जानिए कौन थे आदि गुरु शंकराचार्य ?

नदी की बेगवती धारा में माँ -बेटे गिर गए थे | बेटे ने मां से कहा -"यदि आप मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दें तो मैं बचने की चेष्टा करूँ, अन्यथा यही डूब जाऊंगा उसने अपने हाथ पैर ढीले छोड़ दिए | पुत्र को डूबता देखकर उसकी मां ने स्वीकृति दे दी | पुत्र ने स्वयं तथा माँ  दोनों को बचा लिया |"
आदि गुरु शंकराचार्य
यह बालक शंकराचार्य थे |

शंकराचार्य के मन में बचपन से ही सन्यासी बनने की प्रबल इच्छा जाग उठी थी |

माँ  की अनुमति मिलने पर वह सन्यासी बन गए |

शंकराचार्य के बचपन का नाम शंकर था | इनका जन्म इनका जन्म दक्षिण भारत के केरल प्रदेश में पूर्णा नदी के तट पर स्थित कालड़ी ग्राम में आज से लगभग 1200 वर्ष पहले हुआ था  | इनके पिता का नाम शिव गुरु तथा माता का नाम आर्यम्बा था  | इनके पितामह भी वेद - शास्त्र के प्रकांड विद्वान थे | इनका परिवार अपने पांडित्य के लिए विख्यात था |

इनके बारे में ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी -  'आपका पुत्र महान विद्वान, यशस्वी तथा भाग्यशाली होगा ' इसका यश  पुरे विश्व में फैलेगा और इसका नाम अनंत काल तक अमर रहेगा ' |  पिता शिवगुरु यह सुनकर बड़े प्रसन्न हुए  |उन्होंने अपने पुत्र का नाम शंकर रखा  |  यह अपने माँ बाप की इकलौती संतान थे | शंकर तीन ही वर्ष के थे कि इनके पिता का देहांत हो गया  | पिता की मृत्यु के बाद माँ आर्यम्बा शंकर को घर पर ही पढ़ाती रही | पांचवे वर्ष उपनयन संस्कार हो जाने पर माँ नें इन्हें आगे अध्ययन के लिए गुरु के पास भेज दिया | शंकर कुशाग्र  एवं अलौकिक बुद्धि के बालक थे | इनकी स्मरण शक्ति अदभुद थी  | जो बात एक बार पढ़ लेते या सुन लेते उन्हें याद  हो जाती थी | इनके गुरु भी इनकी प्रखर  मेधा को देखकर आश्चर्यचकित थे  |  शंकर कुछ ही दिनों में वेद शास्त्रों एवं अन्य धर्म ग्रंथों में पारंगत हो गए | शीघ्र ही इनकी गणना प्रथम कोटि के विद्वानों में होने लगी |

शंकर गुरुकुल में सहपाठियों के साथ भिक्षा मांगने जाते थे | एक बार कहीं भिक्षा मांगने गए |  अत्यंत विपन्नता के कारण  गृह स्वामिनी भिक्षा न दे सकी अतः रोने लगी  | शंकर के हृदय पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा |

विद्या अध्ययन समाप्त कर शंकर घर वापस लौटे |  घर पर वे विद्यार्थियों को पढ़ाते तथा माँ की सेवा करते थे | और इनका ज्ञान और यश  चारों तरफ फैलने लगा |  केरल के राजा ने इन्हें अपने दरबार का राजपुरोहित बनाना चाहा किन्तु इन्होने बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर दिया  |राजा स्वयं शंकर से मिलने आये | उन्होंने 1000 अशर्फियाँ इन्हें भेंट की और इन्हें तीन स्वरचित नाटक दिखाएँ |  शंकर ने नाटकों की प्रशंसा की किन्तु अशर्फियाँ  लेना अस्वीकार कर दिया  |शंकर के त्याग एवं गुणग्राहिता  कारण  राजा इनके भक्त बन गए  |

अपनी मां से अनुमति लेकर शंकर ने सन्यास ग्रहण कर लिया  |माँ अनुमति देते समय शंकर से वचन लिया कि वे उनका अंतिम संस्कार अपने हाथों से ही करेंगे  | यह जानते हुए भी कि सन्यासी यह कार्य नहीं कर सकता उन्होंने मां को वचन दे दिया | माँ से आज्ञा लेकर शंकर नर्मदा तट पर तप में लीन सन्यासी गोविन्दनाथ के पास पहुंचे | शंकर जिस समय वहां पहुंचे गोविन्द नाथ एक गुफा में समाधि लगाये बैठे थे  | समाधि टूटने पर शंकर ने उन्हें प्रणाम किया और बोले - "मुझे सन्यास की दीक्षा तथा आत्म विद्या का उपदेश दीजिए |"

गोविन्द नाथ ने इनका परिचय पूछा तथा इनकी बातचीत से बड़े प्रभावित हुए |  उन्होंने सन्यास की दीक्षा दी और इनका नाम शंकराचार्य रखा  | वहाँ कुछ दिन अध्यन करने के बाद वह गुरु की अनुमति लेकर सत्य की खोज के लिए निकल पड़े | गुरु ने उन्हें पहले काशी जाने का सुझाव दिया | 

शंकराचार्य कशी में एक दिन गंगा स्नान के लिए जा रहे थे  | मार्ग में एक चंडाल मिला |  शंकराचार्य ने उसे मार्ग से हट जाने के लिए कहा  | उस  चाण्डाल ने विनम्र भाव से पूछा -  महाराज !  आप चाण्डाल किसे कहते हैं  ? इस शरीर को या  आत्मा को  ?  यदि शरीर को तो वह नश्वर है और जैसा अन्न  जल का आपका शरीर वैसा ही मेरा भी यदि शरीर के भीतर की आत्मा को,  तो वह सबकी एक है , क्यूंकि ब्रह्म एक है |  शंकराचार्य को उसकी बातों से सत्य का ज्ञान हुआ और उन्होंने उसे धन्यवाद दिया |

काशी में शंकराचार्य का वंहा के प्रकांड विद्वान मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ हुआ |  यह शास्त्रर्थ कई दिन तक चला  | मंडन मिश्र तथा उनकी पत्नी भारती का बारी -बारी से इनसे शास्त्रार्थ हुआ |  पहले शंकराचार्य भारती से हार गए किन्तु पुनः शास्त्रार्थ होने पर वे जीते |  मंडल मिश्र तथा उनकी पत्नी शंकराचार्य के शिष्य बन गए  | 

महान  कर्मकाण्डी कुमारिल भट्ट से शास्त्रार्थ करने के लिए वे प्रयागधाम गए  | भट्ट बड़े-बड़े विद्वानों को परास्त करने वाले दिग्विजयी  विद्वान थे  |

सन्यासी शंकराचार्य विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते रहे |  वह श्रंगेरी में थे तभी माता की बीमारी का समाचार मिला |  वह तुरंत माँ के पास पहुंचे | वह इन्हें देख कर बड़ी प्रसन्न हुई |  कहते हैं की इन्होने माँ  को भगवन विष्णु का दर्शन कराया और लोगों के विरोध करने पर भी माँ  का दाह-संस्कार किया | 

शंकराचार्य ने धर्म की स्थापना के लिए सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया  | उन्होंने भग्न मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा नए मंदिरों की स्थापना की | लोगों को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में पिरोने के लिए उन्होंने भारत के चारों  कोनों पर चार धामों (मठों) की स्थापना की  |  इनके नाम है -श्री बद्रीनाथ,द्वारिकापुरी, जगन्नाथ पुरी तथा श्री रामेश्वरम  | ये  चारों धाम आज भी विधमान है | इनकी शिक्षा का सार है-

 "ब्रह्म सत्य है तथा जगत मिथ्या है"  इसी मत का इन्होनें प्रचार किया | 

शंकराचार्य बड़े ही उज्जवल चरित्र के व्यक्ति थे |  वह सच्चे सन्यासी थे तथा उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की | इन्होंने भाष्य , स्त्रोत तथा प्रकरण ग्रन्थ भी लिखे  | इनका देहांत मात्र 32 वर्ष की अवस्था में हो गया | 

उनका अंतिम उपदेश था -

हे मानव ! तू स्वयं को पहचान ,स्वयं को

पहचानने के बाद तू ईश्वर को पहचान जाएगा | 


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