ईश्वर और जीव में क्या भेद है? अध्यात्म एवं विज्ञान- in hindi

पंचभूतों का प्रकटीकरण ही सृष्टि निर्माण का आधार है जब पंचभूत (भगवान) आपस में क्रियाकर एक बाह्य आवरण से स्वतः को ढंक लेते हैं और अपने चारों तरफ के पर्यावरण से अलग संरचना में रहते हैं तब इस अवस्था को निकाय अवस्था या निकाया कहते हैं जिसका विस्तृत विवरण मानस में दिया गया है।

गो गोचर जहँ लगि मन जाई सो सब माया जानेहु भाई ।।

(अरण्य काण्ड दो. 14 चौ. 2)

सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं । माया कृत परमारथ नाहीं ।।

(किष्किन्धाकाण्ड दो.6 चौ.9)

जगत् में जितने भी शत्रु मित्र और सुख-दुःख हैं. सब-के-सब मायारचित है परमार्थत: नहीं हैं।

इन्द्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है. हे भाई । उस सबको माया जानना अर्थात् इस जगत में जितना दिखता है या जिसकी कल्पना की जा सकती है वह सब रासायनिक क्रिया के परिणाम है और उसे माया ही मानना चाहिए। मन की गति भी रासायनिक क्रियाओं के परिणाम (मायागत) तक ही सीमित रहते हैं।

क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान ।

मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि इस समान।|

 (उत्तरकाण्ड दो.111 (ख))

क्या बिना द्वैत बुद्धि के क्रोध और बिना अज्ञान के क्या द्वैत बुद्धि हो सकती है? क्या माया के वश में रहने वाला परिच्छिन्न लगातार टूट-फूट का शिकार जड़ पदार्थ जीव तथा जाक्त पराश्रित है क्या ईश्वर के समान हो सकता है? 

माया अर्थात ऊर्जा की चाहत के कारण होने वाली क्रिया / रासायनिक क्रिया के नियंत्रण में रहने वाला क्षण भंगुर जड़ पदार्थों से बना हुआ जीव क्या ईश्वर अर्थात ऊर्जाधारी और स्वतंत्र ऊर्जा के समान हो सकता है? उत्तर है कदापि नहीं।

क्योंकि यह क्रियाओं के पूर्ण अधीन रहता है जैसी भौतिक व रासायनिक क्रिया होगी उसी प्रकार जीव व्यवहार करेगा। जबकि ईश्वर / ऊर्जा स्वतंत्रता से अपनी इच्छानुसार है। कार्य करती है या ऊर्जा चाहने वाले भक्त की इच्छा पर कार्य करती है |

माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव। 

बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव।। 

(अरण्य काण्ड दो. 15)

जो माया, ईश्वर और अपने स्वरूप को नहीं जानता वह जीव है जो बन्धन और मोक्ष देने वाला, सबसे परे और माया का प्रेरक है वह  ईश्वर है।

माया का आशय है ऊर्जा की चाहत के लिए क्रिया करना। यह चाहत विभिन्न प्रकार की होती है। जीव परिणाम है ऊर्जाधारक एवं ऊर्जा की क्रिया व होने वाले परिणाम का एवं जीवित बनने का कारण न जानने वाला प्राणी ही जीव है। बन्धन का कारण, बन्धन से मुक्ति देने की शक्ति ऊर्जा द्वारा सम्पन्न क्रिया व होने वाले परिणाम को उत्प्रेरित करने वाला और सभी इकाइयों / ऊर्जा धारकों से ऊपर रहने वाला मूल ऊर्जाधारक ही ईश्वर या मूलकण है।

देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक ते एका ।।

बंदत चरन करत प्रभु सेवा बिबिध बेष देखे सब देवा ।।

(बाल काण्ड दो.53 चौ. 04)

सर्ती विधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप ।

जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप ।।

(बाल काण्ड दो. 54)

अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखें, जो एक-से-एक बढ़कर एक असीम प्रभाव वाले थे। भाँति-भाँति के वेष धारण किये सभी देवता श्रीरामचन्द्रजी की चरण वन्दना और सेवा कर रहे हैं। उन्होंने अनगिनत अनुपम संती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखी। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता थे उसी के अनुकूल रूप में उनकी ये सब शक्तियाँ भी थीं।

ऊर्जा धारक जिन उपकरणों से संचालित होते हैं और जिन उपकरणों को संचालित करना हो उन्हीं के अनुरूप स्वरूप के समअंगी ऊर्जा रूप दिखाई देते हैं। जैसे काष्ठ में लगी आग काष्ठ के रूप की दिखाई देती है। इसीलिए अजन्मा देवता अर्थात् ऊर्जा (क्योंकि न इसका जन्म होता है न ही मृत्यु केवल इसका स्वरूप बदलता है) जिस-जिस स्वरूप में दिखाई देते हैं उसी स्वरूप में शक्ति दिखाई देती है क्योंकि ऊर्जा में ही शक्ति निहित रहती है। इसी प्रकार सती जी ने विधात्री ओर इन्द्राणी के अनुपम स्वरूप देखे और वह सब सम्बन्धित देवताओं के स्वरूप के अनुरूप थे। 

परम ब्रह्म भगवाना साधारणतः प्रकाश स्वरूप हैं जिनकी उपस्थिति मात्र से  विज्ञान का प्रादुर्भाव होता है और अज्ञान का नाश होता है। यहां पर भगवाना को समझना अत्यन्त आवश्यक है सामान्यतः हम पंच भूत भगवान (पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि, नीर) के द्वारा संयुक्तरूप से बनी संरचना को भगवाना कहते हैं क्योंकि इस संरचना आवरण के अन्दर यह पंचभूत भगवान उपस्थित है, यही बाह्य आवरण के साथ भगवान ही भगवाना है। आवरण अनेक आकार प्रकार का होता है। जिसकी भिन्नता के कारण शरीर के भिन्न-भिन्न नाम दिये गये हैं। पेड़ पौधों से लेकर विभिन्न जीवों तक चीटीं से लेकर हाथी मानव तक उसी खोल या आवरण का नामकरण है अन्दर की जीवात्मा एक ही हैं। आत्मा मल विहीन है किन्तु शरीर सदैव से मल की थैली है पंचभूत भगवान में चेतना लाने वाली ऊर्जा शक्ति ही शरीर आवरण के साथ भगवाना है। अब यह भगवान परब्रह्म अविनाशी अंशी का एक छोटा भाग अंश है जो स्वतः में चैतन्य है, मल रहित है. अर्थात् स्वच्छ निर्मल है, सहज है सभी के साथ मिलनशील है और इसी के कारण सभी को सुखों की अनुभूति होती है। इस भगवाना की विशेष बात यह है कि यह स्वतः को भी पूर्णतः नहीं जान पाता और न ही परम तत्व भगवाना को जानता है और अनजाने में पंचभूतों के समान क्षणिक क्रियायें करता है, जो स्वाभाविक रूप से पंचभूतों के गुण है। यह पंचभूत अपने-अपने गुणों के प्रभाव से इस शरीर को नचाते हैं और शरीर परम भगवाना को याद नहीं रखता। इसीलिए तत्क्षण रासायनिक क्रियाओं के माध्यम से क्षणिक भोग-विलास में लिप्त रहता है।

इसलिए जब तक शरीर रूपी भगवाना पंचभूतों को नियंत्रित नहीं करता तब तक वह अपनी-अपनी स्वतंत्र इच्छाओं के अनुरूप कार्य करते हैं। जैसे जल शीतल होने के कारण शीतलता चाहेगा। अग्नि गर्म होने के कारण ताप । वायु स्वतंत्र गति बनाये रखेगा व मन को उद्वेलित करता रहेगा। आकाश का उड़ना व पृथ्वी की स्थिरता अलग-अलग रूप में कार्य करते हैं। इनके यौगिक रूप में कार्य करने के लिए ही योग व योग सूत्र दिए गये हैं जिससे पूर्ण व्यक्तित्व का विकास हो सके। और शरीर के विभिन्न तंत्र संगठित होकर समन्वय पूर्वक कार्य कर सकें।

देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखंड |

रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड ।। 

(बाल काण्ड दो. 201 )

फिर उन्होंने माता को अपना अखण्ड अद्भुत रूप दिखलाया, जिसके एक-एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं।

श्रीराम ने माता को अपना अखण्ड अदभुत रूप दिखाया। प्रति रोम जिसके छोटे से छोटे हिस्से में भी करोड़ों ब्रह्मांड विभिन्न श्रेणियों के लगे हुए हैं।

जैसे जीवाणु - विषाणु के अन्दर उस स्वरूप की कल्पना करें जो अखण्ड है अर्थात् उसके टुकड़े नहीं किए जा सकते और वह संसार का सबसे छोटा कण है. जिसे ब्रह्मकण मूलकण भी कहा जा सकता है (आधुनिक विज्ञान में Standard Physical Model And Beyond में विस्तार से वर्णित किया गया है) इस अखण्ड कण में भी कोटि-कोटि ब्रह्मांड लगे हुए हैं जैसे परमाणु में लेप्टान, बोसोन, क्वार्कस और 49 प्रकार के कम महत्व के कण पाये जाते हैं। उस अखण्ड कण में अनेक ऊर्जा से परिपूर्ण सूर्य के समान प्रकाश व ऊर्जा देने वाले, चन्द्रमा के समान शीतल एवं ऊर्जा ग्रहण करने की शक्ति रखने वाले, ऑक्सीकरण करने में शिव के समान संहारक तथा ब्रह्मा के समान चार मुँह वाले कार्बन, बहुत सारे पर्वत श्रृंखलाओं के समान ऊर्जा संश्लेषण की क्षमता वाली संरचनाएँ, अनवरत ऊर्जा से ओत-प्रोत रहते हुए परिवहन का कार्य करने वाले सिंधु के समान हृदय. हृदय में बलिष्ट होती हुई नदियों के समान शिरा व धमनियाँ, उक्त सभी अंगों को धारण करने वाला पृथ्वी के समान शरीर एवं शक्ति संश्लेषित करने वाले शक्ति प्रवाहित करने वाले ऊर्जा स्रोत अंग का प्रदर्शन कराया।

देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति समीत जोरें कर ठाढ़ी ।|

देखा जीव नचावइ जाही देखी भगति जो छोरइ ताही ।।

(बाल काण्ड दो 201 चौ.02) 

सब प्रकार से बलवती माया को देखा कि वह भगवान् (भूमि गगन, वायु अग्नि, नीर) के सामने अत्यन्त भयभीत हाथ जोड़े खड़ी है। जीव को देखा, जिसे यह माया नचाती है और फिर भक्ति को देखा, जो उस जीव को माया से छुड़ा देती है।

विज्ञान की दृष्टि से "माया" अर्थात् ऊर्जा के संतुलन / चाहत के लिए होने वाली रासायनिक क्रिया अत्यन्त प्रभावी है. किन्तु उसकी क्रियाशीलता अन्य उपस्थित बलों के ऊपर आश्रित रहती है। जब पंचभूतों के वैद्युत चुम्बकीय बल में विभवान्तर उपस्थित होता है तब विलयन में आयनीकरण होता है और परमाणु से इलेक्ट्रॉन निकलकर क्रिया करते हैं। इलेक्ट्रॉन के द्वारा ऊर्जा संतुलन करने की प्रक्रिया को ही साम्यावस्था की प्रक्रिया कहते हैं। जिसे यह माना जा सकता है कि रासायनिक क्रिया बलों द्वारा उत्पन्न किये गये परिणामी बल पर निर्भर करता अर्थात् मायाप्रभु पंचभूतों के नियंत्रक ऊर्जा की इच्छानुसार ही कार्य करती है। यही माया या रासायनिक क्रियायें जीव के जीवन को पूर्णत नियंत्रित करती है। जीव का श्वास लेना भोजन ग्रहण करना, भोजन का पाचन होना, पाच्य भोजन का परिवहन व उसका शरीर में अवशोषण यह सब ऊर्जा आधारित उन्हीं पंचभूतों की प्रक्रिया के कारण होता है। इस चयापचय के परिणामस्वरूप चलने वाले जीव का जीवन चलता है एवं जीव की वृद्धि होती है जिसे माया के द्वारा जीव को नचाने की संज्ञा दी गई है। केवल परिणामी बल ही रासायनिक क्रियाओं से मुक्ति दिलाते है तो साम्यावस्था व शरीर में संतृप्तता की स्थिति ही शरीर एवं मन में होने वाले उद्वेग से बचाते हैं और मानव शांति का अनुभव करता है और भक्ति अति तृष्णा से मुक्ति दिलाती है।

सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू ।।

(बाल काण्ड दो 216 चौ.02)

विदेह (जनकजी) आनन्दित होकर कहते है-हे नाथ मुनि सुनिये, ब्रह्म और जीव की तरह उनमें स्वाभाविक प्रेम है।

विदेह अर्थात् बिना देह के देह की आसक्ति से मुक्ति को विदेह कहते हैं। ब्रह्म/ ऊर्जा और पदार्थ है और जीव ऊर्जा और पदार्थों के मिलन का परिणाम है जिससे इन दोनों के बीच का अन्तर्सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है। इनमें आत्मीयता है, दोनों एक है। इस प्रकार दोनों एक ही रूप के दो मान है। ऊर्जा से ही पदार्थ बनते हैं। समस्त पदार्थों में ऊर्जा होती है यह ऊर्जा रासायनिक क्रिया करके दो पदार्थों को मिला देती है या अलग कर देती है। रासायनिक क्रिया द्वारा मिलने या बिछुड़ने की प्रक्रिया को "माया" कहते है क्योंकि यह ऊर्जा पंचभूत की प्रक्रिया से सृजित शरीर में स्थापित रहते हुए शरीर को संचालित करती है इसीलिए इसे पंचभूतीय क्रिया धर्म भी कहते हैं जो रासायनिक क्रियाओं का परिणाम है।

औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोग |

अति बिचित्र भगवंत गति को जग जाने जोग ||

 अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।

 जे मतिमंद विमोह बस हृदय घरहिं कछु आन ।। 

(बाल काण्ड दो. 77)

श्रीरामजी के चरित्र अत्यन्त विचित्र लगते हैं लेकिन जो श्रेष्ठ ज्ञानीजन हैं वे सब जानते हैं। किन्तु जो मोह से ग्रस्त हैं और सूक्ष्म बुद्धि के हैं उनके हृदय में कुछ अन्य बातें रहती है।

 इस वैज्ञानिक विचार को ध्यान से समझने की जरूरत है क्योंकि जैसे ही श्रीरामजी के चरित्र की बात आती है तो हमें उनके सहज स्वरूप पर ध्यान देना होगा और वह है "सहज प्रकाश रूप भगवाना" वह सहज प्रकाश रूप है "लेइह दिनकर वंश उदारा" जो दिनकर कुल अर्थात् सूर्यकुल के हैं सूर्य के प्रकाश की किरणें जो फोटान के रूप में निकलती हैं उनमें केवल ऊर्जा होती है। जो संसार का शुद्धतम आवेश रहित ऊर्जा स्रोत है। विश्व का भोजन भी इन्हीं ऊर्जा कणों को पौधों द्वारा अवशोषित कर बनाया जाता है। ऊर्जा अवशोषण से ही प्रकाश संश्लेषण होता है और यह प्रक्रिया एक तरह से पंचभूतीय प्रक्रियाओं का समन्वित प्रयास है। प्रकाश किरणों में अन्य अनेक प्रकार की भिन्न-भिन्न तरंग दैर्ध्य की किरणें निकलती हैं जो संसार को अनगिनत प्रकार से प्रभावित करती हैं यदि प्रत्येक प्रकार की किरणों के गुणों और उनके द्वारा संसार में पड़ने वाले प्रभावों की कल्पना करें तो पता चलता है कि आज दिनांक तक संसार के सभी वैज्ञानिक तथ्य उस ज्ञान में अपूर्ण हैं यही सहज प्रकाश रूप प्रभु राम की प्रभुता की विचित्रता है। लेकिन इसका भान और ज्ञान बहुत कम श्रेष्ठ जनों को होता है।

यदि जन्म से किसी व्यक्ति के पूर्ण अंग नहीं होते हैं उसमें पैदा होने वाले बच्चे का क्या दोष। उसी प्रकार इस संसार में होने वाली बहुत-सी गतिविधियों के परिणामस्वरूप असंख्य लोग प्रभावित होते हैं जिसमें उनकी कोई भूमिका नहीं होती है। उसे समझ पाना मुश्किल होता है। उदाहरणस्वरूप किसी उद्योग से जहरीली गैसों का रिसाव होना और पास से गुजरते हुए राहगीरों की उस जहरीली गैस के कुप्रभाव से होने वाली मृत्यु के लिए दोषी कोई अन्य है और प्रभावित कोई और। उसी प्रकार सूर्य से निकलने वाली असंख्य किरणों में अनगिनत विभिन्नताएं होती हैं और एक ही स्थान पर रहने वाले प्राणियों पर उनका प्रभाव भिन्न-भिन्न पड़ता हैं। क्योंकि एक ही स्थान पर पड़ने वाली प्रकाश पुंज उस स्थान पर पायी जाने वाली भौतिक अवस्थाएँ जैसे हवा की गति, आर्द्रता और धूलकण से उन किरणों को प्रभावित करेगी और उनमें में विचलन के कारण पदार्थों में पड़ने वाले प्रभाव में अन्तर पड़ेगा। जो यह स्पष्ट करता है कि अपराध कोई करता है और फलभोग कोई और करता है और यही अति विचित्र बात भी हैं।

 ऊमरि तरु विशाल तव माया । फल ब्रह्माण्ड अनेक निकाया ।।

(अरण्य काण्ड दो 12 चौ. 3)

ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रतिवेद कहें।

 (बाल काण्ड छंद 191-5)

आदिशक्ति जेहिं जगउपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया || 

(बाल काण्ड दो. 151 चौ.04) 

आपकी माया गूलर के विशाल वृक्ष के समान है. अनेक ब्रह्माण्डों के समूह ही जिसके फल है। इच्छानिर्मित मनुष्य रूप में मैं तुम्हारे घर प्रकट होऊँगा हे तात! मैं अपने अंशों सहित देह धारण करके भक्तों को सुख देने वाले चरित्र करूँगा। आदिशक्ति यह मेरी (स्वरूपभूता) माया भी, जिसने जगत् को उत्पन्न किया है, अवतार लेगी |

जैसा कि ऊपर वर्णन में आया है "माया" ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की और शरीर की निर्माता है माया ही "जीव निकाया" और "ब्रह्माण्ड निकाया" का निर्माण करती है और उसे नियंत्रित भी करती है। इस माया की गूलर के विशाल वृक्ष से तुलना की गई है और इस वृक्ष में अनेक फल रूपी ब्रह्माण्ड है और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अनेकों निकाया या शरीर हैं और एक-एक शरीर में अनगिनत कोशाएँ हैं प्रत्येक कोशा में अनेको तंत्र है प्रत्येक तंत्र में अनको उपतंत्र हैं जो कोशा के लिए कार्य करते हैं जिन्हें कोशिका अवयव कहते हैं, यह समस्त कोशिका अवयव एक मात्र ऊर्जा के सहारे ही काम करते हैं। यह माया रासायनिक क्रियाओं का जाल है। प्रत्येक क्रिया में ऊर्जा का उत्सर्जन / अवशोषण या विनिमय होता है, जिससे क्रियाकारक क्रिया कर कुछ नये पदार्थ या उत्पाद बनाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया से यह स्पष्ट होता है कि एक ब्रह्म ऊर्जा शक्ति के द्वारा ब्रह्माण्डों का निर्माण होता है। और यह ब्रह्माण्ड ही करोड़ों ब्रह्म को उत्पन्न करने वाली व्यवस्था है। "यत पिण्ड तत् ब्रह्माण्ड " की कहावत को चरितार्थ करता है।

उपरोक्त पंक्तियों से स्पष्ट है कि माया मोह का पदार्थ न होकर व्यवस्थित क्रियात्मक प्रक्रिया है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखने पर भगवान के भक्तो को मोह जनित पर्दे से अवरोध नहीं होता है। यहां स्पष्ट किया गया कि जिस आदि शक्ति से जगत की उत्पत्ति हुई है, वह आदिशक्ति ऊर्जाधारक प्रभु की माया ही है। इन सब बातों से एकदम स्पष्ट हो जाता है कि मानस के आधार पर माया ऊर्जाधारक से प्रेरित है और सृजन, संचालन व संहार के लिए पूर्ण सक्षम है तथा यही ऊर्जा समस्त पदार्थों का सृजन करती है और इसी से संसार के सभी कार्य होते हैं। ऊर्जा के अतिरिक्त संसार में कोई दूसरा बल या शक्ति नहीं है। इन शक्तियों के धारक पंचभूत भगवान है और वहीं क्रिया कर संसार सृजन, संचालन एवं सहार करते हैं।

 लव निमेष महुँ भुवन निकाया रचइ जासु अनुसासन माया ।।

 (बाल काण्ड दो. 224 चौ.02)

 जिनकी आज्ञा पाकर माया. लव निमेष या पलक गिरने के चौथाई समय में ब्रह्माण्डों के समूह रच डालती है।

 जिनकी आज्ञा पाकर माया अर्थात रासायनिक क्रिया जिसमें दो पदार्थों की ऊर्जा के मिलन के लिए पदार्थ अपने अन्दर के इलेक्ट्रॉनिक विन्यास में परिवर्तन कर अन्य इलेक्ट्रॉनिक विन्यास से आने वाले इलेक्ट्रॉन / ऊर्जा के लिए स्थान बनाकर उसे ग्राह्य करता है। लव निमेष में (पलक गिरने के चौथाई समय में) ब्रह्मांडों के समूह रच डालती है। आधुनिक विज्ञान भी ऐसा ही मानता है। ऐसी मान्यता है कि प्रकृति में महा धमाके (Big Bang ) के क्षण सब कुछ Super Symmetric पूर्ण रूपेण सममिति था और सममिति टूटी तथा प्रकृति का वर्तमान स्वरूप बन गया। जैसे सूर्य से प्रति सेकेण्ड अनगिनत फोटान निकलते हैं और सूर्य किरणों के वाहक यह फोटान ऊर्जा के कोष हैं। प्रत्येक फोटान क्षणभर में असंख्य क्रियायें कर अगणित पदार्थ या ब्रह्माण्डों की रचना करने में सक्षम हैं।

इलेक्ट्रोविक फील्ड =विद्युत चुम्बकीय क्षीण नाभिकीय फील्ड 

 अनन्त रेंज होने से इसका फील्ड क्वांटा द्रव्यमान रहित होता है। एक ही रेंज अनंत है दूसरे की नाभिकीय कणों तक सीमित होने से इससे संबद्ध क्वांटा (W&Z. Born) अत्यधिक भारी होता है लेकिन एकीकृत फील्ड मिलने से फील्ड क्वांटा द्रव्यमान रहित मिलने से समस्या आ गयी। अर्थात कोई अन्य फील्ड किसी अज्ञात पार्टिकल का है। इसके अनुसार पदार्थ के मूल कणों में द्रव्यमान का प्रकट होना हिंग्स फील्ड के साथ उसकी अंतः क्रिया के कारण है। किसी भी मूल कण के साथ हिग्स पार्टिकल की जितनी अधिक अंतःक्रिया होगी उतना ही मूल कण में द्रव्यमान प्राप्त होगा। इस तरह इलेक्ट्रॉनिक फील्ड की सममिति टूटने पर हिग्स मैकेनिज्म ही एक प्रकार के बोसान को भारी बनाती है और दूसरे को द्रव्यमान रहित।

जीव चराचर जंतु समाना भीतर बसहिं न जानहिं आना ।।

(अरण्य काण्ड दो. 12.चौ.4)

चर और अचर जीव (गूजर के फल के भीतर रहने वाले छोट-छोटे) जन्तुओं के समान उनके भीतर बसते हैं।

सुर नर मुनि सचराचर साई में पूछ निज प्रभु की नाई ।।

(अरण्य काण्ड दो. 13चौ.3)

हे देवता, मनुष्य मुनि और चराचर के स्वामी । मैं अपने प्रभु की तरह (अपना स्वामी समझकर ) आपसे पूछता हूँ।

मोहि समुझाइ कहहुँ सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा ।। 

कहहु ग्यान बिराग अरु माया कहहुँ सो भगति करहुँ जेहिं दाया ।। 

(अरण्य काण्ड दो. 13चौ.4)

हे देव! मुझे समझाकर वही कहिये, जिससे सब छोड़कर मैं आपकी चरण रज की ही सेवा करूँ। ज्ञान, वैराग्य और माया का वर्णन कीजिये और उस भक्ति को कहिये जिसके कारण आप दया करते हैं।

 ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ |

जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ।।

 (अरण्य काण्ड दो. 14)

 हे प्रभो ! ईश्वर और जीव का भेद भी सब समझाकर कहिये, जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाएँ।

 मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हें जीव निकाया ।

(अरण्य काण्ड दो. 14 चौ.1)

मैं और मेरा, तू और तेरा यही माया है, जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है।

जीव देह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों की तुलना में नगण्य होने के कारण अपने चारों तरफ के पर्यावरण से अधिक प्रभावित होती है क्योंकि बाह्य परिवेश में उपस्थित विभव बल, गुरुत्वाकर्षण बल एवं चुम्बकीय बल इसे अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए यह स्वतः एवं अन्य में लगातार भेद करता रहता है और यह भूला रहता है कि मैं भी उसी बल का हिस्सा हूँ जो मेरे चारों तरफ उपस्थित है और रासायनिक क्रियायें भी आकर्षण बल के समान रूप होती है।

ईश्वर जीवहिं नहिं कछु भेदा ।

 ईश्वर अंस जीव अबिनासी |

चेतन अमल सहज सुखरासी ।।

(उत्तरकाण्ड दो. 116 ख चौ. 1) 

ईश्वर और जीव में भेद नहीं है क्योंकि जीव में भी ईश्वर का अविनाशी अंश रहता है और जीव का सम्पूर्ण शरीर भी भौतिक पदार्थों से बना होता है। यह पदार्थ ऊर्जा से बने होते हैं और यह ऊर्जा शाश्वत रहती है। यह न नष्ट होती है और न उत्पन्न होती है, केवल इसका रुपान्तरण होता रहता है। यह हमेशा मल विहीन, सहज एवं सुख का भंडार है।

अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया ।।

(उत्तरकाण्ड दो.86 ख चौ.6 )

 समस्त ब्रह्माण्ड भगवान से निर्मित है और भगवान सभी को बराबर का ह देते हैं अर्थात सब पर बराबर दया करते हैं।

मम माया संभव संसारा जीव चराचर बिबिध प्रकारा।।

 (उत्तरकाण्ड दो. 85 ख चौ.2 )

भगवान के कारण ही इस संसार में जड़ चेतन व समस्त प्रकार के जीवों का सृजन होता है। ऊर्जा एवं ऊर्जाधारक ही समस्त संसार में जड़ जगत और अन्यान्य जीवों को जन्म देते हैं।

सदा स्वतंत्र एक भगवाना राजा राम स्वबस भगवान।

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं देख ब्रह्म समान सब माहीं।।

कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ॥

 (अरण्य काण्ड दो. 14चौ.4)

ज्ञान वह है जहाँ मान आदि एक भी नहीं है और जो सबमें समान रूप से ब्रा को देखता है। हे तात्। उसी को परम वैराग्यमान् कहना चाहिये जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो। क्योंकि उसे परमाणु का ध्यान रहता है कि पूर्ण संसार परमाणुओं से मिलकर बना है और इलेक्ट्रॉन / ऊर्जा सभी में एक समरूप अवयव हैं।

प्रगट सो तनु तव आगें सोवा जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ।। 

(किष्किन्धाकाण्ड दो, 10 चौ.3)

वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है और जीव नित्य है फिर तुम किसके लिए रो रही हो।

बालि के निधन के समय तारा को समझाने के लिए ऊर्जाधारक श्रीराम ने चिकित्सकीय रूप से मृत शरीर के लिए कहा कि यह ऊर्जा एवं पदार्थ की दृष्टि से पूर्व की भाँति है और इसे सुप्त सोया हुआ माना जा सकता है जो ऊर्जा के विभिन्न स्वरूप की क्रियायें है वह लगातार चलती रहती हैं स्वरूप परिवर्तन के साथ वह नष्ट नहीं होती बल्कि दूसरे स्वरूप जिसमें ऊर्जा जाती है, की क्रियायें करने लगते हैं। पंच भूतों से बना यह शरीर तो नश्वर है क्योंकि यह अवयवों के एकत्रीकरण से बना है और यह पंच भूत सनातन प्रक्रिया का निर्वाह करते हैं, और जिस तरह एकत्र होकर शरीर का सृजन किया था विघटित होकर उसी तरह स्वतंत्र हो जाते हैं।

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि पंचभूतीय प्रक्रियाएँ ही जगत के सृजन, और संहार के लिए उत्तरदायी हैं। जो जीव निकाया एवं ब्रह्माण्ड निकाया का सृजन करती हैं। यह दोनों रासायनिक स्तर पर समान होते हुए भी स्वतंत्र सत्ता के आधार पर भिन्न हैं। जीव निकाया सीमित है और अन्य पर आधारित है। ब्रह्माण्ड निकाया में व्यापकता है ब्रह्माण्ड निकाया नगण्य मात्रा में प्रभावित करती है साथ ही ब्रह्माण्ड निकाया जीव के अस्तित्व को भी समाप्त कर सकती है।


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