आदिकाल की पृष्ठभूमि एवं साहित्यिक प्रवृत्तियों का वर्णन

हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रसंग में "वीरगाथा काल" की धारणा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की देन है। 1929 ई. में पहली बार प्रकाशित अपना ग्रन्थ "हिन्दी साहित्य का इतिहास" में उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल को वीरगाथा काल का नाम दिया और उसका समय 1050 वि. से. लेकर 1375 वि. तक निर्धारित किया। ग्रन्थ के प्रथम संस्करण  की भूमिका में अपने काल विभाजन पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि "जिस काल खण्ड) के भीतर किसी विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता दिखाई पड़ी वह एक अलग काल माना गया है और उसका नामकरण उन्हीं रचनाओं के स्वरूप के अनुसार किया गया है।" इस दृष्टि से उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास के पहले काल (आदिकाल) का नाम “वीरगाथा काल" रखा।

आदिकाल का ऐतिहासिक परिवेश     

राजनैतिक पृष्ठभूमि-राजनैतिक दृष्टि से देखें तो हिन्दी साहित्य का आदिकाल अव्यवस्था और विश्रृंखलता का युग था। यह वह समय था जब देश के अन्तर्गत देशद्रोही सर्वत्र अपना जाल फैला रहे थे और यवन आक्रमणकारी उनके इस स्वभाव का अनुचित फायदा उठा रहे थे। जयचन्द जैसे व्यक्तियों के कारण देश विदेशी शक्तियों के हाथों जर्जरित होता जा रहा था। यद्यपि राजपूत शासक शक्तिहीन नहीं थे, किन्तु संगठित और संघात्मक शक्ति के अभाव में विजय प्राप्त करने में असमर्थ रहते थे। कवि लोग ऐसे राजनैतिक वातावरण में केवल कलम से धनी बनकर सामने आ रहे थे, अपितु रण कौशल में भी अपनी शक्ति व क्षमता प्रमाणित कर रहे थे ।

"वीरगाथा काल का समय शुक्लजी ने 1050 वि. से. 1375 वि. तक स्वीकार किया है। भारतीय इतिहास में मुख्य रूप से मुसलमानों के हमले और राजपूत राजाओं द्वारा उसके प्रतिरोध का समय है। हर्षवर्धन की मृत्यु पर अलग-अलग राजवंश शासन करने लगे उस समय भारत का पश्चिमी भाग भारतीय सभ्यता और बल वैभव का केन्द्र हो रहा था। कन्नौज, अजमेर, अन्हिलवाड़ आदि प्रसिद्ध राजधानियां इधर ही थीं। हर्षवर्धन के बाद में कन्नौज पर पहले प्रतिहारों और फिर गहड़वारों का शासन हुआ। गुजरात में सोलंकी वंश का राज्य था। अजमेर में चौहान राज्य कर रहे थे। इन राजाओं के दरबार में संस्कृत प्राकृत तथा देशी भाषा के अनेक कवि रहा करते थे।

मुसलमानों का पहला बड़ा हमला नवीं शताब्दी में सिन्ध पर हुआ था, किन्तु वह स्थायी नहीं रहा। उसके बाद ग्यारहवीं शताब्दी में महमूद गजनवी ने अनेक हमले भारत पर किए। राजपूत राजाओं ने उसका सामना तो किया, किन्तु उनमें एकता कभी स्थापित नहीं हो सकी। महमूद गजनवी के बाद लाहौर में गजनी के सुल्तान की ओर से एक अधिकारी रहने लगा था। धीरे-धीरे मुसलमान पश्चिमी भारत और राजस्थान में आगे बढ़ने का प्रयत्न करने लगे। इस प्रयत्न में उनका मुख्य विरोध राजपूत राजाओं से हुआ। मुसलमान और राजपूत राजाओं का परस्पर युद्ध ही उस समय के समाज की मुख्य वस्तु थी। जो चारण भाट या कवि इन राजाओं के दरवार में रहते थे, उन्होंने इन युद्धों तथा इन युद्धों में वीरता प्रदर्शित करने वाले पुरुषों को • अपना काव्य-नायक बनाया। इन नायकों में सबसे प्रसिद्ध थे- अजमेर, दिल्ली के राजा पृथ्वीराज, इनको लेकर पृथ्वीराज रासो लिखा गया। युद्ध का कारण केवल मुसलमानी आक्रमण ही नहीं थे। राजपूतों में परस्पर प्रतिस्पर्धा के कारण भी निरन्तर युद्ध होते रहते थे। इन प्रतिस्पर्धाओं का बहुत बार सुन्दर कन्याएँ भी कारण बन जाती थी। प्रसिद्ध है कि गहड़वार नरेश जयचन्द्र और पृथ्वीराज की प्रतिस्पर्धा का मुख्य कारण उसकी सुन्दर पुत्री संयोगिता थी। कहा जाता है कि शहाबुद्दीन और पृथ्वीराज चौहान के बीच भी शत्रुता का कारण एक सुन्दर स्त्री ही थी।

धार्मिक पृष्ठभूमि

 धार्मिक पृष्ठभूमि का महत्व भी सर्वविदित है। धार्मिक दृष्टि से देखें - तो तयुगीन वातावरण अनेक मत मतान्तरों में विभाजित हो रहा था, ब्राह्मण धर्म एक तरह से छिन्न-भिन्न हो गया था और वैष्णव और शक्ति जैसे सम्प्रदायों में विकसित होकर सामने आ रहा था। वैष्णावों में पूजा स्वाध्याय अवतारवाद, मूर्तिपूजा एवं योग आदि आडम्बरों का प्रचार बढ़ रहा था। शक्तिगतावलम्बियों के सिद्धान्त विविध तान्त्रिक क्रियाओं से परिचालित। थे। वैदिक मत का पुनरुद्धार करने की योजना बनाई जा रही थी। इतना ही नहीं इस कार्य के लिए शंकर रामानुज और निम्बार्क जैसे माध्यमों से यह कार्य सम्पन्न किया जा रहा था। एक और तो यह सब हो रहा था और दूसरी ओर इस्लामी शक्ति अपना प्रभाव बढ़ाती जा रही थी।

राजनीति के समान इस काल की धार्मिक परिस्थितियों को भी किसी भी दृष्टि से समुन्नत एवं सन्तुलित नहीं कहा जा सकता है। धर्म के नाम पर अनाचार और आडम्बर ही निरन्तर पनप रहे थे। वैदिक और पौराणिक धर्म तो विभिन्न सम्प्रदायों के दलदल में फँसकर हासोन्मुख ये ही, बौद्ध और जैन धर्म भी अपने मूल आदशों से भटककर तन्त्रों और सिद्धियों के आल- जाल में बुरी तरह उलझ रहे थे। इनकी कई शाखाएँ हो गयी थीं। इनके सैद्धान्तिक पक्ष यद्यपि अच्छे थे, किन्तु व्यवहार पक्ष तो निरन्तर जन-जीवन का अनिष्ट ही कर रहे थे। धर्म के नाम पर अनेक प्रकार की गुप्त क्रियाएँ, विलास वासना की पूर्ति का साधन मात्र बन कर रह गयी थी चमत्कार की प्रवृत्ति और कामुकता को प्रश्रय मिल रहा था। सिद्ध नाथ, जैन तो थे ही. शैव शक्ति वैष्णव और स्मार्त आदि जाने कितने धार्मिक सम्प्रदाय प्रचलित हो गये थे। अन्य अनेक वामाचारों और वाममार्गियों की तो कोई गिनती ही न थी।

सामाजिक पृष्ठभूमि-

 जब देश की राजनैतिक व धार्मिक स्थिति विघटन व विश्रृंखलता के सीमान्त पर खड़ी एक हल्के से धक्के की प्रतीक्षा कर रही हो, तब सामाजिक अखण्डता की कल्पना कैसे की जा सकती है? कहने का तात्पर्य यह है कि सामाजिक दृष्टि से भी आदिकाल परिस्थितियाँ अस्त-व्यस्त और अतनोन्मुख हो रही थी। चार वर्णों से और भी आगे बढ़कर अनेक उपवर्ण भी विकसित हो गये थे। जातिभेद, छुआछूत, ऊंच-नोच जैसे विधि-विधानों के कारण शुद्रों को स्थिति पर्याप्त हीन से हीनतर बनती जा रही थी। यदि तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों का सही मूल्यांकन करना हो तो ग्यारहवीं शती में भारत के भ्रमण के लिए आए हुए अलवरुनी नामक विद्वान् के इन शब्दों को देखा जा सकता है, उसने बताया है कि हिन्दुओं के विभिन्न रूप और अनेक वर्ग बन गये थे। इतना ही नहीं, पारिवारिक दुनिया में भी नर-नारी के समान- -भावनाओं के लिए प्रयत्न किये जा रहे थे। उस समय स्वयंवर प्रथा प्रचलित थी जो अपनी मान मर्यादा के लिये प्राणोत्सर्ग कर देते थे। सामान्य जीवन विकृतियों का शिकार था आर्थिक विफलता जीवन की प्रति बहुपरक दृष्टिकोण और महत्वाकांक्षाओं की आड़ में जलते हुये सामाजिक जीवन को विकृतियों और अनैतिकता ने घेर लिया था। स्पष्ट है कि आदिकालीन साहित्य जिस भूमिका पर लिखा गया है उसमें राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थितियों का विशेष हाथ रहा है।

आदिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियां और उपलब्धियां 

हिन्दी का आदिकालीन साहित्य अपनी विवधता में अकेला है। उसमें तत्कालीन परिस्थितियों से प्रेरित और पोषित होकर जो प्रवृत्तियाँ उभरी हैं, वे इस काल के साहित्य की प्रमुख उपलब्धियाँ हैं। इसका विवेचन इस प्रकार है-

1. सामन्तों की स्तुति गान, किन्तु व्यापक राष्ट्रीयता का अभाव- 

इस समय के सभी रचनाकार अपने आपको दिल्ली दरबार के कवि बनाना चाहते थे। वे अपने आश्रयदाता को दिल्लीश्वर के रूप में देखना चाहते थे। उस समय का कोई भी रचनाकार ऐसा नहीं मिलता है जो सम्पूर्ण भारत के भविष्य पर सोचता रहा हो। उन्हें अपने आश्रयदाता २२६ के स्वार्थ के अतिरिक्त किसी से कोई लेना-देना नहीं था। इस तरह सम्पूर्ण चारण साहित्य में व्यापक राष्ट्रीयता का अभाव दृष्टिगोचर होता है।

2. वीर का पोषक श्रृंगार-

 इन वीर गाथाओं में दो रसो की प्रमुखता मिलती है-एक वीर की और दूसरी श्रृंगार की ये रचनाकार पहले राजकुमारियों के सौन्दर्य का वर्णन करते थे और आश्रयदाता की कामेच्छा को जागृत करते थे तथा आश्रयदाता शूरता के साथ-साथ उस राजकन्या के वर्णन का प्रयत्न करता था। पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज ने लगभग 14 विवाह किये। प्रत्येक राजकन्या की सुन्दरता का कवि ने प्रथमतः उल्लेख किया और बाद में प्रत्येक के लिए पृथ्वीराज ने युद्ध किया, तत्पश्चात् वरण किया। इस प्रकार इन रचनाओं में  श्रृंगार रस वीर रस का पोषक बनकर आया है।

3. इतिहास कम कल्पना अधिक-

 वीरगाथा काल की सभी रचनाओं पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि वे सभी या तो अप्रमाणिक हैं या अर्द्धप्रामाणिक । पृथ्वीराज रासों के सम्बन्ध में अब तक द्वन्द्र चल रहा है। मोहनलाल विष्णुलाल पाण्डया, श्यामसुन्दर दास, जैन मुनि आदि इसे प्रमाणिक मानते है तो शुक्लजी और गौरीशंकर ओझा इसे अप्रामाणिक मानते है। यही स्थिति बीसलदेव रासो की है। उसकी कोई घटना बीसलदेव के शिलालेखो से मेल नहीं खाती है। बीसलदेव का विवाह भोज की राजकन्या से रासो में करवाया गया है। जो उसके राज्यरोहण से 150 वर्ष पहले मर चुका था। इससे तत्कालीन साहित्यकारों को काल्पनिता प्रमाणित हो जाती है।

4. युद्धों का सजीव वर्णन-

चारण साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि चारण न केवल कलम के धनी थे, अपितु तलवार के भी धनी थे। उनकी कर्कश पदावली में, उनकी वीर बचनावली में शस्त्रों की झंकार साफ सुनाई देती है, क्योंकि ये युद्धों के प्रत्यक्षदशीं थे। अपनी वीरतापरक शब्दावली के द्वारा वे हतपौरुष सेना में पौरुष का संचार किया करते थे। इसलिए उनका युद्ध सम्बन्धी साहित्य अद्वितीय है। "आल्हाखण्ड" में उनकी सजीवता के अनेक चित्र मिलते है-

(i) खटखटाय कर लेगा चाले छमक चाले तलवार ।।

(ii) "सात कोस सो बढ़याँ पिथोरा, नदी बेतवा के मैदान ।" 

((iii) "बारह बरह ली कूकर जीये औ तेरह ली जिए सियार ।

बरस अट्ठारह क्षत्रिय जीवे आगे जीवन  को धिक्कार ।"

5. वीर गाथाओं की भाषा का डिंगल होना-

सभी वीरगाथात्मक साहित्य डिंगल भाषा में लिखा गया है। डिंगल भाषा उस भाषा का नाम था जो ग्राम्य, गंवारू या हीनता के दोष से दूषित और व्याकरण के नियमों से रहित थी तथा पिगल के वीरों से उठ खड़ी हुई थी। डिंगल के कई अर्थ और भी लिए जाते हैं-हर प्रसाद शास्त्री का कहना है कि- 'यह शब्द ' डिम 'गल' से बना है, जिसका अर्थ है "डिम-डिम" की ध्वनि निकलना है, लेकिन इन रचनाओं में ऐसी कोई ध्वनि नहीं मिलती है। एक दूसरे विद्वान् 'डगल' से इसकी उत्पत्ति मानते हैं- जिसका अर्थ है "दपक्तियाँ।" इनका कहना है कि "पिंगल" साम्य के कारण यह शब्द "डींगल" से "डिगल" हो गया। यह भाषा चारणों के सार्वथा उपयुक्त थी, क्योंकि वे उच्च स्वर से अपनी कविता पढ़ा करते थे और इस प्रकार की नाद सम्पन्न भाषा के अभाव में अभीष्ट सिद्धि नहीं हो सकती थी।

6. प्रबन्धात्मकता और मुक्तकात्मकता- 

वीरगाथा काल की रचनाओं के दो मुख्य रूप प्राप्त होते थे वे है- (i) प्रबन्ध (ii) मुक्तक में जीवन के कतिपय महत्वपूर्ण अंशों को ही उभार कर दिखाया जाता है। इस प्रकार के काव्य में अब्दुहमान का 'सन्देश रासक' लिया जाता है। पृथ्वीराज रासो में जीवन के समग्र आरोहों-अवरोहों का चित्रण है। यह रचना प्रबन्ध की दृष्टि से श्रेष्ठतम रचना है। अतः दोनों ही प्रकार की रचनाएँ इस काल में प्राप्त होती है।

 7. प्रकृति चित्रण - 

आलम्बन और उद्दीपन दोनों रूपों में इन रासो ग्रन्थों में प्रकृति तिरूपण किया गया है। नदी, वन, पर्वत आदि का वस्तु वर्णन भी शोभनीय और आकर्षक बन पड़ा है। प्रकृति चित्रण के स्वतन्त्र-स्थल इन काव्यों में बहुत थोड़े मिलते हैं। अधिकतर उसका उपयोग प्रकृति चित्रण के निर्मित किया गया है। प्रकृति चित्रण की जिस उदात्त शैली के दर्शन छायावादी युग में होते हैं, इस काल की रचनाओं में नहीं मिलते हैं।

8. रासो ग्रन्थ-

 इस साहित्य के सभी ग्रन्थों के नाम के साथ रासो शब्द जुड़ा हुआ है जो कि "काव्य" शब्द का पर्याय है। कुछ लोग रासो का सम्बन्ध 'रहस्य' या "रसायन" शब्द से जोड़ते हैं, किन्तु यह भ्रामक है। मूल रूप से रास एक छन्द है। जिसका प्रयोग अपभ्रंश के सन्देश रासक में मिलता है। बाद इसका प्रयोग गेय रूपक के अर्थ में होने लगा था। 

9. जन सम्पर्क का अभाव-

 इस ग्रन्थों में सामन्ती जीवन का चित्र उभर कर आया है। इनका जन-जीवन के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। राज दरबारी कवि से जन-जीवन के चित्रण की आशा नहीं की जा सकती थी। वीरगाथाओं तथा रीति ग्रन्थों में "स्वामिन सुखाय'" काव्यों की सृष्टि की गयी है। अतः साधारण जन-जीवन के घात-प्रतिघातों का चित्रण इसमें नहीं हो सका है।

10. छन्दों का बहु आयामी प्रयोग- 

इस साहित्य में छन्दों का जितना बहुमुखी प्रयोग किया है उतना इनके पूर्ववर्ती साहित्य में नहीं। दोहा, तोटक, तोमर, गाहा, गाथा, पट्टरि, आर्या, सट्टक, रोला, उल्लाला कुण्डलियाँ आदि छन्दों का प्रयोग इस साहित्य में बड़ी कलात्मकता के साथ किया है। इस छन्द विपर्यय में अस्भाविकता नहीं है। इस साहित्य का ऐतिहासिक तथा साहित्यिक दोनों दृष्टियों से विशेष महत्व है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह साहित्य अत्यन्त उपादेय है। 'इसमें वीर तथा श्रृंगार का सुन्दर परिपाक बन पड़ा है।

अन्य उपलब्धियाँ- 

आदिकालीन साहित्य में पद्य के साथ-साथ पद्य की रचनाएँ भी मिलती हैं। ऐसी गद्य रचनाओं में राठरवेल, उक्ति-व्यक्ति प्रकरण और वर्णन रत्नाकार के नाम विशेष उल्लेखनीय है। राउबेल का रचनाकाल 10 वीं शताब्दी माना गया है। यह गद्य-पद्य मिश्रित चूम्पू काव्य की प्राचीनतम् हिन्दी कृति है। इसकी रचना राउल नायिका के नखशिख वर्णन के प्रसंग में हुई है। प्रारम्भ में तो कवि ने राउल को सौन्दर्य का वर्णन पद्य में किया है, किन्तु बाद में गद्य का प्रयोग किया गया है। इस गद्य-पद्य मिश्रित कृति का लेखक रोड़ा नामक व्यक्ति माना जाता है। राठरवेल से हिन्दी में नख-शिख वर्णन की श्रृंगार परम्परा आरम्भ होती है। इसकी भाषा में हिन्दी के अतिरिक्त अन्य सात भाषाओं के शब्द उपलब्ध होते हैं। डॉ. नगेन्द्र द्वारा सम्पादित हिन्दी साहित्य का इतिहास में डॉ. रामगोपाल शर्मा "दिनेश" ने लिखा है कि इस कृति में कवि ने विषय-वर्णन बड़ी तन्मयता से किया है। नायिका राउल का श्रृंगार आकर्षण से भरा हुआ है। पद्य में ही नहीं, गद्य में भी आलंकारिक भाषा का प्रयोग सफलतापूर्वक किया गया है।

उक्ति-व्यक्ति प्रकरण-

 इस पुस्तक की रचना महाराज गोविन्दचन्द्र के सभा पंडित दामादोर शर्मा ने 12 वीं शताब्दी में की थी। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, उक्ति व्यक्ति प्रकरण एक अत्यन्त महत्वपूर्ण व्याकरण ग्रन्थ है। इससे बनारस और आसपास के प्रदेशों की संस्कृति और भाषा आदि का पर अच्छा प्रकाश पड़ता है और उस युग के काव्य रूपों के सम्बन्ध में थोड़ी-बहुत जानकारी मिलती है।" इस ग्रन्थ में गद्य और पद्य दोनों शैलियों की स्थिति देखी जा सकती है।

वर्णन रत्नाकार- 

मैथिली हिन्दी में रचित गद्य की यह कृति डॉ. सुनीत कुमार चटर्जी और प बघुआ मिश्र के सम्पादन में बंगाल ऐशियाटिक सोसायटी से प्रकाशित हो चुकी है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, इसकी रचना 14 वीं शताब्दी में हुई होगी। इसका लेखक ज्योतिरिश्वर ठाकुर नामक मैथिल कवि था। इसकी भाषा में कवित्व, आलंकारिकता तथा शब्दों की तत्समता की प्रवृत्तियाँ मिलती हैं। गद्य भाषा में भी इस ग्रन्थ के अन्तर्गत गद्य धारा का प्रवाह स्पष्ट दिखाई देता है।

मूल्यांकन -

 हिन्दी साहित्य का आदिकाल अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इसमें भाषा रूप और सम्प्रेषण क्षमता, कथ्य और शिल्प की विविधता देखने को मिलती है। यह वह काल है जिसमें जन-जीवन की अनुभूतियों को विविधता के साथ चित्रित किया गया है। आदिकाल की सभी साहित्यिक विशेषताएँ इस काल की उपलब्धि है। काव्य रचना की दो महत्वपूर्ण शैलियों का प्रयोग भी इसी काल में हुआ था, जिन्हें हम डिंगल और पिंगल के नाम से जानते हैं। सारांश यह है कि आदिकालीन हिन्दी साहित्य अपभ्रंश साहित्य के समानान्तर विकसित हुआ है। इस युग में हिन्दी भाषा जन-जीवन से रस लेकर आगे बढ़ी है। जीवन के विविध पक्षों का इस साहित्य में चित्रण हुआ है। यही वह साहित्य है, जिसने परवर्ती कालों के लिए अनेक परम्पराएँ डाली और भविष्य का पथ निर्मित किया।





Post a Comment

Previous Post Next Post