आदिकालीन रासो साहित्य क्या है? रासो काव्य परम्परा की विवेचना

रासो शब्द अति प्राचीन है। हिन्दी साहित्य के इतिहास का आदिकाल रासो नामक ग्रन्थों से भरा पड़ा है। इस काल की सीमा रेखा संवत् 1050 से लेकर 1375 तक है। इस काल की अधिकांश कृतियों राम्रो शब्द से अभिहित की गई हैं। रासो नाम की कृतियाँ सर्वप्रथम अपभ्रंश में लिखी गई। उसके बाद कुछ कृतियां ऐसी भी हैं, जो हिन्दी और गुजराती में मिलती है। "रासो" नाम से लिखा हुआ प्राचीनतम् और साहित्यिक बीसलदेव रासो ही प्रबन्ध के रूप में प्राप्त है। 

धीरे-धीरे रासो की एक परम्परा सी चल पड़ी और रासो प्रन्थों की मात्रा अधिक बढ़ गई। तत्पश्चात् "रासो" शब्द पर प्रश्न चिन्ह लग गया और इसकी खोज करने के लिए विद्वानों का समूह उठ खड़ा हुआ। अतः रासो शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में सभी ने अपने-अपने विचार प्रकट करना शुरू कर दिया। इसकी कुछ व्युत्पत्तियाँ तो ऐसी हैं जिनका कोई आधार नहीं हाँ कुछ व्युत्पत्तियों सार गर्भित और सार्थक है जो "रासो" शब्द के अर्थ को स्पष्ट करती है, किन्तु "रासो" नाम की कृतियाँ दो प्रकार की है-एक तो गीत- नृत्य परक और दूसरी छन्द-वैविध्य परक। अतः स्पष्ट है कि "राम्रो" शब्द दोनों प्रवृत्तियों के अर्थ से संयुक्त होगा।

 इसके व्यापक विवेचन के लिए यही अच्छा रहेगा कि "रासो" शब्द की व्युत्पत्तियों को जान लिया जाय। विभिन्न मत-मतान्तरों के आलोक में समय-समय पर प्राप्त व्युत्पत्तियाँ एक ओर तो मानो बौद्धिक व्यायाम ही प्रमाणित होती है तो दूसरी और उनकी पृष्ठिका से सार्थक व उपयोगी अर्थ आभा झांकती हुई दिखाई देती है।

रासो परम्परा

रासो परम्परा कोई नई नहीं है। इसका विकास समय-समय पर यथासंभव स्थितियों के आधार पर होता रहा है। यहाँ तक कि इसके विकास चिन्ह आधुनिक युग में भी मिल जाते हैं। हिंन्दी को जो रासो परम्परा प्राप्त हुई, वह गुजरात से आई है। इस विषय में भी मतैक्य नहीं है।

 राम्रो परम्परा का सर्वप्रथम ग्रन्थ 'सन्देश रासक' है, जिसकी रचना अब्दुल रहमान ने की। ध्यान देने की बात यह है कि सन्देश रासक के साथ-साथ और भी अनेक रासो काव्य लिखे गये हैं और इस प्रकार काव्यों की एक सुदीर्घ परम्परा मिलती है। यों तो जैन रास काव्य भी है, किन्तु वे वीरगाथाओं के रूप में रचित रासो काव्यों से भिन्न है। दोनों की रचना - शैलियों की अलग-अलग भूमियों पर विकास हुआ है।

 जैनरास काव्य में धार्मिक दृष्टि की प्रधानता रही है और वीरगाथाकालीन रासकाव्यों में एक अलग ही पद्धति प्रमुख रही है। रास परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। इस परम्परा को समृद्धि तक पहुँचाने वाली "रास" संज्ञा रचनाएँ बहुत ही विशाल रूप से प्राप्त हैं। विद्वानों ने इस परम्परा का अध्ययन तीन शीर्षकों में किया है- संस्कृतकालीन रास, अपभ्रंशकालीन रास और अपभ्रंशोत्तर रास काव्य इन तीनों कालों में रास के मानक बदलते रहे हैं। इसी कारण रास-परम्परा का अध्ययन अत्यन्त रोचक प्रतीत होता है रास, रसायन, रासक, रासा, रासी कही जाने वाली रचनाएँ अपभ्रंश और हिन्दी में दो प्रकार से प्राप्त होती है- 

1. बहुरूपक निबद्ध और 2. अल्प-रूपक निबद्ध परम्परा। इन दोनों प्रकार के रासो काव्यों की एक सुदीर्घ परम्परा है। इसका क्रमिक विवेचन इस प्रकार है-

संदेश रासक 

रासो काव्य परम्परा की महत्वपूर्ण श्रृंखला के रूप में अब्दुल रहमान की कृति “सन्देश रासक" का नाम आता है। इस कृति का सम्पादन मुनिजिनि विजय ने किया है। सम्पादक की धारणा के अनुसार, यह रचना शहाबुद्दीन गोरी के आक्रमण के पूर्व की होनी चाहिए। यह एक महत्वपूर्ण रचना है, किन्तु इसका छन्द वैविध्य विशेषतः उल्लेखनीय है। इसमें संदेश प्रधान है। मुनि जिनि विजय के अनुसार यह 12वीं शती के उत्तरार्द्ध की और राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार यह 11वीं शती की रचना है। इस काव्य में प्रोषितपतिका नायिका के विरह का मार्मिक वर्णन मिलता है। इस रचना में आया ऋतु वर्णन बड़ा मार्मिक है।

मन्जुरास 

मन्जुरासक भी इस परम्परा का प्रमुख ग्रन्थ माना जाता है। डॉ. विपिन बिहारी त्रिवेदी के अनुसार, यह ग्रन्थ सन्देश रासक से भी पूर्व का है। इसमें मालवा के शासक मन्जु और कर्नाटक के तैलप की बहिन मृणालवती के प्रेम का वर्णन मिलता है। मन्जुरासक के कुछ छन्द "हेमचन्द के प्राकृत व्याकरण" मेरूतुंग का प्रबन्ध चिंतामणि" में कतिपय उद्धरणों के रूप में मिलते हैं।

भरतेश्वर बाहुबली रास

 इस परम्परा की तीसरी महत्वपूर्ण रचना भरतेश्वर बाहुबली रास है। इसके रचियता शालिभद्र सूरि है। यह रासो वीर रचनात्मक है। इसमें ऋषभ के भरतेश्वर और बाहुबली दो पुत्रों के युद्धों का वर्णन किया गया है। शालिभद्र का लिखा हुआ "बुद्धिरास" नामक अन्य ग्रन्थ भी मिलता है। इसी समय लिखे गये रासो काव्यों में कवि आसगु कृत “जीव दया रास" तथा चन्दनबाल रास" कवि देल्हषा कृत "गायसुकुमाल रास", जीवनधर कृत "मुक्तावलि रास" व उपदेश रसायन रास का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। इन रासो काव्यों का रचनाकाल संवत् 1241 के आस-पास स्वीकार किया गया है।

उपदेश रसायन रास  

"जिनि दत्त सूरि" ने इसकी रचना की है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस कृति को वीर काव्य परम्परा की कोटि में नहीं स्वीकार किया जा सकता है। इसका कारण इस ग्रन्थ नीति-काव्य शैली में लिखा होना है। नीति काव्य-शैली के साथ-साथ इसमें जैन-धर्म सम्बन्धी सामग्री की भी प्रधानता है।

डिंगल में रासो ग्रन्थ

इस परम्परा में जोख रासो ग्रन्थ मिलते हैं, उनमें चरित्र की प्रधानता है। इस परम्परा में आने वाली रचनाओं में ऐतिहासिक तत्वों की रक्षा नहीं की गई है। इनके आकार-प्रकार, विषय-वस्तु और वर्णन शैली में पर्याप्त विभिन्नता है। 12 वीं शताब्दी से लेकर 15 वीं शताब्दी के बीच रासो परम्परा का पर्याप्त विकास हुआ है। इस अवधि में लिखे गये रासो ग्रन्थ निम्नांकित है-

1. बीसलदेव रासो, 2. जम्बूस्वामी रास, 3. रेवन्तगिरि रास, 4. कच्छुनि रास, 5. गौतम रास, 6 दर्शाणभद्र रास, 7. वस्तुपाल तेजपाल राम, 8. श्रेणिक रास, 9. नेथड़ रास, 10. समरसिंह 11. सप्तक्षेत्रि रास, 12. चन्दनवाल रास आदि।

खुमान रासो

इस रासो ग्रन्थ के रचयिता दलपति विजय हैं, जिनका दूसरा नाम दौलत विजय भी है। इस ग्रन्थ में मेवाड़ के खुमान की महत्ता का वर्णन किया गया है। जिसे प्रकारांतर से सूर्यवंशी की महत्ता का आलेख भी कहा जा सकता है- 

कवि दीजै कमला कला जोडण कवित जुगति ।

 सूरजि बस तणो सजस वर्णन करूँ विगति ।।

यह रचना अत्यन्त भावात्मक बन पड़ी है। अतः रसोत्कर्ष की व्यंजना के आधार पर इस रासो को मधुर एवं कोमल भाव परम्परा में ही स्थान प्राप्त हो सकता है। इसके सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन है कि "यह नहीं कहा जा सकता कि जिस रूप में यह ग्रंथ अब मिलता है वह उसे वि.स. 17 वीं शताब्दी से प्राप्त हुआ होगा तथा यह भी विवादास्पद है कि "दलपति विजय" असली खुमान रासो का रचयिता था अथवा उसके परिशिष्ट का।" श्री मोतीलाल मेनारिया का कथन है कि "इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता पर विचार किया जाय तो यही तथ्य सामने आता है कि दलपति तदागच्छीय जैन साधु शान्ति विजय के शिष्य थे और दीक्षा के बाद उन्होंने अपना नाम दौलत विजय विजय रख लिखा । यह ग्रन्थ आठ खण्डों में विभक्त है। इसकी भाषा पिंगल है। उदाहरण देखिए-

भृकुटी चन्द भलहले, गंग खलहले समुज्जल।

 एक दन्त उज्जलो, सुण्ड ललवलै रुन्डगल ।।

पप भूप प्रम्भले से, सलवले जीह लल। 

पहुप घूमनेत्र पर जलै, अंग अनक्कलै तण्ड बल ।।

हास्य मिश्रित रासो ग्रन्थ

रासो काव्य परम्परा में हास्य मिश्रित रासो ग्रन्थों को भी नहीं भुलाया जा सकता है। इस वर्ग में आने वाले ग्रन्थों में “माकड़ रासो, ऊदर रासो और गोवा राम्रो" आदि है।

पिंगल या ब्रज भाषा के रासो ग्रन्थ

डिंगल की जो रासो परम्परा मिलती है, वैसी ही परम्परा पिंगल के प्रन्थों में भी मिलती है। पिंगल या ब्रजभाषा में लिखे गये रासो ग्रन्थों की "राणा नामावली इस प्रकार हैं- शारंगवर कृत “हम्मीर रासो" जगनिक कृत "परमाल रासो” नाल्हसिंह भट्ट कृत “कायम रासो" कुंभकरण चारण कृत “रतन रासो" सिहायच दयालदास कृत । रासो" जोवराज कृत हम्मीर रासो, जल्ह कवि कृत बुद्धि रासो, राउजैतसी रौं रास का रचियता अज्ञात है। हमीर रासो, परमाल रासो और विजयपाल रासो आदि प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

हम्मीर रासो  

यह ग्रन्थ देशी भाषा का वीर गाथात्मक महाकाव्य बताया गया है। यह अनुपलब्ध है। इसके विषय में आचार्य शुक्ल का यह अभिमत है-"पाकृत पिंगल सूत्र में कुछ पद्म असली "हम्मीर रासो" के है।

परमाल रासो

 जगनिक को इसका रचियता स्वीकार किया गया है। ये कालिंजर के राजा परमाल के चारण और राज कवि थे। यह ग्रन्थ आल्हखण्ड नाम से भी प्रसिद्ध है। लोक- वीर गाथा के रूप में इसका विकास लोक गायकों द्वारा होता रहा है। सन् 1882 ई. में सर चार्ल्स इलियट ने अनेक भाटों की सहायता से इसका सम्पादन करवाया था। यह वीर रसात्मक काव्य है, इसकी कथा का आधार पृथ्वी राजा रासो का महोवा समय है। डॉ. सुन्दरदास की मान्यता है कि “जिन प्रतियों के आधार पर यह संस्करण सम्पादित हुआ है, उनमें यह नाम नहीं है। उनमें इसको चन्द्रकृत पृथ्वीराज रासो का महोवा खण्ड कहा गया है, किन्तु वास्तव में यह पृथ्वीराज रासो का महोवा खण्ड नहीं है, वरन् उसमें वर्णित घटनाओं को लेकर मुख्यतः पृथ्वीराज रासो में दिये गये एक वर्णन के आधार पर लिखा हुआ एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है।

 यद्यपि इस ग्रन्थ का नाम मूल कृतियों में पृथ्वीराज रासो दिया गया है, पर इस नाम से इसे प्रकाशित करना लोगों को भ्रम में डालना है। अतएव मैने इसे "परमाल रासो” नाम देने का साहस किया है। इस कृति की प्रामाणिकता अप्रमाणिकता की बात यदि छोड़ दी जाये, तो यह बात निःस्संकोच भाव से स्वीकार की जा सकती है कि इसमें कवि की "हृदयस्पर्शी" भाव धारा अस्त्र गति से प्रवाहित होकर आज तक रसिकों के मन को आप्लावित करती आई है-कवि के लिए यह कम महत्व की बात नहीं है।"

विजयपाल रासो  

इस ग्रन्थ के रचियता नल्लसिंह भट्ट माने जाते है, जो विजयपाल के दरबारी कवि थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों ने इसका रचनाकाल वि.सं. 1100 माना है। इतने पर भी यह सत्र लगता है कि अपने वर्तमान रूप में यह 16 वीं शताब्दी की रचना प्रतीत होती है। इस ग्रन्थ में विजय पाल की विजय यात्राओं का वर्णन है। यह भी रसात्मक रचना है। यों तो इसके 42 छन्द ही उपलब्ध है, फिर भी इसके महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। उदाहरण देखिए-

जुरे जुद्ध जादब तंग मद्दद। गही कर तेग चढ्यौ रण मध्य ।

 हंकारिय जुद्ध द्वहू दल शूर मनी गिरि शीस जलथयारि पूपि ।।

 हलों दिल हॉक बंजी दलमद्धि भई दिन ऊगत कूक प्रसिद्ध ।

परस्पर तो रहे विकराल । राज्जै सूर भुम्मिसरग्ग पताल ।।

बीसलदेव रासो  

बीसरदेव रासो, रासो परम्परा का प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके रचयिता नरपति नाल्ह माने जाते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार, "यह ग्रन्थ वीरगति के रूप में सबसे प्राचीन है। इसमें समयानुसार भाषा के परिवर्तन का आभास भी मिलता है।" कतिपय विद्वानों की धारणा है कि इसको वीर काव्य परम्परा का ग्रन्थ मानकर प्रेम गीत परम्परा का ही ग्रन्थ मानना चाहिए। इसका प्रमुख कारण यह है कि इसमें वीर भावों का चित्रण नहीं के बराबर है। डॉ. हरिहर नाथ टण्डन के शब्दों में, “इस ग्रन्थ के कवि ने प्रेम और विरह के मधुर चित्र खींचे हैं। वियोग का वर्णन अत्यन्त मार्मिक है। कवि की सहृदयता और भावुकता का दिग्दर्शन राजमती का विरह ही है। कला-पक्ष का निर्वाह कवि ने अच्छी तरह नहीं किया है। छन्द दोषों का तो बाहुल्य है। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रमुखतः यह विरह-काव्य है। यह कवि के ही शब्दों में नारी काव्य और अमृत काव्य की अभिधा भी दी है। इसका प्रमाण ये पक्तियाँ हैं—“अस्त्री रसायण करू बखान" और "अमृत रसायन नरपति व्यास ।" इस रचना का महत्व कई कारणों से है।

पृथ्वीराज रासो  

यह तो निर्विवाद सत्य है कि रासो काव्य परम्परा में पृथ्वीराज रासो का महत्वपूर्ण स्थान है। 69 सर्गों की यह विशाल रचना कई दृष्टियों से विवादग्रस्त है। इस विशाल ग्रन्थ के रचियता कवि चन्द वरदाई है। दुर्भाग्य से यह ग्रन्थ साहित्य-मर्मज्ञों के हाथ में न पड़कर इतिहास का तथ्यांकन करने वाले महारथियों के हाथ में पड़ गया। परिणामतः इसका साहित्यिक मूल्यांकन न होकर ऐतिहासिक पोस्टमार्टम होने लगा। इसमें सम्राट पृथ्वीराज के चरित्र का वर्णन हुआ है। 

सर्वप्रथम इसमें प्रामाणिक ऐतिहासिक सामग्री मिलने की आशा थी। इसमें प्रियर्सन और कर्नल टॉड जैसे इतिहासकारों ने इसका समर्थन किया था। ग्रियर्सन की घोषणा से ही यह ग्रन्थ विद्यार्थियों के महत्व की सामग्री बना है। पहले रासो का मात्र वृहद रूप ही सामने था, जिसे लेकर विद्वानों में विवाद खड़ा हो गया। कुछ विद्वानों का समूह इसे प्रमाणिक मानता था और साथ में अपने तर्क भी इन्होंने उसकी पुष्टि में प्रस्तुत किये हैं। तत्पश्चात् एक समूह ऐसा हमारे सामने आया, जिसने इसको अप्रमाणिक सिद्ध कर दिखाया। कुछ ऐसे भी विद्वान् हैं जो इसे अर्धप्राणिक रचना मानते हैं। तात्पर्य यह है कि यह कोई इतिहास नहीं था, यह एक साहित्यिक ग्रन्थ है, अतः साहित्य की दृष्टि से इसका महत्व सबने स्वीकार किया है।

आचार्य शुक्ल ने इसे हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना है, तो स्वर्गीय गुलाबराय ने 'विकासशील महाकाव्य माना है। मोतीलाल मेनारिया ने इसमें "महाकाव्य की भव्यता और दृश्य- काव्य की सजीवता देखी है। "डॉ. विपिन बिहारी ने कतिपय त्रुटियों के होते हुए भी हिन्दी के इस प्रबन्ध काव्य को निर्विवाद रूप से महाकाव्य सिद्ध करने में कुछ उठा नहीं रखा है। 

रास की महता वस्तुतः उसके साहित्यिक कलेवर में छिपी है न कि इतिहास समर्थन में। इसके विपरीत डॉ. श्यामसुन्दर दास ने इसे महाकाव्य नहीं माना है। कारण "इसमें न तो कोई प्रधान युद्ध है और न किसी महान् परिणाम का उल्लेख है। सबसे प्रधान बात तो यह है कि इस रासो में घटनाएं एक-दूसरे से सम्बद्ध नहीं है तथा कथानक भी शिथिल और अनियमित है, महाकाव् की भाँति न तो किसी एक आदर्श में घटनाओं का संक्रमण होता है और न अनेक कथानकों की एकरूपता ही प्रतिष्ठित होती है। डॉ. उदयनारायण तिवारी ने भी इसे महाकाव्य नहीं माना-- "रासो को एक विशालकाय बीर काव्यग्रन्थ कहना ही उचित है। स्थान-स्थान पर इसके कथानक में शिथिलता है।"

यही रासो काव्यों की परम्परा है। इस पर विचार करते हुए डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने निम्नांकित महत्वपूर्ण निष्कर्ष दिये है- 

महत्वपूर्ण निष्कर्ष-

(1) रासो के अन्तर्गत प्रबन्ध की दो धाराएँ-दो विभिन्न परम्पराएँ आती हैं। एक तो गीत नृत्य परक है और दूसरी छन्द वैविध्य परक पहली का उद्भव कदाचित् नाट्य रासको से हुआ है और दूसरी का रासक या रासा बन्ध से। दोनों परम्पराओं को मिलाकर नहीं देखा जा सकता है।

 (2) रास तथा रासो नाम में कोई भेद नहीं है। दोनों नाम एकार्थक है और कभी- कभी एक ही साथ प्रयुक्त हुए हैं।

 (3) गीत-नृत्य परम्परा की रचनाएँ आकार में प्राय: छोटी हैं, क्योंकि उन्हें स्मरण करना पड़ता है, जबकि छन्द वैविध्य परक परम्परा में रचनाएँ छोटी बड़ी सभी आकारों की हैं।

 (4) गीत-नृत्य परम्परा का प्रचार जैन-धर्मावलम्बियों में अधिक रहा है। उनके रचे हुए समस्त रासो इसी परम्परा में है। दूसरी परम्परा का प्रचार जैनेत्तर समाज में विशेष रहा है। अब यह प्रमाणित हो चुका है कि इनका भी अभिनयात्मक गायन होता रहा है।

 (5) जैन रचनाओं की भाषा बहुत पीछे अपंश बहुधा रही हैं, जबकि अन्य रचनाओं की भाषा युगीन बात-चीत की भाषा हो गई थी।

 (6) गीत-नृत्य परक रचनाएँ प्रायः पश्चिमी राजस्थानी और गुजरात में ही लिखी गई थी, जबकि छन्द-वैविध्य परक रासकों की रचना सम्पूर्ण हिन्दी प्रदेश में हुई है।

 (7) काव्य का दृष्टिकोण दूसरी ही परम्परा में प्रधान रहा है, प्रथम में नहीं और इसी कारण शुद्ध साहित्य की दृष्टि से दूसरी परम्परा अधिक महत्व रखती है। इसी कारण तो आचार्य शुक्ल ने उन्हें वीर गाथात्मक कहकर वीर गाथाकाल के अन्तर्गत गिनाया है।

 (8) चरित्र तथा काव्य धाराओं के समान ही यह रासो काव्य-धारा भी साहित्य की एक समृद्ध काव्य- धारा रही है और इसका गम्भीर अध्ययन नितान्त अपेक्षित है।

मूल्यांकन-

संक्षेप में कह सकते हैं कि हिन्दी साहित्य के आदिकाल में रासो काव्य की एक दीर्घ परम्परा रही है। जितने भी रासो लिखे गये हैं, वे किसी न किसी अर्थ में विशिष्ट है, प्रत्येक का अपना महत्व है और इसी कारण यह कहना आसान हो जाता है कि रासो साहित्य न केवल प्रचुर और विशिष्ट है, अपितु उसकी एक स्पष्ट परम्परा भी रही है। इस परम्परा में पृथ्वीराज रासो का स्थान सर्वोपरि है। इसका महाकाव्यत्व, वर्णन-कौशल, चरित्रांकन और तत्कालीन मनोवृत्तियों का विवेचन आदि सभी कुछ प्रभावित करता है।




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