मशीन युग का प्रादुर्भाव
मुद्रणकला के आविष्कार तथा पुस्तकों के प्रचलन ने मानव-जीवन में क्रान्ति ला दी। शिक्षा का तेजी से प्रचार एवं प्रसार हुआ। मशीन युग आया तथा नये-नये आविष्कार हुए। मशीनों के आविष्कार और उद्योगों की तेजी से होने वाली वृद्धि ने एक सीमा तक ऐसी व्यावसायिक विशेषता को जन्म दिया जिसका भूतकाल में नाम भी नहीं सुना जाता था। माल के बढ़े हुए उत्पादन ने वितरण तथा उपयोग में किये जाने वाले विशेष कार्यों की संख्या में वृद्धि की है। मानव-जीवन में परिवर्तन तो आया. किन्तु पथ-प्रदर्शन की प्रणाली का ढंग वही पुराना ही रहा. अतः बेरोजगारी फैलने लगी। आज का मानव अपने जीवनयापन के यत्न में इतना व्यस्त है कि अपने शिशुओं की उचित देखभाल एवं शिक्षण नहीं कर पा रहा है, यही कारण है कि शिशुओं का उत्तरदायित्व शिक्षकों के कन्धों पर आ पड़ा है। अतः अब वर्तमान युग में निर्देशन प्रक्रिया को विद्यालय के क्षेत्र में सम्मिलित किया जाने लगा है।
मनुष्य के संचित अनुभवों का ज्ञान क्षेत्र इतना अधिक एवं जटिल हो गया है कि सब बालकों को पूर्ण ज्ञान एक साथ नहीं दिया जा सकता। अतः इसमें सुगमता लाने हेतु विविध विषयों का जन्म हुआ। विज्ञान की अनेकानेक शाखाएँ खुली, दर्शन की भी अनेक शाखाएँ खुलीं जिसमें मनोविज्ञान प्रमुख है। मनोविज्ञान भी बाल मनोविज्ञान, समाज-मनोविज्ञान, पशु मनोविज्ञान एवं औद्योगिक मनोविज्ञान आदि शाखाओं में विभाजित है।
मनोविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक बालक अपनी कुछ क्षमताएँ रुचियों, रुझान व मानसिक गुण रखता है। अतः यदि बालक को उसकी रुचियों, रुझानों, क्षमताओं एवं मानसिक गुणों के अनुसार शिक्षा प्रदान की जायेगी तो बालक का सर्वांगीण विकास अवश्य होगा। यह सिद्धान्त शिक्षाशास्त्र ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
जहाँ तक भारतीय शिक्षा के वर्तमान स्वरूप का प्रश्न है, पहले बालक के उच्च तथा उच्चतर शिक्षा प्राप्त करते ही शिक्षा का कार्य समाप्त समझा जाता था। शिक्षा का इस बात से कोई सम्बन्ध न था कि शिक्षा प्राप्त करके बालक समाज में अपना समायोजन कर पाता है या नहीं। वह स्वतन्त्र रूप से जीविकोपार्जन कर सकता है या नहीं ?
किन्तु वर्तमान स्वतन्त्र भारत की शिक्षा में आमूल परिवर्तन हो रहे हैं। देश की गरीबी दूर हो, मानव-जीवन अधिक समुन्नत हो, इसके लिये आवश्यक है कि जहाँ के विद्यालयों से निकलने वाले युवक हर दृष्टि से स्वावलम्बी हों। अतः हमें भी वर्तमान शिक्षा के आधार पर मनोविज्ञान के अनुसार, भावी पीढ़ी को विभिन्न उन्नत उद्योगों में लगाकर भारत का चहुँमुखी विकास करना है। यह सब उचित पथ-प्रदर्शन एवं निर्देशन से ही सम्भव है। इसलिये भारतीय विद्यालयों में भी निर्देशन की तरफ ध्यान दिया जाने लगा है। यहाँ संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि देशों में निर्देशन के विकास से सम्बन्धित इतिहास का विवरण देना उपयुक्त होगा।
भारत को निर्देशन से परिचित कराने का श्रेय श्री सोहनलाल एवं श्री के. जी. सैयदेन को है। निर्देशन का कार्य हमारे देश में अभी शैशवावस्था में ही है। प्रायः समस्त देशों में इसका प्रारम्भ व्यावसायिक समस्याओं से हुआ है तथा बाद में अन्य समायोजन के क्षेत्रों में फैला है। अन्य क्षेत्र या विषयों की अपेक्षा व्यावसायिक जगत् में निर्देशन की आवश्यकता अधिक अनुभव की गयी। भारत में भी निर्देशन सर्वप्रथम व्यावसायिक शाखा से प्रारम्भ हुआ।
भारत की कलकत्ता यूनिवर्सिटी में सन् 1915 में व्यावहारिक मनोविज्ञान की शाखा खोली गयी। उसी के अन्तर्गत 1938 में व्यावसायिक निर्देशन की शाखा स्थापित हुई जिसके अध्यक्ष श्री जी. एस. बोस थे। श्री बोस के अध्यक्ष-काल में मनोविज्ञान का प्रचार पर्याप्त बढ़ा।
बम्बई प्रान्त में श्री व्यावसायिक निर्देशन सम्बन्धी एक शाखा रिटायर्ड चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट श्री बाटलेबॉय के प्रयत्न से सन् 1941 में खोली गयी जिसने अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये। श्री बाटलेबॉय के • पास सीमित साधन तथा अर्थाभाव था, अतः उन्हें इच्छित सफलता प्राप्त न हो सकी। 6 वर्ष तक कार्य करने के पश्चात् उन्होंने अपने समस्त साधन, पारसी पंचायत, बम्बई को प्रदान कर दिये जो उनके समान ही उद्देश्य एवं विचार रखती थी। वर्तमान युग में भी पारसी पंचायत निर्देशन कार्य कर रही है।
पारसी पंचायत, बम्बई ने सन् 1947 से व्यावसायिक ब्यूरो सम्बन्धी कार्य प्रारम्भ किया। इससे सभी सम्प्रदाय के व्यक्तियों को व्यावसायिक निर्देशन दिया जाता था। इस पंचायत ने सराहनीय कार्य किया तथा निर्देशन की गति को आगे बढ़ाया। यह पंचायत 'केरियर मास्टर्स' के प्रशिक्षण की भी व्यवस्था करती। थी किन्तु पंचायत के सामने भी अर्थाभाव की ही समस्या थी।
बम्बई में निर्देशन ब्यूरो की अलग स्थापना सन् 1952 में की गई। वहाँ निर्देशन एसोसिएशन की भी स्थापना की गयी। श्री एच. पी. मेहता ने इस ओर विशेष प्रयत्न किये।
जालंधर में संयुक्त ईसाई मिशन, बम्बई में रोटरी क्लब तथा वाई. एम. सी. ए.. कलकत्ता ने इस सम्बन्ध में कई पुस्तकें प्रकाशित की। इन संस्थाओं द्वारा प्रकाशित पुस्तकों का महत्त्व निर्देशन जगत में आज भी अत्यन्त अधिक है।
उत्तर प्रदेश में सन् 1942 में इलाहाबाद में 'मनोविज्ञान निर्देशन ब्यूरो की स्थापना आचार्य नरेन्द्रदेव की अध्यक्षता में की गयी जिसका उद्देश्य उत्तर प्रदेश की माध्यमिक शालाओं में शिक्षा के साथ निर्देशन का अभ्यास भी प्रारम्भ करना था, जिसको सरकार ने शीघ्र ही पाँच मुख्य केन्द्रों , लखनऊ ,बनारस, बरेली, कानपुर तथा मेरठ में चालू किया।
सन् 1950 में बम्बई सरकार ने भी 'व्यावसायिक निर्देशन ब्यूरो की स्थापना की, जहाँ सूचनाओं का एकत्रीकरण तथा प्रसारण का कार्य होता था। अहमदाबाद तथा पूना में भी सरकार ने इसकी शाखाएँ खोली जहाँ कैरियर मास्टर तथा परामर्शदाताओं को प्रशिक्षण दिया जाता था। इसी प्रशिक्षण का यह फल है कि बम्बई प्रान्त में पर्याप्त मात्रा में निर्देशन कार्य हेतु कैरियर मास्टर्स उपलब्ध हैं।
भारत में 'माध्यमिक शिक्षा आयोग ने शिक्षा एवं व्यावसायिक निर्देशन का विस्तार किया। उसने तत्सम्बन्धी निम्न सुझाव प्रस्तुत किये-
1. शिक्षा निर्देशन को शिक्षा अधिकारियों के कार्यों पर अधिक ध्यान देना चाहिये।
2. छात्रों की क्षमता, रुचि, रुझान, प्रकृति एवं विभिन्न व्यवसायों के गुणों को देखकर उन्हें समुचित कार्यों में लगाना चाहिये।
3. सम्पूर्ण शिक्षण संस्थानों में प्रशिक्षित निर्देशन अधिकारियों एवं कैरियर मास्टरों की नियुक्ति की जाये।
4. केन्द्र को समस्त राज्यों में ऐसे प्रशिक्षणालय खोलने चाहिये, जहाँ निर्देशन उत्तम प्रशिक्षण प्राप्त कर सकें।
उक्त सुझावों के प्रभावों के प्रभाव से केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय ने 1954 में 'केन्द्रीय शिक्षा तथा व्यावसायिक ब्यूरो की स्थापना की जिसने निम्नलिखित मुख्य कार्य किये-
1. शालाओं में निर्देशन सम्बन्धी सहायता सामग्री की व्यवस्था की।
2. तकनीकी विशेषज्ञों को राज्यों के व्यावसायिक ब्यूरो का कार्य सौंपा गया।
3. मनोवैज्ञानिक ढंग से निर्देशन दिया जाने लगा।
4. समस्त देश में निर्देशन की क्रियाओं का विस्तार हुआ।
5. निर्देशन सम्बन्धी नियम ( Manuals) बनाये गये।
6. व्यावसायिक निर्देशन तथा 'नियोजन कार्यालय में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हुए जिससे निर्देशन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी कार्य हुए।
केन्द्रीय शिक्षा संस्थान, दिल्ली में शिक्षा मंत्रालय के तत्त्वावधान में एक सेमिनार का आयोजन किया गया, जिसमें अनेक निर्देशन कार्यकर्तागण सम्मिलित हुए तथा उन्होंने निर्देशन की प्रमुख समस्याओं पर वाद-विवाद किया। डॉ. डब्ल्यू. एल. बारनेट (Dr. W. L. Barnett) इसके अध्यक्ष थे। इसी प्रकार दूसरा सेमिनार भी उक्त संस्था के तत्त्वावधान में सन् 1954 में हुआ जिसमें यह निश्चत किया गया कि ऐसी संस्थाओं का जाल समस्त देश में फैलाया जाये और इस संस्था की स्थापना अखिल भारतीय स्तर पर की जाये जिसका सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय व्यावसायिक संस्था से हो। इसी वर्ष केन्द्रीय शिक्षा व व्यावसायिक ब्यूरो की स्थापना दिल्ली में हुई।
सन् 1960 में 'अखिल भारतीय निर्देशन कार्यालय भवन की स्थापना की गयी, जिसका उद्देश्य देश की माध्यमिक शिक्षा की प्रगति को जाँचना तथा गति का अध्ययन करना एवं क्षेत्र से सम्बन्धित संस्थाओं को प्रोत्साहन देना था।
सन् 1964 में निर्देशन आन्दोलन का स्वरूप अखिल भारतीय हो गया और केन्द्रीय सरकार ने राज्यों की निर्देशन संस्थाओं को सहयोग देने हेतु अलग विभाग की नियुक्ति की। इसके फलस्वरूप प्रायः समस्त राज्यों में निर्देशन शाखाओं की स्थापना की गयी।
व्यावसायिक निर्देशन आन्दोलन का प्रभाव भारत के समस्त राज्यों पर पड़ा तथा उड़ीसा राज्य में सन् 1955 में शिक्षा तथा मनोविज्ञान अनुसंधान के ब्यूरो को राज्य सरकार का निर्देशन ब्यूरो मान लिया। गया।
सन् 1955 में राजस्थान तथा मध्य प्रदेश राज्य में 1957 में आसाम तथा आन्ध्र प्रदेश में, 1957 में मैसूर तथा केरल राज्य में निर्देशन ब्यूरो की स्थापना की गयी।
'राष्ट्रीय बेरोजगार विभाग (N. E. S.) में भी निर्देशन सन् 1957 से प्रारम्भ हुआ। 'शिवराज कमेटी के आधार पर श्रम तथा नियुक्ति मंत्रालय, दोनों का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ जो नवयुवकों को व्यावसायिक तथा नियुक्ति सम्बन्धी परामर्श देते हैं।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना में व्यावसायिक निर्देशन तथा सेवा सलाहकार विभाग को भी राष्ट्रीय सेवा सलाहकार के अन्तर्गत कर दिया, जिससे राष्ट्र की पर्याप्त उन्नति होने की पूर्ण आशा है।
भारतीय शिक्षा के सुधार के लिये नियुक्त किये गये शिक्षा आयोगों की निर्देशन के सम्बन्ध में दी गई अनुशंसाओं का विवरण इस प्रकार है-
माध्यमिक शिक्षा आयोग
सन् 1953 में मुदालियर की अध्यक्षता में नियुक्त माध्यमिक शिक्षा आयोग ने शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन के विस्तार के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिये-
1. शिक्षा अधिकारियों को शैक्षिक निर्देशन के कार्य का पर्यवेक्षण एवं संचालन करना चाहिये।
2. सभी शिक्षा संस्थाओं में कैरियर मास्टरों की नियुक्ति होनी चाहिये।।
3. केन्द्र को प्रत्येक राज्य में कैरियर मास्टरों के प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित करने चाहिये।
4. छात्रों को उद्योग का ज्ञान कराने के लिये औद्योगिक कार्यों पर बनी फिल्में दिखाई जाये और उद्योग स्थलों का भ्रमण करवाया जाये।
कोठारी शिक्षा आयोग
सन् 1964 में डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में एक शिक्षा आयोग की स्थापना भारत सरकार ने शिक्षा के समग्र ढाँचे का निरीक्षण करने एवं शिक्षा सुधार के लिये उपयोगी सुझाव देने के लिये की। आयोग ने शिक्षा के समस्त अंगों पर विचार करने के साथ ही साथ निर्देशन एवं परामर्श की तात्कालिक स्थिति का अध्ययन किया और उसके सुधार के लिये महत्त्वपूर्ण संस्तुतियाँ दी जिनका अध्ययन निर्देशन के छात्र के लिये उपयोगी सिद्ध होगा। यहाँ आयोग द्वारा प्रस्तुत संस्तुतियों का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है-
निर्देशन सेवाओं के उद्देश्य एवं क्षेत्र विस्तार
आयोग ने निर्देशन सेवाओं के कार्य एवं क्षेत्र के सम्बन्ध में व्याप्त संकुचित दृष्टिकोण की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करते हुए लिखा है कि विद्यार्थियों को शैक्षिक एवं व्यावसायिक चयन में सहायता देना ही निर्देशन का कार्य नहीं है अपितु इन कार्यों के साथ-साथ समायोजन एवं विकास दोनों में सहायता देना निर्देशन का लक्ष्य होता है। निर्देशन छात्रों को घर एवं शिक्षा संस्थाओं की परिस्थितियों में सर्वोत्तम सम्भावित समायोजन प्राप्त करने में सहायता देने के साथ ही छात्र के व्यक्तित्व के सभी पक्षों के विकास में भी सहायता देता है। इसलिये निर्देशन को शिक्षा का एक अभिन्न अंग मानना चाहिये। इसको शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक सेवा तक ही सीमित नहीं करना चाहिये। निर्देशन सेवा केवल असामान्य बालकों के लिये ही नहीं होती, अपितु यह सभी विद्यार्थियों के लिये होनी चाहिये। निर्देशन निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जो समय-समय पर व्यक्ति को निर्णय लेने एवं समायोजन करने में सहायता पहुँचाती है।
प्राथमिक शिक्षा में निर्देशन
कोठारी आयोग ने निर्देशन के महत्त्व को अनुभव करते हुए यह संस्तुति प्रस्तुत की, कि निर्देशन प्राथमिक विद्यालय की सबसे छोटी कक्षा से प्रारम्भ किया जाये। निर्देशन का उपयोग बालकों के घर से विद्यालय में स्थानान्तरण को संतोषजनक बनाने, मूल शैक्षिक कौशलों को सीखने में अनुभव की जाने वाली कठिनाइयों के निदान करने, जिन छात्रों को विशेष शिक्षा की आवश्यकता हो उनको पहचानने.. विद्यालय छोड़ने वाले छात्रों को विद्यालय में रहने में सहायता देने, छात्रों में श्रम संसार के प्रति अन्तर्दृष्टि पैदा करने एवं श्रम संसार के प्रति उचित दृष्टिकोण विकसित करने और प्रशिक्षण या अग्रिम शिक्षा की योजनाएँ बनाने में सहायता देने में किया जा सकता है। आयोग ने इस बात पर दुःख प्रकट किया कि अब तक प्राथमिक स्तर पर निर्देशन के क्षेत्र में बहुत कम कार्य हुआ है। निर्देशन सुविधाओं का व्यापक रूप में विस्तार न होने के प्रमुख कारण शिक्षा संस्थाओं की बड़ी संख्या. अध्यापकों में पर्याप्त योग्यताओं का अभाव एवं साधनों की कमी रहती है। परामर्शदाताओं की कमी को देखते हुए अभी लम्बे समय तक इन विद्यालयों में परामर्शदाताओं की व्यवस्था करना कठिन होगा। अतः जब तक परामर्शदाताओं की व्यवस्था न हो जाये तब तक कुछ निर्देशन कार्य प्राथमिक विद्यालय के प्रशिक्षित अध्यापकों द्वारा किये जा सकते है। इसके साथ ही विद्यार्थियों की निर्देशन आवश्यकता को पूरा करने के लिये सामुदायिक साधनों का उपयोग किया जा सकता है। प्राथमिक विद्यालयों में निर्देशन कार्य प्रारम्भ करने के लिये निम्नलिखित सुझाव दिये-
1. प्राथमिक विद्यालय के अध्यापकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम में उन्हें नैदानिक परीक्षणों एवं वैयक्तिक भिन्नताओं की समस्या और कक्षाध्यापन में इन भिन्नताओं के प्रभाव से अवगत कराने के लिये उपर्युक्त बातों को सम्मिलित किया जाये।
2. प्रशिक्षण विद्यालय में कम-से-कम एक प्राध्यापक निर्देशन सिद्धान्त एवं मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जानकारी देने के लिये होना चाहिये।
3. प्रशिक्षण संस्थान एवं उनसे सम्बद्ध विद्यालयों में निर्देशन सेवाएँ संगठित की जायें ताकि प्रशिक्षणार्थियों को निर्देशन संगठन का प्राथमिक ज्ञान प्राप्त हो जाये।
4. जहाँ सम्भव हो सके वहाँ प्राथमिक शिक्षा के अध्यापकों के लिये लघु सेवा पाठ्यक्रम की व्यवस्था की जाये।
5. व्यावसायिक उपस्थापन हेतु बालकों के लिये साहित्य तैयार किया जाये और प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद कराके सभी को उपलब्ध करवाया जाये।
6. प्राथमिक स्तर की शिक्षा पूर्ण कर लेने पर भावी शिक्षा के पाठ्यक्रम के चुनाव के समय छात्रों एवं अभिभावकों की सहायता की जाये ताकि यह चुनाव परीक्षा परिणामों पर ही आधारित न रह सके।
माध्यमिक शिक्षा में निर्देशन
आयोग के अनुसार माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर निर्देशन का एक महत्त्वपूर्ण कार्य किशोर छात्रों की योग्यताओं एवं रुचियों के पहचानने एवं उनके विकास में सहायता देना है। इससे छात्रों को अपनी शक्तियों एवं सीमाओं को समझने एवं अपनी योग्यता के अनुरूप शैक्षिक कार्य करने में सहायता मिलेगी। निर्देशन शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसरों एवं उनकी उपेक्षाओं के सम्बन्ध में सूचना देने में सहायता करता है। निर्देशन के आधार पर छात्र सभी सम्बन्धित पक्षों पर विचार करके शैक्षिक एवं व्यावसायिक क्षेत्र में वास्तविक चुनाव करने और योजना तैयार करने में समर्थ होंगे तथा विद्यालय एवं घर में व्यक्तिगत तथा सामाजिक समायोजन की समस्याओं का समाधान खोज सकेंगे। निर्देशन सेवाएँ प्रधानाध्यापक एवं अध्यापकों को अपने छात्रों को व्यक्तिगत रूप में समझने और छात्रों के लिये अधिक प्रभावशाली ढंग से सीखने की परिस्थितियों का निर्माण करने में सहायक होंगी।
माध्यमिक शिक्षा आयोग की सिफारिशों के आधार पर केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय ने 1954 में शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन से केन्द्रीय ब्यूरो की स्थापना तकनीकी सहायता देने और माध्यमिक स्तर पर निर्देशन आन्दोलन को प्रोत्साहित करने के लक्ष्य से की। तृतीय पंचवर्षीय योजना में निर्देशन को केन्द्र द्वारा चालित योजना के रूप में स्वीकार किया और राज्यों में निर्देशन सेवाओं के विकास के लिये 13 ब्यूरो की स्थापना की गई। इनके प्रयत्नों से परामर्शदाता तथा कैरियर मास्टरों द्वारा विद्यालयों में छात्रों को निर्देशन सहायता प्रदान की जाने लगी। तृतीय योजना के अन्त तक सम्पूर्ण देश के लगभग 3000 माध्यमिक विद्यालयों में निर्देशन सेवा प्रदान की जाने लगी, जो देश के समस्त माध्यमिक विद्यालयों की संख्या का 13 प्रतिशत भाग था। इन 3000 विद्यालयों में से अधिकांश में कैरियर मास्टर ही थे जो सूचना सेवा प्रदान करने का कार्य करते थे।
आयोग ने इस बात पर क्षोभ प्रकट किया कि निर्देशन सेवाओं के संगठित आन्दोलन के होते हुए। भी इस क्षेत्र में प्रगति बहुत धीमी रही। हमारा अन्तिम लक्ष्य तो सभी माध्यमिक विद्यालयों में पर्याप्त निर्देशन सेवाएँ व्यवस्थित करना और निर्देशन कार्यक्रम का संचालन एक प्रशिक्षित परामर्शदाता द्वारा किया जाना चाहिये। जब तक पर्याप्त आर्थिक साधनों एवं निर्देशन प्रशिक्षण की सुविधा नहीं होती तब तक अगले 20 वर्षों के लिये निर्देशन के लघु कार्यक्रम को अपनाना चाहिये।।
आयोग ने इस लघु कार्यक्रम को प्रारम्भ करने के लिये निम्नलिखित सुझाव दिये-
1. एक-दूसरे से उपयुक्त दूरी पर प्रत्येक 10 विद्यालयों के लिये एक वीक्षक परामर्शदाता की व्यवस्था करके सभी माध्यमिक विद्यालयों के लिये संक्षिप्त निर्देशन सेवा सुलभ कराई जाये और निर्देशन के सरल कार्य अध्यापकों को सौंप दिये जायें।
2. वास्तविक निर्देशन सेवा के स्वरूप एवं उसकी उपलब्धियों का ज्ञान कराने के लिये प्रत्येक जिले में एक विद्यालय में विस्तृत निर्देशन सेवाओं की व्यवस्था की जाये। यह विद्यालय अन्य के लिये आदर्श रूप में कार्य करेगा।
3. राज्य निर्देशन ब्यूरो में विद्यालय कर्मचारियों के कार्य का निरीक्षण करने एवं परामर्श देने के लिये निरीक्षण अधिकारियों की नियुक्ति की जाये।
आयोग ने इसमें विश्वास प्रकट किया कि माध्यमिक विद्यालय के अध्यापकों को निर्देशन प्रत्यय एवं निर्देशन तकनीकों का ज्ञान देने के लिये इसे उनके प्रशिक्षण कार्यक्रम में सम्मिलित किया जाये जो प्रशिक्षणार्थी विषय का व्यापक एवं गम्भीर अध्ययन करने के इच्छुक हो उनके लिये विशिष्ट या व्यापक पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जाये। इसके साथ ही निर्देशन कार्यकर्त्ताओं के वृत्तिक प्रशिक्षण (Profes sional Training) के लिये पर्याप्त व्यवस्था की जानी चाहिये। कैरियर मास्टरों के प्रशिक्षण कार्यक्रम की व्यवस्था राज्य के निर्देशन ब्यूरो द्वारा तथा राष्ट्रीय रोजगार सेवा के अधिकारियों के सहयोग से प्रशिक्षण महाविद्यालयों द्वारा की जा सकती है। लम्बे समय के वृत्तिक पाठ्यक्रम विश्वविद्यालयों द्वारा प्रारम्भ किये जाने चाहिये।
अन्य सामान्य प्रस्ताव
1. निर्देशन साहित्य, व्यावसायिक सूचना सामग्री, फिल्म और फिल्मस्ट्रिप तथा मनोवैज्ञानिक परीक्षणों में कार्यक्रमों को तेजी से पूरा किया जाये। इस बात की सावधानी रखी जाये कि इस क्षेत्र में कार्यरत अभिकरणों के मध्य सहयोग स्थापित करके उनके प्रयत्नों को दोहराये जाने से बचाया जाये।
2. छात्रों के लिये मनोविनोदात्मक क्रियाकलापों और साथ ही साथ अंशकालिक रोजगार की व्यवस्था करने में विद्यालयों को सहयोग दिया जाना चाहिये। इनकी व्यवस्था इस प्रकार की जाये ताकि विद्यार्थी सार्थक अनुभव प्राप्त कर सकें और अपनी रुचियों एवं योग्यताओं को खोज सकें तथा उनका विकास कर सकें।
3. भारतीय परिस्थितियों में निर्देशन से सम्बन्धित शोधकार्य को अधिक महत्त्व दिया जाये।
भारत में निर्देशन की अभिकर्ता संस्थायें
भारत में निर्देशन सेवाएँ चार स्तरों पर संगठित की जाती हैं-केन्द्रीय स्तर राज्य स्तर, निजी स्तर और विश्वविद्यालय, कॉलेज और विद्यालय स्तर।
राष्ट्रीय स्तर की अभिकर्ता सेवाएँ
राष्ट्रीय स्तर पर निर्देशन सेवा प्रदान करने वाली एजेन्सीज सम्पूर्ण राष्ट्र में निर्देशन सेवा का विस्तार करने का प्रयास करती है। यहाँ राष्ट्रीय स्तर की कुछ अभिकर्ता संस्थाओं का परिचय देना आवश्यक है।
1. केन्द्रीय शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन ब्यूरो
शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन सेवाओं के विकास एवं विस्तार के क्षेत्र में यह केन्द्रीय ब्यूरो सबसे प्रमुख है। इसकी स्थापना सन् 1954 में हुई थी। प्रारम्भ काल में यह सी. आई. ई. (सेन्ट्रल इन्स्टीटयूट ऑफ एजूकेशन) के साथ संलग्न किया गया. किन्तु बाद में इसे एन. सी. ई. आर. टी. में मिला दिया गया। जहाँ यह एक स्वतन्त्र विभाग के रूप में बड़े लम्बे समय तक कार्य करता रहा, बाद में जब एन. सी. ई. आर. टी. के विभिन्न विभागों का पुनर्गठन किया गया तो निर्देशन विभाग के स्वतन्त्र अस्तित्व को समाप्त कर इसे एन. सी. ई. आर. टी. के मनोविज्ञान विभाग में मिला दिया गया। वर्तमान में यह विभाग शैक्षिक निर्देशन से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण प्रकाशन करता है, व्यक्तियों को प्रशिक्षण प्रदान करता है तथा निर्देशन क्षेत्र में अनुसंधान कार्य करता है।
2. अखिल भारतीय शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन संचन
राष्ट्रीय स्तर पर निर्देशन कार्यक्रम तथा विचारधाराओं का प्रसार करने में इस संघ का प्रमुख स्थान है। यह संघ राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न निर्देशन कार्यक्रमों को समन्वित करता है, निर्देशन कार्यक्रमों का प्रचार व प्रसार करता है, निर्देशन साहित्य का प्रकाशन तथा वितरण करता है तथा एक पत्रिका Journal or Vocational and Educational Guidance) का प्रकाशन भी करता है।
3. पुनर्वासन एवं नियोजन निदेशालय
यह निदेशालय केन्द्रीय श्रम पुनर्वास एवं नियोजन मन्त्रालय के अधीन कार्य करता है। प्रारम्भिक अवस्था में इस निदेशालय का कार्य पश्चिमी एवं पूर्वी (अब बांग्ला देश) पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को पुनर्वासित करना था किन्तु अब यह विभाग देश के समस्त रोजगार कार्यालय (Employment Exchanges की देखरेख करता है। यह निदेशालय राष्ट्रीय स्तर पर नियोजन कार्यक्रमों की देखरेख करता है, सैनिकों की भर्ती में सहायता देता है, निर्देशन तथा नियोजन सम्बन्धी प्रकाशन करता है। इसने विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित करीब 85 रोजगारी का परिचय देने हेतु छोटी पुस्तिकाएँ (Pamphlets) प्रकाशित की है ।
इस निदेशालय ने द्वितीय पंचवर्षीय योजना के दौरान युवक नियोजन सेवा (Youth Employment Service) प्रारम्भ की तथा दूसरी पंचवर्षीय योजना के समय नियोजन कार्यालयों में शैक्षिक व व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करने के लिये आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था की इन सेवाओं के अतिरिक्त यह निदेशालय विभिन्न प्रकार के निर्देशन साहित्य का प्रकाशन करता है, निर्देशन के क्षेत्र में अनुसंधान कार्यों को प्रोत्साहन देता है तथा प्रशिक्षण प्रदान करने की व्यवस्था करता है।
राष्ट्रीय स्तर की उपर्युक्त प्रमुख संस्थाओं के अतिरिक्त केन्द्रीय सरकार के विभिन्न मन्त्रालय प्रकाशन विभाग तथा कुछ अन्य संस्थायें भी निर्देशन के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करती है।
4. एन. सी. ई. आर. टी. (N.C.E.R.T.)
केन्द्रीय स्तर पर मानव संसाधन मंत्रालय की एक शाखा N. C. E. R. T. माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर निर्देशन सेवाओं की व्यवस्था करने से सम्बन्धित रही है। इस संस्था में स्थापित एक विभाग "मनोविज्ञान और शिक्षा के नाम से निर्देशन के क्षेत्र में सहायता प्रदान करता है। आजकल यह विभाग निर्देशन आन्दोलन को काफी शक्ति प्रदान करने में प्रयत्नशील है। इस आन्दोलन को मूर्तरूप देने की दृष्टि से अनेक शोध कार्य चल रहे हैं।
चूंकि निर्देशन सेवा हमारे देश में अभी शैशवावस्था में है अतः निर्देशन कर्मियों को अनेक कठिनाइयों एवं समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं का शोध कार्य द्वारा हल ढूँढ़ने का प्रयास किया जाता है। इसके अतिरिक्त हमारे देश में निर्देशन कार्य को कुशलतापूर्वक चलाने के लिये प्रशिक्षित कर्मियों का अभाव है। यह संस्था निर्देशन के लिये कुशल विशेषज्ञ तैयार करने की दृष्टि से प्रशिक्षण कार्यक्रम का भी आयोजन करती है। इसका एक अन्य कार्य सेवारत निर्देशन कर्मचारियों के लिये विस्तार कार्य (Extension Work) का आयोजन भी कर रही है। इसके द्वारा परामर्श तथा क्षेत्र सेवा मी प्रदान की जाती है। निर्देश से सम्बन्धित साहित्य का हमारे देश में अभी तक अभाव है। निजी प्रकाशक इस क्षेत्र में रूचि प्रदर्शित नहीं करते है।
अतः इस अभाव की पूर्ति के लिये एन. सी. ई. आर. टी. द्वारा निर्देशन साहित्य का प्रकाशन करके यह साहित्य विद्यालयों में निर्देशन कर्मियों को उपलब्ध करवाया जाता है। पूर्व में केन्द्रीय ब्यूरो Guidance Review नामक पत्रिका का प्रकाशन करता था लेकिन इस पत्रिका का प्रकाशन अब बन्द है। लेकिन आजकल एन. सी. ई. आर. टी. से प्रकाशित दो पत्रिकाओं Indian Educational Review और NIE में निर्देशन से सम्बन्धित लेख प्रकाशित होते रहते हैं।
राज्य स्तर की अभिकर्ता संस्थाएँ
1. राज्य शैक्षिक एवं व्यावसायिक ब्यूरो
प्रायः प्रत्येक राज्य में एक राज्य शैक्षिक एवं व्यावसायिक ब्यूरो की स्थापना की गई। राज्यों में इसकी स्थापना मुदालियर शिक्षा आयोग की सिफारिशों का परिणाम है। राजस्थान राज्य में इसकी स्थापना 1985 ई. में की गई। इसका कार्यालय बीकानेर में रखा गया। यह ब्यूरो राज्य में निर्देशन से सम्बन्धित साहित्य का प्रकाशन करता है, निर्देशन कार्यकर्त्ताओं को प्रशिक्षण प्रदान करता है, पत्रिका: (राजस्थान गाइडेंस न्यूज रीडर) निकालता है, विद्यालयों में निर्देशन सेवाओं की व्यवस्था करता है तथा निर्देशन के क्षेत्र में अनुसंधान कार्यों को प्रोत्साहन देता है।
2. राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान
राजस्थान ने इसकी स्थापना 17 अक्टूबर 1978 में उदयपुर में हुई थी। इस संस्थान में 8 विभाग हैं जो इस प्रकार है-विज्ञान व गणित प्रभाग, मानविकी एवं समाज विज्ञान प्रभाग, मनोवैज्ञानिक प्रभाग. अनौपचारिक शिक्षा विभाग, शैक्षिक प्रशासन, परिवीक्षण व आयोजना विभाग, भाषा अध्ययन विभाग, पत्राचार विभाग, तकनीकी शिक्षा विभाग। यह निर्देशन के क्षेत्र में भी सहायता प्रदान करता है। निर्देशन के प्रशिक्षण के लिये ग्रीष्मकालीन शिवरों का आयोजन होता है। निर्देशन सम्बन्धी साहित्य का प्रकाशन करवाता है।
राज्यों में ब्यूरो के अलावा निर्देशन सेवाओं की देखभाल करने में निम्न संस्थाओं का भी सहयोग मिलता रहता है -
(i) नियोजन कार्यालय
(ii) विश्वविद्यालय
(iii) शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय
(iv) कुछ राज्यों में मनोविज्ञान ब्यूरो भी इस कार्य हेतु स्थापित कर रखे हैं।
राज्य स्तर की एजेन्सियों के कार्य
राज्य स्तर की एजेन्सियों के मुख्य कार्य निम्नलिखित है-
1. राज्य के अन्दर निर्देशन सेवाओं की योजना बनाना, उनमें परस्पर सहयोग स्थापित करना तथा निरीक्षण करने में सहायता प्रदान करना।
2. परामर्श प्रदान करना।
3. व्यवसायों के बारे में सूचनाएँ एकत्रित करना और सूचना सामग्री का प्रकाशन करना।
4. कुछ विद्यालयों में सामूहिक निर्देशन की व्यवस्था करना।
5. परीक्षण, प्रश्नावली, जाँच सूची का निर्माण या अनुवाद करवाना।
6. निर्देशन कर्मियों के लिये प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की व्यवस्था करना।
7. निर्देशन के क्षेत्र की समस्याओं का शोध कार्य द्वारा निवारण करवाने में सहायता प्रदान करना।
निजी निर्देशन एजेन्सीज
निर्देशन के क्षेत्र में कुछ निजी एजेन्सीज भी कार्यरत है। ये देश के विभिन्न भागों में स्थित है। ऐसी संस्थान धर्मार्थ ट्रस्ट या सामाजिक संगठनों द्वारा स्थापित की जाती है। इन एजेन्सीज का मुख्य कार्य छात्रों तथा प्रौढ़ों को व्यावसायिक निर्देशन सेवा प्रदान करना है। इनमें से कुछ संगठन निःशुल्क सेवा प्रदान करते हैं तो कुछ शुल्क वसूल करते हैं। पारसी पंचायत का नाम उल्लेखनीय है।
विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों द्वारा संचालित एजेन्सीज
विश्वविद्यालयों में बी. एड., एम. एड. तथा एम. ए. मनोविज्ञान के पाठ्यक्रम द्वारा निर्देशन का ज्ञान छात्रों को करवाया जाता है।
भारत में निर्देशन की समस्यायें
भारत में निर्देशन का प्रारम्भ अपनी शिशु अवस्था में है और धीरे-धीरे इनका विकास हो रहा है। परन्तु इस विकास में निर्देशन निम्नलिखित समस्याओं का सामना कर रहा है जिसकी वजह से इसकी प्रगति धीमी है—
1. अप्रशिक्षित शिक्षक
भारत में वैसे ही साधारण शिक्षा प्रदान करने हेतु प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव है और जहाँ तक प्रशिक्षित निर्देशकों का प्रश्न है, यह अभाव तो और भी अधिक है। हमारे देश में प्रशिक्षित निर्देशकों के अभाव के कारण निर्देशन देने में परेशानी होती है क्योंकि निर्देशन देना जनसाधारण का कार्य नहीं। यह कार्य तो अत्यन्त योग्य, प्रशिक्षित तथा धैर्यशील व्यक्तियों द्वारा सम्पन्न किया जाता है। क्योंकि निर्देशन प्रक्रिया में जरा-सी असावधानी एक मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन को ही बदल सकती है, इसलिये अपूर्ण ज्ञानयुक्त निर्देशक के हाथों हम निर्देशन का कार्य नहीं सौंप सकते। भारत में भी अयोग्य निर्देशकों के द्वारा निर्देशन प्राप्त करने से तो अच्छा है कि निर्देशन हो ही नहीं। परन्तु हर्ष की बात है कि भारत के कुछ राज्यों ने इस प्रकार के प्रशिक्षण हेतु कदम उठाये है; उदाहरणार्थ-पश्चिमी बंगाल में 'कैरियर मास्टर का प्रशिक्षण दिया जाने लगा है।
2. शिक्षकों पर अति कार्य भार
भारत में शिक्षकों को अत्यधिक कार्य करना पड़ता है। अध्यापन कार्य के अतिरिक्त अध्यापक को अन्य कार्य इतने करने पड़ते हैं कि वह और किसी कार्य हेतु अपना समय नहीं बचा सकता। अध्यापकों पर अध्यापन कार्य भी इतना रहता है कि दे उसी कार्य को कुशलतापूर्वक सम्पन्न नहीं कर पाते। साधारणतया एक अध्यापक को 36 घण्टे (Periods) प्रति सप्ताह लेने पड़ते है। नौकरी के भय से बेचारा अध्यापक पढ़ाता तो है पर यह उसका पढ़ाना भर मात्र ही है, वास्तविक शिक्षा देना नहीं। फिर हम यह आशा करें यह निर्देशन भी दे, यह असम्भव है।
दूसरे, एक विद्यालय में शिक्षक वर्ग तथा छात्र संख्या में अनुपात इस प्रकार का होता है कि निर्देशन प्रक्रिया असम्भव हो जाती है। साधारणतया 1 और 40 का अनुपात होता है। यह अनुपात अत्यन्त अधिक है। एक शिक्षक 40 छात्रों को निर्देशित करेगा, यह कल्पना से बाहर की बात है।
3. प्रमापीकृत टैस्टों का अभाव
निर्देशन क्रिया हेतु सबसे अधिक आवश्यक सामग्री टैस्ट है। टैस्ट एक योद्धा के हथियार के समान है। यह हथियार ही न होगा तो युद्ध कैसे ? इसी प्रकार जब टेस्ट ही नहीं तो निर्देशन कैसे ? भारत में जो भी उपलब्ध टैस्ट है वे अंग्रेजी में है, जो हमारा कार्य सिद्ध नहीं कर सकते हैं क्योंकि छात्रों की एक बड़ी संख्या अंग्रेजी नहीं जानती। किन्तु हर्ष की बात है कि भारत में भी टेस्ट निर्माण कार्य राज्यभाषाओं में बनाने की दिशा में कुछ विद्वानों ने कदम उठाये हैं, परन्तु इस प्रकार के टैस्टों की संख्या इतनी अधिक नहीं है कि उनके द्वारा हम छात्रों के सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकें।
4. अशिक्षित तथा रूढ़िवादी माँ-बाप
भारत की अधिकांश जनता अशिक्षित है। यहाँ के अधिकांश लोगों ने निर्देशन का नाम तक नहीं सुना। इस प्रकार की जनता मला निर्देशन के महत्त्व को क्या समझेगी ? इसके साथ ही साथ भारत में जो थोड़ी-बहुत शिक्षित जनता है भी वह रूढ़िवादी है, वह अपनी परम्पराओं के अनुसार अपने बच्चों को व्यवसाय चयन के लिये बाध्य करती है। इनका दृष्टिकोण व्यवसाय चयन के सम्बन्ध में पक्षपातपूर्ण होता है। इस प्रकार भारतीय व्यक्तियों ने सामाजिक परिपक्वता अभी प्राप्त नहीं की है।
5. विद्यालयों में पाठ्यक्रम
अब तक शिक्षा विचारधाराएँ ब्रिटिश राजनीति से प्रभावित रही. अतः निर्देशन को पाठ्यक्रम में या स्कूल में स्थान मिलने का प्रश्न ही नहीं था। अब स्वतन्त्र भारत में बेसिक शिक्षा तथा बहु-उद्देश्यीय विद्यालयों का विकास हो रहा है, परन्तु इन विद्यालयों में ज्ञान की समस्त शाखाओं के अध्यापन की व्यवस्था नहीं है, फलतः छात्रों को उनकी योग्यता, क्षमता तथा रुचि के अनुसार शिक्षा नहीं दी जा सकती है। उदाहरणार्थ- इंजीनियरिंग या टेक्नीकल व्यवसाय हेतु उन विद्यालयों में क्या निर्देश दिया जा सकता है जहाँ पर गणित, भौतिक विज्ञान या रसायन विज्ञान के अध्ययन की सुविधा नहीं है।
6. एक राष्ट्रभाषा का अभाव
भारत में विभिन्न भाषाएँ बोली जाती है। प्रत्येक राज्य की अपनी-अपनी पृथक् राज्य भाषा (State Language) है। इतना ही नहीं, एक राज्य में भी कई-कई भाषाएँ देखी जाती हैं। अगर यह कहा जाये कि विभिन्न भाषाओं की उपस्थिति के कारण यह देश एक महाद्वीप है तो अतिशयोक्ति न होगी। इस प्रकार एक राज्य का रहने वाला निर्देशन दूसरे राज्य में जाकर निर्देशन का कार्य सफलतापूर्वक नहीं कर सकता। उदाहरणार्थ, पश्चिम बंगाल से आये हुए कैरियर मास्टर्स' उत्तर प्रदेश या राजस्थान में निर्देशन कार्य सफलतापूर्वक नहीं कर सकते हैं; क्योंकि पश्चिम बंगाल से आये निर्देशक न भाषा समझ पायेगा और न छात्र ही उसकी भाषा समझ पायेंगे।
दूसरे विभिन्न भाषाएँ होने के कारण यह भी आवश्यक हो जाता है कि टेस्ट भी विभिन्न भाषाओं में हो। भारत में कुछ भाषाओं में तो कोई भी टेस्ट नहीं है, इस कारण भी भारत में निर्देशन-क्रिया में कठिनाइयाँ आती है।
7. विद्यालयों की दयनीय आर्थिक व्यवस्था
भारत के शत-प्रतिशत विद्यालयों की आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय है। कुछ विद्यालयों की दशा तो इतनी खराब है कि वह अध्यापकों का वेतन पर्याप्त तथा समय पर नहीं दे पाते। इस अवस्था में यह उम्मीद करना कि ये विद्यालय निर्देशन-क्रिया में होने वाले खर्चों का भार भी वहन कर सकेंगे, व्यर्थ ही होगा। निर्देशन-क्रिया श्रम, बुद्धि तथा धन तीनों चाहती है। इस प्रकार आर्थिक कारण भी निर्देशन-मार्ग में कठिनाई उपस्थित करते हैं।
8. त्रुटिपूर्ण परीक्षा-प्रणाली
भारत में परीक्षा-प्रणाली अत्यन्त त्रुटिपूर्ण है। परीक्षा वैषयिक तथा वस्तुनिष्ठ नहीं है। छात्र कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर रटकर ही उत्तीर्ण हो जाते हैं, उन्हें परीक्षा पास करने हेतु किसी विशेष योग्यता या क्षमता की आवश्यकता नहीं पड़ती है। किसी भी प्रकार की रुचियों वाला छात्र किसी भी विषय की परीक्षा इसी पद्धति से उत्तीर्ण कर लेता है। इस प्रकार छात्र की रुचियों, क्षमताओं इत्यादि का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो पाता है और निर्देशन-क्रिया असम्भव हो जाती है।
9. जाति प्रथा
जाति प्रथा भारत में निर्देशन कार्य में समस्या उत्पन्न करती है। वास्तविक रूप से यदि देखा जाये तो जाति प्रथा भारत में व्यावसायिक निर्देशन का प्राचीनतम रूप है। परन्तु यह प्रथा दोषयुक्त थी क्योंकि इस प्रणाली में बच्चे की क्षमतादि का ध्यान नहीं रखा जाता था और जातिगत तथा परिवारगत व्यवसाय का बच्चे के व्यवसाय चयन पर प्रभाव पड़ता था। उसके लिये जातिगत व्यवसाय के अलावा अन्य व्यवसाय का चयन कल्पना मात्र था। उदाहरण के लिये एक हरिजन बच्चे को चाहे उसकी योग्यताएँ कुछ भी क्यों न हो, व्यापार या व्यवसाय सम्बन्धी परामर्श कैसे दिया जा सकता है. इसके सम्बन्ध में उसके माता-पिता ने कभी सोचा तक नहीं।
10. सूचनाओं का संकलन तथा विश्लेषण करने के व्यवस्थित संगठन का अभाव
भारतीय स्कूलों में न तो स्कूल स्तर पर ही और न जिला या प्रान्तीय स्तर पर ही कोई ऐसी संस्था है जो छात्रो के सम्बन्ध में आवश्यक सूचनाएँ संग्रहीत करे तथा संकलित सूचनाओं का विश्लेषण छात्रों की क्षमता तथा योग्यता का पता लगाने को करे। वर्तमान आर्थिक स्थिति को देखते हुए यह कार्य जिला या प्रान्तीय स्तर पर ही सम्भव है। इन सूचनाओं के अभाव में भी किसी प्रकार का निर्देशन नहीं दिया जा सकता है।
11. शिक्षा में अन्वेषण ने अभी तक प्रवेश नहीं किया
शिक्षा में अभी अन्वेषण कार्य ने प्रवेश नहीं किया है तथा थोड़ा-बहुत जो काम हुआ है, वह अत्यन्त कम है। इस कारण भी भारत में अभी निर्देशन सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर रहा है।
12. बेकारी तथा अर्द्ध-बेकारी
एक देश में जहाँ अनेक रोजगार नहीं होते हैं, वहाँ व्यावसायिक निर्देशन मृतप्राय है जहाँ अनेक व्यवसाय उपलब्ध हो, वहीं निर्देशन उचित कार्य कर सकता है। बेकारी की अवस्था में व्यक्ति उचित तथा अनुचित व्यवसाय का ध्यान न करके उसे कोई सा भी व्यवसाय अपनाना पड़ता है। भारत एक अर्द्धविकसित देश है। यहाँ बेकारी की समस्या मुँहबाये खड़ी है। व्यक्ति अपनी क्षमता तथा योग्यता का ध्यान किये बिना ही अपनेअथक परिश्रम से जो व्यवसाय मिल जाता है, उसे सहर्ष स्वीकार कर लेता है। अतः निर्देशन के सिद्धान्तों के अनुसार व्यवसाय चयन का प्रश्न ही नहीं उठता है।
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