दोहरा लेखा प्रणाली का अविष्कार सर्वप्रथम इटली के प्रसिद्ध गणितज्ञ 'लूकस पैसीयोली ' द्वारा सन 1994 ई. में किया गया था | इन सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन उनकी पुस्तक De Computiset Scripturis में किया गया है | एच.ओल्ड कैसिल द्वारा इस पुस्तक का सन 1543 ई.में अंग्रेजी अनुवाद किया गया | इसके उपरांत इसमें धीरे - धीरे और भी अनेक परिवर्तन एवं सुधार किये जाते रहे | अपनी विशेषताओं के कारण यह प्रणाली आज पूरे विश्व में प्रचिलित है |
इस पद्धति का प्रारंभिक चलन पश्चिमी देशों में होने के कारण इसे 'पाश्चात्य बहीखाता प्रणाली ' भी कहा जाता है कुछ व्यापारी इसे 'व्यापारिक बहीखाता प्रणाली ' भी कहते हैं |
दोहरा लेखा प्रणाली से आशय
साधारण शब्दों में, दोहरा लेखा प्रणाली से आशय पुस्तपालन की उस प्रणाली से है, जिसके अंतर्गत प्रत्येक लेन-देन को दो स्थानों पर लिखा जाता है,लेकिन अज इसका यह अर्थ नही लगाना चाहिए कि प्रत्येक लेन-देन य सौदे को दो बार लिखा जाता है | इस सौदे के दो रूपों में से एक रूप को एक जगह अर्थात पाने वाले के पक्ष में तथा दुसरे रूप को दूसरी जगह पर अर्थात देने वाले के पक्ष में लिखते हैं | यदि एक खाते में कोई वस्तु आती है, तो दुसरे खाते से अन्य वस्तु जाती है | यदि एक पक्ष को लाभ होता ही तो दुसरे को हानि | परिणाम यह निकला की प्रत्येक लेन-देन के दो पक्ष या रूप होतें हैं - एक ऋणी(Devit) एवं दूसरा धनी (Credit) | यही कारण है कि इस प्रणाली को 'दोहरा लेखा प्रणाली ' के नाम से जाना जाता है |
दोहरा लेखा प्रणाली की परिभाषाएं
- स्पाइसर एवं पेग्लर के अनुसार - "पुस्तपालन की दोहरा लेखा प्रणाली सौदों के लिखने की वह प्रणाली है, जिसमें यह माना गया है कि प्रत्येक सौदे के मुख्य दो रूप होते हैं -एक वह जिसमें एक खाते को मूल्य प्राप्त होता है और दूसरा वह जिसमें एक खाते को मूल्य देना पड़ता है | वह खाता जो कि मूल्य पाता है ऋणी Dr.किया जाता है और दूसरा खाता धनी Cr.किया जाता है |"
- विलियम पिकिल्स के अनुसार - "दोहरा लेखा प्रणाली में प्रत्येक सौदे के दोनों रूपों को लिखा जाता है - एक भाग पाने वाला होता है और दूसरा देने वाला, अर्थात प्रत्येक लेन-देन में एक खाता पाने वाला होता है और दूसरा देने वाला | पाने वाले खाते को ऋणी Dr.तथा देने वाले खाते को धनी Cr.किया जाता है |
दोहरा लेखा प्रणाली के गुण
- सरलता - यह प्रणाली बहुत सरल है; क्योकि एक साधरण बुद्धि वाला व्यक्ति भी इस प्रणाली को सरलता पूर्वक समझ सकता है |
- लोचाकता- यह प्रणाली बहुत लोचपूर्ण है, अर्थात इसे व्यापार की आवश्यकतानुसार घटाया-बढ़ाया जा सकता है |
- मितव्ययिता - यह प्रणाली बहुत मितव्ययी है | इसके आधार पर हिसाब-किताब रखने से समय एवं श्रम दोनों की बचत होती है |
- आर्थिक स्थिति का ज्ञान -अंतिम खाते बनाकर व्यापरी अपने लाभ- हानि, देनदारी एवं लेनदारी तथा संपत्ति एवं दायित्व आदि का ज्ञान सरलतापूर्वक एवं शीघ्रता से प्राप्त कर सकता है |
- अनावश्यक व्ययों पर नियंत्रण - इस पद्धति के प्रयोग से अनावश्यक व्ययों पर नियंत्रण करना संभव है; क्योकि व्यापरी को यह शीघ्र ज्ञात हो जाता है कि किन मदों पर व्यय कम हो रहा है और किन मदों पर अधिक |
- तुलनात्मक अध्ययन संभव - इस प्रणाली के द्वारा किसी एक निश्चित अवधी के आंकड़ों का किसी दूसरी अवधि के आंकड़ों से तुलनात्मक अध्ययन करना सरल एवं संभव हो जाता है |
- छल -कपट पर रोक - इस प्रणाली के अंतर्गत प्रत्येक लेन-देन का दो स्थानों पर लेखा करने से छल-कपट की सम्भावना बहुत कम हो जाती है |
- हिसाब-किताब की गणितीय शुद्धता की जाँच संभव - इस प्रणाली में तलपट बनाकर हिसाब-किताब की शुद्धता की जांच संभव हो जाती है | किसी भी प्रकार की अशुद्धि होने की दशा में उसका शीघ्रता से पता लगाया जा सकता है और फिर उसका सुधार भी किया जा सकता है |
- वैधानिक मान्यता- इस पद्धति के अनुसार किये गये लेन-देन पूर्ण एवं वैधानिक माने जाते हैं | उनको सरलतापूर्वक किसी भी विवाद के समय न्यायालय में प्रमाण स्वरुप प्रस्तुत किया जा सकता है |
- समस्त लेन-देनों का पूर्ण ज्ञान - इस प्रणाली के आधार पर लेखे तैयार किये जाने से क्रय -विक्रय, आय-व्यय,देनदार-लेनदार ,संपत्तियों एवं दायित्वों, रहतिया तथा पूजीं आदि से सम्बंधित सूचनाएं शीघ्र से शीघ्र प्राप्त की जा सकतीं हैं |
दोहरा लेखा प्रणाली के दोष
- केवल बड़े पैमाने के व्यापार के लिए उपयुक्त - यह प्रणाली केवल बड़े पैमाने वाले व्यापार के लिए ही उपयुक्त है |
- विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता - इस प्रणाली के नियमों तथा सिद्धांतों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता होती है |
- मितव्ययिता का आभाव - इस प्रणाली में अनेक बहियों का प्रयोग किये जाने से इसमें मितव्ययिता का अभाव पाया जाता है |
- नियंत्रण सम्बन्धी कठिनाई - इस प्रणाली में अशिक्षित तथा तथा साधारण ज्ञान वाला व्यापारी अपने मुनीमों,लिपिकों या लेखपालों आदि की गतिविधियों पर प्रभावी नियंत्रण नही रख सकता |
- व्यवहार का लेखा न होने के दोष - यदि कोई व्यवहार प्रारम्भिक लेखे की पुस्तकों में लिखने से रह जाता है, तो इसका पता बाद में अंकेक्षक द्वारा ही लगाया जा सकता है |