भगवान् महावीर एवं भगवान् बुद्ध के सुधारवादी आन्दोलन
"यमिः सचं च धम्मो च सो सूची सो च ब्राम्हणों " - बुद्ध
भगवान् बुद्ध |
हिन्दुत्व का स्वाभाव और इसकी दीर्घकालीन यात्रा बड़ी ही विचित्र है |तात्कालिक परिस्थितियों के अनुरूप यह बदलने को तत्पर तो रहता है , किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि जितना यह बदलता है उतना ही अपने मूल स्वरुप के और अधिक निकट आ पहुंचता है | और इस प्रकार , काल प्रवाह में अनेकानेक परिवर्तनों और सुधारों के साथं हिन्दू संस्कृति का यह 'मूलतत्व -दर्शन ' अपने नए- नए रूपों में प्रकट होता रहता है | विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जो अपने भूतकाल को साथ लेकर चलता है और अतीत कि धरोहर साथ लेकर वर्तमान के साथ जीता है,यंहा का अतीत कभी मरता नही है,मिटता नही है।
वेदों में जिस समाज -जीवन का वर्णन हम पाते हैं वह सुखी - संपन्न समाज था। वे लोग किसी प्रकार से दुखी अथवा असंतुष्ट नही थे। संसार को वे दुःख का अगर भी नही मानते थे। वैदिक परम्परा ऐसे व्यक्ति कि कल्पना करती है जो अपनी कर्मशक्ति में विश्वास करते थे। वेदों ने भेदभाव से दूर सुखी ,कर्मठ ,स्वर्ग - नरक कि कल्पना से परे सर्वांगसुन्दर समाज दर्शन का चिंतन किया था।
भगवान् महावीर स्वामी |
उत्तर वैदिक काल आते -आते कर्मकांडों का विस्तार होता गया। ऋषि और आचार्यगण कंही भी वृक्ष के नीचे बैठकर यज्ञ संपन्न कर लेते थे ; किन्तु धीरे -धीरे कर्मकांड खर्चीले और जटिल होते जा रहे थे । कुछ यज्ञ तो दस बारह वर्षों तक चलते रहते थे। पशुओं कि बलि तथा अत्यधिक व्ययसाध्य होने के कारण सरल ह्रदय व्यक्तियों के मन में इन परम्पराओं के प्रति विरक्त भाव और क्षोम उत्पन्न होने लगा | बोझिल कर्मकांडों के कारण धरम का नैतिक और वैचारिक दर्शन अवरुद्ध होता चला गया ।
धीरे -धीरे वर्णाश्रम व्यवस्था ने गुणकर्म के स्थान पर जन्माधारित रूप ले लिया सामाजिक भेदभाव ,स्वर्ग नरक की कल्पनाएँ तथा कर्मकांडों के अतिरेक ने जनता के मन में अनेक प्रश्न खड़े कर दिए। पुरोहितों द्वारा मूल वैदिक दर्शन को जनता में नीचे तक न पहुँचा पाने के कारण जन-समाज के अन्दर सम्पूर्ण व्यवस्था के प्रति ही निरासा का भाव बढ़ता जा रहा था। यद्दपि उपनिषदों के ज्ञान ने एक बार पुनः सभी के अन्दर 'एक ब्रम्ह ' के विचार को स्वीकार कर अनेक विवादों का समाधान देने कि कोशिश कि तथा यज्ञ के भरी भरकम कर्मकांडों को भी काम किया किन्तु उपनिषदों का ज्ञान विद्वानों तक ही सीमित रह गया तथा सामान्य जन तो वेद और उपनिषदों के मन्त्रों और ऋचाओं के अर्थ से अनिभिग्ग ही रहा।
ईसा पूर्व छठी शताब्दी आते -आते सामाजिक भेदभाव तथा कर्मकांडों के प्रति निराशा और असंतोस चरमसीमा पर जा पहुंचा । समाज में कुछ वर्गों को सामाजिक प्रतिष्ठा और कुछ वर्गों कि उपेक्षा ने आपसी दूरियां और अविश्वास को और बढ़ाया । यह वह समय था जब सामान्य -जन ऐसे विकल्प कि खोज में था जो इन सब से उनको मुक्ति दिला सके। बहुसंख्यक समाज कि छटपटाहट को हम आसानी से समझ सकते हैं। जटिल बन चुकी पूजा -पद्धतियों के स्थान पर सीधी सरल साधना पद्धति की आवश्यकता महसूस हो रही थी । सामान्यजन ऐसी धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था चाहता था जो सभी प्रकार के भेदभावों को समाप्त कर सरल, सर्वसुलभ धार्मिक पद्धति उपलब्ध करा सके।
इस समय भारत में कुछ ऐसे संगठित सम्प्रद्यों का उदय हुआ जो सामाजिक भेदभावों को असामान्य करते हुए ,पूर्व के सम्प्रदायों कि तुलना में अधिक व्यवस्थित ,संघबद्ध ,कर्मकांडों कि जटिलओं से मुक्त,लोकप्रिय तथा जनभाषाओं में ही अपने धर्मशास्त्रों को लेकर विकसित हो रहे थे। इन्होने अद्यात्मिक साधना में बाह्याडम्बर ,कुल, गोत्र ,जाती आदि के महत्त्व को अस्वीकार कर दिया-
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणों।
यमिः सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणों ।।
अर्थात 'ब्राह्मण न तो कोई जटा बढाने से होता है न अमुक गोत्र से और न जन्म से ही , वही पवित्र है और वाही ब्राह्मण है जो सत्यवान और धर्मप्रिय है।'
प्रभावी हो रहे इन सम्प्रदायों में से जैन और बौद्ध मत ऐसे हैं जिन्होंने धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रसिद्धि पायी है । यह बात युक्तियुक्त है कि इनके उदभव की पूर्व पीठिका में शताब्दियों से चली आ रही सामाजिक विषमता , असंतोस ,निराशा और उहापोह छिपा हुआ था। इन दोनों ही सम्प्रयों ने समाज के ऊपर बहुत दूर तक अपनी छाप छोड़ी तथा मौलिक रूप से वे आर्य संस्कृति कि मूलधरा से अविच्छिन्न ही रहे।