शंकराचार्य के मन में बचपन से ही सन्यासी बनने की प्रबल इच्छा जाग उठी थी |
माँ की अनुमति मिलने पर वह सन्यासी बन गए |
शंकराचार्य के बचपन का नाम शंकर था | इनका जन्म इनका जन्म दक्षिण भारत के केरल प्रदेश में पूर्णा नदी के तट पर स्थित कालड़ी ग्राम में आज से लगभग 1200 वर्ष पहले हुआ था | इनके पिता का नाम शिव गुरु तथा माता का नाम आर्यम्बा था | इनके पितामह भी वेद - शास्त्र के प्रकांड विद्वान थे | इनका परिवार अपने पांडित्य के लिए विख्यात था |
इनके बारे में ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी - 'आपका पुत्र महान विद्वान, यशस्वी तथा भाग्यशाली होगा ' इसका यश पुरे विश्व में फैलेगा और इसका नाम अनंत काल तक अमर रहेगा ' | पिता शिवगुरु यह सुनकर बड़े प्रसन्न हुए |उन्होंने अपने पुत्र का नाम शंकर रखा | यह अपने माँ बाप की इकलौती संतान थे | शंकर तीन ही वर्ष के थे कि इनके पिता का देहांत हो गया | पिता की मृत्यु के बाद माँ आर्यम्बा शंकर को घर पर ही पढ़ाती रही | पांचवे वर्ष उपनयन संस्कार हो जाने पर माँ नें इन्हें आगे अध्ययन के लिए गुरु के पास भेज दिया | शंकर कुशाग्र एवं अलौकिक बुद्धि के बालक थे | इनकी स्मरण शक्ति अदभुद थी | जो बात एक बार पढ़ लेते या सुन लेते उन्हें याद हो जाती थी | इनके गुरु भी इनकी प्रखर मेधा को देखकर आश्चर्यचकित थे | शंकर कुछ ही दिनों में वेद शास्त्रों एवं अन्य धर्म ग्रंथों में पारंगत हो गए | शीघ्र ही इनकी गणना प्रथम कोटि के विद्वानों में होने लगी |
शंकर गुरुकुल में सहपाठियों के साथ भिक्षा मांगने जाते थे | एक बार कहीं भिक्षा मांगने गए | अत्यंत विपन्नता के कारण गृह स्वामिनी भिक्षा न दे सकी अतः रोने लगी | शंकर के हृदय पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा |
विद्या अध्ययन समाप्त कर शंकर घर वापस लौटे | घर पर वे विद्यार्थियों को पढ़ाते तथा माँ की सेवा करते थे | और इनका ज्ञान और यश चारों तरफ फैलने लगा | केरल के राजा ने इन्हें अपने दरबार का राजपुरोहित बनाना चाहा किन्तु इन्होने बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर दिया |राजा स्वयं शंकर से मिलने आये | उन्होंने 1000 अशर्फियाँ इन्हें भेंट की और इन्हें तीन स्वरचित नाटक दिखाएँ | शंकर ने नाटकों की प्रशंसा की किन्तु अशर्फियाँ लेना अस्वीकार कर दिया |शंकर के त्याग एवं गुणग्राहिता कारण राजा इनके भक्त बन गए |
अपनी मां से अनुमति लेकर शंकर ने सन्यास ग्रहण कर लिया |माँ अनुमति देते समय शंकर से वचन लिया कि वे उनका अंतिम संस्कार अपने हाथों से ही करेंगे | यह जानते हुए भी कि सन्यासी यह कार्य नहीं कर सकता उन्होंने मां को वचन दे दिया | माँ से आज्ञा लेकर शंकर नर्मदा तट पर तप में लीन सन्यासी गोविन्दनाथ के पास पहुंचे | शंकर जिस समय वहां पहुंचे गोविन्द नाथ एक गुफा में समाधि लगाये बैठे थे | समाधि टूटने पर शंकर ने उन्हें प्रणाम किया और बोले - "मुझे सन्यास की दीक्षा तथा आत्म विद्या का उपदेश दीजिए |"
गोविन्द नाथ ने इनका परिचय पूछा तथा इनकी बातचीत से बड़े प्रभावित हुए | उन्होंने सन्यास की दीक्षा दी और इनका नाम शंकराचार्य रखा | वहाँ कुछ दिन अध्यन करने के बाद वह गुरु की अनुमति लेकर सत्य की खोज के लिए निकल पड़े | गुरु ने उन्हें पहले काशी जाने का सुझाव दिया |
शंकराचार्य कशी में एक दिन गंगा स्नान के लिए जा रहे थे | मार्ग में एक चंडाल मिला | शंकराचार्य ने उसे मार्ग से हट जाने के लिए कहा | उस चाण्डाल ने विनम्र भाव से पूछा - महाराज ! आप चाण्डाल किसे कहते हैं ? इस शरीर को या आत्मा को ? यदि शरीर को तो वह नश्वर है और जैसा अन्न जल का आपका शरीर वैसा ही मेरा भी यदि शरीर के भीतर की आत्मा को, तो वह सबकी एक है , क्यूंकि ब्रह्म एक है | शंकराचार्य को उसकी बातों से सत्य का ज्ञान हुआ और उन्होंने उसे धन्यवाद दिया |
काशी में शंकराचार्य का वंहा के प्रकांड विद्वान मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ हुआ | यह शास्त्रर्थ कई दिन तक चला | मंडन मिश्र तथा उनकी पत्नी भारती का बारी -बारी से इनसे शास्त्रार्थ हुआ | पहले शंकराचार्य भारती से हार गए किन्तु पुनः शास्त्रार्थ होने पर वे जीते | मंडल मिश्र तथा उनकी पत्नी शंकराचार्य के शिष्य बन गए |
महान कर्मकाण्डी कुमारिल भट्ट से शास्त्रार्थ करने के लिए वे प्रयागधाम गए | भट्ट बड़े-बड़े विद्वानों को परास्त करने वाले दिग्विजयी विद्वान थे |
सन्यासी शंकराचार्य विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते रहे | वह श्रंगेरी में थे तभी माता की बीमारी का समाचार मिला | वह तुरंत माँ के पास पहुंचे | वह इन्हें देख कर बड़ी प्रसन्न हुई | कहते हैं की इन्होने माँ को भगवन विष्णु का दर्शन कराया और लोगों के विरोध करने पर भी माँ का दाह-संस्कार किया |
शंकराचार्य ने धर्म की स्थापना के लिए सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया | उन्होंने भग्न मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा नए मंदिरों की स्थापना की | लोगों को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में पिरोने के लिए उन्होंने भारत के चारों कोनों पर चार धामों (मठों) की स्थापना की | इनके नाम है -श्री बद्रीनाथ,द्वारिकापुरी, जगन्नाथ पुरी तथा श्री रामेश्वरम | ये चारों धाम आज भी विधमान है | इनकी शिक्षा का सार है-
"ब्रह्म सत्य है तथा जगत मिथ्या है" इसी मत का इन्होनें प्रचार किया |
शंकराचार्य बड़े ही उज्जवल चरित्र के व्यक्ति थे | वह सच्चे सन्यासी थे तथा उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की | इन्होंने भाष्य , स्त्रोत तथा प्रकरण ग्रन्थ भी लिखे | इनका देहांत मात्र 32 वर्ष की अवस्था में हो गया |
उनका अंतिम उपदेश था -
हे मानव ! तू स्वयं को पहचान ,स्वयं को
पहचानने के बाद तू ईश्वर को पहचान जाएगा |