानक अभिलेख के आधार पर किसी छात्र के व्यक्तित्व का अनुमान सही तौर पर कर सकता है और यह देख सकता है कि उसमें किस प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं।
2. उपाख्यानक अभिलेख अध्यापक की रुचि छात्र में उत्पन्न करता है और इस प्रकार शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध दृढ़ होता है।
3. उपाख्यानक अभिलेख की सहायता से शिक्षक छात्रों की रुचियों एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर पाठ्यचर्या में उचित संशोधन एवं परिवर्तन कर सकता है।
4. उपाख्यानक अभिलेख छात्रों की समस्याओं पर भी प्रकाश डालते हैं। अतः छात्रों को उचित निर्देशन एवं परामर्श देने में सुविधा होती है।
5. जब कोई नया अध्यापक विद्यालय में आता है तब वह उपाख्यानक अभिलेखों का अध्ययन करके अपने विद्यार्थियों के सम्बन्ध में पूरी जानकारी थोड़े समय में ही प्राप्त कर लेता है।
अन्त में उपाख्यानक अभिलेख के सम्बन्ध में उन बातों का उल्लेख अपेक्षित है जो इसकी उपयोगिता को कम करते हैं। प्रायः यह देखा गया है कि उपाख्यानक अभिलेख में वस्तुनिष्ठ एवं निष्पक्ष विवरणों की कमी होती है। अधिकतर अध्यापक अपनी इच्छानुसार एवं अपनी भावनाओं का समावेश करके प्रस्तुत करते हैं। अतः यह आवश्यक है कि उपाख्यानक अभिलेख में यथार्थ बातों का सही-सही उल्लेख हो और अध्यापक अथवा अन्य व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि वह अपनी भावनाओं को नियन्त्रित रखे।
उपाख्यानक अभिलेख की उपयोगिता उस समय कम हो जाती है जबकि छात्रों से इसे गुप्त नहीं रखा जाता। यदि किसी छात्र को अपने उपाख्यानक अभिलेख का ज्ञान हो जाता है तो इसकी उपयोगिता नष्ट हो जाती है।
3. साक्षात्कार प्रविधि
साक्षात्कार का अर्थ है-दो व्यक्तियों का किसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु आपसी वार्तालाप । सूचना देने वाला तथा सूचना लेने वाला, दोनों ही किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये वार्तालाप करते हैं। पोलिन यंग के शब्दों में- साक्षात्कार वह क्रमबद्ध विधि है जिसके द्वारा एक व्यक्ति अपेक्षाकृत अजनबी व्यक्ति के जीवन में प्रवेश करता है।"
व्यक्ति के विषय में जानकारी एवं सूचनायें प्राप्त करने की दूसरी अमानकीकृत प्रविधि साक्षात्कार है। राइटस्टोन, जस्टमैन, रॉबिन्स ने साक्षात्कार प्रविधि में निम्नलिखित गुण बताये हैं-
1. इसमें लचीलापन होता है।
2. किसी भी स्पष्टीकरण कराने की सुविधा होती है।
3. साक्षात्कार करने वाला उत्तरदाता के उत्तरों से सम्बन्धित अन्य प्रश्न भी कर सकता है।
4. उत्तरदाता के उत्तरों के आधार पर साक्षात्कारकर्ता नवीन प्रश्न पूछकर और भी अधिक जानकारी प्राप्त कर लेता है।
5. साक्षात्कार प्रविधि से व्यक्ति के जीवन से सम्बन्धित अनेक बातों का ज्ञान सरलता से हो जाता है।
6. व्यक्ति के जीवन के महत्वपूर्ण पक्ष साक्षात्कार के समय दिखायी पड़ते हैं।
अतः यह स्पष्ट है कि साक्षात्कार प्रविधि प्रश्नावली प्रविधि से अधिक उपयोगी है और इसलिये निर्देशन एवं परामर्श के क्षेत्र में साक्षात्कार प्रविधि अनेक प्रचलित है।
बिंघम तथा मूर के अनुसार,- "साक्षात्कार वह गम्भीर वार्तालाप है जिसका एक निश्चित उद्देश्य होता है न कि केवल सन्तोष के लिये बातचीत ।"
जॉन जी. डार्ली ने साक्षात्कार को "एक ऐसी परिस्थिति बताया है जिसमें कि ग्राहक अपने आपको और अच्छी तरह समझ सके।"
साक्षात्कार के प्रयोजन
साक्षात्कार द्वारा व्यक्ति के विषय में अनेक प्रकार की सूचनायें एकत्र की जाती हैं, जो साक्षात्कारकर्ता के लिये उपयोगी होती है। साक्षात्कार के उद्देश्य कार्य की प्रकृति पर निर्भर करते हैं। प्रायः ये उद्देश्य शैक्षिक व्यावसायिक तथा निजी क्षेत्रों में हो सकते हैं।
साक्षात्कार के निम्नलिखित प्रयोजन हैं-
1. सूचना एवं जानकारी प्राप्त करना।
2. सूचना एवं जानकारी प्रदान करना।
3. किसी नये अधिकारी अथवा कार्यकर्ता का चयन।
4. समायोजन सम्बन्धी समस्याओं का समाधान करना।
5. साक्षात्कार के माध्यम से अच्छे सम्बन्ध स्थापित करना।
6. साक्षात्कार के द्वारा विचारों, भावनाओं एवं अभिवृत्तियों की जानकारी प्राप्त करना ।
साक्षात्कार के प्रकार
जितने प्रकार के प्रयोजन होते हैं उतनी ही प्रकार के साक्षात्कार हो सकते है। फिर भी सामान्यतः साक्षात्कार प्रविधि के निम्नलिखित प्रकारों का उल्लेख किया जाता है-
1. परामर्श सम्बन्धी साक्षात्कार ( Counselling).
2. नैदानिक साक्षात्कार ( Diagnostic interview),
3. अनिर्देशात्मक साक्षात्कार (Non-directive interview),
4. संरचित साक्षात्कार (Structured interview),
5. प्राधिकारी साक्षात्कार ( Authoritarian interview),
6. अप्राधिकारी साक्षात्कार (Non-authoritarian interview).
परामर्श साक्षात्कार का प्रयोजन परामर्श द्वारा ग्राहक (Client) की समस्याओं का समाधान करना होता है। नैदानिक साक्षात्कार समस्या के विश्लेषण एवं निदान में सहायक होता है अनिर्देशात्मक साक्षात्कार द्वारा ग्राहक को इस योग्य बनाया जाता है कि वह अपनी समस्याओं को स्वयं समझ सके और सरलतापूर्वक अपनी बात कह सके। इस प्रकार का साक्षात्कार निर्देशन एवं परामर्श के क्षेत्र में अत्यधिक प्रचलित है। रोजर्स एवं उनके सहयोगियों ने अनिर्देशात्मक साक्षात्कार की विधि पर अत्यधिक बल दिया है।
प्राधिकारी साक्षात्कार में साक्षात्कार करने वाले का स्थान ऊँचा होता है और वह मनमाने तरीके से प्रश्न पूछता है। अप्राधिकारी साक्षात्कार में ग्राहक पर किसी तरह का दबाव नहीं होता। वास्तव में अप्राधिकारी साक्षात्कार एवं अनिर्देशात्मक साक्षात्कार आपस में मिलते-जुलते हैं।
साक्षात्कार की सफलता के लिये सुझाव
किसी भी साक्षात्कार की सफलता इस बात पर निर्भर है कि साक्षात्कार करने वाला अपने कार्य में कुशल है या नहीं। यह दृष्टि से डाल ने निम्नलिखित चार बातों पर बल दिया है-
1. साक्षात्कार करने वाला साक्षात्कार करते समय न तो भाषण दे और न बातचीत द्वारा ग्राहक को दबाने की कोशिश करें।
2. साक्षात्कारकर्ता सरल भाषा का प्रयोग करे और अपने ग्राहक को अत्यावश्यक सूचना ही दे। यदि ग्राहक से कई बातें कही जायेंगी तो वह निर्णय लेने में कठिनाई का अनुभव करेगा।
3. साक्षात्कार करने वाले को चाहिये कि पहले वह इस बात का ठीक-ठीक पता कर ले कि ग्राहक क्या चाहता है और फिर इसके बाद ही सुझाव अथवा उत्तर दे।
4. साक्षात्कारकर्ता को चाहिये कि ग्राहक की भावनाओं एवं रवैयों से भली-भाँति परिचित हो ले ताकि विचार-विनिमय में कोई कठिनाई न हो।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि साक्षात्कार प्रविधि व्यक्ति के सम्बन्ध में उपयोगी जानकारी प्राप्त करने में सहायक होती है क्योंकि इसमें प्रश्नावली की भाँति बन्धन नहीं होता। साक्षात्कारकर्ता ग्राहक की समस्याओं को उनकी सम्पूर्णता एवं समग्रता के सन्दर्भ में समझा सकता है। यही कारण है कि साक्षात्कार प्रविधि का प्रयोग अन्य मानकीकृत प्रविधियों के साथ भी किया जाता है जिससे कि किसी व्यक्ति के विषय में वे बातें भी मालूम हो सकें जो कि वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के माध्यम से प्राप्त नहीं हो सकती।
साक्षात्कार के भाग
साक्षात्कार के तीन भाग प्रारम्भ, मध्य और अन्त होते है जिनका विवरण अग्र प्रकार है-
1. साक्षात्कार का प्रारम्भ-
साक्षात्कार का प्रारम्भ साक्षात्कारकर्त्ता और छात्र के मध्य मधुर सम्बन्ध के साथ होना चाहिये। इस कार्य के लिये साक्षात्कारकर्ता को निम्न सुझावों का पालन कर चाहिये। साक्षात्कारकर्ता को सर्वप्रथम साक्षात्कार देने वाले के साथ आत्मीयता स्थापित करनी चाहिये। इसके लिये साक्षात्कारकर्त्ता को सहानुभूति, भरोसा देना, विश्वास पैदा करना, छात्र के कार्यों के प्रति सहमति, विनोद, आश्चर्य, भय आदि कारकों का सहारा लेना चाहिये। प्रारम्भ में किसी व्यवस्थित रचना का पालन नहीं होना चाहिये। साक्षात्कार में दोनों को वार्ता के लिए समान समय मिलना चाहिये।
2. साक्षात्कार का मध्य भाग-
साक्षात्कार का मध्य भाग सूचनायें एकत्रित करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है। इसलिये इस भाग में प्रेरक प्रश्न पूछने चाहिये। एक बार के साक्षात्कार में सीमित सूचनायें ज्ञात करनी चाहिये। साक्षात्कार के समय छात्र की भावनाओं को समझने का प्रयास करना चाहिये। साक्षात्कारकर्ता का साक्षात्कार पर नियंत्रण रहना चाहिये।
3. साक्षात्कार का समापन -
साक्षात्कार का समापन दो प्रकार से किया जा सकता है-
(i) समाप्ति छात्र की सन्तुष्टि के साथ और
(ii) इस प्रकार समापन कि दूसरी बार के साक्षात्कार को प्रारम्भ करने में कम समय लगे।
साक्षात्कारकर्त्ता के गुण
साक्षात्कारकर्त्ता की सफलता के लिये एक सफल साक्षात्कारकर्त्ता में निम्न गुणों का पाया जाना आवश्यक है-
1. विनोदप्रिय- साक्षात्कारकर्त्ता को हँसमुख होना चाहिये। तनावमुक्त स्थिति से निकलने में विनोदप्रियता सहायता करती है।
2. स्पष्ट वक्ता - साक्षात्कारकर्त्ता को स्पष्ट बात करने वाला होना चाहिये।
3. अच्छा सुनने वाला - साक्षात्कारकर्त्ता में दूसरे की बात धैर्यपूर्वक सुनने की क्षमता होनी चाहिये।
4. विश्वासी - साक्षात्कार देने वाले के द्वारा उसमें किये गये विश्वास को यथासम्भव बनाये रखना चाहिये। अतः साक्षात्कार के समय छात्र वर्णित तथ्यों को गुप्त रखना चाहिये।
5. भावनाओं को सम्मान देना- साक्षात्कारकर्ता को साक्षात्कार देने वाले की भावनाओं को समझना चाहिये। उसके किसी कथन पर अपना निर्णय देने से बचना चाहिये।
6. वाक्पटुता - बोलने की कला में साक्षात्कारकर्त्ता को निपुण होना चाहिये। वार्तालाप में छात्र की भागीदारी समान होनी चाहिये। यदि छात्र बोल रहा है तो बीच में उसके तारतम्य को तोड़ना नहीं चाहिये।
साक्षात्कार के लाभ
साक्षात्कार प्रविधि के निम्नलिखित लाभ है-
1. यह प्रविधि प्रयोग में सरल है।
2. छात्र की अन्तर्दृष्टि विकसित करने में सहायक है।
3. सम्पूर्ण व्यक्तित्व समझने की उत्तम प्रविधि है।
4. छात्र को अपनी समस्यायें प्रकट करने का अवसर मिलता है।
5. परिस्थितियों के अनुसार साक्षात्कार को लचीला बनाया जा सकता है।
4. व्यक्ति वृत्त अध्ययन
निर्देशन एवं परामर्श में व्यक्ति वृत्त विधि अत्यन्त उपयोगी है। इसके द्वारा किसी व्यक्ति के जीवन से सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त हो सकती है। बिसेज एवं बिसेंज (Biesanz and biesanz) ने व्यक्ति वृत्त अध्ययन पर प्रकाश डालते हुये कहा है- व्यक्ति अध्ययन एक प्रकार का गुणात्मक विश्लेषण है जिसमे किसी व्यक्ति, स्थिति या संस्था का सावधानीपूर्वक किया गया अवलोकन शामिल है।" वाई. एच. पाओ (Y. H. Pao) के अनुसार व्यक्ति अध्ययन किसी व्यक्ति का लघु लेकिन गहरा अध्ययन होता है जिसमें अध्ययनकर्ता अपने सभी कौशलों और विधियों का प्रयोग करता है या किसी व्यक्ति के बारे में पर्याप्त सूचना क्रमबद्ध तरीके से इकट्ठा करता है जिससे कोई यह समझ सके कि वह व्यक्ति या सामाजिक इकाई के रूप में किस प्रकार कार्य करेगा।"
परिभाषा ( Definition)
एच. बी. इंग्लिश तथा ए. सी. इंग्लिश के अनुसार -व्यक्ति वृत्त वह अध्ययन है जिसमें सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, शारीरिक जीवन सम्बन्धी, पर्यावरण सम्बन्धी तथा व्यावसायिक सूचनाओं को इस उद्देश्य से एकत्र किया जाता है कि उनके प्रकाश में किसी एक व्यक्ति अथवा परिवार जैसी एक सामाजिक इकाई की सहायता की जा सके।"
ट्रैक्सलर ने व्यक्ति वृत्त की परिभाषा इन शब्दों में की है- व्यक्ति वृत्त व्यक्ति का वह विस्तृत अध्ययन है जो कि इस उद्देश्य से किया जाता है कि वह भली प्रकार से समायोजित हो ।
इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि व्यक्ति वृत्त की विधि उन सम्पूर्ण सूचनाओं को प्राप्त करने पर बल देती है जो व्यक्ति के समग्र जीवन पर प्रकाश डालती हैं और जिनकी सहायता से व्यक्ति के समायोजन के लिये उचित निर्देशन एवं परामर्श दिया जा सकता है।
व्यक्ति वृत्त अध्ययन के प्रकार
1. औपचारिक वृत्त अध्ययन (Formal case study),
2. अनौपचारिक वृत्त अध्ययन (Informal case study).
औपचारिक वृत्त अध्ययन में व्यक्ति अथवा छात्र से सम्बन्धित सभी सूचनाओं को भली-नीति एकत्र किया जाता है और उन्हें लिखित रूप में रखा जाता है। जहाँ तक अनौपचारिक व्यक्ति वृत्त अध्ययन का सम्बन्ध है, इसके अन्तर्गत सामान्य सूचनायें एकत्र की जाती है और इनकी सहायता से समायोजन सम्बन्धी समय-समय पर उठने वाली समस्याओं का समाधान होता है।
व्यक्ति वृत्त अध्ययन की रूपरेखा
व्यक्ति वृत्त का अध्ययन उसी समय सन्तोषप्रद होता है जबकि निम्नांकित रूपरेखा को ध्यान में रखा जाता है-
1. उद्देश्य - व्यक्ति वृत्त अध्ययन का उद्देश्य |
2. सामान्य तथ्य- इसके अन्तर्गत व्यक्ति का नाम, घर का पता, आयु. लिंग से सम्बन्धित सूचनायें हो।
3. पारिवारिक इतिहास- इसके अन्तर्गत घर, परिवार एवं पड़ोस से सम्बन्धित जानकारी है। इस बात पर ध्यान दिया जाये कि व्यक्ति अथवा छात्र का सम्बन्ध परिवार के सदस्यों के साथ कैसा है और पड़ोस के लोगों के साथ उसके सम्बन्ध किस प्रकार के हैं।
4. व्यक्तित्व - सम्बन्धी सूचनायें इसके अन्तर्गत व्यक्ति और परिवारके प्रति रवैया सामाजिक एवं भावात्मक समायोजन आदि का उल्लेख होना चाहिये।
5. स्वास्थ्य- शारीरिक स्वास्थ्य का वर्णन भी आवश्यक है।
6. शैक्षिक इतिहास- इसके अन्तर्गत वर्तमान शिक्षा और उससे सम्बन्धित अन्य मनोवैज्ञानिक तथ्य जैसे- मानसिक आयु. निष्पत्ति का स्तर, रुचियों, अभिरुचियाँ आदि सूचनायें हो।
7. सूचना प्रक्रिया- एकत्र सूचनाओं एवं जानकारी, व्याख्या और समस्याओं का निरूपण।
8. निर्देशन तथा परामर्श- समस्याओं के समाधान के लिये उचित निर्देशन एवं परामर्श की व्यवस्था।
9. उत्तर- अध्ययन-उपचारोपरान्त उत्तरोत्तर अध्ययन की व्यवस्था।
यह ध्यान रखना आवश्यक है कि व्यक्ति वृत्त अध्ययन के निमित्त जो जानकारी एकत्र की जाये उसका उद्देश्य स्पष्ट हो ताकि प्राप्त जानकारी की व्याख्या सन्तोषप्रद हो सके। अक्सर यह देखा गया है। कि व्यक्ति वृत्त अध्ययन सम्बन्धी तथ्यों की व्याख्या में उतनी सावधानी नहीं बरती जाती जितनी कि आवश्यक है। इसलिये यह सुझाव दिया गया है कि 'व्यक्ति मन्त्रणा' (Case conference) की व्यवस्था हो। इस मन्त्रणा में विद्यालय के प्रधानाध्यापक, अध्यापक एवं परामर्शदाता को होना चाहिये। इसके अतिरिक्त उन व्यक्तियों को भी इस मन्त्रणा में सम्मिलित किया जा सकता है जो छात्रों के कल्याण कार्य से सम्बन्धित हो।
व्यक्ति मन्त्रणा करते समय व्यक्ति की समस्याओं के कारणों का विश्लेषण किया जाये और फिर उनके समाधान के लिये व्यावहारिक उपाय बताये जायें। तभी व्यक्ति वृत्त अध्ययन उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
5. आत्मकथा प्रविधि
आत्मकथा लेखन की एक लोकप्रिय प्रविधि है। आत्मकथा लिखते समय व्यक्ति बिना किसी रोक-टोक के अपनी इच्छानुसार अपने बारे में लिखता है। निर्देशन एवं परामर्श की दृष्टि से आत्मकथा का महत्व अत्यधिक है।
आत्मकथा के प्रकार
आत्मकथा प्रायः तीन प्रकार की होती हैं-
1. अनिर्देशित आत्मकथा (Non-directed autobiography),
2. निर्देशित आत्मकथा (Directed autobiography),
3. मिश्रित आत्मकथा (Mixed autobiography)..
1. अनिर्देशित आत्मकथा-
अनिर्देशित आत्मकथा में किसी प्रकार का बन्धन नहीं होता। कोई छात्र अथवा व्यक्ति अपने जीवन के बारे में अपनी इच्छानुसार जो चाहता है वह लिखता है।
2. निर्देशित आत्मकथा-
निर्देशित आत्मकथा एक रूपरेखा के आधार पर लिखी जाती है। उदाहरण के लिये, व्यक्ति से कहा जाये कि वह अपने परिवार के विषय में लिखे अपने विद्यालय के अनुभवों का उल्लेख करे तथा अपने उन विचारों, रुचियों आदि की चर्चा करे जिन्हें कि वह महत्वपूर्ण मानता है।
3. मिश्रित आत्मकथा-
मिश्रित आत्मकथा में अनिर्देशित तथा निर्देशित आत्मकथा लेखन विधि का मिश्रण होता है। व्यक्ति के लिये स्वतन्त्रता होती है कि वह अपने बारे में जो चाहे लिखे और साथ ही उसे कुछ बातों के बारे में लिखने के लिये भी कहा जाता है। इस प्रकार मिश्रित आत्मकथा में एक और तो व्यक्ति को अपने बारे में लिखने की कुछ स्वतन्त्रता होती है और दूसरी ओर कुछ ऐसे निर्देशन भी दिये जाते हैं जिनको ध्यान में रखकर आत्मकथा लिखी जाये।
आत्मकथा की उपयोगिता
आत्मकथा व्यक्ति अध्ययन का महत्व प्रक्रम है। इसमें व्यक्ति अपना मूल्यांकन करता है। उन परिस्थितियों तथा घटनाओं का वर्णन करता है जो उसके साथ घटती है। यह एक उपयोगी उपकरण है।
आत्मकथा की उपयोगिता के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय है-
1. आत्मकथा के आधार पर किसी व्यक्ति के जीवन-दर्शन एवं विचारों का अच्छा ज्ञान होता है।
2. आत्मकथा प्रविधि के माध्यम से व्यक्ति की अभिव्यक्ति की क्षमता का भी ज्ञान होता है।
3. आत्मकथा लिखकर व्यक्ति अपनी छिपी हुयी भावनाओं को व्यक्त कर सकता है और उसे स्वतन्त्र भाव प्रकाशन की पूर्ण सुविधा प्राप्त होती है।
4. अध्ययन की दृष्टि से आत्मकथा प्रविधि इसलिये भी उपयोगी है कि छात्रों को एक समूह में बैठाकर एक साथ अनेक आत्मकथायें लिखायी जा सकती हैं।
आत्मकथा प्रविधि को अधिक उपयोगी बनाने के लिये यह आवश्यक है कि छात्रों को महान व्यक्तियों की आत्मकथायें पढ़ने के लिये प्रेरित किया जाये। जब वे दूसरे लोगों की आत्मकथाओं का अध्ययन करेंगे तब वे आत्मकथा के महत्व को समझेंगे और अपने बारे में भी अच्छी तरह लिख सकेंगे।
राइटस्टोन, जस्टमैन तथा रॉबिन्स के अनुसार- "आत्मकथा का मूल्य इस बात पर निर्भर है कि वह किन परिस्थितियों से प्राप्त की गयी है। आत्मकथा का मूल्य तभी हो सकता है जबकि छात्र लिखने को तैयार हो और यह भी जानते हो कि उनके लिखने का क्या परिणाम होगा। उन्हें यह भरोसा होना चाहिये कि उनके विश्वास को भंग नहीं किया जायेगा। जो व्यक्ति किसी के बारे में कोई वैयक्तिक अभिलेख प्राप्त करता है उसे पारस्परिक विश्वास और आदर के सम्बन्ध को बनाये रखना चाहिये।
आत्मकथा की विश्वसनीयता के बारे में सावधानी एवं सतर्कता आवश्यक है। यह बहुत सम्भव है कि कुछ बातों में अत्युक्ति हो और कुछ का बिल्कुल उल्लेख न किया जाये। इसलिये यह अपेक्षित है कि अध्यापक कभी-कभी छात्रों के घर पर जाये, उनके माता-पिता से मिले और इस प्रकार आत्मकथा में चर्चित बातों की पुष्टि कर लें।
आत्मकथा प्रविधि को उपयोगी बनाने के प्रयत्न-
1. छात्रों को स्वयं आत्मकथा लिखने की प्रेरणा दी जाये।
2. महान व्यक्तियों की आत्मकथा पढ़ाने के लिये छात्रों को प्रेरित किया जाये।
3. आत्मकथा लिखवाने वाले में छात्रों का विश्वास हो।
4. आत्मकथा गुप्त रखने का छात्रों को भरोसा दिया जाये।
5. आत्मकथा का महत्व छात्रों को समझाया जाये।
6. क्रम निर्धारण प्रविधि
व्यक्ति के अध्ययन में क्रम निर्धारण प्रविधि का उपयोग इसलिये किया जाता है कि यथासम्भव वस्तुनिष्ठ जानकारी प्राप्त हो सके। क्रम निर्धारण द्वारा वस्तुनिष्ठ जानकारी प्राप्त करने के लिये क्रम-निर्धारण मापनी (Rating scale) बनायी गयी है। शिक्षा के क्षेत्र में क्रम निर्धारण की उपयोगिता इस बात में है कि अध्यापक अपने शिक्षण कार्य को अच्छा बना सकता है, पाठ्यचर्या में छात्रों की आवश्यकता के अनुरूप सुधार कर सकता है तथा सम्पूर्ण विद्यालय के प्रशासन में जो सुधार अपेक्षित है उन्हें भी कार्यान्वित कर सकता है।
राइटस्टोन, जस्टमैन तथा रॉबिन्स के अनुसार- "क्रम निर्धारण अपनी मापनी में एक सातत्यक (Continuum) कुछ गुणों की एक सूची होती है जिसमें क्रम-निर्धारक कुछ मूल्य या क्रम अंकित करता है? क्रम-निर्धारण मापनी का निर्माण करते समय अपनी जानकारी दूसरे से मन्त्रणा एवं उन पुस्तकों प्रकाशनों आदि का देखना जो क्रम निर्धारण मापने के उद्देश्य से सम्बद्ध हैं, सहायक होता है। यह देखा गया है कि क्रम निर्धारण मापनी का निर्माण करते समय अनेक त्रुटियाँ रह जाती हैं। इन त्रुटियों में निम्न प्रकार हैं- कुछ
1. शीर्षक का न होना।
2. क्रम निर्धारण मापनी में प्रश्नों की संख्या का आवश्यकता से अधिक होना।
3. एक ही बात को घुमा-फिराकर कई प्रश्नों के माध्यम से जानकारी प्राप्त करना।
क्रम निर्धारण मापनी में त्रुटियों से बचने के लिये यह आवश्यक है कि प्रयोजन स्पष्ट हो और उसी को ध्यान में रखकर मापनी का निर्माण किया जाये।
क्रम निर्धारण मापनी के प्रकार
क्रम निर्धारण मापनी प्रायः पाँच प्रकार की होती हैं-
1. वर्णनात्मक क्रम निर्धारण मापनी (Descriptive rating scale)
2. लेखाचित्रीय क्रम निर्धारण मापनी (Graphic rating scale)
3. बलात् चयन विधि (Forced choice method)
, 4. कोटि क्रम विधि (Rank order method)
5. युगल तुलना विधि (The paired comparison).
1. वर्णनात्मक क्रम निर्धारण मापनी
वर्णनात्मक क्रम निर्धारण मापनी द्वारा किसी व्यवहार अथवा कार्य से सम्बन्धित बातों की जानकारी सारे समय', 'अधिकतर 'समय', 'कभी-कभी' और 'कभी नहीं' के आधार पर होती है। मापनी में इनका मूल्यांकन क्रमशः 3.2. 1. 0 के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिये, वर्णनात्मक क्रम-निर्धारण मापनी का एक प्रश्न है- दूसरों के सुझाव ग्रहण करता है।' इस प्रश्न पर उत्तर देते समय यह ध्यान रखना होगा कि अमुक व्यक्ति सारे समय सुझाव ग्रहण करता है या अधिकतर समय अथवा कभी-कभी या कभी नहीं। इन चारों विकल्पों में से एक को चिन्हित करना पड़ता है। इस प्रकार वर्णनात्मक क्रम -निर्धारण मापनी किसी व्यक्ति के व्यवहार अथवा अभिवृत्ति या व्यक्तित्व सम्बन्धी अन्य बातों की जानकारी प्राप्त करने में उपयोगी हैं।
2. लेखाचित्रीय क्रम निर्धारण मापनी
लेखाचित्रीय क्रम-निर्धारण मापनी का उपयोग किसी व्यक्ति से सम्बन्धित मूल्यांकन रेखा पर सही चिन्ह [x]> या अभाव चिन्ह x बना दिया जाता है। इन चिन्हों की सहायता से किसी व्यक्ति में पाये जाने वाले लक्ष्य की जानकारी होती है। उदाहरण के लिये, नीचे दी गयी मूल्यांकन रेखा पाँच भागों में विभक्त है-
इसके द्वारा किसी छात्र की कक्षा में उपस्थिति का मूल्यांकन करना है। फलतः उस अंक के ऊपर चिन्ह लगा दिया जायेगा जो छात्र की कक्षा में उपस्थिति का वास्तविक परिचायक है। इस मूल्यांकन में अंक सदा उपस्थिति का सूचक है। अंक 3 बहुत कम अनुपस्थिति का सूचक है तथा अंक 5 बार-बार अनुपस्थिति का परिचायक है। इनके मध्य की स्थिति के सूचक क्रमशः अंक 2 और 4 है। इस प्रकार लेखाचित्रीय क्रम निर्धारण मापनी द्वारा किसी व्यक्ति की प्रगति अथवा क्षमता का ज्ञान स्पष्ट रूप से हो जाता है।
3. बलात् चयन विधि
यह देखा गया है कि वर्णनात्मक और लेखाचित्रीय क्रम निर्धारक में एक त्रुटि यह है कि क्रम-निर्धारक निश्चित रूप से अपने निर्धारण को व्यक्त नहीं कर पाता। इस त्रुटि को दूर करने के लिये बलात् चयन विधि का उपयोग किया जाता है। बलात् चयन विधि में क्रम-निर्धारक दो-दो विकल्पों के जोड़ों में किसी एक जोड़े को चुनने के लिये बाध्य होता है। इस प्रकार बलात् चयन विधि किसी व्यक्ति के विचार को निश्चित रूप से जानने में सहायक होती है। नीचे दिये गये विकल्पों में से किसी एक का चुनाव करना बलात् चयन विधि का एक अच्छा उदाहरण है-
1. वह एक प्रभावकारी वक्ता है।
2. उसने एक अच्छा अभिभावक संघ बनाया है।
3. वह अध्यापक की प्रक्रियाओं का निरन्तर मूल्यांकन करता है।
4. वह अभी तक छात्र बना हुआ है।
बलात् चयन विधि के 'क ' 'ख ' में से केवल एक को चुनना आवश्यक है। इस प्रकार यह मालूम हो जाता है कि व्यक्ति की अपनी निश्चित राय क्या है।
4. कोटि क्रम विधि
कोटि क्रम विधि के अन्तर्गत किसी कक्षा के छात्रों को उनकी योग्यता के आधार पर कोटि कम में रखा जा सकता है। यह कार्य उन अध्यापकों से कराया जा सकता है जो उन विद्यार्थियों को पढ़ाते है। फिर उन सभी अध्यापकों द्वारा किये गये क्रम निर्धारण को परस्पर मिलाकर औसत क्रम निकाला जा सकता है। गिलफोर्ड तथा वर्स्टन ने कोटि क्रम विधि में सांख्यिकी के प्रयोग के उपाय बताये है जो उपयोगी भी है। यह स्पष्ट है कि कोटि क्रम विधि में किसी क्रम निर्धारण मापनी को काम में नहीं लाया जाता है।
5. युगल तुलना विधि
युगल तुलना विधि में भी किसी मापनी अथवा पेंटिंग स्केल का उपयोग नहीं करते। इस विधि के अनुसार, व्यक्ति को समूह के अन्य व्यक्तियों के साथ बारी-बारी से जोड़े बनाकर जाँचा जाता है और फिर निर्णय करते हैं कि वह दूसरे व्यक्ति से अच्छा है या नहीं। इस प्रकार की तुलना करने के बाद जो निर्णय प्राप्त होते हैं उनका सांख्यिकी की सहायता से विश्लेषण किया जाता है और जितने व्यक्तियों की तुलना की गयी है उनका क्रम निर्धारण होता है। राइटस्टोन, जस्टमैन तथा रॉबिन्स के अनुसार युगल तुलना विधि अध्यापको के लिये अधिक उपयोगी नहीं है।
क्रम-निर्धारण प्रविधि के दोष-
1. केन्द्रीय प्रवृत्ति का दोष- प्रायः निर्णायक क्रम निर्धारण में किसी को चरम बिन्दु पर नहीं रखते हैं। उनमें क्रम निर्धारण के मध्य में किसी गुण का मापन करने की प्रवृत्ति पायी जाती है।
2. उदारता का दोष- निर्णायक का यदि कोई व्यक्ति परिचित है तो क्रम निर्धारण में उसकी उदारता का भाव आना स्वाभाविक है।
3. निर्णायकों की मूल्यांकन योग्यता में भिन्नता -मूल्यांकन में लगे हुये निर्णायकों में वैयक्तिक मित्रताओं के कारण मूल्यांकन में अन्तर पाया जाना स्वाभाविक है।
4. तार्किक त्रुटि- छात्रों के कार्य में समानता परिलक्षित होने पर निर्णायक प्रायः दोनों का एक बिन्दु पर निर्धारण करते है। इस प्रकार का निर्णय सन्देहास्पद होता है।
5. धारणा का अभाव (Halo effect)-प्राय: कभी-कभी निर्णायक किसी व्यक्ति के बारे में कोई बना लेते है तो उनका निर्णय उस धारणा से अवश्य प्रभावित होता है।
7. प्रेक्षण विधि
प्रेक्षण विधि को अवलोकन विधि भी कहते है। अवलोकन में व्यक्ति के व्यवहार का निरीक्षण किया जाता है। इस विधि में व्यक्ति की दिनचर्या का अवलोकन किया जाता है। उसके व्यवहार से निष्कर्ष निकाले जाते हैं।
व्यक्ति के व्यवहारों का प्रेक्षण व्यक्ति के अध्ययन में अत्यधिक सहायक होता है। प्रेक्षण के द्वारा विभिन्न प्रकार के व्यवहारों एवं क्रियाओं का विवरण प्राप्त होता है। एफ. एल. गुडएनफ ने प्रेक्षण प्रविधि की व्याख्या करते हुये लिखा है कि इसके अन्तर्गत व्यक्ति की प्रतिदिन की क्रियाओं एवं व्यवहारों का निश्चित समय पर एवं समय-समय पर विवरण एकत्र किया जाता है।
इस प्रकार प्रेक्षण प्रविधि के अन्तर्गत एक निश्चित अवधि में अनेक दिनों तक किसी व्यक्ति के कार्यों एवं व्यवहारों का अध्ययन करते हैं और उनके विषय में लिख लेते हैं। प्रेक्षण प्रविधि न केवल एक व्यक्ति के अध्ययन में वरन् व्यक्तियों के समूह के अध्ययन में भी उपयोगी है।
प्रेक्षण के लिये आवश्यक सिद्धान्त
प्रेक्षण निर्देशन की एक महत्वपूर्ण प्रविधि है जिसका प्रयोग छात्रों के व्यवहार का अध्ययन करने एवं अन्य प्रविधियों द्वारा एकत्रित तथ्यों की पुष्टि करने के लिये होता है। प्रेक्षण को सार्थक बनाने की दृष्टि से निम्नलिखित सिद्धान्तों का अनुसरण करना उपयोगी रहता है-
1. एक समय में एक छात्र का प्रेक्षण-एक समय में एक छात्र का ही प्रेक्षण करना ठीक रहता है। अधिक छात्रों का प्रेक्षण करने पर प्रेक्षणकर्त्ता का ध्यान मुख्य बिन्दु पर केन्द्रित नहीं रहता है।
2. प्रेक्षण लम्बी अवधि तक- छात्र के व्यवहार का प्रेक्षण लम्बी अवधि तक करने पर ही विश्वसनीय परिणाम प्राप्त होते हैं।
3. पूर्ण परिस्थिति का प्रेक्षण-परिस्थितियाँ ही व्यवहार की जननी होती है। अतः छात्र के व्यवहार का प्रेक्षण सम्पूर्ण परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में करना चाहिये।
4. छात्रों का प्रेक्षण नियमित क्रियाओं में - छात्र के व्यवहार का प्रेक्षण दैनिक क्रियाओं में करना चाहिये. जैसे खेलते समय, कक्षा शिक्षण के समय कक्षा से निकलते समय
प्रेक्षण के प्रकार
प्रेक्षण कितने प्रकार के होते हैं, यह बहुत कुछ उन स्थितियों पर निर्भर करता है जिनमें कि इसका
उपयोग करते हैं। उदाहरण के लिये जर्सिल्ड तथा मीग्स (Jersields and Meigs) के अनुसार प्रायः तीन प्रकार की परिस्थितियों में प्रेक्षण करते हैं और उनके आधार पर निम्न प्रकार के प्रेक्षण होते हैं-
1. स्वतंत्र प्रेक्षण (Free observation),
2. नियन्त्रित प्रेक्षण (Manipulated or controlled observation),
3. अर्द्ध-नियन्त्रित प्रेक्षण (Partially controlled observation).
बोनी तथा हैम्पिलमैन (Bonny and Hamplemen) के अनुसार प्रेक्षण के निम्न प्रकार हैं-
1. आकस्मिक प्रेक्षण (Casual observation),
2. नियन्त्रित प्रेक्षण (Controlled observation).
बोनी तथा हैम्पिलमैन ने नियन्त्रित प्रेक्षण के दो और प्रकार बताये हैं। पहले प्रकार का नियन्त्रित प्रेक्षण वह है जिसमें कि किसी निश्चित कार्य अथवा व्यवहार का प्रेक्षण करना होता है। नियन्त्रित प्रेक्षण का दूसरा प्रकार वह है जबकि किन्हीं विशेष परिस्थितियों के व्यवहार को देखना होता है। दूसरे प्रकार के नियन्त्रित प्रेक्षण में प्रेक्षणकर्त्ता परिस्थितियाँ बनाता है। दूसरे शब्दों में परिस्थितियों का नियन्त्रण करके व्यवहार का प्रेक्षण किया जाता है।
बोनी तथा हैम्पिलमैन ने प्रेक्षण करते समय लिखने अथवा रिकॉर्डिंग की जो विधि है उसके आधार पर भी प्रेक्षण के दो प्रकार बताये है-
1. अलिखित प्रेक्षण (Unrecorded observation),
2. लिखित प्रेक्षण (Recorded observation).
कभी-कभी प्रेक्षण का वर्गीकरण व्यक्तियों की संख्या के आधार पर भी करते हैं। इस आधार पर प्रेक्षण दो प्रकार के माने गये हैं-
1. वैयक्तिक प्रेक्षण (Individual observation).
2. सामूहिक प्रेक्षण (Group observation).
प्रेक्षण के उपर्युक्त प्रकारों में से कुछ का यहाँ वर्णन करना उचित रहेगा-
1. नियन्त्रित प्रेक्षण-निश्चित परिस्थितियों में किया जाने वाला प्रेक्षण नियंत्रित प्रेक्षण कहलाता है। इसमें समय, स्थान, परिस्थितियों तथा छात्र व्यवहार के पक्ष पूर्व में ही प्रेक्षण हेतु निश्चित कर लिये जाते हैं।
2. अनियन्त्रित प्रेक्षण- इसमें प्रेक्षणकर्त्ता स्वतंत्र होता है। वह अपनी इच्छानुसार प्रेक्षण की जाने वाली परिस्थितियों तथा व्यवहार के पक्षों को निश्चित करता है।
3. निर्देशित प्रेक्षण- इसमें प्रेक्षण के उद्देश्य तथा कार्यक्रम की योजना पूर्व में निर्धारित करके प्रेक्षण कार्य होता है।
4. आत्म प्रेरित प्रेक्षण- इसमें व्यक्ति स्वयं अपना विवरण देता है। ऐसे प्रेक्षण में व्यक्ति प्रेक्षण दिवरण में अनेक बातों को छिपा सकता है।
5. बाह्य प्रेक्षण- यह प्रेक्षण किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा किया जाता है। अपरिचित होने के कारण बाह्य प्रेक्षणकर्त्ता केवल सीमित व्यवहार का प्रेक्षण कर पाता है।
6. प्रमापीकृत प्रेक्षण- इस प्रकार का प्रेक्षण छात्र के परीक्षा काल में होता है। परीक्षण काल की प्रतिक्रियायें उसके अनेक गुणों को प्रकट करती हैं।
7. स्वाभाविक प्रेक्षण-दिन-प्रतिदिन की सामान्य क्रियाओं में व्यस्तता के समय छात्र व्यवहार का प्रेक्षण स्वाभाविक प्रेक्षण कहलाता है।
प्रेक्षण में सावधानियाँ- प्रेक्षण में निम्नलिखित सावधानियों को ध्यान में रखने से प्रेक्षण अधिक वस्तुनिष्ठ हो सकता है-
1. प्रेक्षक को पूर्वाग्रह, पक्षपात और रुचियों पर नियंत्रण रखना चाहिये।
2. प्रेक्षण में आवश्यकतानुसार ऑडियो या वीडियो जैसे उपकरणों का प्रयोग करना चाहिये।
3. प्रेक्षण में यथासम्भव गोपनीयता का पालन करना चाहिये।
4. प्रेक्षण से पूर्व प्रेक्षणीय तथ्य निर्धारित कर लेने चाहिये।
5. प्रेक्षण का व्यवहार सौहार्दपूर्ण होना चाहिये।
6. प्रेक्षण को प्रेक्षण में प्रशिक्षित होना चाहिये।
7. प्रेक्षण अनेक बार करना चाहिये।
8. प्रेक्षण के तुरन्त बाद प्रेक्षित विवरण लिख लेना चाहिये।
प्रेक्षण से लाभ
1. प्रेक्षण प्रविधि के द्वारा व्यक्ति की भावात्मक एवं सामाजिक प्रतिक्रियाओं का प्रेक्षण सरलता से किया जा सकता है।
2. प्रेक्षण प्रविधि का उपयोग अध्यापक शैक्षिक परिस्थितियों में भली-भाँति कर सकते हैं।
3. प्रेक्षण प्रविधि का व्यवहार सभी स्थलों पर हो सकता है।
प्रेक्षण की सीमायें
प्रेक्षण प्रविधि पर्याप्त मात्रा में उपयोगी पायी जाती है। लेकिन इसकी अपनी कुछ सीमायें भी हैं, जो निम्न प्रकार है-
1. प्रेक्षण प्रविधि में अधिक समय लगता है।
2. प्रेक्षण प्रविधि उसी समय उपयोगी होती है, जबकि प्रेक्षक के सम्मुख प्रेक्षण के उद्देश्य एवं परिस्थितियाँ पूर्णतः स्पष्ट होती हैं।
3. बच्चों का प्रेक्षण जब कोई अपरिचित व्यक्ति करता है तब बच्चों की स्वाभाविकता नष्ट हो जाती है और इस प्रकार प्रेक्षण भी उपयोगी नहीं रहता।
फिर भी इन सीमाओं के होते हुये यदि प्रेक्षण प्रेक्षण प्रविधि में कुशल है तो वह सफलतापूर्वक प्रेक्षण कर सकता है। मुख्य बात यह है कि प्रेक्षक भावात्मक रूप से प्रेक्षण करते समय अपने को अलग रखे और अपने पूर्वाग्रहों एवं विचारों को भी प्रेक्षण की प्रक्रिया में न आने दें।
8. समाजमिति प्रविधि
बोनफेनब्रेनर (Bronfenbrenner) के अनुसार- समाजमिति सामाजिक स्तर, संरचना और विकास के समूहों के सदस्यों के बीच स्वीकृति और अस्वीकृति की सीमा के माध्यम से मापकर मालूम करने, वर्णन करने और मूल्यांकन करने की विधि है।" ऐण्ड्यू (Andrew) तथा विली (Willey) ने समाजमिति के विषय में कहा है-समाजमिति एक ग्राफिक चित्र है जिसमें कुछ संकेतों और चिन्हों का प्रयोग समूह के सदस्यों में सामाजिक स्वीकृति अस्वीकृति की पद्धति को दर्शाने के लिये किया जाता है।
समाजमिति प्रविधि का उपयोग करके व्यक्ति का किसी समूह के सदस्यों के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध है, यह जाना जा सकता है। राइटस्टोन, जस्टमैन, रॉबिन्स ने अनेक समाजमिति विधियों का उल्लेख किया है। इनके अनुसार," समाजमितिक विधियाँ किसी समूह के सदस्यों के बीच किसी खास समय पर मौजूद पारस्परिक सम्बन्धों को जानने के साधन हैं।"
ऐण्ड्रयू तथा विली के अनुसार- समाजमिति एक ऐसा रेखांकन है जिसमें कि कुछ प्रतीकों एवं चिन्हों के माध्यम से किसी सामाजिक समूह के सदस्यों के मध्य सामाजिक स्वीकृति एवं अस्वीकृति के पैटर्न को दिया जाता है।
समाजमिति प्रविधियों के प्रकार
सामाजिक सम्बन्धों के अध्ययन की जानकारी के निमित्त अनेक प्रकार की समाजमिति प्रविधियाँ प्रचलित है। राइटस्टोन, जस्टमैन, रॉबिन्स ने निम्नलिखित तीन प्रविधियों का उल्लेख किया है-
1. एक व्यक्ति से यह पूछा जा सकता है कि वह एक समूह में से कितने लोगों के साथ एक दी हुयी कसौटी के आधार पर रहना पसन्द करेगा।
2. एक व्यक्ति से अपने वर्ग के सभी सदस्यों का एक पूर्व निर्धारित मान के अनुसार क्रम-निर्धारण करने के लिये कहा जाना।
3. एक व्यक्ति से अपने समूह के ऐसे सदस्यों को चुनने के लिये कहा जाये जिनमें उसे कुछ विशेषतायें दिखायी पड़ती हो।
समाजमिति प्रविधि के उपयोग
समाजमिति प्रविधि का उपयोग अनेक दृष्टियों से लाभदायक है-
1. इस विधि के माध्यम से जो जानकारी प्राप्त होती है वह व्यक्ति के सामाजिक समायोजन
सम्बन्धी समस्याओं के समाधान में सहायक होती है।
2. समाजमिति प्रविधि सामान्य रुचियों एवं कौशलों के लोगों के चयन में सहायक होती हैं और इस प्रकार का चयन सामान्य रुचियों और कौशलों के आधार पर वर्ग के निर्माण में सहायक होता है।
3. समाजमिति प्रविधियाँ विभिन्न प्रकार के क्रियाकलापों के अनुसार छात्रों के वर्गीकरण में भी सहायक होती हैं।
यह भी ध्यान रखना चाहिये कि समाजमिति प्रविधि का उपयोग करते समय अध्यापक के लिये यह आवश्यक है कि वह छात्रों के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाये रखे। दूसरे शब्दों में, छात्र और अध्यापक के मध्य विश्वास बना रहना चाहिये जिससे कि विश्वसनीय जानकारी प्राप्त हो सके।
समाजमिति प्रविधि से यह भी ज्ञात होता है कि कौन-सा छात्र अथवा व्यक्ति अपने समूह में अपना स्थान नहीं बना पाया है। ऐसी दशा में यह अपेक्षित है कि उसकी सामाजिकता की भावना को विकसित किया जाये और उसे इस योग्य बनाया जाये कि वह अन्य लोगों से मित्रता कर सके।
व्यक्ति के अध्ययन में समाजमिति प्रविधि सामाजिक विकास एवं सामाजिक समायोजन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उसी व्यक्ति का सामाजिक विकास एवं समायोजन सन्तोषप्रद होता है जो अपने परिवार, पड़ोस एवं समुदाय के लोगों के साथ सहयोग करना जानता है और उनके सुख-दुःख में साथ रहता है।
समाजमिति में प्रयुक्त प्रविधियाँ
समाजमिति में छात्रों के समूह के परस्पर प्रगाढ़ता अथवा पसन्द न करने की इच्छा का मापन करने के लिये दो रीतियाँ अधिकतर प्रयोग में आती है-
1. प्रश्नावली (Questionnaire),
2. निरीक्षण (Observation).
प्रश्नावली रीति में प्रायः छात्र समूह के सदस्यों से दो प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं--
1. स्वीकारात्मक प्रश्न (Positive questions) और
2. नकारात्मक प्रश्न (Negative questions).
स्वीकारात्मक प्रश्नों में उत्तर छात्रों की किसी के प्रति सामाजिक स्वीकारोक्ति को प्रकट करते हैं। प्रत्येक प्रश्न के साथ तीन-चार नाम इच्छानुसार प्राथमिकता देते हुये लिखने को कहा जाता है। इसका उदाहरण-
1. आप किसको फुटबाल टीम का कप्तान बनाना पसन्द करोगे ?
प्रथम......................................................
द्वितीय..................................................
तृतीय.....................................................
2. आप कक्षा में किसके पास बैठना पसन्द करोगे ?
प्रथम.......................................................
द्वितीय...................................................
तृतीय......................................................
नकारात्मक प्रश्न प्रायः समूह में तिरष्कृत छात्रों को पता लगाने के लिये पूछे जाते हैं। उदाहरण के लिये,
1. आप कक्षा में किससे बात करना पसन्द नहीं करोगे ?
प्रथम........................................................
द्वितीय....................................................
तृतीय........................................................
इस प्रकार प्रश्नों के प्राप्त उत्तरों का सारणीयन करना पड़ता है। सारणी बनाने के बाद तथ्यों की गणना करके संख्या निकाली जाती है। सारणी की रचना करते समय ध्यान देने योग्य बिन्दु निम्नलिखित हैं-
1. चयनकर्ता लम्बवत् दूरी में लिखे जाते हैं।
2. चयनित छात्र क्षैतिज दूरी में लिखने चाहिये।
3. प्रत्येक व्यक्ति द्वारा प्राप्त मतों का योग नीचे लिखना चाहिये।
4. तिरष्कृत छात्रों की सारणी भी इसी प्रकार बनायी जाती है।
उदाहरण-स्वीकारात्मक प्रश्नों के आधार पर 12 छात्रों के उत्तरों के आधार पर निम्नलिखित सोसियोग्राम तैयार किया गया है-
उपर्युक्त सोसियोग्राम के विश्लेषण के लिये एक सारणी बनाना आवश्यक है। इसमें चयनकर्ता ऊपर के वर्गों में और चयनित लम्बवत वर्गों में लिखे जाते है। सारणी में प्रथम वरीयता 1 अंक और द्वितीय वरीयता 2 अंक द्वारा प्रदर्शित की जाती है। इनके सामने योग दोनों वरीयताओं का पृथक् पृथक् किया जाता है। अन्त में दोनों का योग पसन्द की वरीयता को स्पष्ट करेगा। उपरोक्त सारणी के आधार पर सर्वाधिक पसन्द होने वाला 'छ' है जबकि 'न' और 'झ' एकाकी है। समाजमिति का विश्लेषण करने में निम्नलिखित सुझावों पर ध्यान देना चाहिये-
1. एक समय में एक व्यक्ति पर ध्यान देते हुये सभी वरीयताओं का अध्ययन करना चाहिये। इससे लोकप्रिय और परित्यक्त छात्रों का पता लगेगा।
2. तटस्थ और सर्वाधिक प्रिय छात्र का पता लगने पर उस स्थान प्राप्ति के कारणों का पता लगाना चाहिये। परित्यक्तता के कई कारण हो सकते हैं, जैसे समूह में नवीन सदस्य होना, शर्मीला स्वभाव होना, निम्न आर्थिक स्तर का होना।
3. परस्पर वरीयता देने वाले छात्रों के परस्पर सम्बन्ध के कारणों का भी विश्लेषण आवश्यक है।
9. संचयी अभिलेख पत्र
निर्देशन कार्य के लिये आवश्यक छात्र से सम्बन्धित समस्त सूचनायें संचयी अभिलेख पत्र से उपलब्ध होती हैं। प्रश्न उठता है कि संचयी अभिलेख पत्र क्या होता है ? निर्देशन में छात्र की समस्या के समाधान से पूर्व छात्र को समझना आवश्यक है। इसीलिये छात्र का अध्ययन अनिवार्य है और इस कार्य के लिये विविध प्रविधियों और तकनीक का प्रयोग होता है। अनेक प्रविधियों द्वारा संकलित तथ्यों तथा सूचनाओं को एक स्थान पर रखना संचयी अभिलेख कहलाता है और जिस कार्ड या पुस्तिका में ये सूचनायें संचित की जाती हैं उसे संचयी अभिलेख पत्र कहते हैं। सन् 1928 में अमेरिकन कौसिल ऑफ एजूकेशन द्वारा सर्वप्रथम संचयी अभिलेख पत्र का प्रारूप तैयार किया गया। इसके बाद 1933 में विंस्टन वी. स्टीफन्सन और फर्सोउड द्वारा 1936 में डॉ. वेण्डीगुड ने इसके प्रारूप प्रस्तुत किये।
परिभाषा ( Definition)-
संचयी अभिलेख पत्र के को निम्नलिखित परिभाषाओं के माध्यम से समझा जा सकता है -
बोनी तथा हैम्पिलमैन के शब्दों में-" संचयी अभिलेख पत्र में किसी छात्र से सम्बन्धित वे सभी है तथ्य निहित होते हैं जिनका संकलन करना विद्यालय महत्वपूर्ण मानता है और वर्ष प्रतिवर्ष इन तथ्यों को व्यवस्थित रूप में सुरक्षित रखता है।"
डब्ल्यू. सी. एलेन के अनुसार- "संचय अभिलेख पत्र की परिभाषा में कहा जा सकता है कि यह एक ऐसा अभिलेख है जिसमें एक छात्र के मूल्यांकन सम्बन्धी सूचनायें एक कार्ड पर लिखी होती है और प्रायः एक स्थान पर रखी रहती है।"
मुरे थॉमस के शब्दों में- "संकलित आलेख पत्र किसी समूह के बारे में लम्बी अवधि में एकत्रित की गयी सूचना होती है।"
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि संचयी अभिलेख पत्र में किसी भी छात्र के जीवन से सम्बन्धित तथ्यों या सूचनाओं का समावेश होता है। संचयी अभिलेख पत्र प्रायः छात्र के प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश लेने के बाद रखना प्रारम्भ हो जाता है।
संचयी अभिलेख पत्र का महत्व एवं प्रयोजन
शिक्षा का उद्देश्य छात्र का सर्वांगीण विकास करना है। लेकिन विद्यालयों में प्रायः विषय में किये गये अधिगम का मापन होता है जो मात्र उसके जीवन के एक पक्ष पर प्रकाश डालता है। छात्र के जीवन के अन्य पक्ष, जैसे मानसिक योग्यता, रुचि, अभियोग्यता, व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों का मूल्यांकन नहीं होता है। इसके साथ ही सृजनात्मकता तथा सामाजिक गुणों के मापन की भी उपेक्षा होती है। इसका प्रभाव निर्देशन और परामर्श की प्रक्रिया पर पड़ता है। माध्यमिक शिक्षा अयोग ने संचयी अभिलेख पत्र के महत्व के बारे में लिखा है- "छात्र को नवीन शिक्षा संस्था में प्रवेश या व्यवसाय चयन करने में निर्देशन सहायता देने के उद्देश्य से छात्र के विकास का पूर्ण आलेख संचयी अभिलेख पत्र में संचित करना चाहिये। इन अभिलेख पत्रों में छात्र की रुचि, अभिरुचि, बुद्धि, व्यक्तिगत सम्बन्धी गुण तथा अन्य क्रियाओं से सम्बन्धित सूचनाओं का उल्लेख होना चाहिये। आयोग का सुझाव था कि सभी विद्यालयों में संचयी अभिलेख पत्रों का रखना अनिवार्य किया जाये।"
प्रयोजन-संचयी अभिलेख पत्र छात्र जीवन के गुणों एवं क्रियाओं का एतिहासिक पत्र है। इसके द्वारा निम्न प्रयोजनों की पूर्ति होती है-
1. अध्यापकों का किसी नये छात्र के बारे में शीघ्रता से जान लेना। इसी कारण छात्र के विद्यालय छोड़ने तथा नवीन विद्यालय में प्रवेश के साथ संचयी अभिलेख पत्र का भी स्थानान्तरण होता है।
2. किसी छात्र की मानसिक क्षमताओं तथा उपलब्धियों की पूरी जानकारी प्राप्त कर लेना।
3. छात्र के वैयक्तिक एवं सामाजिक समायोजन की समस्याओं से अवगत होना।
4. माता-पिता से मिलने तथा जानकारी प्राप्त करने में सुविधा का होना।
5. छात्रों की आवश्यकताओं से अवगत होने में सहायक।
6. छात्रों के बारे में वे सूचनायें प्राप्त करना जो बहुधा परीक्षाओं से प्राप्त नहीं होती है।
7. यह निदानात्मक, पूर्व कथनात्मक एवं उपचारात्मक क्रियाओं में सहायक होता है।
8. समस्यात्मक बालकों के कारणों को जानने में सहायक होता है।
संचयी अभिलेख पत्र के महत्व को स्पष्ट करते हुये गेरविरिच ने लिखा है. "इनमें केवल छात्र के अध्ययन से प्राप्त परिणामों का उल्लेख ही नहीं होता है वरन् यह एक ऐसा साधन भी है जिससे छात्र का अध्ययन भी सम्भव है। यह मूल्यांकन का उपकरण है भले ही यह न हो परीक्षण है और न परीक्षण की विधि |"
संचयी अभिलेख पत्र के प्रकार
संचयी अभिलेख पत्र प्रायः तीन प्रकार के होते हैं-
1. एकल पत्र (Single card) - इसका आकार 9" x 11 ½ " होता है। इस कार्ड पर दोनों ओर तथ्य लिखे जाते हैं। अधिक सूचनायें होने पर एक अतिरिक्त कार्ड का प्रयोग किया जाता है।
2. पुस्तिका (Booklet) या पैकिट फोल्डर- इसका आकार 82 " x 11" होता है और इसमें लगभग 48 पृष्ठ होते हैं। पैकिट में अनेक पत्र सूचनायें लिखकर रखे जाते हैं। शीघ्र पहचान के लिये कार्ड विभिन्न रंगों के भी हो सकते हैं।
3. फोल्डर (Folder) – यह 9 " x 12" आकार का होता है। इसमें चार भाग होते हैं। प्रथम भाग में छात्र का परिचय दूसरे भाग में घर के पर्यावरण, तीसरे में व्यक्तित्व के विकास और चौथे में विद्यालय के अनुभव आदि का वर्णन होता है।
संचयी अभिलेख पत्रों की विषयवस्तु
अभिलेख पत्रों में छात्र से सम्बन्धित सूचनाओं का संग्रह ही इनकी विषयवस्तु है। लेकिन यह विवादास्पद विषय है कि छात्र के बारे में किस सूचना को अभिलेख पत्र में स्थान मिलना चाहिये। प्रायः विद्यालय की व्यवस्था तथा बालक के कक्षा स्तर के आधार पर अभिलेख पत्र में सूचना का उल्लेख करना निर्भर होगा। यहाँ छात्र से सम्बन्धित विवाद रहित सूचनाओं का विवरण प्रस्तुत है, जिनका विवरण अभिलेख पत्र में अवश्य लिखना चाहिये-
1. व्यक्तिगत परिचय - नाम, जन्मतिथि, जन्मस्थान, लिंग, निवास स्थान जाति, प्रवेश तिथि, प्रवेश संख्या आदि।
2. परिवार- माता-पिता का नाम जीवित या मृत व्यवसाय, वार्षिक आय मकान निजी या किराये का, माता-पिता के वैवाहिक सम्बन्ध, भाषा, धर्म, भाई-बहिनों की संख्या, भाई बहिनों में क्रम आदि |
3. स्वास्थ्य- बालक की ऊँचाई, भार, सीने का माप, दाँतों की स्थिति, शारीरिक दोष, गम्भीर रोग, वंश परम्परागत रोग ।
4. उपस्थिति - विद्यालय में उपस्थिति की संख्या, लम्बी अनुपस्थिति का कारण |
5. योग्यता, रुचियाँ व व्यक्तित्व सम्बन्धी गुण -मानसिक व विशिष्ट योग्यता व्यक्तित्व सम्बन्धी गुण जैसे ईमानदारी, विनयशीलता, सामाजिकता, उद्यमिता, आत्मविश्वास, नेतृत्व, सहयोग आदि।
6. शैक्षिक कार्य- परीक्षाओं में विषयों के प्राप्तांक अधिगम हस्तकार्य कौशल, कक्षा में स्थान, असफलता का कारण।
7. जीविका सम्बन्धी योजना |
8. पाठ्य सहगामी क्रियायें खेलकूद, सांस्कृतिक व साहित्यिक क्रियायें जिनमें छात्र भाग लेता है।
संचयी अभिलेख पत्र निर्माण में ध्यान रखने योग्य बिन्दु-
1. संचयी अभिलेख पत्र की रूपरेखा विद्यालय के उद्देश्यों के अनुरूप होनी चाहिये ।
2. विषयवस्तु ऐसी व्यवस्थित रूप में हो जो बालक की क्रमिक प्रगति को स्पष्ट करे।
3. अभिलेख पत्र की रूपरेखा तैयार करने में सभी शिक्षकों का सहयोग होना चाहिये।
4. रूपरेखा ऐसी हो कि लिखने और पढ़ने में कठिनाई अनुभव न हो।
5. अभिलेख पत्र में तथ्यों को लिखने की एक नियमावली होनी चाहिये।
6. अभिलेख पत्र सुरक्षित स्थान पर रखे जाने चाहिये तथा प्रत्येक को देखने का अधिकार नहीं होना चाहिये।
7. इसकी रूपरेखा में लचीलापन होना चाहिये।
संचयी अभिलेख पत्र का नमूना
विद्यालय में रखे जाने वाले संचयी अभिलेख पत्र के अनेक प्रारूप हो सकते हैं। आगे एक ऐसे अभिलेख पत्र की रूपरेखा आपके समझने के लिये प्रस्तुत है-
अच्छे संचयी आलेख पत्र की विशेषतायें-
संचयी आलेख पत्र छात्र को समझने एवं उनको निर्देशन देने में अधिक योगदान प्रदान करते हैं। अतः उनमें निम्नलिखित विशेषताओं की उपस्थिति उनको और भी अधिक उपयोगी बना सकती है-
1. तथ्य का लेखन निष्पक्ष भाव से होना चाहिये।
2. आलेख पत्र की वैधता कायम रखने के लिये सत्य तथ्यों को आलेख में स्थान मिलना चाहिये।
3. छात्र जीवन के सभी पक्षों की सूचनाओं को संचयी आलेख पत्र में स्थान मिलना चाहिये।
4. वैधता और विश्वसनीयता की वृद्धि हेतु शिक्षकों के सामूहिक मूल्यांकन पर आधारित तथ्यों का आलेख में समावेश होना चाहिये।।
5. तथ्यों को व्यवस्थित करने हेतु तथ्यों का पुनर्मूल्यांकन करते रहना चाहिये।
6. आलेख में लिखी जाने वाली सूचना पूर्व में लिखित सूचना से प्रभावित नहीं होनी चाहिये।।
परामर्श की प्रविधियाँ
परामर्श का कार्य इतना जटिल है कि इसकी प्रक्रिया के अन्तर्गत अनेक ऐसे अवसर आते हैं जहाँ एक ही प्रविधि कारगर सिद्ध नहीं होती है। अतः परामर्श कार्य सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए समस्या और उपबोध्य को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त प्रविधि का प्रयोग करना पड़ता है। यहाँ कुछ प्रविधियों का वर्णन किया जा रहा है जो परामर्श कार्य में उपबोधक के कार्य को सरल बना सकती हैं-
1. मौन धारण प्रविधि
जब उपबोधक उपबोध्य की समस्या या वार्ता को चुपचाप बिना किसी टिप्पणी के धैर्यपूर्वक सुनता रहता है तो इसे मौन धारण प्रविधि कहते हैं। इस विधि में उपबोधक बिना किसी विघ्न के उपबोध्य की समस्या को समझने का प्रयास करता है एवं उसके दृष्टिकोण को स्वीकार करता है मौन धारण का दूसरा प्रभाव यह है कि उपबोध्य को अपने विचार तथा समस्या को विस्तार से स्पष्ट करने का अवसर प्राप्त होता है। ऐसा होने पर उपबोध्य के अचेतन में स्थित सभी कुण्ठाएँ बाहर आ जाती है। इस प्रविधि में उपबोधक उपबोध्य को अधिक बोलने के लिए प्रोत्साहित करता है। यदि कभी उपबोध्य बोलना बन्द करता है तो उपबोधक कुछ बोलकर उपबोध्य को बोलने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार समस्या को अच्छी प्रकार समझने के बाद अन्त में उपबोधक अपने विचार प्रकट करता है।
2. स्वीकृति प्रविधि
इस प्रविधि में उपबोधक जब उपबोध्य द्वारा विचार या दृष्टिकोण प्रकट करते समय 'ठीक है, अच्छा है आदि शब्दों का प्रयोग करके उसके विचारों को स्वीकृति प्रदान करता है तो इसे स्वीकृति प्रविधि कहते हैं। स्वीकृति प्रदान करने का मुख्य उद्देश्य उपबोध्य को अपने विचार निःसंकोच रूप से प्रकट करने की प्रेरणा देना है। उपबोधक द्वारा संकेतक रूप में स्वीकृति न देने की दशा में उपबोध्य को भ्रम हो सकता है कि उपबोधक उसमें या उसकी समस्या में रुचि नहीं ले रहा है। अतः उपबोधक को संकेत रूप में अपनी स्वीकृति देते रहना चाहिए।
3. पुनरावृत्ति प्रविधि
कुछ विद्वानों के अनुसार पुनर्कथन या पुनरावृत्ति और स्वीकृति में कोई भिन्नता नहीं है। लेकिन स्वीकृति और पुनरावृत्ति में अन्तर है। स्वीकृति में कुछ शब्दों का प्रयोग यह संकेत देने के लिए किया जाता है कि वह उपबोध्य के कथन के प्रति सजग है जबकि पुनरावृत्ति में उपबोधक उपबोध्य के कथन को दुहराता है ताकि उसको यह विश्वास हो जाये। कि उपबोधक सजग है तथा वह कथन के प्रति स्पष्ट हो जाये। अनेक बार पुनरावृत्ति का प्रयोजन उपबोध्य को यह आश्वस्त करने के लिए करता है कि वह उपबोध्य के दृष्टिकोण को समझ रहा है। ऐसा करने से उपबोध्य के वर्णन में विस्तार होता है।
4. स्पष्टीकरण प्रविधि
उपबोधक और उपबोध्य दोनों के लिए स्पष्टीकरण आवश्यक है। यदि उपबोध्य द्वारा कहीं कोई बात उपबोधक की समझ में नहीं आती है तो उसे उपबोध्य से उसकी बात को और स्पष्ट रूप में व्यक्त करने के लिए कहना चाहिए। इससे समस्या को समझने में सरलता होती है। कभी-कभी उपबोधक भी उपबोध्य की बात को अपनी समझ के •अनुसार स्पष्ट कर सकता है। ऐसा करने से उपबोध्य को विश्वास होगा कि उपबोधक उसके द्वारा व्यक्त तथ्यों में रुचि ले रहा है।
5. मान्यता प्रदान करने की प्रविधि
उपबोध्य वार्तालाप के समय अपनी समस्या से सम्बन्धित अनेक तथ्य तथा विचार व्यक्त करता है। ऐसे समय उपबोधक को उसके • तथ्यपूर्ण विचाचारों को बीच-बीच में मान्यता प्रदान करनी चाहिए। उपबोधक द्वारा मान्यता प्राप्त विचार उपबोध्य को आगे की योजना बनाने की प्रेरणा देते है।
6. सामान्य नेतृत्व प्रविधि
सामान्यतः प्रबोधक को यह अनुभव होता है कि उपबोध्य अब अपना वक्तव्य समाप्त करने वाला है तो उसे अपनी वार्ता को और आगे बढ़ाने की प्रेरणा देने के लिये इस प्रविधि का प्रयोग करना चाहिये। इस कार्य के लिये उपबोधक को वार्तालाप के समय अल्प नेतृत्व करना पड़ता है। वक्तव्य का अंश समाप्त होने पर उपबोधक पूछ सकता है कि तुम इस कार्य को करने की क्या योजना बना रहे हो ?"
7. विश्लेषण प्रविधि
इस प्रविधि में उपबोध्य द्वारा बतायी गयी समस्या ..और उससे सम्बन्धित तथ्यों का विश्लेषण उपबोधक द्वारा दिया जाता है। इस विश्लेषण में वे ही तथ्य तथा सूचनायें सम्मिलित होनी चाहिये जो उपबोध्य द्वारा वर्णित हो। उपबोधक को तथ्यों को तोड़-मरोड़कर विश्लेषण नहीं करना चाहिये।
8. विवेचन प्रविधि
विश्लेषण के बाद विवेचन आवश्यक है। विवेचना तथ्यों के विश्लेषण के बाद निष्कर्ष निकालने का महत्त्वपूर्ण सोपान है। उपबोधक विवेचना के बाद ऐसे निष्कर्ष निकालता है जिन निष्कर्षो तक पहुँचने में उपबोध्य अपने को असमर्थ पाता है।
9. परित्याग प्रविधि
कभी-कभी उपबोधक को उपबोध्य के विचार त्रुटिपूर्ण लगते हैं। ऐसे में दोषपूर्ण विचारों का परित्याग करना उपबोधक के लिये आवश्यक हो जाता है। परित्याग का उद्देश्य उपबोध्य की विचारधारा में परिवर्तन लाना है। परित्याग के समय उपबोधक को सावधान रहना चाहिये, क्योंकि उपबोध्य इसका गलत अर्थ लेकर नाराज न हो।
10. आश्वासन प्रविधि
आश्वासन स्वीकृति से अधिक व्यापक है। उपबोध्य को निराशा से बचाने के लिये आवश्यक है कि उपबोधक उसे आश्वस्त करता रहे कि उसकी समस्या का समाधान अवश्य होगा। ऐसा करने से उपबोधक में उसका विश्वास बढ़ेगा और वह उपबोधक से सम्पर्क स्थापित करने के लिये उत्सुक रहेगा।
11. व्याख्यान प्रविधि
शिक्षा जगत् में व्याख्यान प्रविधि का प्रचलन अधिक लोकप्रिय है। शिक्षण विधि के रूप में शिक्षकों द्वारा इसका उपयोग माध्यमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक किया जाता है। परामर्श के क्षेत्र इस प्रविधि का उपयोग कुछ अवसरों पर ही किया जाता है। व्याख्यान प्रविधि का उपयोग प्रायः सामूहिक परिस्थिति में किया जाता है। इसमें परामर्शदाता या वक्ता प्रधान होता है तथा उपबोध्य निष्क्रिय रूप में श्रवण करते हैं। इस प्रविधि का प्रयोग प्रायः निम्नलिखित कार्यों के लिये किया जाता है-
(i) उपबोध्यों को प्रेरित करने के लिये
(ii) समय बचाने के लिये
(iii) समस्या को स्पष्ट करने में
(iv) संक्षिप्तीकरण हेतु
व्याख्यान प्रविधि के गुण
(i) इसके माध्यम से समय और श्रम दोनों की बचत होती है।
(ii) इसके द्वारा उपबोध्य में तर्कशक्ति का विकास किया जा सकता है।
(iii) इसके द्वारा उपबोध्य में श्रवण क्षमता का विकास होता है।
(iv) उपबोध्यों में सामूहिकता का विकास सम्भव है।
(v) ध्यान केन्द्रित करने में सहायक है।
(vi) विचारोत्पादक व्याख्यान छात्रों में धैर्य और रुचि का विकास करता है।
व्याख्यान प्रविधि के दोष
(i) उपबोध्य केवल श्रोता मात्र, निर्जीव मूर्ति के समान बैठा रहता है।
(ii) परामर्श की दृष्टि से यह प्रविधि एक पक्षीय है।
(iii) उपबोध्य का अवधान विस्तार कम होने से अधिक समय तक ध्यान केन्द्रित करने में असमर्थ रहता है।
(iv) यह प्रविधि सैद्धान्तिक पक्ष पर बल देती है।
(v) उपबोध्य का मौलिक चिन्तन कुण्ठित होता है।
(vi) इससे परामर्श प्रक्रिया नीरस बन जाती है।
व्याख्यान प्रविधि प्रयोग करने हेतु सुझाव
(i) व्याख्यान देने से पूर्व इसकी रूपरेखा तैयार करनी चाहिये।
(ii) व्याख्यान की भाषा सरल और बोधगम्य होनी चाहिये।
(iii) व्याख्यान देते समय उपबोध्यों की भाव मुद्रा पर ध्यान देना चाहिये।
(iv) व्याख्यान में नीरसता नहीं होनी चाहिये।
(v) व्याख्यान को भाषा-शैली, उच्चारण और हाव-भाव पर ध्यान रखना चाहिये।
12. परिचर्चा
परिचर्चा भी परामर्श की एक महत्वपूर्ण प्रविधि है परिचर्चा से आशय किसी प्रकरण या समस्या स्तर पर परस्पर वार्तालाप करना। परिचर्चा वैसे तो परामर्श में परामर्शदाता और उपबोध्य के मध्य की स्थिति में उपयुक्त मानी जाती है, किन्तु इसका उपयोग सामूहिक परामर्श में भी किया जा सकता है। यह प्रविधि इस सिद्धान्त पर आधारित है कि उपबोध्य परामर्श प्रक्रिया में उपबोध्य की सम्भागिता जितनी अधिक होगी, उतना ही अधिक परामर्शदाता उपबोध्य और उसकी समस्या को समझ सकेगा। परिचर्चा को स्पष्ट करते हुये योकम और सिम्पसन ने कहा है कि परिचर्चा वार्तालाप का एक विशिष्ट रूप है। साधारण वार्तालाप की अपेक्षा परिचर्चा में उच्च स्तर के तार्किक विचारों का विनिमय होता है और वार्तालाप में महत्त्वपूर्ण विचारों या समस्याओं पर चर्चा होती है।" स्पष्ट है कि परिचर्चा शिष्ट, तार्किक एवं ज्ञान युक्त विचार-विमर्श है।
क्लार्क और स्टार के अनुसार, परिचर्चा किसी व्यक्ति को अहम् भाव प्रदर्शित करते हुये वार्तालाप में प्रभुत्व स्थापित करने का स्थान नहीं है और न अपने दृष्टिकोण को दूसरे पर लादना है। परिचर्चा अन्य शब्दों में न तो व्याख्यान है और न वर्णन |
हर्बट गुली ने ठोक लिखा है कि परिचर्चा उस समय होती है जब व्यक्तियों का समूह आमने-सामने एकत्रित होता है और मौखिक अन्तक्रिया द्वारा सूचनाओं का विनिमय करता है या किसी सामूहिक समस्या पर निर्णय लेता है। इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि परामर्श में सूचनाओं के आदान-प्रदान या किसी समस्या के समाधान में निर्णय तक पहुँचना ही परिचर्चा का उद्देश्य है।
परिचर्चा के सोपान
परिचर्चा में तीन सोपान निहित हैं-
(i) पूर्व तैयारी, (ii) संचालन और (iii) मूल्यांकन
(i) पूर्व तयारी - परिचर्चा प्रारम्भ करने से पूर्व परामर्शदाता को परिचर्चा को पूरी योजना बना लेनी चाहिये। परिचर्चा में छात्रों के बैठने की तथा परिचर्चा में भाग लेने वालों की सूची बना लेनी चाहिये। परिचर्चा का विषय निश्चित कर लेना चाहिये। विषय पहले से ही प्रतिभागियों को बता देना चाहिये।
(ii) संचालन - परिचर्चा का संचालन व्यवस्थित ढंग से होना चाहिये। संचालन में चार सोपान प्रयोग में आते हैं-1. नवाचार (Orientation), 2. विश्लेषण (Analysis), 3. व्याख्या (Explanation), 4. सारांश (Summarisation) |
(iii) मूल्यांकन-परिचर्चा की समाप्ति पर इसका मूल्यांकन होना चाहिये।
13. अभिनय
नाटकीयकरण भी परामर्श की एक प्रविधि है। इस प्रविधि का प्रयोग परामर्शदाता उपबोध्य से समस्या तथा उसमें स्वयं से सम्बन्धित तथ्यों को प्रकट करवाने के लिये करता है। अभिनय कला में परामर्शदाता को निपुण होना चाहिये।