आत्म-विकास का अर्थ,उद्देश्य,सम्प्रेषण एवं आत्म-विकास के अन्तर्सम्बंध

आत्म-विकास का सम्प्रेषण कुशलता या क्षमता से गहरा सम्बन्ध है। वे एक-दूसरे से "कारण प्रभाव" की तरह सम्बन्धित है। शिक्षा व उत्कृष्टता के प्रति सावधानी सदैव प्रभावी व श्रेष्ठ सम्प्रेषण को जन्म देती है। अत्यधिक जागरूकता व आत्म-चेतना के द्वारा आत्म-विकास में वृद्धि की जा सकती है, साथ ही साथ सावधानीपूर्वक सुमना, अध्ययन करना, रचनात्मक लेखन व प्रभावशाली व्याख्यान भी आत्म-विकास की वृद्धि में सहायक होते हैं अर्थात् आत्म-विकास व सम्प्रेषण निरन्तर साथ-साथ चलने वाली प्रक्रिया है।

एक समाज में व्यक्तियों के बीच वाद-संवाद केवल सम्प्रेषण के द्वारा ही सम्भव है। आत्म-विकास व सम्प्रेषण एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। सम्प्रेषक व प्राप्तकर्ता का आत्म-विकास उसकी प्रकृति, शैली व सम्प्रेषण के स्तर को प्रभावित करता है। दूसरी ओर, प्रभावी सम्प्रेषण आत्म-विकास की आवश्यकता को प्रभावित करता है।

आत्म-विकास से अभिप्राय 

आत्म-विकास व्यक्तिनिष्ठ व सापेक्षिक है। विभिन्न व्यक्तियों के लिए इसका सम्बन्ध भिन्न-भिन्न होता है। यहाँ आत्म' शब्द का अभिप्राय एक व्यक्ति की समग्रता से है जो उसके निजी गुणों व लक्षणों से सम्बन्धित है। गुणों की समग्रता से अभिप्राय व्यक्ति की शारीरिक, बौद्धिक शक्ति, प्रतिमान, भौतिकवादिता, आध्यात्मिकता आदि गुणों से है एवं 'विकास' शब्द का अभिप्राय व्यक्ति में नई-नई क्षमताओं एवं गुणों का विकसित होना है। अतः आत्म-विकास से अभिप्राय एक व्यक्ति में उक्त गुणों की सन्तुलित शैली में विकास से है। 

दूसरे शब्दों में आत्म-विकास से आशय व्यक्ति के समस्त गुणों में परिवर्तन या विकास से है, जिसके कारण व्यक्ति की कार्य क्षमता में वृद्धि होती है और व्यवहार में प्रगति के मार्ग दृष्टिगोचर होते हैं। 

इस प्रकार स्पष्ट है कि आत्म-विकास एक बहुआयामी प्रक्रिया है-

1. शारीरिक विकास आयाम (Physical Development Dimension),

2. प्रतिभा (बौद्धिक आयाम (Intellectual Dimension),

3. भौतिकता (संवेदनशीलता) आयाम (Emotional Dimension),

4. आध्यात्मिकता आयाम (Spiritual Dimension)।

संक्षेप में, 'आत्म-विकास' एक व्यक्ति में शारीरिक, बौद्धिक, भौतिक व आध्यात्मिक गुणों के विकास की एक प्रक्रिया है।

(Self-development is the process of development of physical, intellectual, emotional and spiritual qualities of person.)

आत्म-विकास के उद्देश्य

आत्म-विकास का उद्देश्य व्यक्ति के जीवन को व्यक्तिगत (निजी) व सामूहिक रूप में एक सफल, उत्साही जीवन के व्यतीत करने से है। इसके मुख्य उद्देश्य अग्र प्रकार से हैं-

1. अनुकूल व्यक्तित्व का विकास 

आत्म-विकास का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य एक अनुकूल सन्तुलित व उचित व्यक्ति का विकास करना है। एक समाज मनोवैज्ञानिक के अनुसार, व्यक्तित्व विभिन्न गुणों का एक समूह है जो व्यक्तिगत स्वभाव व लक्षणिक स्वभाव को स्पष्ट करता है।

2. सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास 

आत्म-विकास सकारात्मक दृष्टिकोण का कारण व परिणाम दोनों ही हैं। दृष्टिकोण की प्रकृति अनुकूल/प्रतिकूल प्रदर्शन की होती है जिसका सम्बन्ध व्यक्तियों की प्रकृति व दशा पर निर्भर होता है। आत्म-विकास व्यक्ति को प्रतिकूल भावनाओं से बचाता है व अनुकूल दृष्टि को बढ़ाता है। अनुकूल अर्थात् सकारात्मक दृष्टिकोण व्यक्ति के जीवन को आनन्दमयी व आशावादी बनाता है।

3. आत्म-सम्मान का विकास

आत्म-विकास आत्म-सम्मान की प्राप्ति में सहायक है। आत्म-सम्मान का अभिप्राय अपने स्वयं के सम्बन्ध में अनुभव से है। आत्म-विकास एक व्यक्ति को विनम्र व शिष्ट बनाता है। यह व्यक्ति के मूल्यांकन में सहायक है।

 4. ज्ञान का विकास

आत्म विकास का एक मुख्य अंग बुद्धि व्यक्ति को का विकास है। यह प्रगति, सीखने की वृत्ति, समझ व विश्लेषण के गुणों को विकसित करता है। यह अधिक आत्मविश्वासी व गतिशील बनाता है।

5. विचार शक्ति का विकास 

आत्म विकास व्यक्ति की विचार शक्ति को बढ़ाने में सहायक है। एक विचारशील व्यक्ति ही उचित निर्णय लेने में सक्षम होता है। यह व्यक्ति को कृपालु, दयालु, सहयोग की भावना को विकसित कर चिन्तनशील बनाती है।

6. सांस्कृतिक समरसता को विकसित करना 

आत्म-विकास व्यक्ति की दृष्टि को विस्तारित करता है। एक विस्तृत/वृहद् दृष्टिकोण वाला व्यक्ति हो विभिन्न संस्कृतियों या धर्मों या समुदायों के मूल्यों का आदर करता है। यह प्रवृत्ति देश की सांस्कृतिक एकाग्रता में वृद्धि करती हैं। 

7. समग्र विकास 

आत्म-विकास एक मनुष्य में शारीरिक, भौतिक, बौद्धिक व आध्यात्मिक / धार्मिक गुणों को विकसित करता है। ये सभी बातें एक व्यक्ति के समग्र विकास में सहायक होती हैं।

8. अच्छे गुणों का विकास 

आत्म-विकास व्यक्ति में अच्छे गुणों के विकास की पूर्व आवश्यकता है। अच्छी आदतें समय, धन व ऊर्जा की बचत में सहायक हैं। साथ ही साथ यह एक व्यक्ति को साधन-सम्पन्न बनाती हैं।

9. आत्म-विश्वास का विकास

आत्म-विकास आत्म-विश्वास को बढ़ाने में सहायक है। यह एक व्यक्ति में नेतृत्व क्षमता को विकसित करता है। एक आत्म-विश्वासी अन्य की अपेक्षा अधिक साहसी होता है व जोखिम उठाने में सक्षम होता है।

10. संगठन क्षमता का विकास

 आत्म-विकास एक व्यक्ति में संगठन क्षमता को बढ़ाता है। एक अच्छा संगठक समाज के लिए वरदान होता है।

आत्म-विकास व सम्प्रेषण- पारस्परिक निर्भरता

आत्म-विकास व सम्प्रेषण प्रक्रिया परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। आत्म-विकास सम्प्रेषण को अधिक गतिशील व प्रभावी बनाता है। वहीं दूसरी ओर, एक प्रभावशाली सम्प्रेषण आत्म-विकास में स्थायी वृद्धि करता है। सम्प्रेषण की वर्तमान प्रक्रिया व सम्प्रेषण के आधुनिक साधन आत्म-विकास को विकसित करने में सहायक हैं तथा आत्म-विकास सम्प्रेषण कुशलता में सुधार कर उसे अधिक प्रभावशाली बनाता है। अग्रलिखित बिन्दुओं द्वारा आत्म विकास व सम्प्रेषण के मध्य सम्बन्ध को स्पष्ट किया जा सकता है-

आत्म-विकास द्वारा सम्प्रेषण में सुधार 

आत्म-विकास द्वारा सम्प्रेषण प्रक्रिया पूर्ण रूप से प्रभावित होती है। इसके द्वारा सम्प्रेषण प्रक्रिया अधिक प्रभावी एवं उद्देश्यपूर्ण हो जाती है। अतः आत्म-विकास व्यावसायिक सम्प्रेषण में निम्न प्रकार सुधार कर सकता है- 

1. आत्म-विकास द्वारा सम्प्रेषण कुशलता में सुधार

आत्म-विकास के द्वारा सम्प्रेषण कुशलताओं, यथा, लिखना, बोलना, सुचना तथा शारीरिक भाषा का प्रयोग इत्यादि में निरन्तर सुधार होता है। आत्म-विकास व्यक्ति को अधिक शिक्षित, योग्य व शारीरिक रूप से सक्षम बनाता है। एक शिक्षित व्यक्ति के अधिक पढ़ने-लिखने से उसकी लेखनशैली अधिक रचनात्मक व उपयोगी होती है।

2. आत्म-विकास द्वारा विश्लेषण शक्ति का विकास

आत्म-विकास विश्लेषण शक्ति को बढ़ाने में सहायक होता है। आत्म-विकसित व्यक्ति जटिल या कठिन स्थितियों में भी सम्बन्धित समस्याओं का हल ढूँढ़ने में सक्षम होता है। वह समस्याओं के अनुरूप वाद-संवाद करने में सक्षम होता है व श्रोताओं का विश्लेषण भी कर सकता है। अतः उक्त गुणों के चलते यह एक सम्प्रेषण प्रक्रिया में अपना योगदान अत्यन्त ही प्रभावी ढंग से दे सकता है।

3. आत्म-विकास व वृहद् दृष्टिकोण 

आत्म-विकास व्यक्ति की दृष्टि को वृहत् स्वरूप प्रदान करता है जिससे व्यक्ति अपने श्रोताओं या अन्य व्यक्तियों को अधिक शीघ्रतापूर्वक व जाँच-परख सकने में सक्षम होता है। 

4. आत्म-विकास व आलोचनात्मक शैली

आत्म-विकास व्यक्ति में आलोचनात्मक शैली को विकसित करता है। आत्म विकसित व्यक्ति ही सम्प्रेषण नियोजन, संशोधन व सम्पादन करने में सक्षम होता है। वह संवाद का विश्लेषण करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में सक्षम होता है।

5. आत्म-विकास व अन्य क्षमताएँ

आत्म-विकास व्यक्ति में अन्य क्षमताएँ (पूर्णता, सूक्ष्मता, चैतन्यता, स्पष्टता आदि) को अधिक प्रभावी बनाता है।

सम्प्रेषण द्वारा आत्म-विकास में सुधार 

एक प्रभावशाली सम्प्रेषण आत्म-विकास का महत्वपूर्ण उपकरण है। सम्प्रेषण के मुख्य माध्यम (मौखिक व अभाषिक) आत्म-विकास को बढ़ाते हैं। भाषा प्रवाह, प्रभावशाली लेखन, शारीरिक भाषा व श्रवण शक्ति आदि ऐसे तत्व हैं जो आत्म-विश्वास को बढ़ाते हैं। अतः एक प्रभावी व्यावसायिक सम्प्रेषण आत्म-विकास में निम्न रूप से सुधार कर सकता है-

1. अभाषिक सम्प्रेषण (शारीरिक भाषा) व आत्म-विकास 

अभाषिक सम्प्रेषण के विभिन्न स्वरूप (भाव-भंगिमा, मुद्रा या आसन आदि) आत्म विकास को बढ़ाते हैं। अभाषिक सम्प्रेषण का निरन्तर प्रयोग व समझ व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता को बढ़ाते हैं। अभाषिक सम्प्रेषण के ये स्वरूप केवल रुचिकर नहीं अपितु निर्देशात्मक भी हैं, अतः ये आत्म-विकास को बढ़ाने में सहायक हैं।

2. मौखिक सम्प्रेषण (भाषण) व आत्म-विकास 

मौखिक सम्प्रेषण के विभिन्न स्वरूप (भाषण, वाद-विवाद आदि) आत्म-विकास में वृद्धि के महत्वपूर्ण उपकरण हैं। यदि एक वक्ता अपने विषय पर गहन चिन्तन कर वक्तव्य में तर्कों व तथ्यों को समाहित कर भाषण देता है तो वह अधिक प्रभावशाली होता है।

3. लिखित सम्प्रेषण (लेखन) व आत्म-विकास

किसी भी प्रकार के लेखन का प्रारम्भ एक विचार से होता है। इस विचार की उत्पत्ति मानव मस्तिष्क में होती है। लेखन ही व्यक्ति की रचनात्मक व कल्पनाशीलता में वृद्धि करता है। ये बातें हो आत्म-विकास को बढ़ाती हैं।

4. श्रवण क्षमता व आत्म-विकास 

श्रवणता  प्रभावशाली सम्प्रेषण का एक विशिष्ट अंग है। एक सफल व्यवसायी अपने ग्राहकों की बात को ध्यानपूर्वक सुनता। है। किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दिया गया उपयोगी सुझाव आत्म-विकास में सहायक होता है।



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