आदिकाल के इतिहास ग्रंथों की समीक्षा। सिद्ध और नाथ साहित्य

कोई भी साहित्य का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपनी पूर्व परम्परा से विकास होता है। समकालीन साहित्य भी परस्पर प्रभावित होते रहते हैं। हिन्दी के आदि साहित्य को संस्कृत अपभ्रंश आदि हो विरासत में मिली थी आदिकाल में भी हिन्दी के समानांतर संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य की रचना हो रही थी। संस्कृत का तो यद्यपि उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव बहुत थोड़ा दिखाई देता हैं, परन्तु अपभ्रंश का पूर्व और समानान्तर साहित्य हिन्दी साहित्य की पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था।

आदिकाल में अपभ्रंश के प्रमुख कवियों में स्वयंभू पुष्पदत्त, धनपाल, अब्दुल रहमान, जिनदत्त सूरी, जोइन्दर और नामसिंह है। स्वयं भू के "पउम चरिउ" "रिट्टणोमि चरिउ" "भविसयत कहा" आदि से हिन्दी में चरित काव्यों की नीव पड़ी जो आगे जाकर भक्ति काल मे भी विकसित हुए। लगभग सभी जैन कवियों के काव्य में धार्मिक और दार्शनिक प्रवृत्ति की प्रधानता है जो आदिकालीन और मध्यकालीन काव्य में विकसित हुई। 

आदिकालीन साहित्य

आदिकाल की रचनाओं को निम्नांकित 6 वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- 

(1) सिद्ध साहित्य 

(2) जैन साहित्य 

(3) नाव साहित्य

 (4) राम्रो साहित्य,

(5) लौकिक साहित्य

 (6) गद्य रचनाएँ।

1. सिद्ध साहित्य-

बौद्ध धर्म के वजयान तत्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जन भाषा में लिखा गया था, वह हिन्दी साहित्य की सीमा में आता है। राहुल सांकृत्यायन ने चौरासी सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है। जिनमें सिद्ध, महरपा, तुझ्या डेभिया कहा एवं कुक्कुरिया मुख्य है।

सरहपा के द्वारा रचे 32 ग्रन्थों में से "दोहा कोष" प्रसिद्ध है। इनकी भाषा सरल है। उस पर कहीं-कहीं अपभ्रंश का प्रभाव है। शबरपा, शबरों जैसा जीवन बिताते थे | "चर्यापद " इनकी प्रसिद्ध पुस्तक है। चुइपा का चौरासी सिद्धों में सबसे ऊँचा स्थान माना है। रहस्य भावना इनके काव्य की विशेषता है। डेभिया, कन्हया और कुक्कुरिया ने भी अनेक ग्रन्थों की रचना की। रहस्य भावना इनकी सामान्य विशेषता है।

2. जैन साहित्य-

सिद्धों ने भारत के पूर्व में वजूयान तत्व का प्रचार किया था, जबकि पश्चिमी क्षेत्र में जैन साधुओं ने अपने मत का प्रचार हिन्दी कविता के माध्यम से किया। इन कवियों की रचनाएँ आचार, रास, फागु, चरित आदि विभिन्न शैलियों में मिलती है। आचार शैली के काव्यों में घटनाओं के स्थान पर उपदेशात्मकता की प्रधानता हैं। फागु और चरित काव्य शैली की सामान्यत: के लिए प्रसिद्ध है। "राम" प्रभावशाली रचना शैली है। बद्ध की गई है रास ग्रन्थ जैन साहित्य के सबसे लोकप्रिय ग्रन्थ है वीर गाथाओं में 'रास' को 'रासो' कहा गया परन्तु उनकी विषय वस्तु भिन्न हैं।

जैन साहित्य के प्रसिद्ध कवियों में देवसेन शालिभद्र, सूरि, आसगु, जिना छाप सूरि, विजय सेन सूरि, सुमतिर्माण आदि आते हैं।

जैनाचार्य देवसेन का प्रसिद्ध ग्रन्थ श्रावकाचार है जिसमें श्रावक धर्म का प्रतिपादन किया गया है। सालिभद सूरि का 'भरतेश्वर आहुबती रास' जैन साहित्य की रास परम्परा का पहला ग्रन्थ माना जाता है। कवि आसगु के छोटे से काव्य 'चन्दन बाला रास' में करुण रस की मार्मिक व्यंजना है। जिन धर्म सूरि के 'स्थूली भद्र रास' में वेश्या के भोग में लिप्त रहने वाले नायक को जैन धर्म की दीक्षा के बाद मोक्ष का अधिकारी बताया गया है। विजयसेन सूरि के रवंत गिरिरास' की विशेषता उसमें व्यक्त वास्तुकलात्मक सौन्दर्य हैं। सुमति गणि ने मात्र अट्ठावन छन्दों के काव्य नेमिनाथ रास' नेमिनाथ का चरित्र सरस शैली में व्यक्त किया है। रचना की भाषा अपभ्रंश प्रभावित राजस्थानी है।

3. नाथ साहित्य-

सिद्धों की वाममार्गी भोगे प्रधान योग साधना की प्रतिक्रिया में नागपंथियों की हठयोग साधना प्रारम्भ हुई। सांस्कृत्यायन ने नाथपंथ को सिद्धों की परम्परा का ही विकसित रूप माना है। वास्तव में सिद्धों और शैवों के समागम से नाथ पंथ का प्रादुर्भाव हुआ। डॉ. रामकुमार वर्मा का मत है कि 'नाथ पंथ' से ही भक्ति काल के सन्तं मत का विकास हुआ है। नाथपन्थ की अनेक विशेषताओं का सन्तमत में विद्यमान होना डॉ. वर्मा के मत को प्रमाणित करता है। नाथपत्य के प्रवर्तक मछिन्दरनाथ और गोरखनाथ माने गए हैं। गोरखनाथ ही नाथ साहित्य के सर्वप्रधान कवि भी है। इनके अलावा चौरंगीनाथ, गोपीचन्द, चुणकरनाथ, भरथरी, जलन्ध्रीपाव आदि भी प्रसिद्ध हैं। 

नाथ साहित्य का भक्तिकालीन सन्त मत के भाव पक्ष पर ही नहीं भाषा छन्द आदि पर भी प्रभाव पड़ा। 

4. रासो साहित्य -

 रासो काव्य में मुख्यतः राज्यश्रित चारण भाट कवियों द्वारा अपने आश्रयदाताओं के चरित्र वर्णित किए गए हैं। राजाओं के उत्तराधिकारी उसमें अपने चरित्र भी करा देते थे, जिससे इनमें काल, दोष आ गया और प्रामाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लग गया, परन्तु प्रक्षिप्त अंशों को निकाल देने पर इनका मूल स्वरूप स्पष्ट हो जाता है।

 आदिकाल के रासो ग्रन्थों के खुमाण, रासो, बीसलदेव रासो, परमाल रासो और पृथ्वीराज रासो प्रसिद्ध रासो ग्रन्थ है। 

खुमाण रासो का मूलरूप नयी शताब्दी मे लिखा प्रमाणित हुआ है। इसके लेखक दलपत विजय है। यह पाँच हजार छन्दों का विशाल काव्य ग्रन्थ है, बीसलदेव रासो अत्यन्त श्रेष्ठ काव्य है। परमाल रासो मौखिक रूप में "आलखण्ड" के नाम से उत्तर भारत में लोकप्रिय है। यह लोक काव्य है।

5. लौकिक साहित्य- 

इसके अन्तर्गत ढोला मारु का दूहा "वसन्त लिवास" और "खुसरो की पहेलियाँ" विशेष उल्लेखनीय हैं। जयचन्द्र प्रकाश और जयमयंक जैसे चन्द्रिका काव्य अनुकरण है। 

6. गद्य साहित्य-

गद्य के प्रारम्भ की दृष्टि से भी आदिकाल महत्वपूर्ण है। 'राउरवेल' नामक शिलांकित कृति में पक्ष के साथ गद्य भी मिलता है। एक तरह से यह 'चम्पू काव्य' शिल्प की पहली रचना है। इसके कवि का नाम रोड़ा बताया जाता है। रूप वर्णन की दृष्टि से यह विशिष्ट रचना है। इसी युग में गद्य में लिखा 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण' नामक महत्वपूर्ण व्याकरण ग्रन्थ मिलता है। 'वर्ण रत्नाकर' कुछ लोगों को एक अलग तरह का कोष ग्रन्थ प्रतीत होता है। जिसमे "सौन्दर्य प्रहिणी प्रतिभा" भी है। 

आदिकाल की उपलब्धियाँ-

आदिकाल भाषा और साहित्य की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न काल है। कवि प्रकृति और रचना की दृष्टि से यह वैविध्य का युग है। भाषिक दृष्टि से संक्रमण काल की भाषा के साथ ही नवीन विकसित देशभाषा भी यहाँ अपनी विशेषताओं सहित प्रतिष्ठित है। भाषा में अनेक तरह के मिश्रण न सिर्फ लोक जीवन की प्रतिकृति है वरन् अभिव्यक्ति भाषा की खोज के लिए व्यापक रूप से भटकने का प्रमाण भी है। छन्द अथवा काव्य शिल्प की दृष्टि से भी यह युग भावी युगों की भूमिका रहा है।

सिद्ध-साहित्य-

सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जन-भाषा में लिखा वह हिन्दी के सिद्ध साहित्य की सीमा में आता है। राहुल सांकृत्यायन ने चौरासी सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है, जिनमें सिद्ध सरहपा से यह साहित्य आरम्भ होता है। इन सिद्धों में सरहपा, शबरपा, लुइपा, डोम्भिया, कण्हपा एवं कुक्रुरिया हिन्दी के मुख्य सिद्ध कवि है। यहाँ संक्षेप में, इनके व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचय देकर हम साहित्य के विकास में इनकी भूमिका को स्पष्ट करने की चेष्टा करेंगे।

सरहपा- 

ये सरहपाद, सरोजवज्र, राहुलभद्र आदि कई नामों से प्रख्यात है। जाति से ये ब्राह्मण थे। इनके रचना-काल के विषय में सभी विद्वान् एकमत नहीं हैं। राहुलजी ने इनका समय 769 ई. माना है, जिससे अधिकांश विद्वान सहमत है। इनके द्वारा रचित बत्तीस ग्रन्थ बताये जाते हैं, जिनमें से 'दोहाकोश' हिन्दी की रचनाओं में प्रसिद्ध है। इन्होंने पाखण्ड और आडम्बर का विरोध किया है तथा गुरु-सेवा को महत्व दिया है। ये सहज भोग-मार्ग से जीव को महासुख की ओर ले जाते है। इनकी भाषा सरल तथा गेय है एवं काव्य में भावों का सहज प्रवाह मिलता है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-

 नाद न बिन्दु न रवि न शशि मण्डल, चिअराअ सहावे मूकल ।

अजुरे उजु छाड़ मा लेहु रे बँक, निहि बोहिमा जाहू रे लाक।

हारे काकाण मा लोड दापण, अपणे अपा बुझतु निअन्तमण।

सरहपा की इस कविता से स्पष्ट है कि उनको भाषा तो हिन्दी ही है, केवल उस पर यत्र-तत्र अपभ्रंश का प्रभाव है। भाव और शिल्प की जो परम्परा सन्त-साहित्य में जाकर नये रूप में उभरी, उसका बीज-रूप सरहपा के काव्य में द्रष्टव्य है।

शबरपा-

इनका जन्म क्षत्रिय कुल में 780 ई. में हुआ था। सरहपा से इन्होंने ज्ञान प्राप्त किया था। शबरों का सा जीवन व्यतीत करने के कारण ये शबरपा कहे जाने लगे। 'चर्यापद' इनकी प्रसिद्ध पुस्तक है । ये माया-मोह का विरोध करके सहज जीवन पर बल देते हैं और उसी- को महासुख की प्राप्ति का मार्ग बतलाते हैं। इनकी कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार है-

हेरि ये मेरि तइला बाड़ी खसमे समतुला

बुकड़ाए मेरे कपासु फुटिला ।

 इला बाहिर पासेर जोहणा बाड़ी ताएला

फिटेलि अंधारि रे आकाश फुलिआ ।।

लुइपा-

ये राजा धर्मपाल के शासन काल में कायस्थ परिवार में उत्पन्न हुए थे। शबरपा ने इन्हें अपना शिष्य बनाया था। इनकी साधना का प्रभाव देखकर उड़ीसा के तत्कालीन राजा तथा मन्त्री इनके शिष्य हो गये थे। चौरासी सिद्धों में इनका सबसे ऊँचा स्थान माना जाता है। इनकी कविता में रहस्य-भावना की प्रधानता है। एक उदाहरण देखिए-

 क्राआ तरुवर पंच विडाल, चंचल चीए पइठो काल । 

दिट करिअ महासुह परिमाण, लुइ भरमई गुरु पूच्छि अजाण ।।

 डोम्भिषा-

मगध के क्षत्रिय वंश में 840 ई. के लगभग इनका जन्म हुआ था। विरूपा से इन्होंने दीक्षा ली थी। इनके द्वारा रचित इक्कीस ग्रन्थ बताये जाते हैं, जिनमें 'डोम्बि गीतिका' 'योगचर्या', 'अक्षरद्विकोपदेश' आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। इनकी कविता का एक उदाहरण इस प्रकार है-

गंगा जउना माझेरे बहर नाइ ।

तांहि बुड़िली मातंग पोइआली ले पार करई ।

बाहुत डोम्बी बाह लो डोम्बी वाटत भइल उछारा ।

सद्गुरु पाऊ पए जाइब पुणु जिणउरा ।। 

कण्हपा-

इनका जन्म कर्नाटक के ब्राह्मण वंश में 820 ई. में हुआ था। बिहार के सोमपुरी स्थान पर ये रहते थे। जालन्धरपा को इन्होंने अपना गुरु बनाया था। कई सिद्धों ने इनकी शिष्यता स्वीकार की थी। इनके लिखे चौहत्तर ग्रन्थ बताये जाते हैं, जिनमें अधिकांश दार्शनिक विषयों पर है। रहस्यात्मक भावनाओं से परिपूर्ण गीतों की रचना करके ये हिन्दी के कवियों में प्रसिद्ध हुए। इन्होंने शास्त्रीय रूढ़ियों का भी खण्डन किया है। इनकी कविता का एक उदाहरण देखिए-

आगम वेअ पुराणे, पंडित मान बहंति । 

पक्क सिरिफल अलिअ, जिम वाहेरित भ्रमयति ।।

कुक्करिपा  - 

इनका जन्म कपिलवस्तु के एक ब्राह्मण वंश में माना जाता है। इनके जन्म काल का पता नहीं चल रहा है। चर्पटीया इनके गुरु थे। इनके द्वारा रचित सोलह-ग्रन्थ माने जाते हैं। ये भी सहज जीवन के समर्थक थे। इनकी कविता का एक उदाहरण इस प्रकार है- 

होठ निवासी खमण भतारे, मोहोर विगोआ कहण न जाइ।

 फेटलिउ गो माए अन्त उड़ि चाहि, जा एथु बाहाम सो एधुं नाहि ।

इन प्रमुख सिद्ध कवियों के अतिरिक्त अन्य सिद्ध कवि भी जन भाषा में अपनी वाणी का प्रचार पद्म में करते थे, किन्तु उसमें कवित्व का उतना अंश नहीं, जिसके आधार पर उसे साहित्य के विकास में योगदाता माना जा सके। जिन कवियों की पहले चर्चा की गयी है, उनका साहित्य ही हिन्दी के सिद्ध साहित्य के लिए गौरव का विषय है। इन कवियों ने हिन्दी साहित्य में कविता की जो प्रवृत्तियां आरम्भ की, उनका प्रभाव भक्तिकाल तक चलता रहा। रूढ़ियों के विरोध का अक्खड़पन, जो कबीर आदि की कविता में मिलता है, इन सिद्ध कवियों की देन है। योग साधना के क्षेत्र में भी इनका प्रभाव पहुँचा। सामाजिक जीवन के जो चित्र इन्होंने उभारे, वे भक्तिकालीन काव्य के लिए सामाजिक चेतना की पीठिका बन गये। कृष्ण-भक्ति के मूल में जो प्रवृत्ति-मार्ग हैं, उसकी प्रेरणा के सूत्र भी हमें इनके साहित्य में मिलते हैं।

नाथ साहित्य-

सिद्धों की वाममार्गी भोगप्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपन्थियों की हठयोग-साधना आरम्भ हुई। राहुल जी ने नाथ- पन्थ को सिद्धों की परम्परा का ही विकसित रूप माना है। इस पन्थ के चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछन्दरनाथ) तथा गोरखनाथ माने गये है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने नाथ- पन्थ के चरमोत्कर्ष का समय बारहवी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी के अन्त तक माना है। उनका मत है कि नाथ- पन्थ से ही भक्तिकाल के सन्त मत का विकास हुआ था, जिसके प्रथम कवि कबीर थे। इस मन्तव्य का समर्थन कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से हो जाता है- नाथपन्थी रचनाओं की अनेक विशेषताएँ सन्त काव्य में यथावत् विद्यमान हैं।

डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, "नाथ- पन्थ या नाथ सम्प्रदाय के सिद्ध-मत, सिद्ध- मार्ग, योग-मार्ग, योग-सम्प्रदाय, अवधूत मत एवं अवधूत सम्प्रदाय नाम भी प्रसिद्ध हैं।" उनके इस कथन का यह अर्थ नहीं कि सिद्ध-मत और नाथ मत एक ही हैं। उन्होंने तो नाम ख्याति की ओर ध्यान आकर्षित किया है, जिसका आशय इतना ही है कि इन दोनों मार्गों को एक ही नाम से पुकारा जाता था और उसका कारण यह था कि मत्स्येन्द्रनाथ (मछन्दरनाथ) तथा गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) सिद्धों में भी गिने जाते थे। यह प्रसिद्ध है कि मत्स्येन्द्रनाथ नारी साहचर्य के आचार में जा फँसे थे जिससे उनके शिष्य गोरक्षनाथ ने उद्धार किया था। वस्तुतः इस लोक- चर्चा के मूल में ही सिद्ध मत एवं नाथ-मत का अन्तर छिपा हुआ है। सिद्ध-गण नारी- भोग में विश्वास करते थे, किन्तु नाथपन्थी उसके विरोधी थे सिद्धों की रचनाओं पर पीछे विचार किया जा चुका है, यहाँ हम नाथ-साहित्य पर संक्षेप में प्रकाश डालेंगे।

गोरखनाथ-

 गोरखनाथ नाथ-साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। वे सिद्ध मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य थे, किन्तु उन्होंने सिद्धों के मार्ग का विरोध किया था। गोरखपन्थी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं शिव थे। उनके पश्चात् मत्स्येन्द्रनाथ हुए, जिनके आचरण का विरोध उनके शिष्य गोरखनाथ ने किया राहुल सांकृत्यायन ने गोरखनाथ का समय 845 ई. माना है, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी उन्हें नवीं शती का मानते हैं, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तेरहवीं शती का बतलाते है, डॉ. पीताम्बर दत्त बवाल ग्यारहवीं शती का मानते हैं तथा डॉ. रामकुमार वर्मा शुक्ल जी के मत से सहमत हैं। नवीन खोजों के अनुसार यही धारणा अधिक प्रबल हुई है कि गोरखनाथ ने ईसा की तेरहवीं शती के आरम्भ में अपना साहित्य लिखा था उनके ग्रन्थों की संख्या चालीस मानी जाती है, किन्तु डॉ. बड़थ्वाल ने केवल चौदह रचनाएँ ही उनके द्वारा रचित मानी हैं, जिनके नाम है-सबंदी, पद, प्राण संकली, सिध्यादरसन, नरवै योध, अर्धमात्रा जोग, आतम- बोध, पन्द्रह तिथि, सप्तवार, मछीन्द्र गोरखबोध, रोमावली, ग्यानतिलक, ग्यानचौतीसा एवं पंचमात्रा। डॉ. बड़थ्वाल ने 'गोरखबानी' नाम से उनकी रचनाओं का एक संकलन भी सम्पादित किया है, जिसकी कई रचनाएँ साहित्य की सीमा में आती हैं।

गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिन सबका उनके नाथ- पन्थ में विलय हो गया था। शैवों एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योगमार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं में गुरु महिमा, इन्द्रिय-निग्रह, प्राण-साधना, वैराग्य, मनः साधना, कुण्डलिनी जागरण, शून्य-समाधि आदि का वर्णन किया है। इन विषयों में नीति और साधना की व्यापकता मिलती है। यही कारण है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इन रचनाओं को साहित्य मे सम्मिलित नहीं किया था, किन्तु डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी इस पक्ष में नहीं हैं। पूर्वोक्त विषयों के साथ जीवन की अनुभूतियों का सघन चित्रण होने के कारण इन रचनाओं को साहित्य में सम्मिलित करना ही उचित है। इसी साहित्य का विकास भक्तिकाल में ज्ञानमार्गी सन्त- काव्य के रूप में हुआ। अतः उसकी साहित्यिकता स्वीकार करना ही अधिक न्यायसंगत है।

 गोरखनाथ ने हठयोग का उपदेश दिया था। हठयोगियों के 'सिद्ध-सिद्धान्त-पद्धति' प्रन्थ के अनुसार 'ह' का अर्थ है सूर्य तथा 'ठ' का अर्थ है चन्द्र इन दोनों के योग को ही 'हठयोग' कहते हैं। गोरखनाथ ने ही षट्चक्रोवाला योग-मार्ग हिन्दी-साहित्य में चलाया था। इस मार्ग में विश्वास करने वाला हठयोगी साधना द्वारा शरीर और मन को शुद्ध करके शून्य में समाधि लगाता था और वहीं ब्रह्म का साक्षात्कार करता था। गोरखनाथ ने लिखा है कि धीर वह है, जिसका चित्त विकार-साधन होने पर भी विकृत नहीं होता-

नौ लख पातरि आगे नाचै, पीछे सहज अखाड़ा।

ऐसे मन लै जोगी खेलै, तब अंतरि बसे भंडारा ।।

 मूर्त जगत् में अमूर्त के स्पर्श को व्यक्त करते हुए वे कहते हैं-

अंजन मांहि निरंजन भेट्या, तिल मुख भेट्या तेल।

मूरति मांहि अमूरति परस्या, भया निरंतरि खेलं । ।

 गोरखनाथ की कविताओं से स्पष्ट है कि भक्तिकालीन सन्त-मार्ग के भावपक्ष पर ही उनका प्रभाव नहीं पड़ा, भाषा और छन्द भी प्रभावित हुए हैं। इस प्रकार उनकी रचनाओं में हमें आदिकाल की वह शक्ति छिपी मिलती है, जिसने भक्तिकाल की कई प्रवृत्तियों को जन्म दिया। 

अन्य कवि -

 नाथ-साहित्य के विकास में जिन अन्य कवियों ने योग दिया, उनमें चौरंगीनाथ, गोपीचन्द, चुणकरनाथ, भरथरी, जलन्ध्रीपाव आदि प्रसिद्ध हैं। इन कवियों की रचनाओं में उपदेशात्मक तथा खण्डन मण्डन का प्राधान्य है तेरहवीं शती में इन सबने अपनी वाणी | का प्रचार किया था। ये सभी हठयोगी प्रायः गोरखनाथ के भावों का अनुकरण करते थे, अतः इनकी रचनाओं में कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं मिलती। गोरखनाथ की हठयोग-साधना में ईश्वरवाद व्याप्त था। इन हठयोगियों ने भी उसका प्रचार किया, जो रहस्यवाद के रूप में प्रतिफलित हुआ और जिसका भक्तिकाल में कबीर आदि ने अनुकरण किया। 


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