लेखाशास्त्र की अवधारणायें
लेखाविधि में ऐसे ही तथ्यों एवं घटनाओं का लेखा किया जाता है , जो व्यापार की द्रष्टि से महत्वपूर्ण है , लेकिन इसमें सारहीन व कम महत्व की बातों का लेखा नही किया जाता है ; जैसे - कम्पनी य बड़े व्यापार के चिट्ठे में पेन्सिल,निब, पिनों के अंतिम स्टाक का हवाला नही दिया जाता है। ऐसे कार्यों में समय लगाना एक प्रकार का अपव्यय ही है।
लागत की अवधारणा
व्यापारिक संपत्तियों के लागत मूल्य में से ह्रास घटाकर दिखाया जाता है तथा चिट्ठे की तिथि पर इनका बाजार मूल्य क्या है , इस पर विचार नही किया जाता है, कभी-कभी तो ऐसा करना आलोचना का विषय बन जाता है। इसी प्रकार व्यापार की ख्याति भले ही 2 लाख रूपये क्यों न हो , यदि उसका भुगतान नही किया गया तो अब संपत्तियों में ख्याति नही दिखायी जायेगी।
विश्वसनीयता की अवधारणा
लेखा में विश्वसनीयता का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, प्रायः यह माना जाता है कि लाभ-हानि खाता एवं आर्थिक चिट्ठा व्यापार की वास्तविक स्थिति प्रदर्शित करता है।
ऐतिहासिक अभिलेख अवधारणा
इस अवधारणा के अनुसार लेखा पुस्तकों में प्रायः उन्ही लेन-देनों का रिकॉर्ड रखा जाता है जो वास्तव में घटित हो चुके हैं न कि संभावित लेन-देनो का।
शुद्ध लाभ की गणना की अवधारणा
व्यापर में शुद्ध लाभ को ही महत्व दिया जाता है;अतः इसकी गणना इस प्रकार से की जाती है जिससे कि इसमें किसी भी प्रकार की शंका न रहे और न ही बाद में कोई संशोधन करना पड़े।
वैध पक्ष अवधारणा
इस अवधारणा के अनुसार जहाँ तक सम्भव हो सके पुस्तकों में उन समस्त लेंन- देनों को लिखा जाना चाहिए , जो व्यवसाय की क़ानूनी स्थिति को ठीक प्रकार से प्रदर्शित कर सके।
मुद्रा-मापन की अवधारणा
इस अवधारणा के अनुसार लेखा-विधि का सम्बन्ध उन्हीं व्यवहारों एवं घटनाओं से होता है,जिनको मुद्रा में मापा या अभिव्यक्त किया जा सकता है। कुछ घटनाएं व व्यवहार व्यापर के लिए अति महत्वपूर्ण होते हैं, परन्तु यदि इन्हें मुद्रा में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता हो, तो इनका लेखा नहीं किया जाएगा।|
एन्थोनी के शब्दों, में यह अवधारणा और अधिक स्पष्ट हो जाती है -
"यदि कंपनी का प्रमुख संचालक किसी दुर्घटना में मर जाए तो व्यापर के लिए यह एक महत्वपूर्ण घटना है,लेकिन इसका मुद्रा में मापन न होने के कारण लेखा -विधि में इसका लेखा नहीं किया जाएगा।"
पूँजीगत तथा आयगत व्यवहारों की अवधारणा
लेखा विधि में लेखा करने से पूर्व यह देखा जाता है की अमुक आय या व्यय आयगत है या पूंजीगत |लाभ-हानि खाते में केवल आयगत व्यवहारों व्यवहारों का ही लेखा किया जाता है, जबकि पूँजीगत व्यवहारों का लेखा आर्थिक चिट्ठे में किया जाता है।
द्वि पहलू या दोहरा संयोग की अवधारणा
लेखा विधि 'दोहरा लेखा पद्द्ति' पर आधारित है|व्यापर का प्रत्येक लेन-देन दो खातों को प्रभावित करता है,किसी एक खाते को धनी (Cr.) किया जाता है,तो दूसरे खाते को ऋणी (Dr.) किया जाता है,इस प्रकार व्यापार में जितनी सम्पत्तियाँ होती हैं, उतना ही योग पूंजी एवं देनदारियों का होता है।
पृथक व्यवसाय सत्व की अवधारणा
इस अवधारणा के अनुसार लेखा-विधि में व्यापार का अस्तित्व तथा निजी अस्तित्व अलग-अलग रखे जाते हैं यही वह अवधारणा है,जिसके अनुसार व्यापार का उसके स्वामियों से स्वतंत्र एवं पृथक अस्तित्व होता है।यदि निजी व्यापारी भी व्यापार में से कुछ लेता है,तो उसका पृथक लेखा किया जाता है, जिससे व्यापार अपनी उचित एवं सही स्थिति प्रदर्शित करे।
वसूली या प्राप्ति की अवधारणा
यह एक महत्वपूर्ण समस्या है की आय को वसूल हुआ कब माना जाए रूढ़िवादी विचारधारा वालों की यह मान्यता है की जितना धन नकद प्राप्त हो जाए, उसे ही आय या बिक्री माननी चाहिए दूसरी ओर, यदि मॉल की शीघ्र बिक्री हो जाती है,तो जितना माल उत्पादित हो उसे आय मान लेना चाहिए,लेकिन यह दोनों ही विचारधाराएं अमान्य हैं।इन दोनों के मध्य की विचारधारा उपयुक्त है, अर्थात जितनी राशि का माल बेचा अर्थात जितनी राशि का माल बेचा जा चूका है, उसे 'वसूल हुई प्राप्ति ' मान लेना चाहिए और यदि इसमें से कुछ हानि होने की सम्भावना हो, तो उसके लिए 'सम्भावित डूबत ऋणकोष' बना लेना चाहिए।
चालू व्यवसाय की अवधारणा
लेखा शास्त्र की यह अवधारणा इस मान्यता पर आधारित है कि व्यवसाय अनन्त समय तक एवं निरंतर चलता रहेगा इसी अवधारणा के आधार पर लेखे किये जाने चाहिए यही कारण है कि वर्ष के अंत में अन्तिम खाते बनाते समय पुस्तकों में अदत्त एवं पूर्वदत्त व्ययों तथा उपार्जित एवं अनुपार्जित आय आदि का लेखा किया जाता है; जोकि भविष्य में समायोजित किये जाएंगे इसी प्रकार स्थाई सम्पत्तियों पर ह्रास उनके कुल जीवन के आधार पर अपलिखित किया जाता है, स्थाई संपत्तियों को लागत मूल्य पर दिखाया जाना चाहिए न की बाजार मूल्य पर लेकिन यदि व्यवसाय को समाप्त किया जा रहा है, तो उनके बाजार में मूल्य या प्राप्य मूल्य को ध्यान में रखा जाएगा न कि लागत मूल्य को।
लेखांकन अवधि की अवधारणा
प्रत्येक व्यवसाय में एक निर्धारित लेखा अवधि होती है, जिसकी समाप्ति पर अन्तिम खाते बनाए जाते हैं जिससे व्यवसाय से हुआ लाभ या हानि तथा वित्तीय स्थिति ज्ञात की जा सके यह लेखा विधि 12 माह की होती है, लेकिन यह तिमाही या छमाही भी हो सकती है,किन्तु वास्तव में यह अवधि व्यवसाय की प्रकृति, लेन-देनों की संख्या आदि पर निर्भर करती है।
पूंजी की अवधारणा
व्यवसाय में पूंजी का लेखा अलग से होना चाहिए तथा विभिन्न वर्षों के लाभ-हानि को भी पृथक रूप से दिखाकर पूंजी में समायोजित किया जाना चाहिए एकाकी व साझेदारी व्यवसाय में लाभ को पूंजी खाते में अंतरित करके दिखाया जाता है,जबकि कंपनी,व्यवसाय में इसे चिट्ठे में अलग से दर्शाया जाता है।
प्रमाण या सत्यापन की अवधारणा
लेखा पुस्तकों में जो भी लेखे किये जाते हैं,उनकी वैधता सिद्ध करने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है की उनके पीछे पर्याप्त प्रमाण हो बिना प्रमाणों के लेखे का कोई औचित्य नहीं होता और न ही उस पर कोई विश्वास ही करता हैजंहा लेन-देनों की संख्या कम होती है,व्यवसायी स्वयं व्यवसाय के समस्त कार्यों को संपन्न करता है,वहां इन प्रमाणों का अधिक महत्व नहीं होता,लेकिन बड़े पैमाने के व्यवसाय या व्यवहारों की दशा में,जहाँ अप्रत्यक्ष प्रबंध होता है, इन प्रमाणकों का महत्व बहुत बढ़ जाता है|वैधानिक दृष्टिकोण से प्रमाण का महत्व लेखांकन में और भी अधिक हो जाता है।